Friday, January 29, 2010

4. गांधी, गांधीवाद और गांधीगिरी

महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है गांधी जयन्ती पहले गुज़र चुकी है। गांधी की प्रतिमाओं और उनकी तस्वीरों को पिछली जयन्ती के बाद धोने-पोंछने का यह पहला अवसर आया है। प्रत्येक वर्ष ऐसा ही होता है जयन्ती और पुण्यतिथि के बीच की अवधि में गांधी जी के साथ कोई नहीं होता, कड़वी बात तो यह है कि बचे-खुचे गांधीवादी भी नहीं। गांधी-विचार से जुड़े संस्थानों में एक दिन और उनके नाम, तस्वीर पर माल्यार्पण, उनके भजन का पाठ और औपचारिकता ख़त्म! फिर गांधी जयन्ती तक ख़ामोशी! गांधी जयन्ती का इंतिज़ार भी अब इसलिए रह गया है कि उस दिन से खादी के वस्त्र पर छूट मिलना शुरू होता है विगत कुछ वर्षों में खादी फ़ैशन में आ गया है खादी का चलन अब सिर्फ़ नेताओं तक सीमित नहीं रह गया हाँ, यह ज़रूर है कि गांधी टोपी अब कम नज़र आती है खादी के कपड़े बहुत महँगे होते हैं, जबकि सिंथेटिक कपड़े की क़ीमत कम ऐसे में ग़रीब आदमी खादी कैसे इस्तेमाल में लाए? यह सच है कि खादी या गांधी को आम जीवन से जोड़ना धीरे-धीरे और भी कठिन होता जा रहा है उनके सिद्धांतों में किसी को विश्वास है या नहीं, इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता।  
 
गांधी जी के अपने कुछ सिद्धांत थे, जो उन्होंने ख़ुद पर प्रयोग कर तय किए थे सार्वजनिक हित, अहिंसा, सत्य, करुणा, शाकाहार, सादा जीवन इत्यादि कुछ ऐसे विचार और व्यवहार हैं, जो अब आम जीवन से दूर होते जा रहे हैंइनकी सार्थकता तो आज भी उतनी ही है; परन्तु जिस तरह से समाज की सोच बदली है, अब ज़रूरी है कि गांधीवाद को परिमार्जित किया जाए यानी कि गांधीवाद की व्याख्या नए सन्दर्भों में की जाए आज देश के नेता गांधी के नाम और सिद्धांतो को अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल में ला रहे हैं आम जन गांधी की जीवन शैली को न तो जानता है और न ही उनके सरोकारों से सम्बन्ध स्थापित करने की सोचता है; क्योंकि उसे लगता है कि इस राह पर चलकर ख़ुद को बनाए रखना आज मुश्किल है


मैं गांधीवादी विचारधारा के गुण-दोष की चर्चा नहीं कर रही, न तो पक्ष-विपक्ष की वकालत कर रही हूँ परन्तु कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो मैं बचपन से देखती आई हूँ चूँकि मेरा जीवन उस माहौल में बीता है, तो उन कुछ बातों की चर्चा कर रही हूँ मेरे पिता भागलपुर विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान विभाग में प्रोफ़ेसर थे, गांधीवाद उनके व्याख्यान का मुख्य विषय था गांधी-विचार पर उन्होंने अपना शोध-कार्य भी किया था उनके मृत्युपरान्त उनकी पुस्तक छपी जिसका नाम 'सर्वोदया ऑफ़ गांधी' (Sarvodaya of Gandhi) है मेरे पिता न सिर्फ़ गांधीवाद  पढ़ाते थे, बल्कि उनका जीवन के प्रति दृष्टिकोण गांधीवादी एवं समाजवादी थाइसके साथ वे पक्के नास्तिक थे इस माहौल में गुज़रा मेरा बचपन मेरे पिता के विचार से प्रेरित हुआ, पर जीवन में पूर्णतः उतार पाना मुमकिन न हुआ अब उन विचारों से असहमति या आपत्ति नहीं, परन्तु जिस उम्र में ये सब जीती रही, उस समय लगता था कि यह अच्छा नहीं है 
 
यों मेरे विचार पर मेरे पिता का पूर्ण प्रभाव पड़ा है, जिससे मेरी सोच का दायरा भी बढ़ा है मुझे याद है बचपन में मेरे घर में नियम था कि सभी को अपना काम ख़ुद करना है, अपने खाए हुए बर्तन को ख़ुद धोना है मेरे पिता ख़ुद खादी पहनते थे और मेरी माँ को भी खादी ही पहनना होता था; चाहे कोई भी अवसर हो हम दोनों भाई-बहन के लिए स्कूल ड्रेस के अलावा सिर्फ़ ज़रूरत भर कपड़े ख़रीदे जाते थे राजनीतिक या सामजिक रूप से कोई कितने ही बड़े पद पर हो, मिलने का समय तय था; सिर्फ़ अपने शोधार्थी छात्रों के लिए वे हर वक़्त उपलब्ध थे पिता का अधिकतर समय पढ़ने-पढ़ाने और सामाजिक-राजनितिक कार्यों में बीतता था नाते-रिश्ते में मेरे पिता के जीने के तरीक़े पर आलोचना होती थी; क्योंकि वे जो कहते थे उसे अपने जीवन में उतारते थे, इसलिए आम धार्मिक ख़यालात के लोगों के लिए यह सब नागवार हुआ करता था मेरे पिता का देहान्त वर्ष 1978 में हुआ उम्र के साथ मुझे समझ आया कि उनके विचार उचित व न्यायसंगत थे। आज के सन्दर्भ में मैं सोचती हूँ कि क्या ऐसी जीवन शैली आज की पीढ़ी अपना पाएगी 
 
आज पूरा विश्व आतंकवाद से त्रस्त है हमारे देश में आतंकवाद, अलगाववाद और कट्टरवादी संगठनों की जड़ें इतनी मज़बूत हो चुकी हैं कि तमाम कोशिशों के बाद भी इनपर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है हर इंसान अनहोनी और आतंक के साए में जीवन यापन को विवश है आतंकवाद, अलगाववाद, कट्टरवाद, सम्प्रदायवाद, जातिवाद आदि कितने ही 'वाद' ने जन्म लेकर हमारे देश की आतंरिक व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया है ऐसे में मुझे लगता है कि आज फिर से 'गांधीवाद' को अपनाने की ज़रूरत है गांधीवादी विचारधारा स्वतंत्रतापूर्व जितनी सार्थक थी, आज भी उतनी ही है इसे आज के परिवेश के अनुरूप ढालकर व्यवहार में लाना आवश्यक है आज सत्य, अहिंसा, प्रेम जैसे शब्द हमारे अंतर्मन में भी शामिल नहीं रह गए हैं गांधी सदैव व्यक्ति के मानसिक और आतंरिक सोच को विकसित कर समूल परिवर्तन के पक्षधर थे आज के सन्दर्भ में सिर्फ गांधीवाद सार्थक नहीं होगा, जबतक इसमें आधुनिक समाज में प्रचलित गांधीगिरी को शामिल न किया जाए। मेरे विचार से गांधीवाद, समाजवाद और साम्यवाद का मिश्रित स्वरूप गांधीगिरी है यह कोई मान्य परिभाषा नहीं; बल्कि मेरी अपनी समझ है, जो आज के परिपेक्ष्य में उपयुक्त लगता है


किसी व्यक्ति के नकारात्मक विचार में मनोवैज्ञानिक तरीक़े से सकारात्मक परिवर्तन ही गांधीगिरी है 'गांधीगिरी' शब्द जबरन थोपा या मनवाया गया कोई कार्य-व्यवहार लगता है, परन्तु इसके शब्द स्वरूप पर न जाकर इसे व्यवहार में लाया जाए, तो निश्चित ही विश्व की अधिकांश समस्याएँ स्वतः सुलझ जाएँगीआज लोग अपने दुःख से दुःखी नहीं हैं, बल्कि दूसरों के सुख से ज़्यादा दुःखी हैं अपराध करना जैसे आज मनोरंजन का साधन बन गया है और जीवन यापन का सरल सुगम रास्ता अपराधी को अपने अपराध के लिए शर्मिंदगी भी महसूस नहीं होती हैऐसे में गांधीगिरी के द्वारा मनुष्य में चेतना और जागृति उत्पन्न की जाए, ताकि समाज में जागरूकता आए, तो क्या ग़लत है? जागरूक जनता, प्रशासन, न्यायालय, मनोविश्लेषक, मनोचिकित्सक, पुलिस, नेता आदि एकजुट होकर गांधीगिरी में भागीदार होंगे तभी विध्वंसकारी शक्तियों पर नियंत्रण एवं नज़ात सम्भव है जैसे देश की आज़ादी में गांधीवाद सफल रहा, वैसे ही गांधीगिरी के द्वारा इंसान के मन और चेतना की आज़ादी होगी, जिससे उसमें सही सोच पनपेगी और एक सुनहरे भविष्य को हम देख सकेंगे फिर पूरा विश्व प्रेम और शान्ति से रह सकेगा

-जेन्नी शबनम (29.1.2010)
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Wednesday, January 20, 2010

3. छोटी बात, जात और मैं

लोकसभा की अध्यक्ष मीरा कुमार पर कुछ नेताओं द्वारा की गई जातिसूचक टिप्पणी ने मुझे बहुत दुःख पहुँचाया है। मेरा बीता हुआ कल किसी सिनेमा के फ्लैश बैक की तरह मेरी आँखों के सामने है। मुझे याद आता है जाड़े की दुपहरी का एक ठिठुरता-सा वह दिन जब नर्म धूप खिली थी घर की छत पर मैं गुनगुनी धूप को सज़दा करते हुए चाय की चुस्कियों के साथ कोई पुराना गाना सुन रही थी। कुछ ही देर बीते होंगे कि तक़रीबन 40-45 वर्ष की एक महिला आई और चुपचाप खड़ी हो गई। पूछने पर उसने अपना नाम बताया और कहा ''हम आपके स्कूल-कॉलेज में साफ़-सफ़ाई का काम करते हैं, पर... जाति के नहीं हैं।'' फिर उसने कहा ''हम आपके साथ दिल्ली जाएँगे मेरी जात... है।'' मैंने कहा ''अपना नाम और उम्र मेरे स्टाफ को लिखा दो, टिकट में जाति नहीं लिखना होता है।'' फिर वह काम पर चली गई, और मेरे ज़ेहन में जाति का वह सवाल छोड़ गई, जो अमूमन हर जगह ढूँढा जाता है। शायद रूढ़ियों से हमारे मन में यह बस चुका है और ज़िन्दगी के हर क्षेत्र से जुड़ चुका है। चाहते हुए भी इससे परे कोई नहीं जा पाता है।  
 
मुझे अपना बचपन याद आता है जिसकी गोद में मैं पली थी, वह मेरे गाँव का निम्न जाति का था। हमारे खेत में जो काम करता था, वह भी उसी निम्न जाति का था जब हमलोग गाँव जाते, हम अपने पिता के साथ उसके घर जाते और भैंस का बिना उबला हुआ ताज़ा दूध उसके घर में उसके ग्लास में पीते थे। हालाँकि उन दिनों गाँव में मेरे पिता की आलोचना भी होती रही और काफ़ी लोग उनके इस सोच से सहमत भी होते रहे। जब भी मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो पाती हूँ कि जाति-बिरादरी के इस दुष्चक्र ने हमसे और इस देश की जनता से कितना कुछ छीना है; लेकिन ये सिलसिला कब ख़त्म होगा मैं समझ नहीं पाती हूँ।  
 
मुझे याद है मेरी एक फुफेरी बहन की शादी, जो मेरे पिता ने करवाई थी और शादी मेरे ही घर से हो रही थी, शायद 1974-75 की बात होगी। मेरे पिता गांधीवादी और साम्यवादी विचारधारा के थे उनके एक मित्र के बेटे से बिना दहेज मेरी बहन की शादी हो रही थी। रात में शादी थी और बारात दिन में बुला लिया गया था; क्योंकि गाँव में अँधेरा जल्दी हो जाता है। दिन के भोज में रिश्तेदारों के अलावा बहुत सारे गाँव वाले भी आमंत्रित थेबाराती, रिश्तेदार और गाँव वाले सभी लोग एक साथ खाने के लिए पंक्ति में बैठे थे।अचानक किसी एक रिश्तेदार ने उठकर कहा कि कोई खाना न खाओ, खाना बनाने वाला ... जाति का है। कुछ लोग उठकर चले गए कि धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, नहीं खाएँगे। फिर दीदी के होने वाले ससुर, जो मेरे पिता की सोच और जीवन शैली से बहुत प्रभावित थे, ने कहा ''चाहे जो भी खाना बनाए हम तो खाएँगे, जिसे जाना हो जाए।'' खाना बनाने वाली उसी गाँव की थी चूँकि शादी की बात थी इसलिए गाँव की मानसिकता को सोचकर मेरी दादी ने उसे बुलाया था, जिसका बनाया सभी खा सकें। वह हंगामा उस वक़्त बड़ा मज़ेदार लगा था मुझे। यह समझ नहीं आया था कि जिसका बनाया हुआ हम खाते हैं, सभी लोग खाएँगे तो क्या होगा। बाद में भी मेरे गाँव से निम्न जाति की लड़की काम करने आई। परन्तु मेरे घर में किसी ने नहीं पूछा कि वह काम करने वाली किस जाति की है; क्योंकि मेरे घर आने वालो में सभी मेरे पिता के विचार से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे।  
 
मुझे याद आई मेरी शादी के बाद की एक घटना वर्ष 1992 में मैं दिल्ली में यूनिटेक कंस्ट्रक्शन कम्पनी में लॉ असिस्टेंट (law assistant) के पद पर नौकरी शुरू की थी। पहली तनख़्वाह मिली तो मेरे नाम में मेरे पति का उपनाम (surname) जोड़कर चेक मिला। मैंने पूछा कि मेरे नाम में उपनाम क्यों जोड़ा गया, सभी प्रमाणपत्रों में तो मेरा यही नाम है। मुझे कहा गया कि शादी के बाद अपने-आप जुड़ जाता है, अगर आपको नहीं जोड़ना तो आप शपथ-पत्र (affidavit) दीजिए या समाचारपत्र में प्रकाशित कराइए, तभी उपनाम नहीं जोड़ेंगे। मुझे बेहद ग़ुस्सा आया। मैंने कहा कि किसी क़ानून में नहीं है कि पति का उपनाम जोड़ा जाए, ये महज़ परम्परा है। अंत में मुझे अख़बार में निकलवाना पड़ा कि मेरा नाम यही है और यही रहेगा; तब मुझे तनख़्वाह मिली।  
 
कुछ लोग कहते हैं कि मेरी जाति का पता कैसे चलेगा, जब धर्म का ही पता नहीं चलता है। अक्सर मैं हँस पड़ती हूँ और सोचती हूँ कि लोगों को क्यों फ़र्क़ पड़ता है कि ईश्वर तक पहुँचने के लिए कौन-सा रास्ता कौन अपनाता है या ईश्वर को नहीं मानता है। कोई यह तो किसी के बारे में नहीं पूछता कि अमुक खाना ही क्यों पसन्द है अमुक क्यों नहीं, यह रंग ही क्यों पसन्द है कोई दूसरा क्यों नहीं, यह सिनेमा ही क्यों पसन्द है दूसरा क्यों नहीं, यह कपड़ा ही क्यों पसन्द है कुछ और क्यों नहीं। जबकि यह सब तो हमारे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालते हैं और हमारी पहचान में शामिल हैं।  
 
ग्रामीण परिवेश में छुआछुत की भावना तो अब ज़्यादा न रही, लेकिन जातिवाद और धर्म से जुड़ी मानसिकता गाँव के विघटन के रूप में सामने आ रही है। शहरों में छुपी हुई जातिवाद की भावना दिखती है, जिसका घृणित और विकृत रूप हम अख़बार में पढ़ते हैं; चाहे राजनीति, शादी-विवाह या कोई कर्म-काण्ड हो। वर्ण-व्यवस्था जब क़ायम हुई होगी, तब सामजिक कर्त्तव्यों के निर्वहन की सुविधा को ध्यान में रखा गया होगा। जो जिस क्षेत्र में पारंगत हो, उसे उस हिसाब से उस वर्ण में शामिल किया गया होगा कालान्तर में सब कुछ ऊँच-नीच जाति में बँट गया। जिन कामों में ज़्यादा शारीरिक श्रम वह काम नीचा है, ऐसा क्यों हुआ? कोई तथ्यपूर्ण जवाब नहीं मिलता है मुझे। मेरे अपने विचार से इन सब के जड़ में कहीं-न-कहीं पूँजीवादी व्यवस्था और आधिपत्य बनाए रखने की साजिश थी, जिसका कुपरिणाम आज जाति-भेद का भयंकर और विकराल रूप हम आए दिन देख रहे हैं। हमारे रक्त में जैसे ये ज़हर की तरह घुल गया है। इससे परे अब न इंसान की सोच रह गई है, न उसकी पहचान, न उसका अपना कोई परिचय। धर्म और जाति का सामजिक जीवन से क्या सरोकार? सच कहूँ तो आज तक समझ न आया कि लोगों को इंसान से ज़्यादा उसकी जाति या धर्म में दिलचस्पी क्यों होती है?

-जेन्नी शबनम (20.1.2010)
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