Sunday, June 14, 2020

77. सुशांत अब सदा के लिए शांत हो गया है

जीवन के यथार्थ से जुड़ा एक भावपूर्ण गाना है - ''आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे हैं, एक में भी तन्हा थे सौ में भी अकेले हैं'' इस गाना के बोल आज बार-बार दोहरा रही हूँ सचमुच हम कितने अकेले होते हैं, हज़ारों की भीड़ में भी अकेले हैं; यह सिर्फ़ हमारा मन जानता है कि हम कितने अकेले हैं कोई नहीं जानता कि किसी चेहरे की मुस्कराहट के पीछे कितनी वेदना छुपी होती है कोई ऐसा दर्द होता है जिसे वह दबाए होता है; क्योंकि वह किसी से कह नहीं पाता जब सहन की सीमा ख़त्म हो जाती है फिर वह सदा के लिए ख़ामोश हो जाता है निःसंदेह किसी की मुस्कराहट से उसकी सफलता और सुख का आकलन नहीं कर सकते और न ही भौतिक सुविधा से किसी को सुखी कह सकते हैं।  

सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की ख़बर मन को बहुत बेचैन कर रही है कई सवाल हैं जो मन को परेशान कर रहे हैं एक सफल इंसान जिसे भौतिक सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं, आख़िर मन से इतना अकेला क्यों हुआ, जो उसे जीवन को ख़त्म करना जीने से ज़्यादा सहज मालूम हुआ। नाम, शोहरत, पैसा और सम्मान के होते हुए ऐसी कौन-सी चीज़ की कमी थी उसे? पर कुछ तो ज़रूर है जिसे कोई दूसरा न समझ सकता है, न जान सकता है कितना कठिन रहा होगा वह वक़्त, जब उसने फाँसी के फंदे को गले में डाला होगा मन से कितना टूटा रहा होगा वह मृत्यु से पूर्व निश्चित ही वह चाहता होगा कि कोई हो जिसे वह कुछ कह सके लेकिन चारों तरफ़ इतना अपना कोई न दिखा होगा, जो उसके मन तक पहुँच सके, उसे समझ सके, उसकी मदद कर सके कोई उसके इतने क़रीब होता, तो यों न जाता सुशांत।  

युवा सुशांत एक बहुत उम्दा कलाकार था बिहार का सुशांत बॉलीवुड में एक मक़ाम हासिल कर चुका था। उसने काई पो चे, शुद्ध देसी रोमांस, एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी, पी के, केदारनाथ, छिछोरे आदि कई हिट फ़िल्में की हैं पिछले साल छिछोरे आई थी, जो एक भावनात्मक और सभी उम्र के लोगों के लिए प्रेरक फ़िल्म थी कई सारे धारावाहिकों में वह काम कर चुका है उसे बॉलीवुड में बहुत प्यार मिला कई सारे पुरस्कार और अवार्ड मिले निजी जीवन का तो नहीं पता, लेकिन फ़िल्मी जीवन में एक सफल अभिनेता था सुशांत।  

अक्सर सोचती हूँ कि जीवन का कौन-सा पल कब किस मोड़ पर मुड़ जाए, किस दिशा में ले जाए, किस दशा में पहुँचा दे, कोई नहीं जानता। ज़िन्दगी को जितना समझने, जानने, पकड़ने का प्रयत्न करो उतना ही समझ और पकड़ से दूर चली जाती है ज़िन्दगी के साथ ताल-मेल बिठाकर चलने के लिए साहस की ज़रूरत होती है कितना ही कठिन वक़्त हो अगर एक भी कोई अपना हो, तो हर बाधाओं को पार करने की हिम्मत इंसान जुटा लेता है परन्तु जाने क्यों अब इतना अपना कोई नहीं होता संवेदनाएँ धीरे-धीरे सिमटते-सिमटते मरती जा रही हैं हमारे जीवन से अपनापन ख़त्म हो रहा है हमारे रिश्तों में महज़ औपचारिक-से सम्बन्ध रह गए हैं, जहाँ कोई किसी का हाल पूछ भी ले तो, यों मानो एहसान किया हो अब ऐसे में अकेला पड़ गया आदमी क्या करे? शायद इसीलिए कहते हैं कि ज़िन्दगी से ज़्यादा आराम मौत में है जीवन के बाद का सफ़र कौन जाने कैसा होता होगालेकिन जैसा भी होता हो, जीवन की समस्याएँ जब इख़्तियार से बाहर हो जाती होंगी, तभी कोई इस सुन्दर संसार को अलविदा कहता होगा।  

वर्तमान समय में संवादहीनता और संवेदनहीनता एक बहुत बड़ा कारण है जिससे आदमी अकेला महसूस करता है। अपने अकेलेपन से पार जाने के लिए हमें ही सोचना होगा रिश्ते-नाते या दोस्तों में किसी को तो अपना बनना होगा, जहाँ हम खुलकर सम्वाद स्थापित कर सकें अपनी तक़लीफ़ बताएँ और तक़लीफ़ से उबरने का उपाय कर सकें कोई क्या सोचेगा, यह सोचकर हम बड़े-से-बड़े संकट या परेशानी में ख़ामोश ही नहीं रह जाते, बल्कि अपनी दशा और मनोस्थिति सबसे छुपाते रहते हैं कई बार यही चुप्पी काल बन जाती है संकोच की परिधि से बाहर आकर खुलकर ख़ुद को बताना और जीवन को चुनना होगा। हम जैसे अपनों की परवाह करते हैं वैसे ही हमें अपनी परवाह भी करनी होगी वरना अहंकार, असंवेदनशीलता और भौतिकता के इस दौर में हर कोई अकेले पड़ता जाएगा और न जाने कितने लोग जीवन से इसी तरह पलायन करते रहेंगे।  

बिहार का सुशांत अब सदा के लिए शांत हो गया है। शांति के लिए तुमने जिस पथ को चुना, भले वहाँ पूर्ण शान्ति हो; फिर भी वह उचित नहीं था सुशांत। चाहती हूँ कि तुम जहाँ भी हो, अब ख़ुश रहना। अलविदा सुशांत

- जेन्नी शबनम (14.6.2020) 
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Friday, June 5, 2020

76. बेज़ुबानों की हत्या

महात्मा गांधी ने कहा था कि व्यक्ति अगर हिंसक है, तो वह पशु के समान है मुझे ऐसा लगता है जैसे मानव पशु बन चुका है और पशु मानव से ज़्यादा सभ्य हैं अगर पशुओं को नुक़सान न पहुँचाया जाए, तो वे कुछ नहीं करते हैं पशुओं में न लोभ है, न द्वेष, न ईर्ष्या, न प्रतिकार का भाव, न मान-सम्मान-अपमान की भावना प्रकृति के साथ प्रकृति के बीच सहज जीवन ही पशु की मूल प्रवृत्ति है परन्तु मनुष्य अपनी प्रकृति के बिल्कुल विपरीत हो चुका है मनुष्य की मनुष्यता ख़त्म हो गई है मनुष्य में क्रूरता, पाश्विकता, अधर्म, क्रोध, आक्रोश, निर्दयता का गुण भरता जा रहा है वह पतित, दुराग्रही, पाखंडी, असहिष्णु, पाषाण-हृदयी हो गया है। वह हिंसक ही नहीं कठोर हिंसक व बर्बर बन चुका है।  

आए दिन कोई-न-कोई घटना ऐसी हो जाती है कि मन व्याकुल हो उठता हैकेरल में गर्भवती हथिनी को अनानास में विस्फोटक रखकर खिला दिया गया, जिससे उसकी मौत हो गई अर्थात उसकी हत्या कर दी गई लोगों का कहना है कि खेतों को जंगली सूअर से बचाव के लिए इस तरह मारने की विधि अपनाई जाती है क्या जंगली सूअर जीवित प्राणी नहीं हैं, जिन्हें इतने दर्दनाक तरीक़े से मारा जाता है? अगर हथिनी आबादी वाले क्षेत्र में आ गई थी, तो वन विभाग को पता कैसे न चला? वन विभाग की लापरवाही और आदमी की हिंसक प्रवृत्ति के कारण हथिनी को ऐसी मौत मिलीआख़िर आदमी इतना क्रूर और आतातयी क्यों हो जाता है बेज़ुबानों के साथ? चाहे वह निरीह पशु हो या कमज़ोर जोर इंसान।  

सिर्फ़ इस हथिनी की बात नहीं है ऐसे हज़ारों मामले हैं जब बेज़ुबान पशु पक्षियों के साथ क्रूरता हुई है और लगातार होती रहती है हाथी-दाँत के कारोबारी बड़ी संख्या में हाथियों के साथ क्रूरता करते हैं चमड़ा का व्यवसाय करने वाले उससे सम्बन्धित पशुओं को तड़पा-तड़पाकर मारते हैंगाय, बैल, भैंस को मारकर खाया जाता है और निर्यात भी किया जाता हैसूअर की हत्या बेहद क्रूरता से की जाती है बकरी और मुर्गा की तो गिनती ही नहीं कि हर रोज़ कितने मारे जाते हैं कहीं झटका देकर काटते हैं तो कहीं ज़बह करते हैं
 
महज़ अपने स्वाद के लिए इन पशुओं की हत्या की जाती है कुछ मन्दिरों में बलि के नाम पर पशुओं की हत्या होती है, तो बक़रीद पर बकरियों को क्रूरता से मारा जाता है होली में बकरी का माँस खाना जैसे परम्परा बन चुकी है। मछली को पानी से निकालकर पटक-पटककर मारते हैं या ज़िन्दा ही उसका पकवान बनाते हैं। मछली की हत्या कर उसे खाना कैसे शुभ हो सकता है? यह सब प्रथा और परम्परा के नाम पर होता है और सदियों से हो रहा है। किसी जानवर को मारकर कैसे कोई स्वाद ले सकता है? कैसे किसी जीव की हत्या कर जश्न या त्योहार मनाया जा सकता है?
 
अक्सर मैं सोचती हूँ कि जिन लोगों ने कुत्ता, बिल्ली, गाय, तोता या कोई भी पशु-पक्षी को पालतू बनाया है और उसे ख़ूब प्यार-दुलार देते हैं, वे अन्य जानवरों को कैसे मारकर खाते हैं? किसी जानवर को मारकर उसका मांस अपने पालतू जानवर को खिलाना क्या संवेदनहीनता नहीं? अन्य दूसरे जानवरों की पीड़ा उन्हें महसूस क्यों नहीं होती? अपने पसन्द और स्वाद के अनुसार जानवरों को पालना और मारना, यह कैसी सोच है, कैसी मानसिकता और परम्परा है? 

गर्भिणी हथिनी को लेकर ख़ूब राजनीति हो रही है। निःसन्देह यह मामला बेहद दर्दनाक और अफ़सोसनाक है। परन्तु जैसे हथिनी को लेकर लोगों का आक्रोश है अन्य जानवरों के लिए क्यों नहीं? पशुओं के अधिकार को लेकर आवाज़ उठाने वाले संस्थान, सभी पशुओं के लिए क्यों नहीं आवाज़ उठाते हैं? सभी पशुओं-पक्षियों को मनुष्य की तरह ही जीने का अधिकार है। जंगली जानवर हों या पालतू, सभी को उनकी प्रकृति के अनुरूप जीवन और सुरक्षा मिलनी चाहिए। सभी जंगलों के चारों तरफ़ काफ़ी ऊँचा बाड़ बना दिया जाए, तो इन जंगली जानवरों से आघात की सम्भावना ही न हो। ये बेख़ौफ़ और आज़ाद अपने जंगल में अपनी प्रकृति के साथ रहेंगे। न जानवरों से किसी को भय न जानवरों को मनुष्य का ख़ौफ़।  

अपने से कमज़ोर और ग़ैरों के प्रति दया और करुणा जबतक मनुष्य में नहीं जागेगी, तब तक ऐसे ही निरपराध जानवरों और मनुष्यों की हत्या होती रहेगी। चाहे वह मॉब लिंचिंग में किसी आदमी की हत्या हो या किसी स्त्री को उसके स्त्री होने के कारण हत्या हो। चाहे वह गर्भिणी हथिनी की हत्या हो या बकरी या मुर्गे की हत्या हो। ऐसे हर हत्या को गुनाह मानना होगा और हर गुनाहगार को दण्डित करना होगा।   

- जेन्नी शबनम (5.6.2020)
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