Monday, January 30, 2023

101. मम्मी (दूसरी पुण्यतिथि)

मम्मी को गुज़रे हुए आज 2 वर्ष हो गए। मम्मी अब यादें बन गईं, पर अब भी लगता है जैसे कहीं गई हैं और लौटकर आ जाएँगी। जानती हूँ वे अब कभी नहीं आएँगी। मेरा मानना है कि मृत्यु के बाद सब ख़त्म। न कोई ऐसी दुनिया होती है जहाँ मृतक रहते हैं, न कोई मरकर तारा बनता है, न पुनर्जन्म होता है, न ही कोई आत्मा-परमात्मा हमें देखता है। हाँ, यह सच है कि अगर पुनर्जन्म या आत्मा-परमात्मा पर विश्वास किया जाए तो ख़ुद को सन्तोष और ढाढस मिलता है कि हमारा अपना और हमारा भगवान् हमारे साथ है। पर कमबख़्त मेरा दिमाग वैसा बना ही नहीं, जो इन विश्वासों और आस्थाओं पर यक़ीन करे। 
 
मम्मी जब तक जीवित रहीं, तब तक ही वे हमारे लिए थीं। अब उनका काम, सोच और निशानियाँ शेष हैं जो हमारे साथ है। मम्मी के कपड़े, बैग, चश्मा, चप्पल, छड़ी इत्यादि भागलपुर में मम्मी के अपने मेहनत के पैसे से बनवाए घर में रखा है। घर आज भी वैसे ही फूलों से खिला हुआ है, जैसा मम्मी छोड़ गई। मम्मी का अन्तिम फ़ोन अब मेरे पास है, जिसे छूकर मम्मी के छुअन का एहसास कर लेती हूँ। मम्मी का फ़ोन नम्बर, जिसे अब मैं इस्तेमाल करती हूँ, को अब भी मम्मी के नाम से ही रखा है। मम्मी के उस फ़ोन से अपने दूसरे नम्बर पर कॉल करती हूँ या कोई सन्देश भेजती हूँ, तो लगता है जैसे मम्मी ने किया है। क्षणिक ही सही, पर मेरे लिए जीवित हो जाती हैं मम्मी। 

मैं जानती हूँ मम्मी के कार्य के कारण उनका बहुत विस्तृत सम्पर्क और समाज था। सभी लोग अब भी उन्हें याद करते हैं। परन्तु यह भी सच है समय के साथ सभी लोग धीरे-धीरे उन्हें भूलने लगेंगे। शायद मुझे और मेरे भाई को ही सिर्फ़ याद रह जाएँगी। जिस तरह मेरे पापा का मम्मी से भी बड़ा विस्तृत समाज था, परन्तु अब लोग भूल गए हैं। पापा के कुछ बहुत नज़दीकी मित्र व छात्र ही उन्हें अब भी यादों में रखे हुए हैं। उसी तरह मम्मी भी भुला दी जाएँगी। बस कुछ ही लोगों की यादों में जीवित रहेंगी। 

मम्मी की मृत्यु के बाद सारे संस्कार किये गए। पिछले वर्ष वार्षिक श्राद्ध हुआ। इस साल जब श्राद्ध होना था, तो कुछ लोगों ने कहा कि 'गया' में जाकर मम्मी-पापा के लिए पिण्डदान कर दिया जाए। एक बार बरखी (वार्षिक श्राद्ध) हो गया है, तो अब ज़रूरी नहीं है। गया में भी हो जाए पिण्डदान, क्या फ़र्क पड़ता है। पर मेरे लिए मम्मी का वार्षिक श्राद्ध करना न मज़बूरी है, न धार्मिक भावना। हर वर्ष वार्षिक श्राद्ध होगा, जिसमें पूजा नहीं भोज होगा। साल में एक बार अपने लोग एकत्रित होंगे, मम्मी-पापा और दादी की यादों को जिएँगे। मम्मी के पसन्द का भोजन करेंगे।    

एक दिन मैं सोच रही थी कि सच में ऐसी कोई दुनिया होती, जहाँ मृत्यु के बाद लोग रहने चले जाते; तब तो सच में बहुत अच्छा होता। मम्मी को वहाँ पूरा परिवार मिल जाता। मेरे दादा-दादी, नाना-नानी, मौसा-मौसी, फुआ-फूफा, बड़का बाबूजी-मइया, चाचा-चाची, मामा, पापा और अन्य ढेरों अपने जो छोड़ गए; मम्मी सबसे मिलतीं। क्या मस्ती भरा समय होता। महात्मा गांधी भी वहाँ मिलते, जिनके आदर्श पर पापा-मम्मी चलते रहे। जब गांधी जो को मम्मी बताएँगी कि भागलपुर में 'गांधी पीस फाउण्डेशन' की स्थापना पापा ने की और मम्मी ने उसे चलाया, तो बापू कितने खुश होंगे। यों बापू की पुण्यतिथि पर मम्मी भी इस संसार से विदा हुईं। काश! ऐसी कोई दुनिया होती, जहाँ मृत्यु के बाद सभी अपने मिल जाते

जानती हूँ, ज़िन्दगी उस तरह नहीं मिलती जैसी चाहत होती है। एक दिन किसी ने कहा ''अकेली तुम ही नहीं हो जिसका बाप मरा है।'' हालाँकि मम्मी उस समय जीवित थीं, पर उनको यह नहीं बताया कि किसने ऐसा कहा है; क्योंकि वे मेरी सारी तकलीफ़ बिना मेरे कहे समझती थीं। हाँ, जानती हूँ कि इस संसार में मुझसे ज़्यादा बहुत लोग दुःखी हैं, पर मेरा दुःख इससे कम नहीं होता बल्कि उनका दुःख भी मुझे पीड़ा पहुँचाता है। क्या करूँ, अपने स्वभाव से लाचार हूँ। 
दादी, पापा, मम्मी
कई बार सोचती हूँ कि शायद मैं ज़रूरत से ज़्यादा भावुक या संवेदनशील हूँ। छोटी-छोटी बातें चुभ जाती हैं, तो माता-पिता का गुज़र जाना कितनी पीड़ा देगी। पिता बचपन में चले गए, 14 वर्ष पूर्व दादी चली गईं, माँ दो साल पहले चली गईं; दुःखी होना लाज़िमी है, पर इतना भी नहीं जितना मुझे होता है। पर क्या करूँ? एक मम्मी थीं, जो अपना कष्ट भूलकर मेरे लिए चिन्तित रहती थीं। वे जब भी मुझसे मेरी तबीयत या समस्या पूछतीं, तो मैं नहीं बताती थी। मैं सोचती थी कि वे शारीरिक रूप से बहुत ज़्यादा अस्वस्थ हैं, ऐसे में अपनी समस्या क्यों बताना; भले वे सब समझ जाती थीं। अब मम्मी न रहीं, तो सोचती हूँ कि अब कोई नहीं जो मुझसे पूछेगा- ''तुम कैसी हो, शूगर कितना है, यह मत खाओ, वह मत खाओ...।'' अब कोई नहीं जो मेरा सम्बल बने और कहे कि ''मैं हूँ न, तुम चिन्ता न करो।''  

मम्मी 
*** 
जीवन का दस्तूर   
सबको निभाना होता है   
मरने तक जीना होता है।   
तुम जीवन जीती रही   
संघर्षों से विचलित होती रही   
बच्चों के भविष्य के सपने   
तुम्हारे हर दर्द पर विजयी होते रहे   
पाई-पाई जोड़कर   
हर सपनों को पालती रही   
व्यंग्यबाण से खुदे हर ज़ख़्म पर   
बच्चों की ख़ुशियों के मलहम लगाती रही। 
  
जब आराम का समय आया   
संघर्षों से विराम का समय आया   
तुम्हारे सपनों को किसी की नज़र लग गई   
तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार फिर बिखर गई   
तुम रोती रही, सिसकती रही   
अपनी क़िस्मत को कोसती रही।
   
अपनी संतान की वेदना से   
तुम्हारा मन छिलता रहा   
उन ज़ख़्मों से तुम्हारा तन-मन भरता रहा   
अशक्त तन पर हज़ारों टन की पीड़ा   
घायल मन पर लाखों टन की व्यथा   
सह न सकी यह बोझ   
अंततः तुम हार गई   
संसार से विदा हो गई   
सभी दुःख से मुक्त हो गई।
   
पापा तो बचपन में गुज़र चुके थे   
अब मम्मी भी चली गई   
मुझे अनाथ कर गई   
अब किससे कहूँ कुछ भी   
कहाँ जाऊँ मैं? 
  
तुम थी तो एक कोई घर था   
जिसे कह सकती थी अपना   
जब चाहे आ सकती थी   
चाहे तो जीवन बिता सकती थी   
कोई न कहता-   
निकल जाओ   
इस घर से बाहर जाओ   
तुम्हारी कमाई का नहीं है   
यह घर तुम्हारा नहीं है।
   
मेरी हारी ज़िन्दगी को एक भरोसा था   
मेरी मम्मी है न!  
पर अब?   
तुमसे यह तन, तुम-सा यह तन   
अब तुम्हारी तरह हार रहा है   
मेरा जीवन अब मुझसे भाग रहा है।
   
तुम्हारा घर अब भी मेरा है   
तुम्हारा दिया अब भी एक ओसारा है   
पर तुम नहीं हो, कहीं कोई नहीं है   
तुम्हारी बेटी का अब कुछ नहीं है   
वह सदा के लिए कंगाल हो गई है।
-0-

मम्मी-पापा
महात्मा गांधी की 75वीं पुण्यतिथि और मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि पर मेरा प्रणाम!

-जेन्नी शबनम (30.1.2023)
(मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि)
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