रमेश कुमार सोनी जी द्वारा मेरी पुस्तक 'प्रवासी मन' की समीक्षा:
हाइकु के लश्कर इतिहास रचने निकले
अपने प्रथम हाइकु-संग्रह ‘प्रवासी मन’ में डॉ. जेन्नी शबनम ने बिना किसी उपशीर्षकों के अंतर्गत 1060 हाइकु रचते हुए हाइकु साहित्य में धमाकेदार प्रवेश किया है, जो एक लम्बे समय तक याद रखा जाएगा। हाइकु जगत् में आप विविध संग्रहों, पत्र-पत्रिकाओं में पूर्व से प्रकाशित होते रहीं हैं, इस लिहाज से हाइकु-लेखन में आपका यह अनुभव इस संग्रह में बोलता है। हाइकु के संग्रहों से हिंदी साहित्य इन दिनों अटी पड़ी हैं और हाइकु विधा अब किसी परिचय की मोहताज नहीं रही, यह देश-विदेशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार की पताका फहरा रही है। हाइकु यद्यपि तत्काल शीर्ष पर पहुँचने की विधा नहीं है, अपितु यह किसी क्षण विशेष की अनुभूतियों को / संवेदनाओं को शब्दांकित करने की विधा है। मात्र सत्रह वर्णों में किसी क्षणानुभूति को रचने के लिए एक विशेष साधना की आवश्यकता होती है जो इस संग्रह में परिलक्षित होती है।
हाइकु एक पूर्ण कविता होती है। हाइकु के लिए अब कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है, इसलिए प्रकृति वर्णन से शुरू हुई यह विधा अब अपने आगोश में पूरी दुनिया को समेटना चाहती है। इस संग्रह में बिना किसी लाग-लपेट के बहुत से हाइकु प्रस्तुत हुए हैं जिसे मैं कुछ खण्डों में समेटते हुए उसकी सुन्दरता को आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ, ताकि पाठकों की तन्मयता / तन्द्रा भंग न हो सके और वह अपने आपको इसकी अनुभूतियों से जोड़ सकें। मन किसी के क़ाबू में कहाँ रहता है, इसे वक़्त अपनी उड़ानों के साथ विविध घटनाओं का गवाह बनाने उड़ा ले जाता है।इसका यूँ तो कोई घर नहीं होता, परन्तु लौटता तो यह अपनी पुकार पर ही है, हमारी सोच पर सवारी करने।
लौटता कहाँ / मेरा प्रवासी मन / कोई न घर। - 1
इस वैश्विक दुनिया में जब परिवार सिमटे हुए हैं तथा रिश्ते अपेक्षाओं और ज़रूरतों पर टिके हों, तब ये उपेक्षा ही पाते हैं। जब कच्चे धागों का बंधन सिसकता है, अखरने लगता है, तब इसे निभाने वाले लोग ऐसे रिश्तों से मुँह मोड़ लेते हैं। इन्हीं कारणों से कोई तीसरा उन परिवारों में सेंध लगाकर उनका सब कुछ छीन ले जाता है; इससे जुड़ी अपराधों की ख़बरें इन दिनों आम हो चली हैं। वास्तव में रिश्तों को निभाना हमारी भारतीय परंपरा में परिवारों को सशक्त बनाते हैं। आइए इन हाइकु के साथ अपने घरों में बुजुर्गों का सम्मान करें, माँ की ममता को तोल-मोल न करें और ऐसे ही कई गुम्फित भावों के साथ इन हाइकु से अपना सम्बन्ध जोड़ें-
तौल सके जो / नहीं कोई तराजू / माँ की ममता। - 12
चिड़िया उड़ी / बाबुल की बगिया / सूनी हो गई। - 159
छूटा है देस / चली है परदेस / गौरैया बेटी। - 1012
काठ है रिश्ता / खोखला कर देता / पैसा दीमक। - 405
वृद्ध की लाठी / बस गया विदेश / भूला वो माटी। - 882
रिश्तों की असली दुनिया गाँवों में महसूस की जा सकती है, जहाँ विशुद्धता साँसे लेती हैं, जहाँ निश्छल मन जीवन की संगीत लहरियाँ छेड़तीं हैं। ऐसे ही भावों के साथ नीम की छाँव तले बच्चों से मचलते हाइकु को शहर लूट ले गया है, इसकी कसक देखिए-
खेलते बच्चे / बरगद की छाँव / कभी था गाँव। - 29
कच्ची माटी में / जीवन का संगीत, / गाँव की रीत। - 455
प्रकृति का वर्णन हाइकु का सबसे पसंदीदा विषय सदा से ही रहा है।इसके तहत आपने जो हाइकु रचे हैं, उन्हें पढ़ने से यह एहसास हो जाता है कि आपने प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित किया है, इसकी अनुभूतियों को गहराई तक अनुभूत किया है। मौसम यद्यपि इन दिनों मानवीय गतिविधियों के चलते प्रदूषण का चोला पहने दुखदायी हो चले हैं फिर भी आपने इसकी सुन्दरता को उकेरा है। इन हाइकु में कहीं लहरें नाग हैं, जो फुफकारती तो हैं पर काटती नहीं हैं, शाल इतराते हैं, सागर नाचते हैं... और प्रश्न भी है कि अमावस का चाँद कैसा होगा? -
धरती रँगी / सूरज नटखट / गुलाल फेंके। - 182
धरती ओढ़े / बादलों की छतरी / सूरज छुपा। - 49
स्वेटर-शाल / मन में इतराए / जाड़ा जो आए। - 150
बेचैनी बढ़ी / चाँद पूरा जो उगा / सागर नाचा। - 475
नहीं दिखता / अमावस का चाँद, / वो कैसा होगा? - 529
हरी ओढ़नी / भौतिकता ने छीनी / प्रकृति नग्न। - 935
आइए आम्र मंजरियों के बीच झुरमुट में छिपे अपनी पसंद के आम पर निशाना लगाएँ, कोहरे की ललकार सुनें, रजाई में दुबके हुए सपने की कान उमेंठकर बाहर निकालें और खीरे के मचानों पर झुलने को निहारें, वाकई इनमें बिल्कुल ही नयापन है। ऐसे हाइकु स्वागत योग्य हैं-
मुँह तो दिखा - / कोहरा ललकारे, / सूरज छुपा। - 684
नींद से भागे / रजाई में दुबके / ठंडे सपने। - 682
खीरा-ककड़ी / लत्तर पे लटके / गर्मी के दोस्त। - 786
आम की टोली / झुरमुट में छुपी / गप्पें हाँकती। - 793
भारतीय परंपरा और जीवन-संस्कृति में पर्वों और त्योहारों का अद्भुत उत्साह हम सब ने अनुभव किया है। इसके साथ ही अपने आपको ढाला है चाहे दीवाली हो, होली हो या रक्षाबंधन हो, हम सबकी उम्मीदों में इसने हमारे बचपन को जीवित रखा है। हमें वो दिन भी याद है जब हम अपने दोस्तों के साथ अपनी कलाई में बँधी राखियों की अधिक संख्या को लेकर इतराते थे, नये वस्त्रों को पहनकर गलियों में फुदकते थे और इन सबके साथ हमारे घर-मोहल्ले का सीना चौड़ा हो जाता था। आइए इन हाइकु के साथ दीवाली का दीया जलाएँ, होली खेलें और अपनी बहनों की रक्षा का संकल्प लें-
दीया के संग / घर-अँगना जागे / दिवाली रात। - 61
घूँघट काढ़े / धरती इठलाती / दीया जलाती। - 333
फगुआ मन / अंग-अंग में रंग / होली आई रे। - 73
रंग अबीर / तन को रँगे, पर / मन फ़क़ीर। - 705
सावन आया / पीहर में रौनक / उमड़ पड़ी। - 88
किसको बाँधे / हैं सारे नाते झूठे / राखी भी सोचे। - 291
इस चार दिन की ज़िन्दगी के विविध पड़ावों से होकर गुज़रते हुए हम सभी ने अपने-अपने सुख-दुःख में अपने बाल सफ़ेद किया है, यही हमारी पूँजी है। दर्द एक अतिथि जैसा है, जो मन की देहरी पर टिका ही रहता है, तो कभी वह पिया के घर आने पर फुर्र से उड़ भी जाता है। उम्र की भट्टी में अनुभवों के भुट्टे पकाते हुए आपने ये हाइकु रचे हैं। वाक़ई इस पुरुषवादी युग में स्त्रियों को संघर्षों के साथ जीना होता है, इसलिए ही आपके ये हाइकु इन दृश्यों को शब्दांकित करने से नहीं हिचके हैं-
हवन हुई / बादलों तक गई / ज़िन्दगी धुआँ । - 316
रोज़ सोचती / बदलेगी क़िस्मत / हारी औरत। - 394
छुप न सका / आँखों ने चुगली की / दर्द है दिखा। - 589
इस दुनिया में भूख की एक बड़ी खाई है, जहाँ पैसों की भाषाएँ समझी जाती हैं, तब हमारी क़लम इस पर यह लिखती है कि पैसों के पीछे चक्का लगाकर भागती दुनिया एक चोर है जो हम सबके मन की शांति चुरा ले गया है।
मन की शांति / लूटकर ले गया / पैसा लुटेरा। - 409
दुःख की रोटी / भरपेट है खाई / फिर भी बची। - 859
इन दिनों मुंडे-मुंडे मत्तरभिन्ना के कारण विडम्बनाएँ सर उठाकर दंगल मचा रही हैं, जिसकी बानगी लिए ये हाइकु आपको अपने साथ इन दृश्यों की यात्रा पर ले जाने हेतु सक्षम हैं। वाक़ई घूरती नज़रों के लिए इस समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। कृषकों की आत्महत्या का कारण और बेटियों का दर्द समझने का कोई फार्मूला हमें खोजना ही होगा।
घूरती रही / ललचाई नज़रें / शर्म से गड़ी। - 177
बावरी चिड़ी / ग़ैरों में वह ढूँढती / अपनापन। - 163
रंग भी बँटा / हरा व केसरिया / देश के साथ। - 651
किसान हारे / ख़ुदकुशी करते, / बेबस सारे। - 731
सदैव से ही प्रेम हम सबके लिए शाश्वत रूप में हम सबके जीवन में रहा है, चाहे वह रिश्तों के रूप में हो या मानवता के नाते हो, इसी के कारण यह दुनिया सुन्दर और गतिशील है। इस पर जितना भी लिखा जाएगा वह नया ही होगा और उसका स्वागत किया जाना चाहिए; क्योंकि प्रत्येक की प्रस्तुति का ढंग पृथक होता है। आइए इन हाइकु के साथ अपने प्रियतम की राह निहारें, उनकी झील-सी गहरी आँखों में अपनी छवि देखें, तो कभी उनकी गुलमोहर-सी झरती सुर्ख़ गुलाबी हँसी के साथ अपने प्यार को चहकने दें-
उसकी हँसी - / झरे गुलमोहर / सुर्ख़ गुलाबी। - 222
ख़त है आया / सन्नाटे के नाम से, / चुप्पी ने भेजा। - 238
प्रीत की भाषा, / उसकी परिभाषा / प्रीत ही जाने। - 339
गहरी झील / आँखों में है बसती / उतरो ज़रा।- 890
बड़ी लजाती / अँखिया भोली-भाली / मीत को देख। - 893
इस संग्रह के अनमोल हाइकु चुनकर इस खंड में मैंने आपके लिए सहेजा है, इनका आनन्द अवश्य लें क्योंकि ऐसे दृश्यों का ऐसा शब्दांकन सदियों में कभी-कभी ही होता है। ऐसे ही हाइकु के लिए कहा गया है कि एक हाइकु रच लिया तो वह वास्तविक हाइकुकार है। चीटियों को सबने देखा, फूलों को खिलते सबने देखा, वर्षा में सब भीगे लेकिन जो आपने देखा वह आपका अलग दृष्टिकोण है। आइए गहने पहने हुए फसलों के साथ थोड़ा मुस्कुरा लें-
लेकर चली / चींटियों की क़तार / मीठा पहाड़। - 421
गगन हँसा / बेपरवाह धूप / साँझ से हारी। - 951
फूल यूँ खिले, / गलबहियाँ डाले / बैठे हों बच्चे। - 1019
अम्बर रोया, / मानो बच्चे से छिना / प्यारा खिलौना। - 1020
फसलें हँसी, / ज्यों धरा ने पहना / ढेरों गहना। - 1022
आपके हाइकु का लश्कर आपकी अनुभूतियों का ख़ज़ाना लिए प्रकट हुए हैं। वाक़ई ये हिंदी साहित्य की एक अनमोल धरोहर है। आपने इसे उकेरने में क्षेत्रीय शब्दों का जो तड़का लगाया है, वो आपके हाइकु को सशक्त बनाते हैं। कहीं-कहीं बिल्कुल ही नए दृश्यों को शब्दांकित करने में आप क़ामयाब हुई हैं, जो इस संग्रह की सुन्दरता को बढ़ाती है। नवदृश्यों को उकेरने का सद्प्रयास और समर्पण आपके इन हाइकु के तेवर को सदैव युवा बनाए रखेंगे। इस संग्रह ने सर्वाधिक हाइकु किसी एकल संग्रह में होने का अनोखा रिकॉर्ड बनाया है।
इस संग्रह ‘प्रवासी मन’ की बधाई और शुभकामनाएँ!
रमेश कुमार सोनी
LIG 24, फेस- 2
कबीर नगर
रायपुर, छत्तीसगढ़
संपर्क - 7049355476 / 9424220209
Email - rksoni1111@gmail.com
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'प्रवासी मन' हाइकु-संग्रह : डॉ.जेन्नी शबनम
प्रकाशक- अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली, सन- 2021, पृष्ठ- 120, मूल्य- 240/-Rs.
ISBN NO. - 978-9389999-66-2
शुभकामनाएँ- डॉ.सुधा गुप्ता
भूमिका- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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