Thursday, August 20, 2015

52. सावन में बरसाती टोटके


बरसात का मौसम, सावन-भादो का महीना और ऐसे में बारिश। चारों तरफ़ हरियाली, बाग़ों में बहार, मन में उमंग, जाने क्या है इस मौसम में। रिमझिम बरसात! अहा! मन भींगने को करता है। बरसात के मौसम में उत्तर भारत में कजरी गाने की परम्परा रही है। 

सावन ऐ सखी सगरो सुहावन 
रिमझिम बरसेला मेघ रे 
सबके बलमउआ त आबेला घरवा 
हमरो बलम परदेस रे  

सावन के महीने में कई-कई दिन लगातार बारिश हो, सूर्य कई दिनों तक नहीं दिखे तो इसे कहते हैं झपसी (लगातार मूसलाधार वर्षा) लगना।शहरी जीवन में ऐसे मौसम में लोग चाय के साथ पकौड़ी खाना, लिट्टी चोखा खाना, लॉन्ग ड्राइव पर जाना, पसन्दीदा पुस्तक पढ़ना या गीत सुनना आदि पसन्द करते हैं। ग्रामीण परिवेश में यह सब बदल जाता है। यों अब पहले की तरह गाँव नहीं रहे, अतः काफ़ी कुछ शहरों का देखा-देखी होने लगा है।पहले चूल्हा में लकड़ी ईंधन के रूप में प्रयुक्त होता था, अतः बरसात में मेघौनी लगते ही जरना (लकड़ी) एकत्रित कर लिया जाता है। बूँदा-बाँदी में भी खेती के सारे काम होते हैं; क्योंकि इसमें नियत समय पर सब कुछ करना है। पशु-पक्षी की देखभाल, उनके चारा का इंतिज़ाम आदि सब पहले से कर लेना होता है। बाज़ार-हाट का काम और खेती का काम भींगते हुए करना होता है। गाँव में कभी भी कोई असुविधा महसूस नहीं होती है। जब जो है उसमें ही जीवन को भरपूर जिया जाता है।  

यों तो परम्पराएँ गाँव हो या शहर दोनों जगह के लिए बनी हुई हैं, लेकिन कुछ परम्पराएँ गाँवों तक सिमट गई हैं। गाँवों में जब मूसलाधार बारिश हो और पानी बरसते हुए कई दिन निकल जाए, तो एक तरह का टोटका किया जाता है, जिससे बारिश बंद हो और उबेर (बारिश बंद होकर सूरज निकालना) हो जाए।   

बिहार के सीतामढ़ी ज़िले में झपसी लगने पर एक अनोखी परम्परा है। कपड़े का दो पुतला (गुड्डा-गुड़िया) बनाते हैं, एक भाहो (छोटे भाई की पत्नी) और एक भैंसुर (पति का बड़ा भाई)। दोनों को छप्पर (छत) पर एक साथ रख देते हैं। फिर अक्षत और फूल चढ़ाकर पूजा की जाती है। मान्यता है कि भाहो और भैंसुर का सम्बन्ध ऐसा है, जिसमें दूरी अनिवार्य है। इसलिए भाहो-भैंसुर का एक साथ होना और पानी में भींगना बहुत बड़ा पाप और अन्याय है। अतः भगवान इस अन्याय को देखें और पानी बरसाना बंद करें। इस गुड्डा-गुड़िया को बनाकर वही लड़की पूजा करती है, जिसको एक भाई होता है। 

इससे मिलती-जुलती ही बिहार के छपरा ज़िला की परम्परा है। इस टोटका में कपड़े से कनिया और दूल्हा (पति और पत्नी) बनाते हैं। फिर दूल्हा के कंधा पर एक गमछा (तौलिया) रख दिया जाता है, जिसके एक छोर में खिचड़ी का सामान बाँध दिया जाता है। एक छोटा ईंट रखकर उस पर एक दीया जला देते हैं और उससे सटाकर कनिया व दूल्हा को खड़ा कर दिया जाता है। कनिया और दूल्हा भगवान से कहते हैं कि हमें परदेस जाना है, दिन-रात पानी बरस रहा है, चारों तरफ़ अन्हरिया (अँधेरा) है, हे भगवान! उबेर कीजिए, जिससे हमलोग खाना बनाकर खाएँ और फिर परदेस जाएँ ताकि कमा सकें। मान्यता है कि जिस बच्ची का जन्म ननिहाल में होता है, वही यह गुड्डा-गुड़िया बनाती है और पूजा करती है। 

अब इन टोटकों से क्या होता है यह तो नहीं पता, लेकिन सुना है कि टोटका करने के बाद पानी बरसना बंद होकर उबेर हो जाता है; भले थोड़ी देर के लिए सही। टोटका कहें, मान्यता या मन बहलाव का साधन, गाँव के लोग हर परिस्थिति का सामना अपने-अपने तरीक़े से करते हैं। प्रकृति के हर नियम के साथ ताल-मेल मिलाकर जीते हैं। यह सब होता है या नहीं, यह तो मालूम नहीं; लेकिन है बड़ा अनूठा और दिलचस्प टोटका।  

-  जेन्नी शबनम (20.8.2015)
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21 comments:

Kailash Sharma said...

बहुत रोचक जानकारी...पुराने समय में सभी समस्याओं के लिए कुछ न कुछ टोटके हुआ करते थे जिनको धीरे धीरे लोग भूलते जा रहे हैं...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (22-08-2015) को "बौखलाने से कुछ नहीं होता है" (चर्चा अंक-2075) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

JEEWANTIPS said...

सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

टोटका नहीं .....खाली दुकानदार का बटखरा तौलने जैसा है यह ।

बरसाती टोटके लिखकर, मालूम है आपने क्या किया है ?
आपने किताब के पन्नों में दबे बरसों पुराने मौलश्री के फूलों को निकालकर बिखेर दिया है ...इन दबे-मुड़े सूखे फूलों की बसी हुयी ख़ुश्बू मेरे अंतस में भीतर तक समाती चली जा रही है । गाँव के दृष्यों को उनकी असली ख़ुश्बू के साथ परोसने के लिये "धन्यवाद" एक बहुत मामूली सा शब्द है । बस ! इतना कहूँगा ... "पाँव परतानी जीनी दिदिया !"

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

आप चुमुक की तरह बीते क्षणों को वर्तमान में खींच लाने में माहिर हैं । हमारे जैसे लोगों के लिये यह किसी संजीवनी से कम नहीं हुआ करता । आपके शांतिनिकेतन वाले किस्से, भागलपुर के यतीमख़ाने के किस्से अभी भी मेरी स्मृति में जीवंत हैं .......। आपसे इसीलिये शिकायत भी है ..... कई बार लम्बी डुबकी लगा जाती हैं आप !

sonal said...

meri daadi gudiya ulti taang deti thi baarish rokne ke liye,yaa ghar ki sabse boodhi aurat binaa kapdon ke chhat par jaati thi

Kailash Sharma said...

बहुत रोचक जानकारी...वैसे देश के सभी हिस्सों में बारिस रोकने के लिए अलग अलग टोटके अपनाये जाते हैं....

विभा रानी श्रीवास्तव said...

जिसका जन्म ननिहाल में हुआ हो वो आँगन में दीया जलाये तो भी बारिश रुकने का टोटका मानते हैं बिहार में

ashok andrey said...

आपने बहुत अच्छी कथा से अवगत कराया है.ऐसी कथाओं से शहरी लोग अपरचित ही हैं.उन्हें तो न सावन का पता चलता है और न ही बारिश में भीगने का आनंद.
मुझे पता है आज भी गाँवों तथा छोटे कस्बों में हर मौसम को किस तरह आनंदित हो मस्ती भरे गीत गाते हुए झूमने लगते हैं.उन्हें करीब से देखना अच्छा लगता है.
इतनी खुबसूरत कथा से परिचय करवाया है आपने, इसके लिए आभारी हूँ.
अशोक आंद्रे

डॉ. जेन्नी शबनम said...

from: Pran Sharma
to: "डॉ. जेन्नी शबनम"
date: Thu, Aug 20, 2015 at 10:32 PM
subject: Re: [साझा संसार] 52. सावन में बरसाती टोटके
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आपकी सराहनीय प्रतिक्रिया और आशीर्वाद से अभिभूत हूँ. आपका हार्दिक आभार प्राण शर्मा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Rameshwar Kamboj
to: jenny shabnam
date: Fri, Aug 21, 2015 at 8:06 AM
subject: Re: [साझा संसार] 52. सावन में बरसाती टोटके
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भैया, आपका स्नेह और आशीष यूँ ही सदैव मिलता रहे, यही आकांक्षा है. बहुत बहुत आभार आपका.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

from: hiren k.ram
to: "डॉ. जेन्नी शबनम"
date: Fri, Aug 21, 2015 at 11:07 AM
subject: Re: [साझा संसार] 52. सावन में बरसाती टोटके

आपने बहुत अच्छी कथा से अवगत कराया है.ऐसी कथाओं से शहरी लोग अपरचित ही हैं.उन्हें तो न सावन का पता चलता है और न ही बारिश में भीगने का आनंद.
मुझे पता है आज भी गाँवों तथा छोटे कस्बों में हर मौसम को किस तरह आनंदित हो मस्ती भरे गीत गाते हुए झूमने लगते हैं.उन्हें करीब से देखना अच्छा लगता है.
इतनी खुबसूरत कथा से परिचय करवाया है आपने, इसके लिए आभारी हूँ.
अशोक आंद्रे
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अशोक आंद्रे जी, गाँव और कस्बों का जीवन प्रकृति के बहुत करीब है. रोज़मर्रा का जीवन हो या परम्परा सब कुछ प्रकृति के अनुसार ही चलता है. किस्से, कहानी, कहावत, टोटके आदि ग्रामीण जीवन का अंग है. हम शहरवासी अपने अपने घरों में बंद न मौसम का आनंद लेते हैं न जीवन का. सचमुच गाँव का जीवन अपनी तरफ खींचता है.
आपकी सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए बहुत धन्यवाद. मुझपर यूँ ही अपना आशीष बनायें रखें. आभार.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger Kailash Sharma said...
बहुत रोचक जानकारी...पुराने समय में सभी समस्याओं के लिए कुछ न कुछ टोटके हुआ करते थे जिनको धीरे धीरे लोग भूलते जा रहे हैं...

Blogger Kailash Sharma said...
बहुत रोचक जानकारी...वैसे देश के सभी हिस्सों में बारिस रोकने के लिए अलग अलग टोटके अपनाये जाते हैं....
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पुराने ज़माने के टोटके भले ही कारगर न हों लेकिन लोगों को आपस में जोड़ कर रखते थे. इन सबके विस्मृत होने से आपसी दूरी भी बढ़ गई है. आपके विचारों के लिए बहुत आभार कैलाश जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (22-08-2015) को "बौखलाने से कुछ नहीं होता है" (चर्चा अंक-2075) पर भी होगी।
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बहुत बहुत आभार रूपचन्द्र शास्त्री जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

JEEWANTIPS said...
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
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आपका शुक्रिया.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

डॉ. कौशलेन्द्रम said...
टोटका नहीं .....खाली दुकानदार का बटखरा तौलने जैसा है यह ।

बरसाती टोटके लिखकर, मालूम है आपने क्या किया है ?
आपने किताब के पन्नों में दबे बरसों पुराने मौलश्री के फूलों को निकालकर बिखेर दिया है ...इन दबे-मुड़े सूखे फूलों की बसी हुयी ख़ुश्बू मेरे अंतस में भीतर तक समाती चली जा रही है । गाँव के दृष्यों को उनकी असली ख़ुश्बू के साथ परोसने के लिये "धन्यवाद" एक बहुत मामूली सा शब्द है । बस ! इतना कहूँगा ... "पाँव परतानी जीनी दिदिया !"

डॉ. कौशलेन्द्रम said...
आप चुमुक की तरह बीते क्षणों को वर्तमान में खींच लाने में माहिर हैं । हमारे जैसे लोगों के लिये यह किसी संजीवनी से कम नहीं हुआ करता । आपके शांतिनिकेतन वाले किस्से, भागलपुर के यतीमख़ाने के किस्से अभी भी मेरी स्मृति में जीवंत हैं .......। आपसे इसीलिये शिकायत भी है ..... कई बार लम्बी डुबकी लगा जाती हैं आप !
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आदरणीय कौशलेन्द्र जी,
गोड़ लागी ले डाक्टर भाई जी.
मेरे लेख पर आपके भाव और भावना से मन अत्यंत प्रसन्न है. ये टोटके किस्से के रूप में मेरी माँ और उनकी मित्र से सुना है, जिन्हें वे कभी किया करती थीं. अब उनके लिए भी यह सब किस्सा ही है जो किताब में दबे मौलश्री के फूलों की तरह उनकी यादों में रह गया है.
हाँ, सच है, काफी दिनों तक गायब हो जाती हूँ लेकिन लौट आती हूँ यादों को फिर से जीने के लिए. आपने मेरे पुराने लेखों को याद रखा यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है. कोशिश करूँगी कि लेखन में निरंतरता बनाये रखूँ. स्नेहाशीष के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Sonal Rastogi said...
meri daadi gudiya ulti taang deti thi baarish rokne ke liye,yaa ghar ki sabse boodhi aurat binaa kapdon ke chhat par jaati thi
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विभिन्न प्रान्तों की पुरानी प्रथाएँ बहुत मज़ेदार हुआ करती थी. यह सब सुनना बड़ा अच्छा लगता है. धन्यवाद सोनल.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

vibha rani Shrivastava said...
जिसका जन्म ननिहाल में हुआ हो वो आँगन में दीया जलाये तो भी बारिश रुकने का टोटका मानते हैं बिहार में
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विभा जी, हर प्रांत में अलग अलग टोटका है. एक और जानने को मिला, बहुत धन्यवाद.

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

उम्दा भावाभिव्यक्ति....यह सब सुनना बड़ा अच्छा लगता है

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Surendra shukla" Bhramar"5 said...
उम्दा भावाभिव्यक्ति....यह सब सुनना बड़ा अच्छा लगता है

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बहुत आभार सुरेन्द्र शुक्ला जी.

Rakesh Kumar said...

बहुत ही सुन्दर रोचक और उम्दा प्रस्तुति.

आभार