Wednesday, November 16, 2011

31. कल सुनना मुझे

ज़िन्दगी जाने किन-किन राहों से गुज़री, कितने चौक-चौराहों पर ठिठकी, कभी पगडण्डी कभी कच्ची तो कभी सख़्त राहों से गुज़रीI ज़ेहन में न जाने कितनी यादें हैं, जो समय-समय पर हँसाती हैं, रुलाती हैं, तो कभी-कभी गुदगुदाती भी हैंI उम्र के हर पड़ाव पर जब भी पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो ज़िन्दगी बहुत दूर नज़र आती हैI यों लगता है जैसे वह लड़की मैं नहीं हूँ, जिसके अतीत से मेरी यादें और मैं जुड़ी हूँI  
 
बिहार के भागलपुर के नया बाज़ार मोहल्ले में हमलोग किराए के जिस मकान में रहते थे, वह एक ज़मींदार का बहुत बड़ी कोठी है जो यमुना कोठी के नाम से प्रसिद्ध हैI उस मकान का पूरा प्रथम तल हमलोगों ने किराए पर लिया थाI ख़ूब बड़ा-बड़ा 4 छत, 6 कमरे, ख़ूब बड़ा बरामदाI बरामदे में लोहे के कई पाया (Pillar), जिसे पकड़कर गोल-गोल घूमना मेरा हर दिन का खेल थाI उस मकान के नीचे के हिस्से में अलग-अलग कई किराएदार थेI सभी से हमारे बहुत आत्मीय सम्बन्ध रहेI 
 
मुझे याद है जब मैं दो साल की थी एक किराएदार की शादी हुईI न जाने कैसे उस उम्र में हुई यह शादी मुझे अच्छी तरह याद है; जबकि सभी कहते हैं कि इस उम्र की बातें याद नहीं रहती हैंI जिनकी शादी हुई उनको मैं चाचा कहती थी और उनकी पत्नी मुझे इतनी अच्छी लगीं कि मैं उन्हें मम्मी कहने लगीI जब थोड़ी और बड़ी हुई तब उन्हें चाची जी कहने लगीI सरोज चाचा से बड़े वाले भाई को ताऊ जी और उनकी बड़ी बहन को बुआ जी कहती थीI बचपन में मुझे समझ नहीं था कि ये लोग मेरे सगे चाचा-चाची या ताऊ-बुआ नहीं हैंI स्कूल से आते ही पहले उनके घर जाती फिर अपने घरI छुट्टी के दिनों में उनके साथ ख़ूब खेलती थीI मिट्टी का छोटा चूल्हा, खाना बनाने के छोटे-छोटे बर्तन, छोलनी-कलछुल, चकला-बेलना, तावा, चिमटा, छोटा सूप (चावल साफ़ करने के लिए), छोटी बाल्टी आदि सभी कुछ मेरे पास थाI उन दिनों कोयला और गोइठा (गाय-भैंस के गोबर से बना उपला) को चूल्हा में जलाकर खाना बनाया जाता थाI मेरे छोटे चूल्हे में बिन्दु चाची ताव (चूल्हा जलाना) देती थींI फिर छोटे-छोटे पतीले में भात (चावल), दाल, तरकारी (सब्ज़ी) या कभी खिचड़ी बनाती थींI बड़ा मज़े का दिन होता थाI मेरे पिता रोज़ 12 बजे यूनिवर्सिटी जाते थे, मेरी माँ अक्सर सामाजिक कार्य से बाहर रहती थीं और मैं बिन्दु चाची के साथ ख़ूब खेलती थीI सभी बच्चे उनसे हिले-मिले थेI  
 
इस जन्मदिन के मौक़े पर बचपन का एक जन्मदिन याद आ रहा हैI यह तो याद नहीं कि उस समय मेरी उम्र क्या थी, शायद 5-6 वर्ष की रही होऊँगीI मेरे घर में जन्मदिन पर केक काटने का रिवाज नहीं था और न ही आज की तरह कोई पार्टी होती थीI चाहे मेरा जन्मदिन हो या मेरे भाई का, घर में बहुत बड़ा भोज होता था, जिसमें पिता के भागलपुर विश्वविद्यालय में कार्यरत सहकर्मी शिक्षक, कर्मचारी, विभागाध्यक्ष, मेरे माता-पिता के मित्र और स्थानीय रिश्तेदार आमंत्रित होते थेI पुलाव, दाल, तरकारी, खीर, दल-पूरी (दाल भरी हुई पूरी) बनती थीI दो फीट चौड़ी ख़ूब लम्बी-लम्बी चटाई ज़मीन पर बिछाई जाती थी, जिसे पटिया कहते हैंI उस पर पंक्तिबद्ध बैठकर सभी लोग खाना खाते थेI उपहार लाने की सभी को मनाही होती थी, फिर भी कुछ लोग उपहार ले ही आते थेI मुझे याद है ताऊ जी (किराएदार) ने एक खिलौना दिया, जो गोल लोहे का था और तार बाँधकर उसपर उसे चलाते थेI वह मुझे बड़ा प्रिय थाI मेरे भाई के जन्मदिन पर किसी ने घर बनाने का प्लास्टिक का अलग-अलग रंग और आकार का ईंट (Blocks) दिया था, जिससे घर बनाना बड़ा अच्छा लगता थाI अक्सर मैं अपने भाई के साथ घर बनाने का खेल खेलती थीI  
 
पिता के देहान्त के बाद भी जन्मदिन मनाती रही; लेकिन वह जश्न, धूमधाम और भोज का आयोजन बंद हो गयाI मेरे हर जन्मदिन पर मेरी दादी मेरे पापा को यादकर रोती थी, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद उतने पैसे नहीं थे और पापा के समय के सभी अपने भी बेगाने हो गए थेI दादी कहती थीं ''बउआ रहते तो कितना धूमधाम से जन्मदिन मनातेI'' मेरी दादी मेरे पापा को बउआ और मम्मी को दुल्हिन बुलाती थीI स्कूल और कॉलेज के दिनों में मेरी किसी से बहुत मित्रता नहीं थी, अतः कोई मित्र नहीं आती थीI स्कूल के दिनों में बहुत ख़ास कोई सिनेमा दिखाने पापा ले जाते थेI जब कॉलेज गई तो हमारे मकान मालिक की बहन के साथ ख़ूब सिनेमा देखती थी और बाद में सिनेमा देखना मेरा शौक़ बन गयाI अपने जन्मदिन पर मम्मी के साथ सिनेमा देखना जैसे मेरा नियम-सा बन गयाI दिन में सिनेमा देखती और रात के खाना पर मम्मी के स्कूल के कुछ सहकर्मी और मित्र आ जाते थेI और बस जन्मदिन ख़त्म!  
 
एक जन्मदिन (1986) पर मेरी एक ज़िद मुझे अब तक याद हैI हमारे पारिवारिक मित्र डॉ.पवन कुमार अग्रवाल, भागलपुर मेडिकल कॉलेज में प्रोफ़ेसर और सर्जन तथा मेरे पिता तुल्य थे, एक जन्मदिन पर उन्होंने एक कैसेट उपहारस्वरूप दियाI उन्होंने कहा कि जो भी गाना चाहिए वे रिकॉर्ड करवा देंगेI ''कितने पास कितने दूर'' फ़िल्म का एक गाना ''मेरे महबूब शायद आज कुछ नाराज़ हैं मुझसे'' मेरा प्रिय गाना था; लेकिन यह नहीं मालूम था कि यह किस फ़िल्म का गाना हैI कुछ गाना के साथ यह गाना भी मैंने उनसे कहा कि रिकॉर्ड करवा देंI चूकि फ़िल्म का नाम मालूम नहीं था, तो गाना ढूँढ पाना कठिन था, और मेरी ज़िद कि वह गाना चाहिए ही चाहिएI मैं शुरू की ज़िद्दी! अपने पिता के बाद एक मात्र वही थे जिनसे मैं बहुत सारी ज़िद करती और वे पूरी करते थे; क्योंकि अपनी बेटी की तरह मानते थे मुझेI ख़ैर वह गाना कई दिन के मशक्क़त के बाद उन्हें मिल पाया और मेरी ख़्वाहिश पूरी हुईI  
 
अब भी सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक़ हैI कई जन्मदिन ऐसा आया जब मेरे पति शहर से बाहर रहेI बच्चों के स्कूल जाने के बाद मैं अकेली सिनेमा देखने चली जाती थीI अपने लिए अपने पसन्द का उपहार ख़ुद ख़रीदना और ख़ुद को देना अब भी मुझे पसन्द हैI  
 
बचपन में मुझे हर जन्मदिन में और बड़े होने का उत्साह होता था, जैसे अब मेरे बच्चों को होता हैI लेकिन अब न उत्साह बचा न उमंगI ज़िन्दगी का सफ़र जारी है, जन्मदिन आता है चला जाता हैI कभी मैं अकेली अपना जन्मदिन मनाती हूँ, तो कभी पार्टी होती हैI 
 
आज भागलपुर में हूँI रात की पार्टी की तैयारी चल रही हैI संगीत की धुन सुनाई पड़ रही हैI काफ़ी सारे लोग आने वाले हैंI मेरी बेटी ख़ुशी ने सुबह से धमाल मचाया हुआ हैI बेटा सिद्धांत दिल्ली में है, कॉलेज खुले हैं, वह आ नहीं सकताI पति ने ख़ूब सारी तैयारी करा रखी हैI काफ़ी सारे लोगों ने फ़ोन पर बधाई दियाI मेरे भाई-भाभी जो इन दिनों हिन्दुस्तान से बाहर हैं, का फ़ोन आयाI मेरी माँ का फ़ोन आया, बोलते-बोलते रोने लगीं; क्योंकि वे भागलपुर में नहीं हैंI इन सबके बावजूद न जाने क्यों मन भारी-सा हैI जानती हूँ पार्टी है, हँसना-चहकना हैI यों पार्टी ख़ूब एन्जॉय भी करती हूँI लेकिन न जाने क्यों बचपन मेरा पीछा नहीं छोड़ता हैI क्यों बार-बार मन वहीं भागता है जहाँ की वापसी का रास्ता बंद हो जाता हैI बचपन की खीर-पूरी और भोज याद आ रहा हैI अब तो जन्मदिन मनाना औपचारिकता-सा लगता हैI कुछ फ़ोन, कुछ सन्देश बधाई के, और जवाब शुक्रिया...!

- जेन्नी शबनम (16.11.2011)
____________________

Friday, November 11, 2011

30. तारीख़ों का तसव्वुर (11.11.11)

11.11.11 तारीख़ का पूरी दुनिया में हो रहा बेसब्री से इन्तिज़ार अब ख़त्म हुआI इस तरह की कोई तारीख़ आती है, तो जीवन में एक अलग-सा उत्साह नज़र आता हैI ऐसी ख़ास तिथियों को पढ़ना, बोलना और याद करना सहज लगता हैI दिन, महीना और साल के अंक तो वही रहते हैं 1-30/31, 1-12 और 1-100 सिर्फ़ सन् (ईस्वी) बदलता हैI हर एक पल एक बार गुज़रने के बाद जैसे वापस नहीं आता, वैसे ही एक बार आई हुई तिथि दोबारा नहीं आतीI पर इस तरह की तिथि जब आती है कुछ ख़ास होने का एहसास होता हैI साल में एक बार ही ऐसा दिन आता है जब दिन, महीना और साल का अंक एक ही होI पर ये भी सिर्फ़ 12 तक ही होना हैI पूरी एक सदी के बाद फिर से ऐसी तिथि दोहराई जाएगी, लेकिन सदी का अंक बदल जाएगाI मुझे याद है बचपन में जब ऐसी कोई तिथि आती थी, तो मन में एक अजीब-सा उमंग आ जाता थाI मन में सोचती थी कि ये तिथि दोबारा नहीं आएगी; यों कोई भी गुज़रा क्षण वापस नहीं आता

कोई ख़ास तिथि या कोई ख़ास दिन को हम अपने-अपने हिसाब से महत्वपूर्ण बना लेते हैंI नाम के लकी नंबर के हिसाब से बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं, जैसा कि ज्योतिषियों का परामर्श होता है कुछ ख़ास दिन निर्धारित किए जाते हैं जब कोई शुभ कार्य किया जाता है या नहीं किया जाता हैI कुछ ख़ास रंगों का प्रयोग वर्जित कर दिया जाता है, तो कुछ ख़ास रंग का प्रयोग दिन के हिसाब से तय किये जाते हैंI परन्तु यह सभी व्यक्तिगत सोच और आस्था के साथ चलती हैI इसे सिर्फ़ अंधविश्वास नहीं कह सकते, बल्कि कार्य की सफलता की उत्तम संभावना के लिए किया गया एक प्रयास भी कह सकते हैंI ऐसा होता है कि मान्यताएँ और विश्वास हममें आत्मविश्वास पैदा करती हैं, भले कार्य फलीभूत न हो, फिर भी एक संतुष्टि रहती है कि हर संभव प्रयास किया गयाI तिथियों का महत्व इसलिए और भी ज़्यादा है कि हर एक पल हमारा अपना इतिहास बन जाता हैI इस लिए ख़ास तिथि को किया गया ख़ास कार्य हमारे जीवन में यादगार बन जाए, बस इतनी सी बात हैI
मुझे याद है ऐसी ही एक ख़ास तिथि 1.1.2000 और उससे पहले का वक़्तI मेरे लिए यह मिलेनियम साल ख़ास महत्व रखता थाI उस साल मिलेनियम बेबी की चाह ने देश के सभी अस्पतालों में जैसे सैलाब-सा ला दिया थाI सभी अस्पताल, नर्सिंग होम और डॉक्टर पहले से बुक हो चुके थेI जिन बच्चों का जन्म 1.1.2000 से 10 दिन आगे पीछे होना था सभी माता-पिता चाहते थे कि उनके बच्चे का जन्म एक जनवरी को होI मैंने अपनी डॉक्टर से कहा कि मैं 1 जनवरी को अपने बच्चे को जन्म देना चाहती हूँ, जबकि उसका जन्म का दिन 6 या 7 तारीख निर्धारित थाI डॉक्टर ने कहा कि कई सारे कॉम्प्लीकेशंस मेरे साथ हैं, अतः ये रिस्क होगाI यों भी कोई एक ही बच्चा मिलेनियम बेबी कहलाएगा जो रात ठीक 12 बजे जन्म लेगा

31 दिसम्बर 1999 की रात एक ख़ास यादगार रात थी; क्योंकि हम दूसरी सदी में प्रवेश करने वाले थेI एक अनोखा उत्साह पूरी दुनिया में व्याप्त थाI मुझे दो सदी में अपनी उपस्थिति का एहसास बड़ा अच्छा लग रहा थाI वसन्त विहार का एक होटल, जो उन दिनों वसन्त कॉन्टिनेंटल कहलाता था, में बहुत बड़ा आयोजन हुआI मैं अपने परिवार के साथ वहाँ गईI भीड़ इतनी कि ख़ुद को सँभालना मुश्किल था और मेरे गर्भ का अन्तिम सप्ताह चल रहा थाI कई लोगों ने मना किया था कि वहाँ मैं न जाऊँI मैंने कहा कि जो होगा देखूँगी, कुछ हुआ तो हॉस्पिटल चल दूँगीI भीड़ में सभी एक दूसरे से अलग हो गए, मेरे साथ सिर्फ़ मेरी माँ रह गईंI उन दिनों मेरे पास फ़ोन नहीं था और न ही मैं पैसा लेकर चली थीI किसी तरह भीड़ में घुसकर रात का खाना खाया; क्योंकि मधुमेह के कारण खाना अतिआवश्यक थाI एक भी कार्यक्रम नहीं देख सकी; क्योंकि वहाँ तक भीड़ में पहुँचना किसी दुर्घटना का शिकार होना थाI अंत में किसी सज्जन से फ़ोन माँगकर अपने पति को फ़ोन किया और फिर हम घर वापस आ गएI थकावट के कारण 1.1.2000 को मुझे अस्पताल जाना पड़ाI डॉक्टर ने कहा कि अगर इतनी इच्छा है तो आज भी डेलिवरी की जा सकती है, लेकिन अगर 7 को हो तो बेहतर हैI सब कुछ ठीक-ठाक था, अतः मिलेनियम साल के पहले दिन की इच्छा को त्यागकर निर्धारित 7 जनवरी को बेटी का जन्म हुआI

आज का दिन 11.11.11 यों तो अब 100 साल के बाद आएगा, पर आज का दिन बाज़ार के लिए बहुत अच्छा साबित हो रहा हैI ज्योतिषियों ने कहा है कि आज के दिन गाड़ी-ज़मीन-मकान का क्रय, बच्चे का जन्म, कोई महत्वपूर्ण कार्य आदि शुभ हैI सुना है कि अदाकारा ऐश्वर्या रॉय के बच्चे का जन्म आज होगाI आज क्या-क्या ख़ास होता है, पता चल जाएगाI अक्सर सोचती हूँ कि प्रकृति का नियम है सब कुछ अपने तय वक़्त पर होनाI सभी तारीख़ और दिन अपने तय वक़्त पर आएगा और यह भी मानना चाहिए कि जब जो होता है अच्छे के लिए होता हैI आज की तिथि 11.11.11 के लिए सभी को शुभकामनाएँ, सभी के लिए आज का दिन ख़ास हो!

- जेन्नी शबनम (11.11.11)
__________________

Tuesday, November 1, 2011

29. 'बोल' के बोल

''मारना जुर्म है तो पैदा करना क्यों नहीं?'' ''नाजायज़ बच्चा पैदा करना गुनाह है, तो जायज़ बच्चों की लम्बी क़तार जिसकी परवरिश नहीं कर सकते, गुनाह क्यों नहीं है?'' ये सवाल ऐसे हैं जिससे दुनिया के किसी भी मुल्क़ का विवेकशील इंसान जो ज़रा भी इंसानियत से इत्तेफ़ाक़ रखता है, के ज़ेहन में कौंध सकता है अगर नहीं कौंधता, तो शर्मनाक है इंसानियत के लिए, इंसानी क़ौम के लिए और मुल्क़ के लिए पाकिस्तानी फ़िल्म 'बोल' की नायिका जिसे हत्या के आरोप में फाँसी की सज़ा होती है, की आख़िरी ख़्वाहिश के मुताबिक़ मीडियावालों के सामने फाँसी से पहले कुछ कहना चाहती है, जबकि उसने किसी भी न्यायालय में अपनी ज़ुबान नहीं खोली और अपना गुनाह क़ुबूल किया है वह ये सवाल सिर्फ़ अपने देश के राष्ट्रपति से नहीं कर रही, बल्कि आम अवाम से कर रही है आख़िर क्यों सम्मान के नाम पर बेटियों को अनपढ़ रखा जाए और जानवरों-सी ज़िन्दगी जीने के लिए विवश किया जाए? ''जब औरत के सामने मर्द लाजवाब (निरुत्तर) हो जाता है तो हाथ उठाता है'', ये सिर्फ़ 'बोल' की नायिका का कथन नहीं, बल्कि अधिकतर मर्द की आदत है अपनी शक्ति दिखाकर स्त्री को अधीन में रखना पूरी दुनिया की स्त्रियों की नियति है और पुरुष का व्यभिचार! आख़िर कब तक सहन करे स्त्री?  
 
पुत्र मोह में बेटियाँ ज़्यादा हों, तो उन्हें जानवरों-सी ज़िन्दगी जीने पर विवश होना पड़ता है पुत्र अगर मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग हो, तो भी उसे स्वीकार किया जाता है परन्तु पुत्र अगर पुरुष न होकर स्त्री का गुण लेकर जन्मे, तो न सिर्फ़ समाज बल्कि घर में भी तिरस्कृत होता है 'बोल' की नायिका का भाई जिसमें स्त्री-गुण हैं, पिता द्वारा सदैव तिरस्कृत रहता है। यहाँ तक कि पिता उसे देखना भी बर्दाश्त नहीं करता, अतः माँ और बहनों का वह लाडला पिता के सामने कभी नहीं आता है समाज का एक कुरूप चरित्र है कि 'वैसे पुरुष' को पुरुष से ही बचना होता है; क्योंकि मौक़ा पाकर उसे हवस का शिकार बना लिया जाता है 
 
फ़िल्म 'बोल' की नायिका के भाई का बलात्कार होता है फिर नायिका के सामने ही उसका पिता अपने पुत्र की हत्या कर देता है समाज में किन्नर या हिजड़ों को सम्मान नहीं मिलता, जबकि किसी का भी स्त्री, पुरुष या हिजड़ा होना प्रकृति द्वारा प्रदत्त गुण है नायिका प्रतिशोध में कुछ नहीं कर पाती; क्योंकि उसकी माँ का वह ख़ाविंद है, वह अपने पिता से सिर्फ़ नफ़रत कर पाती है
एक तरफ़ पिता इसलिए शादी कर रहा है, ताकि अपने बेटे के क़त्ल को छुपाने के लिए रिश्वत के पैसे का इन्तिज़ाम कर सके और दूसरी तरफ़ उसकी शादी वेश्या से सिर्फ़ इसलिए हो रही है, क्योंकि बेटियाँ पैदा करने में उसे महारत हासिल है। कोठे पर लड़की की ज़रूरत होती है, लड़के की नहींI जिस दिन सबसे छुपकर एक कोठेवाली (वेश्या) से बाप शादी करता है उसी दिन उसकी दूसरे नंबर की बेटी अपनी माँ और बहनों के सहयोग से अपने प्रेमी से शादी करती है, जो अलग जाति का है शाम को बाप घर आता है, तो बड़ी बेटी (नायिका) जो अपने पति के घर से निष्कासित होकर मायके में रहती है, बताती है कि उसने बहन का विवाह करा दिया; क्योंकि वह नहीं चाहती कि उसकी बहन की ज़िन्दगी भी उसके जैसी हो बाप जो ख़ुद गुनाहगार है और दूसरी शादी करके आता है, बड़ी बेटी और बीवी को मारता है कि उसने छोटी बेटी का विवाह दूसरी जाति में क्यों कराया। बड़ी बेटी से नफ़रत करता पिता अब छोटी बेटी से भी नफ़रत करता है यों वह अपनी बीवी एवं सभी बेटियों से नफ़रत करता है  
 
नायिका के पिता की दूसरी बीवी जो वेश्या है, एक बेटी की माँ बनती है वह छुपकर बच्ची को उसके पिता के घर (नायिका के घर) पहुँचा देती है; अन्यथा उसे भी वेश्या बना दिया जाएगा कोई भी माँ अपनी बच्ची को वेश्या के रूप में सहन नहीं कर सकती पहली बीवी और बेटियाँ अवाक् हैं बाप के इस घिनौनी हरकत पर परन्तु उस बच्ची का क्या दोष, सभी उसे अपना लेती हैं वेश्यालय चलाने वाला गुण्डा बच्ची के गुम होने पर बाप को ढूँढने आता है, उधर बाप उस बच्ची की हत्या करने जाता हैI वह हत्या कर देना पसन्द करेगा, लेकिन अपनी बेटी का वेश्या होना नहीं। बच्ची की हत्या होने से नायिका बचा लेती है, लेकिन बाप को मार देती है; अगर नहीं मारती तो उस मासूम बच्ची को उसका ख़ूनी और क्रूर बाप मार देता अचानक हुए ऐसे आघात से नायिका स्तब्ध है, और ख़ुद को गुनहगार मानकर समर्पण कर देती है
फाँसी से पहले नायिका अपने परिवार से मिलती है, तो कहती है ''उतार फेंको बुर्क़ा'' और बहनों के सिर से बुर्क़ा खींचकर फेंक देती है जिस वक़्त मीडिया के सामने नायिका अपने गुनाह और ज़िन्दगी की कहानी सुनाती है, सभी का मन द्रवित हो जाता है एक महिला पत्रकार नायिका को अपने बाप के क़त्ल के लिए गुनहगार नहीं मानती और हर सम्भव कोशिश करती है कि किसी तरह नायिका की सज़ा माफ़ हो जाए लेकिन सरकारी महकमे की चाटुकारिता और असंवेदनशीलता के कारण राष्ट्रपति तक बात नहीं पहुँच पाती और नायिका को फाँसी हो जाती है  
 
नायिका के सभी सवाल अपनी जगह तटस्थ हैं जवाब की अपेक्षा हर पुरुष से, समाज से, धर्म के नुमाइंदे और सत्ता वर्ग से हैये सवाल पाकिस्तान की उस नायिका के चरित्र से निकल दुनिया की सभी स्त्रियों के ज़ेहन और ज़िन्दगी में दाख़िल होता है कि आख़िर कब तक स्त्रियाँ यों ज़िन्दगी जिएँगी? पुरुष के दंभ और स्त्री को उसकी औक़ात बताने वाला पुरुष कब अपनी औक़ात समझेगा? आख़िर कब तक स्त्रियाँ ग़ुलाम रहेंगी? चाहे वह बुर्क़ा की ग़ुलामी हो या पुरुष की ग़ुलामी या धर्म के नाम पर किया जाने वाला ज़ुल्म हो बोल की नायिका का सवाल दुनिया की हर औरत का सवाल है

- जेन्नी शबनम (अक्टूबर 28.10.2011)
__________________________