श्री शरतचन्द्र चटोपाध्याय |
कोई कहता वह आवारा था, कोई कहता वह चरित्रहीन था, कोई कहता अगर उसको जानना हो तो किसी पथभ्रष्ट मनचले को जान लो, कोई कहता कि वह वेश्यागमन करता था लेखक हुआ तो क्या हुआ। महान साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने वर्षों की मेहनत के बाद उसकी जीवनी को 'आवारा मसीहा' नामक पुस्तक के रूप में लिखने में सफलता प्राप्त की; क्योंकि उस रहस्यमय लेखक का चरित्र सदैव संदेहास्पद रहा है। उसको जानने वाले स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं बताते और कुछ लोग बताने से कतराते भी हैं। इस सन्दर्भ में 'आवारा मसीहा' को पढ़कर समझा जा सकता है।
सुरेन्द्र नाथ गंगोपाध्याय |
विश्वविख्यात और प्रसिद्ध साहित्यकार शरतचन्द्र चटोपाध्याय का ननिहाल भागलपुर के मानिक सरकार चौक स्थित काली बाड़ी के पास है। वहाँ उन्होंने जीवन के वे पल बिताए जो उनके जीवन की आधारशिला है। मानिक सरकार चौक से एक रास्ता गंगा नदी के घाट तक जाता है। इस रास्ते में घाट से थोड़ा पहले काली बाड़ी है, जहाँ शरतचन्द्र के मामा श्री सुरेन्द्रनाथ गांगुली ने जगधात्री पूजा शुरू की थी और आज भी उनके वंशज प्रतिवर्ष धूमधाम से पूजा करते हैं। उसके समीप ही वह मकान है, जहाँ शरतचन्द्र का बचपन बीता है। उस घर को देखने की ललक को मैं रोक न सकी और एक शाम चल पड़ी उस व्यक्तित्व के उन पलों को महसूस करने जहाँ उन्होंने कई साल बिताए और शिक्षा ग्रहण की थी।
छोटे से दरवाज़े से घुसते ही एक छोटी-सी बैठक, बैठक के एक कोने में चार तस्वीर। दो छोटी और एक बड़ी तस्वीर शरतचन्द्र की, एक सुरेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय (गांगुली) की। बैठक से लगा मकान का बरामदा, आँगन और रहने वाला कमरा है। बैठक में हमारा स्वागत किया शरतचन्द्र के मामा सुरेन्द्रनाथ गांगुली के पौत्र (पोता) श्री उज्ज्वल गांगुली ने, जो एक निजी विद्यालय में शिक्षक हैं। क़रीब 5-6 वर्षीय उनका एकमात्र पुत्र जो बहुत चंचल है, उनके साथ था, जिसे बहुत मज़ा आ रहा था अपने घर में किसी मेहमान को देखकर। डी.पी.एस. भागलपुर के वरीय प्रधानाध्यापक श्री सत्यजीत सिंह की उज्ज्वल जी से बहुत अच्छी और गहरी मित्रता है। सत्यजीत जी ने हमारा परिचय उज्ज्वल जी से कराया और फिर चल पड़ा शरतचन्द्र से जुड़ी बातों का सिलसिला।
उज्जवल जी का पुत्र और मैं |
उज्ज्वल जी बताते हैं कि शरतचन्द्र के बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं है; क्योंकि उस ज़माने में कोई पुत्र अपने पिता से बहुत ज़्यादा बातें नहीं किया करता था। अतः उन्होंने अपने पिता से कभी कुछ पूछा नहीं, पिता ने जो भी बताया और घर के अन्य लोगों से जो सुना, बस उतनी ही जानकारी है। उज्ज्वल जी की माता जी, जो क़रीब 100 वर्ष की हैं बात करने में असमर्थ हैं, अन्यथा उनसे कुछ ख़ास जानकारी हमें मिल सकती थी।
उज्जवल जी बताते हैं कि बहुत लोग आते हैं शरतचंद्र के बारे में बात करने और जानकारी लेने के लिए। अभी हाल में कोलकाता के एक अख़बार ने शरतचन्द्र के बारे में कुछ लिखा जो ग़लत था, उन्होंने इस बारे में अपनी आपत्ति लिख भेजी है। अभी हाल में एक निजी चैनल ने शरतचन्द्र से संबंधित किसी ख़ास जानकारी के सत्यापन और प्रामाणिकता के लिए उज्ज्वल जी पर दबाव दिया था। इन सब से आहत उज्ज्वल जी कहते हैं ''मेरे पास भी प्रमाण नहीं, तो मैं कैसे किसी उस बात का सत्यापन करूँ जो मैं जानता नहीं, बस घर में सुना है। मसलन शरतचन्द्र ने जिसे अपनी पत्नी बताया क्या वे सच में पत्नी थीं, क्या देवदास शरतचन्द्र की जीवनी है आदि।'' लोगों की मनःस्थिति से उज्ज्वल जी काफ़ी आहत हैं, और ख़ुश इस बात से कि शरतचन्द्र जैसे महान साहित्यकार और हस्ती के वंशज हैं। उन्होंने विरासत में मिली हर धरोहर को बहुत सजगता से संजोया हुआ है, चाहे वह शरतचन्द्र की कोई निशानी हो, मकान हो या फिर काली बाड़ी में होने वाली पूजा।
शरतचन्द्र के ननिहाल का परिवार संयुक्त रूप से रहता था। बहुत बड़े अहाते में स्थित मकान जिसमें शरतचन्द्र के नाना श्री केदारनाथ अपने भाइयों के साथ रहते थे। उज्ज्वल जी के दादा श्री सुरेन्द्रनाथ गांगुली स्थानीय दुर्गाचरण स्कूल में प्राचार्य होने के साथ एक प्रतिष्ठित साहित्यकार थे और शरतचन्द्र के हमउम्र चचेरे मामा थे। वे शरतचन्द्र के बाल सखा और सबसे प्रिय मित्र भी थे, जिनसे शरतचन्द्र अपनी निजी-गोपनीय बातें साझा करते थे। शरतचन्द्र के पिता की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी, इसलिए शरतचन्द्र को पढ़ने के लिए ननिहाल भेज दिया गया। कहा जाता है कि विपन्नता के बावजूद शरतचन्द्र शुरू से ही स्वछन्द जीवन जीते थे, अतः ननिहाल के कड़े अनुशासन में उनके सुधार की गुंजाइश थी। भागलपुर के दुर्गाचरण स्कूल में उन्होंने पढ़ाई की और टी.एन.बी. कॉलेजियट स्कूल से एंट्रेंस परीक्षा पास की। इसके आगे की पढ़ाई के बारे में उज्जवल जी को स्पष्ट कोई जानकारी नहीं है। पता चला कि शरतचन्द्र के पिता श्री मोतीलाल चटोपाध्याय और शरतचन्द्र की माता भुवन मोहिनी कुछ समय भागलपुर के खंजरपुर मोहल्ला में किराए पर रहे थे और फिर वापस बंगाल चले गए।
उज्जवल गांगुली व उनका पुत्र |
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय |
खण्डित हुक्का व पेन स्टैंड/ऐश ट्रे |
कहते हैं कि शरतचन्द्र लिखते-लिखते अचानक उठकर नदी की ओर चल देते थे। अँधेरी रात में अकेले डेंगी (छोटी नाव) लेकर नदी पार कर जाते थे। कभी मछली मारने निकल जाते थे। खंजरपुर स्थित एक मक़बरा पर अक्सर जाकर बैठे रहते थे। मानिक सरकार चौक के बाद मंसूरगंज मोहल्ला है; जहाँ तवायफ़ें रहती थीं। वर्ष 1989 के भागलपुर दंगा में ये मोहल्ला पूरी तरह उजड़ गया, बचे हुए परिवारों को शहर से बाहर एक जगह विस्थापित किया गया है। कहते हैं इसी मंसूरगंज की एक तवायफ़ 'काली दासी' के कोठे पर शरतचन्द्र का आना जाना था, जहाँ वे बैठकर लिखा भी करते थे। जैसे-जैसे उनका लिखना बढ़ता गया, आर्थिक स्थिति भी सुधरने लगी और उन्हें शराब पीने की लत लग गई। डॉ.बिधान चन्द्र रॉय ने शरतचन्द्र का इलाज किया। श्री सुरेन्द्रनाथ गांगुली ने शरतचन्द्र की मृत्यु के बाद शरतचन्द्र की जीवनी पर आधारित पुस्तक 'शरत परिचय' लिखा। निःसंदेह यह शरतचन्द्र की जीवनी की सबसे प्रामाणिक पुस्तक मानी जा सकती है; क्योंकि सुरेन्द्रनाथ जी शरतचन्द्र के सबसे प्रिय सखा और मामा थे।
शरतचन्द्र के समय की कुर्सी |
शरतचन्द्र की कहानी में स्त्री चरित्र बहुत मज़बूत, सशक्त और प्रभावशाली होता है। परम्परागत बन्धनों से छटपटाती स्त्री का अंतर्द्वंद, मानसिक पीड़ा और उनकी जीवन शैली का बहुत सटीक चित्रण दिखता है। स्त्री मन की बारीकियों को इतनी सहजता से समझना और लिखना सच में अद्भुत है। उनकी कहानियाँ और उसके पात्र उनके इर्द-गिर्द के ही थे, इसलिए हर पाठक को सभी कहानी जीवन्त लगती है, चाहे देवदास हो या श्रीकान्त। वे अपने अनुभव के आधार पर कथा गढ़ते थे। शरतचन्द्र का जीवन सन्देहों, अफ़वाहों और रहस्यों से भरा हुआ है। उन्होंने विधिवत विवाह नहीं किया, पर हिरण्यमयी देवी जो उनके साथ रहती थीं, उनको अपनी पत्नी का दर्जा दिया; लेकिन परिवार ने इस रिश्ते को मान्यता नहीं दी। माना जाता है कि देवदास की पारो का चरित्र काल्पनिक नहीं है; बल्कि शरतचन्द्र की वह वास्तविक पारो मुज़फ्फरपुर में ब्याही गई थी।
शरतचन्द्र द्वारा निर्मित काग़ज़-कलम होल्डर |
शरतचन्द्र की कुछ निशानी जो उज्ज्वल जी ने सँभालकर रखी है, मुझे दिखाने के लिए ले आए। कुल चार सामानों में एक है लकड़ी की कुर्सी। उज्ज्वल जी के अनुसार ''ये कहना मुश्किल है कि शरतचन्द्र ने इस कुर्सी का इस्तेमाल किया या नहीं, लेकिन ये उस समय से घर में है, तो वे ज़रूर इस पर बैठते होंगे।'' लकड़ी का काग़ज़ और कलमदान (पेपर-पेन-होल्डर) जो शरतचन्द्र ने ख़ुद अपने हाथों से बनाया था। उसे हाथ में लेकर मैं देखती रही, न जाने कितनी कहानियों को रचने का साधन बना कलम और काग़ज़ इसमें रखा गया होगा। धातु का बना हुक्का का आधा टूटा हिस्सा और कलम रखने का एक छोटा स्टैंड भी था जो ऐश-ट्रे भी हो सकता है; वक़्त के साथ अपनी-अपनी कहानी कह रहा था। उज्ज्वल जी ने बहुत अच्छी तरह इन चारों निशानी को सँभालकर रखा है।
शरतचन्द्र की चार निशानी |
उस मकान से निकलकर मैं गंगा नदी के किनारे गई। मकान से नदी मात्र 100 मीटर की दूरी पर है। इसी घाट से वह आवारा मसीहा अपनी धुन में निकल पड़ता होगा डेंगी लेकर, न जाने मन में क्या-क्या सोचता हुआ, किस-किस की पीड़ा को जीता हुआ, अपनी दुनिया में लीन, अपनी कहानी बुनता और जीता हुआ। उस स्थान पर ख़ुद को पाना मेरे लिए बहुत ही रोमांचकारी अनुभव है, जहाँ कभी शरतचन्द्र ने न जाने कितना समय बिताया होगा। हर उस गली से मैं भी गुज़री हूँ जहाँ से शरतचन्द्र गुज़रे होंगे। दुर्गाचरण स्कूल के सामने से रोज़ आती-जाती रही हूँ। नया बाज़ार का कॉलेजियट स्कूल जहाँ मैं अक्सर जाती थी; क्योंकि मेरी माँ पहले वहाँ शिक्षिका थीं। गंगा नदी का दूसरा घाट जहाँ अक्सर हमलोग घूमने और खेलने जाते थे। मंसूरगंज मोहल्ला जो मेरे बचपन के स्कूल के रास्ते में पड़ता है। अब भी याद है बचपन में किसी ने डरा दिया कि वे लोग बच्चे पकड़ लेती हैं, तो मैं और मेरा भाई एक दूसरे का हाथ पकड़कर मानिक सरकार चौक से सीधे जोगसर चौक तक दौड़ जाते थे। अजीब-सी सिहरन और रोमांच हुआ अँधेरी रात में नदी के इतने समीप जाकर, जहाँ न जाने कितनी बार शरतचन्द्र अकेले गए होंगे, अपनी धुन में गंगा से मिलने और बतियाने।
सुरेन्द्रनाथ व शरतचन्द्र की तस्वीर के साथ मैं |
सभी लोगों ने अपनी-अपनी सोच से शरतचन्द्र देखा और जाना है। उनके बारे में अनेको धारणाएँ और अफ़वाहें हैं। उनका जीवन जीने का तरीक़ा, विचार, व्यक्तित्व, सब कुछ इतना अजीब था कि शुरू में उन्हें कहीं भी सम्मान नहीं मिला; बल्कि तिरस्कार ही मिला। बाद में उनकी रचनाओं की प्रसिद्धि और लोकप्रियता ने उनको सम्मान दिलाया। देवदास, परिणीता, बिराज बहु, श्रीकान्त, चरित्रहीन, बड़ी दीदी, मझली दीदी, नया बिधान, पथ के दावेदार आदि उनकी ख्यातिप्राप्त कृतियाँ हैं। 'पथ के दावेदार' पुस्तक को ब्रिटिश सरकार ने ज़ब्त कर लिया; क्योंकि बंगाल की क्रान्ति पर लिखा गया था। बेहद संवेदनशील, शरारती और जागरूक शरतचन्द्र का जीवन उलझनों और घटनाओं का ऐसा जाल था, जिसमें वे आजीवन तड़पते रहे, पर कभी किसी से अपनी वेदना न कही। उनकी रचनाओं से उनके तेवर, तड़प और संवेदनाओं को जाना और महसूस किया जा सकता है। कथा कहानी लिखने और सुनाने में माहिर शरतचन्द्र की शख़्सियत का रहस्यमय सच आज भी हम सभी के लिए अबूझ रहस्य है।
- जेन्नी शबनम (7.1.2012)
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