19 फ़रवरी 2010 की रात में हमलोग निजामुद्दीन स्टेशन पहुँचे, जहाँ से हमलोगों को सैलून में चढ़ना था और अमृतसर जाने वाली गाड़ी में उसे जोड़ दिया जाना था। वैसे सैलून में एक छोटी रसोई और खाना बनाने के लिए रसोइया भी था, फिर भी हमलोगों ने हल्दीराम से खाना ले लिया था। पहली बार सैलून में चढ़ना था सो एक अलग उत्साह था, क्योंकि सैलून आम लोगों के लिए नहीं होता है। एक मज़ेदार घटना यह भी हुई कि स्टेशन पर मेरा चप्पल टूट गया। मित्र ने अपने किसी आदमी से भेज कर मेरा चप्पल ठीक कराया, लेकिन जैसे ही मैं ट्रेन में चढ़ी कि फिर वह टूट गया। फिर मैंने हल्दीराम के झोले जिसमें खाना आया था, की रस्सी खोल कर चप्पल को इस तरह बाँधा कि सुबह अमृतसर पहुँच कर दूकान तक जा सकूँ।
सैलून में ए. सी. लगा हुआ दो सोने का कमरा था जिसके साथ लगे हुए बाथरूम में गीज़र भी लगा था।ड्राइंग रूम और उसमें ही डाईनिंग टेबल, सिटिंग रूम जहाँ ऑफिस का काम किया जा सके, रसोईघर, साथ चलने वाले कर्मचारियों के लिए अलग से सोने के लिए बेड तथा बाथरूम था। आधा घंटा तो हमलोग भीतर ही घूमते रहे और फोटो लेते रहे कि पता नहीं फिर कभी सैलून में चढ़े या नहीं। सुबह उठने पर ट्रेन में नहाने का लोभ संवरण नहीं हुआ और मैंने जीभर नहाया। कभी ट्रेन में नहाने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी, पर यहाँ तो वह ट्रेन नहीं बल्कि हिलता-डुलता हुआ घर लग लग रहा था। सैलून में सबसे पीछे कुर्सी-टेबल लगा था, जहाँ अधिकारी ऑफिस का काम करते हैं। वहाँ सुबह-सुबह बैठ कर चाय पीते हुए पीछे छूटती रेलवे लाइन को देखना और धूप का आनंद लेना बड़ा अच्छा लगा। सुबह का चाय-नाश्ता सैलून की रसोई में बना, साथ ही किसी स्टेशन से आलू का पराठा, दही और अचार भी नाश्ता के लिए आया।
अमृतसर में ट्रेन से सैलून को निकाल कर साइड ट्रैक में खड़ा कर दिया गया। हमारे मित्र अपने ऑफिस का काम निपटाने लगे और हम लोग आराम से तैयार होते रहे क्योंकि सैलून की सवारी का यह पहला मौक़ा था, और जितना ज्यादा हो सके इसका आनंद हम लेना चाहते थे। सैलून के हर कोने की तस्वीर हम लोगों ने ली, साथ ही उसके इंजन पर चढ़ कर भी फोटो लिया।
हमारे मित्र ने वहाँ गाड़ी का इंतजाम किया हुआ था, जो सीधे प्लेटफार्म जहाँ सैलून को रखा गया था वहाँ तक आ गई। हम लोग सबसे पहले बाटा के दूकान गए जहाँ से मैंने एक चप्पल लिया और टूटे हुए चप्पल को अमृतसर के उस दूकान के हवाले कर दिया वहाँ की मिट्टी में मिल जाने के लिए; शायद उसका अंतिम संस्कार वहीं होना था। फिर हमलोग सीधे स्वर्ण-मंदिर पहुँचे, जहाँ मित्र के परिचितों ने दर्शन कराने का सारा इंतजाम कर रखा था, ताकि लम्बी पंक्ति में न लगना पड़े। सहज ही दर्शन हो गया। प्रसाद के रूप में गेरुआ रंग का एक-एक कपड़ा सभी को मिला और फिर बाद में हलवा भी मिला। फिर वहाँ के लंगर में पंक्तिबद्ध बैठ कर रोटी दाल खाई हमने। वहाँ से हमलोग जालियाँवाला बाग़ देखने गए।
जालियाँवाला बाग़ का नाम सुनते ही जैसे सिहरन-सी महसूस होती है। इतने बड़े नरसंहार की कल्पना से जैसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। गोलियों से बने सुराख़ के निशान दीवारों में दिख रहे थे। वह कुआँ भी देखा जिसमें जान बचाने के लिए लोग कूद गए थे। जिस जगह के लिए अब तक सुना था आँखों से देख रही थी, लेकिन स्मृतियों में उस समय के हालात थे, जिससे मन बहुत व्याकुल होने लगा।
दोनों देशों के बीच के गेट को खोलने का भी एक अलग ही तरीका है। गेट खोलने के बाद दोनों देश के जवान परेड करते हैं। जितना ऊँचा हो सके पाँव को उठाकर जोर से पटकते हैं; इतनी जोर से कि मानो सामने दुश्मन है और उसे हुंकार कर युद्ध के लिए ललकार रहे हों। कोई भी किसी से ज़रा भी कमतर नहीं। हाथ भी मिलाते हैं तो यूँ लगता है जैसे दो दुश्मन हाथ मिला रहे हों। समाप्ति पर गेट बंद होता है; उस समय भी एक दूसरे को वैसे ही ललकारते हैं। समाप्ति के बाद सभी ऐसे हँसते बोलते हैं जैसे कि अब तक जो हुआ वह बस एक तमाशा था। जिस तरह वे हुंकार भर रहे थे, मेरे जेहन में एक ही बात आई कि क्या ऐसा करना उचित है। युद्ध तो नहीं छिड़ा है जो एक देश दूसरे को ललकार रहा है और दूसरा देश भी वैसे ही जवाब दे रहा है। परन्तु यह भी सत्य है कि पाकिस्तान द्वारा भारत की ज़मीन पर किए गए जबरन कब्ज़े के कारण समय-समय पर युद्ध एवं आतंकवादियों को संरक्षण दिए जाने के कारण पाकिस्तान से दोस्ताना सम्बन्ध कदापि संभव नहीं है और न कभी होगा। एक अजीब-सी बात जो मुझे दिखी कि पकिस्तान में स्त्रियों और पुरुषों को अलग-अलग बिठाया गया था जबकि हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। निःसंदेह पाकिस्तान में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर आज नहीं समझा जाता है।
अब अँधेरा घिर रहा था, हमलोग अटारी स्टेशन गए जहाँ से भारत और पाकिस्तान के बीच ट्रेन चलती है। वीर ज़ारा का शाहरुख़ और प्रीती जिंटा मेरे सामने जीवंत हो गए। उनकी प्रेम कहानी को मैं भारत और पकिस्तान के बॉर्डर पर ढूँढती रही। हाँ ! ऐसा प्रेम तो काल्पनिक ही हो सकता है, यथार्थ में इसका एक अंश भी नहीं दिखता है कहीं भी। अंततः हम लौट आए। रेलवे का वह शानदार सैलून जो एक दिन के लिए हमारा पटरियों पर दौड़ता सपनों का घर बना था, हमारे इंतज़ार में पलकें बिछाए बैठा था।
अक्सर दिल में यह ख़याल आता है कि हमारा अतीत हमें उस दुनिया की सैर करा लाता है जहाँ हम दोबारा जा तो सकते हैं मगर एहसास वैसा नहीं होता जैसा पहली बार होता है। अमृतसर, जालियाँवाला बाग़, वाघा बॉर्डर, अटारी स्टेशन तथा रेलवे के सैलून में हम कभी फिर दोबारा जाएँ कि न जाएँ लेकिन एक दिन का वह सफ़र ढेरों यादें दे गया।
- जेन्नी शबनम (19. 2. 2019)
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