अमृतसर जाने की ख़्वाहिश मुझे बचपन से थी। मेरे माता-पिता और भाई वहाँ जा चुके थे, सिर्फ़ मैं न जा सकी थी। स्वर्ण मन्दिर और जलियाँवाला बाग़ के बारे में बचपन से सुनती और तस्वीर देखती आ रही थी। वाघा बॉर्डर पर सैनिकों का परेड देखने की भी मेरी दिली तमन्ना थी। दिल्ली में रहते हुए 19 साल हो गए, लेकिन कभी जाना न हो सका। मेरे पति के एक क़रीबी मित्र जो रेलवे में कार्यरत हैं और उन दिनों दिल्ली में पदस्थापित थे, उनसे मैंने अमृतसर जाने की इच्छा जतलाई। वे रेलवे के कार्य से अमृतसर जाते रहते हैं, तो उन्होंने कहा कि जब भी वे जाएँगे तो हमलोगों को साथ ले चलेंगे।
19 फ़रवरी 2010 की रात में हमलोग निज़ामुद्दीन स्टेशन पहुँचे, जहाँ से हमलोगों को सैलून में चढ़ना था और अमृतसर जाने वाली गाड़ी में उसे जोड़ दिया जाना था। सैलून में एक छोटी रसोई और खाना बनाने के लिए रसोइया था, फिर भी हमलोगों ने हल्दीराम से खाना ले लिया। पहली बार सैलून में चढ़ना था इसलिए बहुत उत्साह था; क्योंकि मेरी माँ काफ़ी पहले सैलून में सफ़र कर चुकी हैं, तो ख़ूब सुना है सैलून के बारे में। एक मज़ेदार घटना यह हुई कि स्टेशन पर मेरा चप्पल टूट गया। मित्र ने अपने किसी आदमी से भेजकर मेरा चप्पल ठीक कराया, लेकिन जैसे ही मैं ट्रेन में चढ़ी कि फिर टूट गया। मैंने हल्दीराम के झोले जिसमें खाना आया था, की रस्सी खोलकर चप्पल को इस तरह बाँधा कि सुबह अमृतसर पहुँचकर दूकान तक जा सकूँ।
सैलून में ए.सी. लगा हुआ दो सोने का कमरा, जिसके साथ लगे बाथरूम में गीज़र भी था। ड्राइंग रूम और उसमें ही डाइनिंग टेबल, सिटिंग रूम जहाँ ऑफ़िस का काम किया जा सके, रसोईघर, साथ चलने वाले कर्मचारियों के लिए अलग से सोने के लिए बेड तथा बाथरूम। आधा घंटा तो हमलोग भीतर ही घूमते रहे और फोटो लेते रहे कि पता नहीं फिर कभी सैलून में चढ़ें या नहीं। सुबह उठने पर ट्रेन में नहाने का लोभ संवरण नहीं हुआ। मैंने जीभरकर नहाया। ट्रेन में नहाने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी, पर यहाँ तो ट्रेन नहीं बल्कि हिलता-डुलता हुआ घर लग लग रहा था। सैलून में सबसे पीछे कुर्सी-टेबल लगा था, जहाँ अधिकारी ऑफ़िस का काम करते हैं।वहाँ सुबह-सुबह बैठकर चाय पीते हुए पीछे छूटती रेलवे लाइन को देखना और धूप का आनन्द लेना बड़ा अच्छा लगा। सुबह का चाय-नाश्ता सैलून की रसोई में बना, साथ ही किसी स्टेशन से आलू का पराठा, दही और अचार भी नाश्ते के लिए आया।
अमृतसर में ट्रेन से सैलून को निकालकर साइड ट्रैक में खड़ा कर दिया गया। हमारे मित्र अपने ऑफ़िस का काम निपटाने लगे और हमलोग आराम से तैयार होते रहे, क्योंकि सैलून की सवारी का यह पहला मौक़ा था और जितना ज़्यादा हो सके हम इसका आनन्द लेना चाहते थे। सैलून के हर कोने की तस्वीर हमलोगों ने ली, साथ ही उसके इंजन पर चढ़कर भी फोटो लिया।
हमारे मित्र ने वहाँ गाड़ी का इन्तिज़ाम किया था, जो सीधे प्लेटफार्म जहाँ सैलून को रखा गया था, तक आ गई। हम लोग सबसे पहले बाटा के दूकान गए जहाँ से मैंने एक चप्पल लिया और टूटे हुए चप्पल को अमृतसर के उस दूकान के हवाले कर दिया, वहाँ की मिट्टी में मिल जाने के लिए; शायद उसका अन्तिम संस्कार वहीं होना था। फिर हमलोग स्वर्ण-मन्दिर पहुँचे, जहाँ मित्र के परिचितों ने दर्शन कराने का सारा इन्तिज़ाम कर रखा था, ताकि लम्बी पंक्ति में न लगना पड़े। सहज ही दर्शन हो गया। प्रसाद के रूप में गेरुआ रंग का एक-एक कपड़ा सभी को मिला, बाद में हलवा भी मिला।फिर वहाँ के लंगर में पंक्तिबद्ध बैठकर हमने रोटी-दाल खाई। वहाँ से हमलोग जलियाँवाला बाग़ देखने गए।
जलियाँवाला बाग़ का नाम सुनते ही जैसे सिहरन-सी महसूस होती है। इतने बड़े नरसंहार की कल्पना से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। गोलियों से बने सुराख़ के निशान दीवारों में दिख रहे थे। वह कुआँ भी देखा, जिसमें जान बचाने के लिए लोग कूद गए थे। जिस जगह के लिए अब तक सुना था, आँखों से देख रही थी, लेकिन स्मृतियों में उस समय के हालात थे, जिससे मन बहुत व्याकुल होने लगा।
दोनों देशों के बीच के गेट को खोलने का एक अलग ही तरीक़ा है। गेट खोलने के बाद दोनों देश के जवान परेड करते हैं। जितना ऊँचा हो सके पाँव को उठाकर ज़ोर से पटकते हैं। इतनी ज़ोर से मानो सामने दुश्मन है और उसे हुंकारकर युद्ध के लिए ललकार रहे हों। कोई भी किसी से ज़रा भी कमतर नहीं। हाथ भी मिलाते हैं तो लगता है जैसे दो दुश्मन हाथ मिला रहे हों। समाप्ति पर गेट बंद होता है; उस समय भी एक दूसरे को वैसे ही ललकारते हैं। समाप्ति के बाद सभी ऐसे हँसते-बोलते हैं जैसे कि अब तक जो हुआ, वह एक तमाशा था।
जिस तरह वे हुंकार भर रहे थे, मेरे ज़ेहन में एक ही बात आई कि क्या ऐसा करना उचित है। युद्ध तो नहीं छिड़ा है जो एक देश दूसरे को ललकार रहा है और दूसरा देश भी वैसे ही जवाब दे रहा है। परन्तु यह भी सत्य है कि पाकिस्तान द्वारा भारत की ज़मीन पर किए गए जबरन कब्ज़े के कारण समय-समय पर युद्ध एवं आतंकवादियों को संरक्षण दिए जाने के कारण पाकिस्तान से दोस्ताना सम्बन्ध कदापि सम्भव नहीं है और न कभी होगा। एक अजीब-सी बात मुझे दिखी कि पकिस्तान में स्त्रियों और पुरुषों को अलग-अलग बिठाया गया था जबकि हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। निःसंदेह पाकिस्तान में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर आज भी नहीं समझा जाता है।
अक्सर दिल में यह ख़याल आता है कि हमारा अतीत हमें उस दुनिया की सैर करा लाता है जहाँ हम दोबारा जा तो सकते हैं मगर एहसास वैसा नहीं होता जैसा पहली बार होता है। अमृतसर, जलियाँवाला बाग़, वाघा बॉर्डर, अटारी स्टेशन तथा रेलवे के सैलून में मैं कभी फिर दोबारा जाऊँ कि न जाऊँ, लेकिन एक दिन का वह सफ़र ढेरों यादें दे गया।
- जेन्नी शबनम (19.2.2019)
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