Wednesday, April 27, 2022

95. भावनाओं को आलोड़ित करता : लम्हों का सफ़र - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

आदरणीय शिवजी श्रीवास्तव द्वारा मेरी पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा:
शिवजी श्रीवास्तव
भावनाओं को आलोड़ित करता - लम्हों का सफ़र
 
- डॉ. शिवजी श्रीवास्तव


समीक्ष्य कृति- लम्हों का सफ़र
कवयित्री- डॉ. जेन्नी शबनम
पृष्ठ संख्या- 112
संस्करण- प्रथम 2020
मूल्य- ₹120/-
प्रकाशक- हिन्द युग्म ब्लू, सी-31, सेक्टर 20, नोएडा(उ.प्र.)- 201301

          'लम्हों का सफ़र' शीर्षक ही ध्यान आकृष्ट करता है। एक क्षण की अवधि अत्यन्त स्वल्प होती है, उसमें कितने क़दम चला जा सकता है? किन्तु जीवन मे कुछ लम्हे ऐसे भी आते हैं, जो भाव-जगत् को आलोड़ित करते हुए दीर्घ यात्रा पर ले जाते हैं। डॉ. जेन्नी शबनम की काव्य-कृति 'लम्हों का सफ़र' ऐसे ही संवेदनशील अनुभव-यात्रा को कविता में अभिव्यक्त करती हुई कृति है। सात शीर्षकों में विभक्त इस पुस्तक का हर शीर्षक जीवन का एक यादगार लम्हा है, एक-एक लम्हे की अपनी कई कहानियाँ हैं, कहीं दर्द है, कहीं प्रेम है, कहीं नारी-नियति के चित्र हैं, कहीं उलाहने हैं, कहीं दायित्व-बोध है तो कहीं घनीभूत करुणा की चरमावस्था है। कवयित्री ने विविध अनुभूतियों को बड़े सलीके से कविता में पिरोया है। 
          संग्रह के प्रथम खण्ड- 'जा तुझे इश्क़ हो' के अन्तर्गत सात कविताएँ हैं। ये सातों कविताएँ प्रेम की घनी अनुभूति की, प्रेम करने की, प्रेम में टूटने की और प्रेम में होने की कविताएँ हैं। 'प्रेम करने' में और 'प्रेम में होने' में बड़ा फ़र्क है। जो प्रेम में होता उसका समग्र व्यक्तित्व प्रेममय होता है, इमरोज़ इसका उदाहरण हैं। जेन्नी जी अमृता-इमरोज़ के सम्पर्क में बहुत रही हैं। वे जानती हैं कि प्रेम करना सरल है, पर प्रेम में होना कठिन है, लोग प्रेम तो करते हैं पर प्रेम में नहीं होते। इमरोज़ प्रेम में थे, पर हर प्रेम करने वाला इमरोज़ नहीं बन सकता - इसी भाव भूमि पर लिखी कविता 'क्या बन सकोगे एक इमरोज़' में वे कहती हैं- ''ये उनका फ़लसफ़ा था / एक समर्पित पुरुष / जिसे स्त्री का प्रेमी भी पसंद है / इसलिए कि वो प्रेम में है।'' इसी खण्ड की कविता 'जा तुझे इश्क़ हो' में भाषा की व्यंजना चमत्कृत करती है, शायद ही कभी किसी ने किसी को ये शाप दिया होगा ''जा तुझे इश्क़ हो''। वस्तुतः जो प्रेम के मार्ग से नहीं गुज़रे, वे आँसुओं का मूल्य नही जानते, दूसरों की पीड़ा की अनुभूति उन्हें नहीं होती, तो उन्हें यही शाप दिया जा सकता है- ''जा तुझे इश्क हो!'' 
          संग्रह का दूसरा खण्ड है- 'अपनी कहूँ', इसमें पन्द्रह कविताएँ हैं। इस खण्ड में कवयित्री ने अपनी उन अनुभूतियों / पीड़ाओं को अभिव्यक्ति दी है जो निजी होते हुए भी प्रत्येक संवेदनशील मन की हैं। ये कविताएँ 'स्व' से 'पर' तक की अनुभूतियों को समाहित किए हैं, यथा 'मैं भी इंसान हूँ' कविता में हर नारी के मन की पीड़ा देखी जा सकती है- ''मैं एक शब्द नहीं, एहसास हूँ, अरमान हूँ / साँसें भरती हाड़-मांस की, मैं भी जीवित इंसान हूँ।'' 
          जेन्नी जी ने बहुत कम वय में अपने पिता को खोया है, ये पीड़ा उनकी नितांत निजी है, पर ज्यों ही ये पीड़ा - 'बाबा, आओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती है' कविता में व्यक्त होती है, यह हर उस व्यक्ति की पीड़ा बन जाती है, जिसने अल्प वयस में अपने पिता को खोया है। इस खण्ड में प्रबल अतीत-मोह है, बड़ी होती हुई स्त्री बार-बार अतीत में लौटती है और वहाँ से स्मृतियों के कुछ पुष्प ले आती है। समाज मे लड़कियों को अभी भी अपनी इच्छा से जीने की आज़ादी नहीं है, इसीलिए ज्यों-ज्यों लड़की बड़ी होती है, उसका मन अतीत में भागता है। 'जाने कहाँ गई वो लड़की' में इसी दर्द को देखा जा सकता है - ''जाने कहाँ गई, वो मानिनी मतवाली / शायद शहर के पत्थरों में चुन दी गई / उछलती-कूदती वो लड़की''। 'वो अमरूद का पेड़', 'उन्हीं दिनों की तरह', 'ये कैसी निशानी है', 'इकन्नी-दुअन्नी और मैं चलन में नहीं', 'ये बस मेरा मन है', 'उम्र कटी अब बीता सफ़र' ऐसी ही कविताएँ हैं, जिनमे कवयित्री का मन अतीत के भाव-जगत् में डूबता-उतराता रहता है। वर्तमान की त्रासद स्थितियों में अतीत और अधिक लुभाता है, पर कभी-कभी मन विद्रोही भी हो जाता है। 'कभी न मानूँ' में ये विद्रोही स्वर देखा जा सकता है - ''जी चाहता है, विद्रोह कर दूँ / अबकी जो रूठूँ,कभी न मानूँ।" 
          तीसरे खण्ड 'रिश्तों का कैनवास' में सात कविताएँ हैं, सातों कविताएँ नितांत निजी रिश्तों के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं, पर ये कविताएँ निजी होते हुए भी सभी को आंदोलित करती हैं। 'उनकी निशानी' सहेजकर रखी गई पिता की पुरानी चीज़ों की कविता है। इसमे बड़ी ख़ूबसूरती से पिता को याद किया गया है- "उस काले बैग में / उनके सुनहरे सपने हैं / उनके मिज़ाज हैं / उनकी बुद्धिमत्ता है / उनके बोए हुए फूल हैं / जो अब बोन्जाई बन गए।'' पिता के न रहने पर माँ की वेदना को 'माँ की अन्तःपीड़ा' में व्यक्त किया गया है। अपने पुत्र के 18वें, 20वें एवं 25वें जन्मदिन पर उपहार स्वरूप लिखी गईं क्रमशः तीन कविताएँ हैं- 'विजयी हो पुत्र', 'उठो अभिमन्यु' और 'परवरिश'। इन कविताओं में कोरी भावाकुता या स्नेह नहीं है, अपित कुछ उपदेश हैं, शिक्षाएँ हैं जो किसी भी युवा के जीवन-रण में संघर्ष के लिए अनिवार्य हैं। प्रत्येक युवा को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होती है, इस तथ्य को वे विजयी हो पुत्र में पुत्र को बतला रही हैं - ''तुम पांडव नहीं / जो कोई कृष्ण आएगा सारथी बनकर / और युद्ध मे विजय दिलाएगा।'' 'उठो अभिमन्यु' में भी वे यही बल नैतिक उपदेशों के साथ प्रदान कर रही हैं- ''क़दम-क़दम पर एक चक्रव्यूह है / और क्षण-क्षण अनवरत युद्ध है... जाओ अभिमन्यु / धर्म-युद्ध प्रारंभ करो / बिना प्रयास हारना हमारे कुल की रीत नहीं / और पीठ पर वार धर्म-युद्ध नहीं।'' अपनी किशोरी पुत्री को उसके 13वें जन्मदिन में भी वे 'क्रांति-बीज बन जाना' कविता में यही प्रबोध देती हैं कि ''सिर्फ़ अपने दम पर / सपनों को पंख लगाकर / हर हार को जीत में बदल देना / तुम क्रांति-बीज बन जाना।'' वहीं पुत्री के 18वें जन्मदिन पर 'धरातल' कविता में वे उसे यथार्थ के धरातल पर चलने का परामर्श देती हैं - ''जान लो / सपने और जीवन / यथार्थ के धरातल पर ही / सफल होते हैं।'' स्पष्ट है ये कविताएँ नितांत निजी होकर भी हर युवा के लिए ज़रूरी परामर्श की भाँति हैं। 
          चौथे खण्ड- 'आधा आसमान' में दस कविताएँ हैं। शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस खण्ड में समाज में स्त्री की स्थिति, पीड़ा, द्वंद्वों और वेदनाओं को स्वर मिले हैं। ये कविताएँ गम्भीर प्रश्न भी उपस्थित करती हैं। 'मैं स्त्री हूँ' कविता बहुत तीखेपन से इस बात को कहती है - ''मैं स्त्री हूँ / इस बात की शिनाख़्त, हर उस बात से होती है / जिसमें स्त्री बस स्त्री होती है / जिसे जैसे चाहे इस्तेमाल में लाया जा सके।'' 'फ़ॉर्मूला' कविता भी इसी पीड़ा को व्यक्त करती है - ''पुरुष के जीवन का गणित और विज्ञान / सीधा और सहज है / जिसका एक निर्धारित फ़ॉर्मूला है / मगर स्त्रियों के जीवन का गणित और विज्ञान / बिलकुल उलट है... उनके आँसुओं के ढेरों विज्ञान हैं / उनकी मुस्कुराहटों के ढेरों गणित हैं।'' इस खण्ड की सभी कविताओं में नारी जीवन का पीड़ाजन्य आक्रोश प्रभावी रूप में व्यक्त हुआ है। 'झाँकती खिड़की', 'मर्द ने कहा', 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' इत्यादि नारी नियति और समाज के दुहरे मानदंडों की कविताएँ हैं। किताबों और हक़ीकत में नारी जीवन में अंतर को 'फूल कुमारी उदास है' कविता में देखा जा सकता है - ''कहानी में, फूल कुमारी उदास होती है / और फिर उसकी हँसी लौट आती है / सच की दुनिया में / फूल कुमारी की उदासी / आज भी क़ायम है।'' ''सच है, कहानी सिर्फ़ पढ़ने के लिए होती है / जीवन मे नहीं उतरती।'' 
          अगले खण्ड 'साझे सरोकार' में नौ कविताएँ हैं। इन कविताओं में सामाजिक विषमताओं और मूल्यहीनता की चिंताएँ हैं। 'शासक' कविता शोषण और शोषक के चरित्र को सामने लाती है - ''इतनी क्रूरता, कैसे उपजती है तुममें / कैसे रच देते हो, इतनी आसानी से चक्रव्यूह / जहाँ तिलमिलाती हैं, विवशताएँ / और गूँजता है अट्टहास।'' 'अब जो बचा है' में नैतिक मूल्यों के ह्रास की चिंता है - 'नैतिकता, जाने किस सदी की बात थी / जिसने शायद किसी पीर के मज़ार पर / दम तोड़ दिया था।'' वर्तमान के प्रति आक्रोश और विद्रोह भी कई कविताओं में देखा जा सकता है, 'आजादी', 'संगतराश', 'नन्ही भिखारिन', 'घर' और 'मालिक की किरपा' ऐसी ही कविताएँ हैं। 
          'भागलपुर दंगा (24.10.1989)' कवयित्री के जीवन में आए भयानक दुःस्वप्न की तरह है। उसकी भयावहता को भी उन्होंने इस कविता में व्यक्त किया है - "कैसे भूल जाऊँ, वो थर्राती-काँपती हवा, जो बहती रही / हर कोने से चीख और ख़ौफ़ से दिन-रात काँपती रही / बेटा-भैया-चाचा सारे रिश्ते, जो बनते पीढ़ियों से पड़ोसी / अपनों से कैसा डर, थे बेख़ौफ़, और क़त्ल ही गई ज़िंदगी।'' इसी वेदना को 'हवा ख़ून-ख़ून कहती है' कविता में भी देखा जा सकता है - 'हवा अब बदल गई है / लाल लहू से खेलती है / बिखेरती है इंसानी बदन का लहू गाँव शहर में / और छिड़क देती है मंदिर-मस्जिद की दीवारों पर / फिर आयतें और श्लोक सुनाती है।'' 
          संग्रह के छठवें खण्ड 'जिंदगी से कहा-सुनी' में दस कविताएँ तथा अंतिम सातवें खण्ड 'चिंतन' में आठ कविताएँ हैं। इन दोनो खण्डों की कविताएँ कहीं दार्शनिक भाव-बोध के प्रश्नों के उत्तर तलाशने की चेष्टा करती हैं तो कभी वैराग्य भाव और कभी अवसाद ग्रस्त होते मन के द्वंद्व को चित्रित करती हैं। गूढ़ विषयों के चयन और जटिल मनःस्थितियों के चित्रण के कारण इन कविताओं में उलझाव अधिक है सहजता कम, यथा 'मैं' कविता में व्यक्त ये दार्शनिक चिंतन - ''जीवन मैं, मृत्यु भी मैं / इस पार मैं, उस पार भी मैं / प्रेम मैं, द्वेष भी मैं / ईश की संतान मैं, ईश्वर भी मैं /आत्मा मैं, परमात्मा भी मैं / मैं, मैं, सिर्फ़ मैं / सर्वत्र मैं।'' कुछ कविताओं के तो शीर्षक भी जटिल हैं, यथा - 'देह, अग्नि और आत्मा...जाने कौन चिरायु', 'हँसी, ख़ुशी और ज़िंदगी बेकार है पड़ी', 'अज्ञात शून्यता', 'रिश्तों का लिबास सहेजना होगा' इत्यादि। वस्तुतः इन दो खण्डों की कविताएँ संग्रह की अन्य कविताओं से अलग धरातल की हैं, जो एक विशेष बौद्धिक वर्ग के लिए हैं। 
          समग्रतः भाव-जगत् को झंकृत करते इस उत्कृष्ट संग्रह के लिए जेन्नी जी को बधाई देते हुए 'लम्हों का सफ़र' कविता के एक अंश से ही अपनी बात को विराम देता हूँ - 'हम सब हारे हुए मुसाफ़िर / न एक दूसरे को ढाढस देते हैं / न किसी की राह के काँटे बीनते हैं / सब के पाँव के छाले / आपस मे मूक संवाद करते हैं / अपने-अपने लम्हों के सफ़र पर निकले हम / वक़्त को हाज़िर नाज़िर मानकर / अपने हर लम्हे को यहाँ दफ़न करते हैं / चलो अब अपना सफ़र शुरू करते हैं।''
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Mob: 9557518552
date: 19.8.2021 
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