Friday, December 22, 2023

109. माझा का इमरोज़

इमरोज़ चले गए। आज वे अपनी अमृता से मिलेंगे। निश्चित ही जाते वक़्त वे बहुत ख़ुश रहे होंगे कि वे अपनी माझा के पास जा रहे हैं। यों वे दूर हुए ही कब थे! इमा के लिए उनकी माझा सदा साथ रही, जो अपने कमरे में बैठी नज़्म लिखती रहती है और उनके द्वारा बनाई चाय पीती रहती है। 

इमरोज़ जी से कुछ कुछ सालों से मिलना नहीं हुआ। इधर वे लगातार अस्वस्थ रह रहे थे। एक दो बार फ़ोन पर बात हुई, लेकिन पहले की तरह बात नहीं कर पा रहे थे। एक दो मित्र ने मुझसे कहा था कि जब भी इमरोज़ जी से मिलने जाऊँ तो उन्हें भी साथ ले चलूँ। मैंने कह दिया था कि अब शायद उनसे कभी मिल नहीं पाऊँगी। जाने क्यों मुझे लगने लगा था कि मैं उनसे नहीं मिल पाऊँगी। आज अतीत की कितनी यादें एक साथ मेरी आँखों के सामने से गुज़र रही हैं। 

अमृता जी को जब से मैंने पढ़ना शुरू किया, तब से वे मेरी प्रिय लेखिका रही हैं। उनकी लगभग सारी किताबें मैंने पढ़ी। अधिकतर किताबें मैं आज भी सहेज कर रखी हूँ। मुझे पता चला कि मेरे घर के नज़दीक उनका घर है। संयोग से 1998 में मुझे अमृता जी का फ़ोन नंबर मिला। मैंने फ़ोन किया तो इमरोज़ जी ने उठाया। मैंने मिलने की इच्छा जताई, तो उन्होंने कहा कि अमृता जी अभी बीमार हैं, कुछ दिन बाद मैं आऊँ। मैं अपने घर में व्यस्त हो गई। 2005 में एक दिन फिर मिलने की इच्छा जागी। मैंने फ़ोन किया तो इमरोज़ जी ने आने को कहा। मैं अपने बच्चों के साथ मिलने गई। गेट के भीतर ठीक सामने एक कमरा था, जो शायद गैरेज होगा, जिसमें अमृता प्रीतम की किताबें, चित्र व इमरोज़ जी की पेंटिंग थी। मैं अपलक निहारती रही, मानो ख़ज़ाना मेरे हाथ लगा हो। मैं बहुत रोमांचित महसूस कर रही थी।
इमरोज़ जी और मैं
इमरोज़ जी ने दरवाज़ा खोला और मुझे गले से लगा लिया। हमें लेकर वे पहली मंजिल पर गए। मेरे बच्चों को दुलार किया। हम चाय पी रहे थे तभी आवाज़ आई- इमा-इमा। इमरोज़ जी तेज़ी से एक कमरे की तरफ़ गए। फिर लौटे और कहा कि अमृता को खिलाना है, अभी आता हूँ। उनकी बहु ने कटोरे में कुछ दिया, जिसे लेकर वे खिलाने गए। वापस आकर उन्होंने कहा कि अमृता बहुत बीमार है। फिर मुझे लेकर सामने वाले कमरे में गए, जहाँ अशक्त अमृता लेटी हुईं थीं अमृता जी को देखा तो मेरी आँखें भर आईं।

1986 में अमृता प्रीतम को पहली बार मैंने देखा था, जब नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन के कॉन्फ़्रेंस में वे आई थीं। जितना ख़ूबसूरत व्यक्तित्व, उतना ही शानदार वक्तव्य। मैं अपलक उनको देखती-सुनती रह गई। उनके साथ फ़ोटो खिंचवाना भी याद न रहा। वही ओजस्वी अमृता आज सिकुड़ी-सिमटी हुई असमर्थ बिस्तर पर लेटी हैं। ख़ुद से करवट भी बदल नहीं पा रही थीं। इमरोज़ जी ने उनके सिर पर हाथ फेरा, जैसे किसी बच्चे को पुचकारते हैं।

इमरोज़ जी ने पूरा घर घुमाया, फोटो व पेंटिंग दिखाई, कुछ फोटो से जुड़ी कहानी सुनाई। अमृता से उनकी मुलाक़ात और साथ बीती ज़िन्दगी की कहानी सुनाई। मेरे बताने पर कि मैं कविता लिखती हूँ, वे बहुत ख़ुश हुए और कहा कि जब भी दोबारा आऊँ तो अपनी कविताएँ लेकर आऊँ।
दुबारा उनसे मिलने गई तब अमृता जी का देहान्त हो चुका था। वे मुझे उसी तरह गले मिले और ऊपर ले गए। जाड़े का दिन था, तो हम छत पर बैठे। फिर चाय पीते हुए बातचीत होती रही। बीच में वे ऊपर की छत पर कबूतर को दाना डालने भी गए। मुझसे मेरी कविताएँ सुनी। मेरी किताब के बारे में पूछा। मैंने कहा- “मैं कविता लिखती हूँ यह किसी को नहीं पता है। मुझे झिझक होती है बताने में कि मैं लिखती हूँ। पता नहीं कैसा लिखती हूँ।” वे मुस्कुराए और कहने लगे- ''तुम जो भी लिखती हो जैसा भी लिखती हो मानो कि अच्छा लिखती हो। कोई क्या सोचेगा, यह मत सोचो। अपनी किताब छपवाओ।” यह सुनकर मुझमें जैसे साहस आया। उसके बाद अपनी कविताओं को मैं बेहिचक सार्वजनिक करने लगी।  

मैं अक्सर इमरोज़ जी से मिलने जाती थी। कभी फ़ोन पर बात हो जाती। जब भी जाती 2-3 घंटे बैठती और इमरोज़ जी चाय बनाकर पिलाते। वे अपनी नज़्में सुनाते। उनमें गज़ब की ऊर्जा, स्फूर्ति, तेज़ और शालीनता थी। उन्होंने अपनी किताब, कैलेण्डर और कुछ अनछपी कविताएँ भी दीं। मैं कोई-न-कोई उनके क़िस्से उनसे पूछती रहती। वे सहज रूप से सारे क़िस्से सुनाते। किसी भी सवाल पर वे बुरा नहीं मानते थे, भले कितना ही निजी सवाल पूछूँ। कुछ कवयित्री उन्हें हिन्दी में लिखी हुई रचनाएँ भेजती थीं, वे मुझसे कहते कि पढ़ दो। वे पंजाबी और उर्दू लिखना पढ़ना जानते थे, हिन्दी नहीं।
इमरोज़ जी और मैं
एक दिन मैं उनके घर जा रही थी, तो वे बोले कि अमुक जगह रुको मैं आ रहा हूँ। वे आए और बोले कि पास में बाज़ार है, वहाँ चलो कॉफ़ी पिएँगे। हम लोग पास ही एस.डी.ए. मार्केट में गए कॉफ़ी पीने। कॉफ़ी के साथ मेरी कविता और अमृता की बातें होती रहीं। अमृता जी की बेटी का घर पास में ही है, जहाँ वे बाद में चले गए। 

जब भी मिली उन्हें कभी नाख़ुश नहीं देखा। हर परिस्थिति में वे मुस्कुराते रहते, जैसे मुस्कराहट का मौसम उनपर आकर ठहर गया हो। यहाँ तक कि जब ग्रीन पार्क का घर बिक गया, तो मैं बहुत दुःखी थी। मैंने उनसे पूछा कि आपने क्यों नहीं रोका मकान बेचने से, आपको बहुत दुःख हुआ होगा। वे मुस्कुराने लगे। मुझे लगा कि अपने मन की पीड़ा वे बताते नहीं हैं, अपनी मुस्कराहट में सब छुपा जाते हैं।
 
जब तक वे हौज़ ख़ास वाले घर में रहे, मैं अक्सर चली जाती थी। एक सुकून-सा मिलता था उनसे बातें करके। जब वे ग्रेटर कैलाश के मकान में चले गए, तब भी गई। नया घर भी बहुत क़रीने से था, जहाँ अमृता उनके साथ जी रही थीं। 
आईने में हमारी छवि - इमरोज़ जी और मैं
मेरी किताब अब तक छपी न थी। 2013 में एक दिन इमरोज़ जी का फ़ोन आया। उन्होंने एक नंबर देकर कहा कि यह प्रकाशक है, इससे बात करो और किताब छपवाओ। संयोग से प्रकाशक को मैं पहले से जानती थी। मैंने बताया कि मैं इन्हें जानती हूँ और इनसे ही मेरी पहली किताब छपेगी। किन्हीं कारणों से मेरी किताब छपने में बहुत देर हुई। मेरी इच्छा थी कि इमरोज़ जी की पेंटिंग मेरी किताब का आवरण चित्र हो। लेकिन जब किताब छपने का समय आया तो इमरोज़ जी दिल्ली से बाहर थे। बिना उनकी अनुमति के मैं चित्र का उपयोग नहीं कर सकती थी; हालाँकि मेरे पास उनकी पेंटिंग थी। किताब छपी, इमरोज़ जी को बताया। बहुत ख़ुश थे वे। परन्तु ऐसा संयोग रहा कि मैं अपनी किताब के साथ उनसे मिल न सकी।

इमरोज़ जी के लिए मेरे जैसी हज़ारों प्रशंसक है; परन्तु मेरे लिए इमरोज़ जी जैसा कोई नहीं। मुझमें साहस व हिम्मत उनके कारण आया, जिससे मैं अपनी लेखनी को सार्वजनिक कर सकी। इमरोज़ जी के साथ मेरी ढेरों यादें हैं। विगत 2 साल से मैं मिलने का प्रयास कर रही थी, लेकिन उनके अस्वस्थ होने के कारण मिल न सकी। इस वर्ष भी उनके जन्मदिन 26 जनवरी को फ़ोन पर बात न हो सकी। अब न कभी मुलाक़ात होगी न बात होगी
इमरोज़ चले गए। पर वे अकेले नहीं गए, अमृता को साथ ले गए। जब तक इमरोज़ रहे, अमृता को जीवित रखा। कहते हैं कि शरीर मृत्यु के बाद पंचतत्व में मिल जाता है, लेकिन आत्मा नहीं मिटती। शायद अमृता-इमरोज़ की रूहें फिर से मिली होंगी। मुमकिन है कोई और दुनिया हो, जहाँ रूहें रहा करती हैं। उस संसार में अमृता-इमरोज़ अपनी-अपनी कलाओं में व्यस्त होंगे। इमा-माझा साथ-साथ चाय पिएँगे और अपने-अपने क़िस्से सुनाएँगे। 

प्रेम के बारे में बहुत पढ़ा-सुना; लेकिन प्रेम क्या होता है, यह मैंने इमरोज़ जी से जाना, समझा और देखा। इमरोज़ का प्रेम ऐसा है, जिसमें न कोई कामना है, न कोई अपेक्षा। इमरोज़ का अस्तित्व ही प्रेम है। इमरोज़ प्रेम के पर्याय हैं। इमरोज़-सा न कोई हुआ है न होगा।  
 
अलविदा इमरोज़!
अलविदा इमा-माझा!

- जेन्नी शबनम (22.12.2023)
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Thursday, December 21, 2023

108. डंकी

इंग्लैण्ड जाने का सपना लगभग हर भारतीय देखता है। कहीं-न-कहीं मन में यह भावना होती है कि जिस देश ने हिन्दुस्तान पर राज किया और जिसके साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था, वह देश कैसा होगा। अमीर के लिए तो दुनिया में कहीं भी जाना कठिन नहीं होता है। लेकिन आम आदमी या ग़रीब जब सपना देखता है, तो उसका पूरा होना अत्यन्त कठिन होता है। 

ग़रीबों के सपनों की राह में पैसा, भाषा, बोली, धोखाधड़ी, कानून आदि बाधाएँ आती हैं। हर वर्ष लाखों की संख्या में ग़रीब अपने सपनों को पूरा करने विदेश जाते हैं, जिनमें कुछ पहुँच पाते हैं तो कुछ हमेशा के लिए लापता हो जाते हैं। अमूमन ग़रीब और अशिक्षित को वीज़ा नहीं मिलता है। जो अवैध तरीक़े से विदेश पहुँच जाते हैं, वे अत्यन्त निम्न स्तर का जीवन गुज़ारते हैं; पर अपने घरवालों को अपना सच नहीं बताते कि किन कठिन परिस्थितियों में वे रह रहे हैं। चूँकि वे विदेश में हैं, तो उनका घर-समाज सोचता है कि वे बहुत ख़ुशहाल जीवन जी रहे हैं। एक तरफ़ इन्हें पैसा कमाना है, तो दूसरी तरफ़ पुलिस से बचना है। इसी जद्दोजहद में जीवन बीतता है। शायद ही कोई जो अवैध तरीक़े से विदेश जाता है, अपने वतन वापस लौट पाता है।      
 
फ़िल्म 'डंकी' ग़रीबों के सपने देखने और उसे पूरा करने के संघर्ष की सच्ची कहानी है। डंकी का अर्थ है अवैध तरीक़े से दूसरे देश में जाना। डंकी द्वारा जाना बेहद कठिन है। कई देशों के समुद्र, जंगल, पहाड़, रेगिस्तान आदि को छुपकर पार करना होता है। रास्ते में आने वाली कठिनाइयों से लोग जान भी गँवा देते हैं। पकड़े गए तो अवैध या घुसपैठिया होने के कारण उस देश के क़ानून के अनुसार सज़ा मिलती है। कई बार जान भी चली जाती है।
     
'डंकी' में पंजाब के एक गाँव की कहानी है, जहाँ के कुछ युवक-युवती अलग-अलग कारणों से इंगलैण्ड जाने का सपना देखते हैं। वे सभी आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं। उन्हें वीज़ा नहीं मिल पाता है। शाहरुख़ खान एक फौज़ी है और उस गाँव में आता है, जहाँ तापसी पन्नू से मुलाक़ात होती है। तापसी पन्नू का भी सपना है इंग्लैण्ड जाकर पैसा कमाना, ताकि वह अपने गिरवी पड़े घर को छुड़ा सके। 

शाहरुख़ परिस्थितिवश उस गाँव में रुक जाता है और वह तापसी के प्यार में पड़ जाता है; परन्तु ज़ाहिर नहीं करता। सभी युवक-युवती हर तरह से प्रयास करते हैं कि वीज़ा मिल सके; लेकिन असफल रहते हैं। शाहरुख़ हर तरह से सहायता करता है, लेकिन कामयाब नहीं होता। उन सभी के पास न पैसा है, न शिक्षा। वे अँगरेज़ी नहीं बोल सकते, तो वीज़ा मिलना असम्भव हो जाता है। फिर उन्हें पता चलता है कि डंकी पर लोग विदेश जाते हैं। शाहरुख़ अपने प्रयास से सभी को डंकी पर इंग्लैण्ड ले जाता है, जिनमें से कुछ रास्ते में मारे जाते हैं। वे किसी तरह इंग्लैण्ड पहुँचने पर पाते हैं कि डंकी से आए लोग किस दुर्दशा में जी रहे हैं। फिर भी वे वापस नहीं लौटते। शाहरुख़ भारत लौटना चाहता है। वह अपने देश के ख़िलाफ़ ग़लत नहीं बोलता और न झूठ बोलता है, अतः उसे वापस भेज दिया जाता है। 35 साल के बाद शाहरुख़ के 3 दोस्त जो डंकी पर इंग्लैण्ड गए थे, वापस लौटना चाहते हैं। शाहरुख़ अपनी चालाकियों से उन्हें भारत वापस लाता है। 

हमारे देश की कुछ ज़रूरी समस्याओं को भी इस फ़िल्म में बेहतरीन डायलॉग के साथ पेश किया गया है, जैसे- अँग्रेज़ी बोलना, पैसे देकर काम निकलवाना, वीज़ा के लिए ग़लत प्रमाण पत्र बनाना, इंग्लैण्ड में रहने के लिए असाइलम का उपयोग तथा वहाँ का स्थायी निवासी बनने का कानून इत्यादि। अँगरेज़ी भाषी देश में जाने के लिए IELTS (अँगरेज़ी भाषा की परीक्षा) पास करना होता है। इसके लिए कोचिंग सेंटर है; लेकिन जो अशिक्षित या हिन्दी माध्यम से पढ़ा है वह कितनी भी कोशिश कर ले अँगरेज़ी नहीं बोल पाता है।   

अमेरिका, इंग्लैण्ड, कनाडा इत्यादि देश भारतीयों से भरा पड़ा है। विदेश में पैसे कमाने का सपना लेकर न जाने कितने लोग देश से पलायन करते हैं। भले ही विदेश में बेहद निम्न स्तर का काम करते हों; लेकिन विदेश जाकर ज़्यादा पैसा कमाना लक्ष्य होता है। वैध और अवैध तरीक़े से लगातार लोग जा रहे हैं। या तो कुछ बन जाते हैं या मिट जाते हैं। पंजाब में हर उस घर की छत पर हवाई जहाज का मिनिएचर (लघु आकार) बनाकर लगाया जाता है, जिस घर का कोई विदेश गया होता है। यह उस घर के लिए सम्मान की बात होती है। 

शाहरुख़ शानदार अभिनेता हैं। उनकी आँखें बोलती हैं। शाहरुख़ की आँखें उनके मनोभाव को व्यक्त कर देती हैं। युवा शाहरुख़ से ज़्यादा अच्छे प्रौढ़ शाहरुख़ लगते हैं। शाहरुख़ हर तरह की भूमिका बेजोड़ निभाते हैं। चाहे वे सुपर हीरो बनें या भावुक इंसान। 

'डंकी' में भावुक दृश्य शाहरुख़ ने बख़ूबी निभाया है। तापसी पन्नू अपने पात्र में सही नहीं दिखती; उनका अभिनय भी प्रभावहीन है। अन्य अभिनेताओं का अभिनय सामान्य है। विकी कौशल की भूमिका छोटी है; लेकिन बहुत अच्छा अभिनय किया है। फ़िल्म में कुछ हास्यास्पद दृश्य है, जो विशेष प्रभाव नहीं छोड़ता है।
 
'डंकी' सच्ची घटनाओं पर आधारित बेहद मार्मिक, प्रेरक, भावुक, संवेदनशील एवं शिक्षाप्रद फ़िल्म है। सच है, सपना देखना चाहिए लेकिन उसे पूरा करने के लिए ग़लत राह का चुनाव सही नहीं होता। अपना वतन, अपनी मिट्टी, अपनी भाषा ही सब कुछ है। 

-जेन्नी शबनम (21. 12. 2023)
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Monday, November 27, 2023

107. कृत्रिम बुद्धिमत्ता (ए.आई.) के मायने

चित्र गूगल से साभार 
एक दिन मेरे मोबाइल पर फ़ोन आया कि मेरा नाम, मोबाइल नं. और आधार कार्ड का इस्तेमाल कर कुछ कुरियर हुआ है, जो पकड़ा गया है। मैंने कहा कि मैंने नहीं भेजा, तो बताया गया कि चूँकि मैंने नहीं भेजा है अतः मुझे मुम्बई जाकर कम्प्लेन करना होगा। मैं मुम्बई नहीं जा सकती थी, तो उसने कहा कि वह मुम्बई पुलिस को फ़ोन ट्रान्सफर कर रहा है, जहाँ मुझे शिकायत लिखवानी है। मैंने सारा विवरण कथित मुम्बई पुलिस को दे दिया। फिर पुलिस वाले ने कहा कि मैं स्काइप पर अपनी शिकायत को सत्यापित कराऊँ। उसने मुझसे स्काइप डाउनलोड करवाया, जो नहीं हो सका। एक घंटे से ज़्यादा वक़्त उसने मुझपर और मेरा उसपर बर्बाद हुआ। जब मैंने अपने आधार कार्ड का नम्बर माँगा तो वह बहाना बनाने लगा। जिस नम्बर से फ़ोन आया, वह 9 डिजिट का था और कॉलबैक नहीं हुआ। फिर मैंने दिल्ली और मुम्बई पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी।  

मेरे साथ हुई यह घटना ए.आई. का बहुत छोटा उदाहरण है। ए.आई. के द्वारा किसी भी व्यक्ति के डाटा और उसके पैटर्न को समझकर आसानी से धोखा दिया जाता है। इस तरह के साइबर क्राइम पर एक सीरीज़ भी बनी है 'जामताड़ा'। कई बार लोग इस तरह के जाल में फँस जाते हैं, तो कुछ लोग संयोग से बच जाते हैं। इसका नेटवर्क इतना मज़बूत और वास्तविक लगता है कि ज़रा भी शक़ नहीं होता। ऐसी घटनाएँ हमारे देश में लगातार बढ़ती जा रही हैं। इसलिए आज किसी अनजान पर कोई यक़ीन नहीं कर पाता है। हर अनजान फ़ोन संदिग्ध लगने लगा है। लोग राह चलते किसी की सहायता करने से डरने लगे हैं। धोखे का बाज़ार इतना समृद्ध हो चुका है कि सभी का सभी से भरोसा उठ चुका है। हमारा आपसी सामंजस्य न होने और सामाजिक दूरी बढ़ने का यह बहुत बड़ा कारण है। हालाँकि तकनीकी विकास न होता तो आज दुनिया इतनी विकसित नहीं होती। यह भी सच है कि तकनीक के इतने विकसित होने से हमें रोज़मर्रा के कार्यों में भी बहुत सहूलियत मिली है।  

जब से दुनिया में तकनीकी ज्ञान बढ़ा है, हर रोज़ कुछ न कुछ इसमें इज़ाफ़ा होता है। 20वीं सदी के अन्त से पहले ही आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता (ए.आई.) में बहुत तेज़ी से विकास हुआ। एक तरह से यह तकनीकी क्रान्ति है। ऐसे-ऐसे रोबोट तैयार हुए जो ऑफ़िस और घर का काम भी करने लगे। ए.आई. के कारण संसार का कोई भी रहस्य अनजाना नहीं रहा। तकनीकी ज्ञान, विज्ञान के साथ ही सामजिक जीवन पर भी इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। देश का रक्षा तंत्र, पोलिसिंग, बैंकिंग, शिक्षा, खुफ़िया विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, मौसम विभाग, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, रिसर्च इत्यादि हर क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई है। किसी भी विषय पर कुछ जानना हो या किसी तस्वीर की ज़रूरत हो, ए.आई. झट से सब कुछ सामने दिखा देता है। चिकित्सा में किसी जटिल ऑपरेशन में किसी दूसरे देश के डॉक्टर द्वारा किसी दूसरे देश में सफल ऑपरेशन हो जाता है। कृषि कार्य हो या घर में खाना पकाना, हर जगह ए.आई. प्रवेश कर चुका है। पूर्वानुमान के आधार पर किसी संकट से बचा जा सकता है। यों लगता है मानो कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर पूरा ब्रह्माण्ड सिमट गया है और एक क्लिक से दुनिया मुट्ठी में कर लो।  

हमारा डिजिटल पर्सनल डाटा हमारे ढेरों काम में इस्तेमाल में आता है। बैंक अकाउन्ट खुलवाने, क्रेडिट-डेबिट कार्ड बनवाने, सरकारी सेवाओं में, फोन का कनेक्शन, बिजली-पानी का कनेक्शन, बच्चों का नामांकन, होटल बुक करने, रेल-हवाई या बस द्वारा टिकट बुक करने, सरकारी विभागों में किसी सेवा लेने के लिए, इन्टरनेट पर अपना प्रोफाइल बनाने इत्यादि हर काम में हमारा डाटा शेयर होता है। मार्केटिंग कम्पनी हमारा डाटा इकठ्ठा कर अपने प्रचार-प्रसार के लिए उपयोग करती है। गूगल, सफारी, फेसबुक, इंस्टाग्राम या फिर नेट पर कुछ भी खोजा जाए तो ए.आई. के द्वारा हमारे फेसबुक या इंस्टाग्राम अकाउंट पर हमारे पैटर्न को देखकर उससे सम्बन्धित चीज़ें दिखने लगती हैं। यहाँ तक कि कम्प्यूटर या मोबाइल पर हमारे गेम खेलने के पैटर्न पर भी ए.आई. की नज़र रहती है। यूट्यूब में कुछ देखें तो उससे सम्बन्धित और भी वीडियो सामने आ जाता है। बड़ा आश्चर्य होता है कि कम्प्यूटर को कैसे पता कि हम क्या देखना चाहते हैं। यों लगता है मानो हम मनुष्य मशीनों और तकनीक के जाल में उलझ गए हैं, जहाँ सब कुछ अप्राकृतिक और डरावने रूप से सामने आता है। आज का मनुष्य समाज से कटकर मशीनों के साथ जीवन बिता सकता है और जो चाहे कर सकता है। 
 
ए.आई. के द्वारा जब जो चाहे किया जा सकता है, क्योंकि यह मनुष्य की बुद्धि नहीं है जो सोचेगा; बल्कि मशीन की बुद्धि है जो उसमें फीड किए हुए प्रोग्रामिंग के अनुसार कार्य करेगा। यह न थकता है, न ऊबता है, लगातार क्रियाशील रहकर अपने प्रोग्रामिंग किए हुए कार्य का निष्पादन करता रहता है। जटिल प्रोग्रामिंग कर न सिर्फ़ औपचारिक कार्य; बल्कि भावनात्मक कार्य भी इनके जरिए हो रहा है। अब ऐसे-ऐसे रोबोट बन गए हैं, जो हमारे दुःख में हमारे साथ रो सकता है और ख़ुशी में हँस सकता है, हमारे सवालों के जवाब दे सकता है। दुनिया का कुछ भी जानना हो पूरे विस्तार से जानकारी देता है। निश्चित रूप से मनुष्य की बुद्धि जहाँ ख़त्म होती है ए.आई. की बुद्धि वहाँ से शुरू होती है।  

किसी भी तकनीक में कुछ अच्छाइयाँ हैं, तो बुराइयाँ भी होती हैं। ए.आई. के लिए जिस सॉफ्टवेयर और तकनीक का इस्तेमाल होता है उसके लिए उचित संसाधनों की आवश्यकता होती है, जो काफ़ी महँगी होती है। ए.आई. का कार्य मशीन करता है, अतः इसमें न नैतिकता होती है, न भावना, न मूल्य, न सही-ग़लत का फ़ैसला लेने की क्षमता। इनमें न संवेदनशीलता होती है, न भावनात्मकता। इससे मिलने वाली जानकारी की फिल्टरिंग नहीं होती है। ए.आई. के द्वारा मनुष्य के दिमाग को नियंत्रित किया जा रहा है और हम आसानी से इसके चक्कर में पड़कर कई बार बहुत बड़ा नुक़सान कर लेते हैं। ए.आई. के दुरुपयोग के कारण कितने लोगों की जान जा चुकी है। चूँकि मशीन के पास सोचने की क्षमता नहीं है अतः इसका इस्तेमाल विनाशकारी कार्यों में कुशलता से हो सकता है। इसकी सहायता से तबाही और विध्वंस लाया जा सकता है। एक क्लिक से साइबर हमला होगा और दुनिया तहस-नहस हो जाएगी।  

इस कृत्रिम बुद्धिमत्ता से सब कुछ सम्भव है, परन्तु सामाजिक मूल्य, मनुष्य की कुशलता व दक्षता नष्ट हो रही है। मनुष्य आलसी और कृत्रिम बुद्धि के मशीन पर निर्भर होता जा रहा है। जो काम मनुष्य सारा दिन लगाकर करता है, मशीन के द्वारा चंद मिनट में हो जाता है। ऐसे में सरकारी उद्यम हो या उद्योग, उद्योगपति हो या व्यवसायी, कार्यरत आदमी हो या आम आदमी, हर लोग मशीन को अपना रहा है ताकि पैसा बचे। इससे बेरोज़गारों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। निश्चित रूप से आई.टी. सेक्टर (इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) को छोड़कर हर क्षेत्र में बेरोज़गारी बढ़ेगी।  

संयमित और संतुलित तरीक़े से अगर ए.आई. का उपयोग हो, तो देश और अधिक उन्नति कर सकता है। लेकिन अगर दुर्भावना से इसका प्रयोग होगा तो निःसंदेह दुनिया बहुत डरावनी और विनाश की तरफ अग्रसर हो जाएगी। मशीन की बुद्धि का उपयोग मानव अपनी बुद्धि से करे, तभी मानवता का हित सम्भव है। ए.आई. हमारे जीवन में जितनी सुविधा दे रहा है, उतना ही एक अनजाना-सा डर मन में भर रहा है। 

-जेन्नी शबनम (15.7.2023)
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Sunday, November 12, 2023

106. 'टाइगर 3'

पोस्टर के साथ मैं
''वक़्त नहीं लगता वक़्त बदलने में।'' - यह बहुत बड़ा सच है। यह पंक्ति सलमान खान और कैटरीना कैफ़ अभिनीत फ़िल्म 'टाइगर 3' का डायलॉग है। फ़िल्म के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि जीवन के सन्दर्भ में यह बहुत बड़ा सच है। वक़्त कितनी तेज़ी से बदलता है, आश्चर्य होता है जब पीछे मुड़कर देखती हूँ। यों लगता है मानो पलक झपका और मैं कहाँ-से-कहाँ पहुँच गई। अपने जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव वक़्त के साथ मैंने देखा। हाँ, सिनेमा भी बहुत देखती रही, जब से सिनेमा देखने की उम्र हुई। सिनेमा की शौक़ीन मैं, अब भी ख़ूब मन से सिनेमा देखती हूँ। 

मैं फ़िल्म समीक्षक नहीं हूँ, तो उस दृष्टि से सलमान-शाहरुख की फ़िल्में नहीं देखती। मनोरंजन के लिए देखती हूँ, क्योंकि ये दोनों मेरे पसन्दीदा अभिनेता हैं। इनकी फ़िल्मों में मुझे न फ़िल्म की पटकथा से मतलब होता है, न कहानी से, न व्यर्थ के दिमाग़ी घोड़े दौड़ाने से। बस सिनेमा इंजॉय करती हूँ, भले अकेली जाऊँ, पर देखती ज़रूर हूँ। सलमान-शाहरुख की फ़िल्म पहले दिन देखना हमेशा से मेरे लिए ख़ुशी का दिन होता है। 

फ़िल्म 'टाइगर 3' आज दीपावली के दिन सिनेमा हॉल में रिलीज़ हुई। जैसे ही सलमान पर्दे पर आए, तालियाँ और सीटियाँ बजनी शुरू हो गईं। अब अपनी उम्र के लिहाज़ से मैं तो ऐसा नहीं कर सकती थी, पर तालियों-सीटियों को ख़ूब इंजॉय किया। सलमान के एक डायलॉग ''जब तक टाइगर मरा नहीं, तब तक टाइगर हारा नहीं'' पर पूरा सिनेमा हॉल तालियों से गूँज गया। सलमान के हर एक्शन सीन पर तालियाँ बजती रहीं। फ़िल्म में जब शाहरुख खान (छोटी भूमिका) सलमान की मदद के लिए आते हैं, तब भी सीटी और तालियों की गड़गड़ाहट गूँजने लगी। मुझे याद आया शाहरुख खान की फ़िल्म 'पठान' में सलमान (छोटी भूमिका) शाहरुख की मदद के लिए आते हैं, तो ऐसे ही हॉल में सीटी और तालियाँ गूँजी थीं। 

'टाइगर 3' की कहानी के अन्त में जब यह पता चलता है कि पकिस्तानी प्रधानमंत्री को उनके अपने ही लोग हत्या करने वाले होते हैं, तो हिन्दुस्तान के रॉ एजेन्ट अर्थात सलमान उनको बचाते हैं, तब पाकिस्तानी छात्राओं द्वारा हिन्दुस्तान का राष्ट्रगान 'जन गण मन' का धुन बजाया जाता है। राष्ट्रगान का धुन शुरु होते ही सिनेमा हॉल का हर दर्शक खड़ा हो गया। यह सचमुच बहुत सुखद लगा। काश! हर देश एक दूसरे का सच में ऐसे ही सम्मान करे और कहीं कोई युद्ध न हो।  

मैं सोच रही हूँ कि अगर हर देश और वहाँ का हर देशवासी, चाहे राजनेता हो या आम नागरिक, अमन की चाह रखे तो कभी दो देश के बीच युद्ध नहीं होगा। परन्तु यह सम्भव ही नहीं। सिनेमा देखकर भले हम ताली बजाएँ या सीटी, लेकिन देश की सीमा पर हर दिन जवान मारे जा रहे हैं। कितने ही रॉ एजेन्ट मारे जाते हैं, जिन्हें अपना देश स्वीकार नहीं करता है। अमन की बात करने वाला भी अपने अलावा दूसरे धर्म को प्रेम से नहीं देखता है। आज जिस तरह कई देश आपस में युद्ध कर रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब तीसरा विश्व युद्ध शुरु हो जाएगा। फिर न धर्म बचेगा न देश न दुनिया।

सलमान-शाहरुख मेरे हमउम्र हैं। इन्हें हीरो के रूप में देखकर लगता है कि वे अभी भी युवाओं को मात देते हैं, जबकि मुझ जैसे आम स्त्री-पुरुष इस उम्र में जीवन के अन्तिम पल की गिनती शुरु कर देते हैं। इन अभिनेताओं से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए और जीवन को भरपूर जीना चाहिए। इन्हें देखकर लगता है मानो वक़्त बढ़ता रहा, पर इनकी उम्र ठहर गई; अजर अमर हैं ये। युवा सलमान-शाहरुख से उम्रदराज़ सलमान-शाहरुख को देख रही हूँ। बढ़ती उम्र के साथ ये और भी आकर्षक लगने लगे हैं। इनका न सिर्फ़ सुन्दर व्यक्तित्व है, बल्कि बहुत उम्दा अभिनेता भी है। निःसंदेह सलमान-शाहरुख की बढ़ती उम्र उनकी फ़िल्मों और प्रशंसकों में कमी नहीं ला सकती। 

'टाइगर 3' हिट होगी या फ्लॉप मुझे नहीं मालूम, पर मेरे लिए सलमान-शाहरुख की हर फ़िल्म हिट होती है। मुझे सलमान-शाहरुख-सा कोई अभिनेता नहीं लगता। हालाँकि ढेरों अभिनेता हैं, जो बेहतरीन अभिनय करते हैं, लेकिन इन दोनों की बात ही और है मेरे लिए। इस वर्ष दीपवाली के अवसर पर टाइगर 3 का तोहफ़ा मिला है। उम्मीद है अगले साल ईद के अवसर पर 'टाइगर 4' ईदी के रूप में मिलेगा। 

सलमान की ऊर्जा यूँ ही अक्षुण्ण रहे और लगातार फ़िल्में करते रहें। टाइगर 3 के लिए बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ! 

- जेन्नी शबनम (12.11.2023)
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Tuesday, August 1, 2023

105. माँ हो न!

कल शाम से वसुधा दर्द से छटपटा रही थी। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उसके पाँव कटकर गिर जाएँगे। रात में ही उसने बगल में सोये अपने पति को उठाकर कहा- ''अब दर्द सहन नहीं हो रहा, अस्पताल ले चलो।" आधी नींद में ही विजय बोला- "बस अब सुबह होने ही वाली है, चलते हैं।" और वह खर्राटे लेने लगा। तड़पते हुए लम्बी-लम्बी साँसें लेकर किसी तरह वसुधा ने रात गुज़ारी। 

दर्द से वसुधा को रुलाई आ रही थी। वह छटपटाकर कभी पेट पकड़ती तो कभी कमर। उसे लग रहा था जैसे अब उसका पेट, कमर और पैर फट जाएगा। सुबह होते ही अस्पताल जाने के लिए वसुधा को गाड़ी में बिठाया गया। घर के निकट ही अस्पताल है। विजय के पिता ने आदेशात्मक स्वर में कहा- "मन्दिर होते हुए अस्पताल जाना।" विजय की माँ पास के मन्दिर जाकर पुत्र प्राप्ति की कामना करके लौटी, उसके बाद सभी अस्पताल गए। वसुधा दर्द से कराह रही थी, बीच-बीच में उसकी चीख निकल जाती थी। 
 
अस्पताल पहुँचते ही नर्स उसे ओ.टी. में ले गई। सिजेरियन होना तय था; क्योंकि वसुधा का रक्तचाप इन दिनों काफ़ी बढ़ा हुआ रह रहा था। लगभग दो घंटे बीत गए। सभी की नज़रें दरवाज़े पर टिकी थीं कि कब नर्स आए और खुशख़बरी सुनाए। तभी नर्स ट्रे में शिशु को लेकर आई। सभी के चेहरे पर ख़ुशी छा गई; पुत्र जो हुआ था। शिशु को देखने के लिए सभी बेचैन थे। कोई तस्वीर ले रहा है, कोई चेहरे का मिलान ख़ुद से कर रहा है, कोई उसका रंग-रूप देख रहा है। विजय के पिता ने कहा- "विजय, पहले जाकर मन्दिर में लड्डू चढ़ा आओ।" विजय मन्दिर में लड्डू चढ़ाने बाज़ार की तरफ़ चला गया।  

एक तरफ़ एक स्त्री चुपचाप खड़ी थी। उसके चेहरे पर घबराहट और चिन्ता के भाव थे। वह अब भी उसी दरवाज़े की तरफ़ बार-बार देख रही थी जिधर से नर्स आई थी। नर्स ने लाकर बच्चे को दिया तो मारे ख़ुशी के वे रोने लगीं, फिर बच्चे को प्यार कर धीरे से नर्स से पूछा- ''बच्चे की माँ कैसी है? वह ठीक है न?'' नर्स ने मुस्कुराकर कहा- ''वह बिल्कुल ठीक है। तुम जच्चा की माँ हो न!'' उस माँ की डबडबाई आँखों ने नर्स को सब समझा दिया था। 

- जेन्नी शबनम (6.7.2023)
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Tuesday, May 23, 2023

104. फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' - मेरे विचार


फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' की समीक्षा या विश्लेषण करना मेरा मक़सद नहीं है, न किसी ख़ास धर्म की आलोचना या विवेचना करना है। कुछ बातें जो इस फ़िल्म को देखकर मेरे मन में उपजी हैं, उनपर चर्चा करना चाहती हूँ। इस फ़िल्म के पक्ष-विपक्ष में दो खेमा तैयार हो चुका है कि इसे दिखाया जाए या इस पर पाबन्दी लगाई जाए। किसी के सोच पर पाबन्दी तो लगाई नहीं जा सकती, लेकिन फ़िल्म देखकर यह ज़रूर समझा जा सकता है कि इसे बनाने वाले की मानसिकता कैसी है। पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त यह फ़िल्म सामाजिक द्वेष फैलाने की भावना से बनी है। यह फ़िल्म सभी को देखनी चाहिए और दूषित मानसिकता के सोच से बाहर निकलना चाहिए। 

यह फ़िल्म केरल की युवा लड़कियों के धर्मांतरण और धर्मांतरण के बाद  चरमपंथी इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एन्ड सीरिया में शामिल होने की कहानी पर आधारित है। इसकी कहानी 4 लड़कियों के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनमें दो हिन्दू, एक मुस्लिम और एक ईसाई धर्म से है। इस फ़िल्म में दावा किया गया है कि हज़ारों लड़कियाँ ग़ायब हुई हैं, जिनको धर्मांतरण कर मुस्लिम बनाया गया और जबरन आई.एस.आई.एस. में भर्ती किया गया है। आई.एस.आई.एस. में लड़कियों को मुख्यतः दो कारण से शामिल किया जाता है पहला कारण है कट्टरपंथियों द्वारा क्रूर यौन तृप्ति और दूसरा है ज़रूरत पड़ने पर मानव बम के रूप में इस्तेलाम करना। 

जिन वीभत्स दृश्यों को दिखाया गया है, सचमुच दिल दहल जाता है। चाहे वह किसी इंसान की हत्या हो, स्त्री के प्रति क्रूरता, या जानवर को काटने का दृश्य। हालाँकि इससे भी ज़्यादा हिंसा वाली फ़िल्में बनी हैं, लेकिन वे सभी काल्पनिक हैं, इसलिए मन पर ज़्यादा बोझ नहीं पड़ता। चूँकि यह फ़िल्म सत्य घटना पर आधारित है, इसलिए ऐसे दृश्य देखना सहन नहीं होता है। यों देखा जाए तो हक़ीक़त में आई.एस.आई.एस. की क्रूरता और अमानवीयता इस फ़िल्म के दिखाए दृश्यों से भी अधिक है।  

फ़िल्म में जिस तरह से युवा शिक्षित लड़कों-लड़कियों का धर्मांतरण कराया जा रहा है, वह बहुत बचकाना लगता है। जिन तर्कों के आधार पर धर्म परिवर्तन दिखाया गया है, वह शिक्षित समाज में तो मुमकिन नहीं; हाँ प्रेम के धोखे से हो सकता है। जन्म से हमें एक संस्कार मिलता है चाहे वह किसी भी धर्म का हो, हम बिना सोच-विचार किए उसी अनुसार व्यवहार करते हैं और उसे ही सही मानते हैं। किसी भी धर्म में जन्म लेना किसी के वश में नहीं, इसलिए किसी दूसरे धर्म का अपमान करना या निन्दा करना जायज़ नहीं। अपनी इच्छा से कोई धर्म परिवर्तन कर ले, तो कोई बुराई नहीं; लेकिन साजिश के तहत जबरन करना अपराध है। 

नास्तिक होने के लिए हम तर्कपूर्ण, विचारपूर्ण और वैज्ञानिक तरीक़े से चीज़ों को सोचते-समझते हैं फिर एक सोच निर्धारित करते हैं। नास्तिक किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करते, उनका सिर्फ़ एक ही धर्म होता है - मानवता। इस फ़िल्म में कम्युनिस्ट पिता की बेटी बेतुके तर्क को सुनकर न सिर्फ़ धर्म परिवर्तन कर लेती है, बल्कि अपने पिता पर थूकती भी है। एक नास्तिक का ऐसा रूप दिखाना दुःखद है। किसी भी नास्तिक का ऐसा 'ब्रेन वॉश' कभी भी सम्भव नहीं है कि कोई धर्मांधता में अपने पिता या दूसरे धर्म को इतनी नीचता से देखे या किसी पर थूके।   

कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और राजनीतिक सिद्धांतकार थे। उन्होंने धर्म पर आलोचना करते हुए उसे अफ़ीम की संज्ञा दी है। आज हम देख सकते हैं कि धर्म नाम का यह अफ़ीम किस तरह समाज को गर्त में ढकेल रहा है। धर्म के इस अफ़ीम रूप का असर होते हुए हम हर दिन देख रहे हैं। यों लगता है मानो जन्म लेते ही प्रथम संस्कार के रूप में धर्म नाम का अफ़ीम चटा दिया जाता है। आजकल छोटे-छोटे बच्चों को भी 'जय श्री राम' और 'अल्लाह हू अकबर' कहते हुए सुना जा सकता है। किसी भी धर्म के हों, ऐसे अफ़ीमची धर्म के नाम पर मरने-मारने को सदैव उतारू रहते हैं और दंगा-फ़साद करते रहते हैं। 
        
प्रेम में पड़कर धर्म परिवर्तन तो फिर भी समझा जा सकता है; लेकिन मूर्खतापूर्ण बातों को सुनकर और मानकर धर्म को बदल लेना सम्भव नहीं है। यों प्रेम में पड़कर या विवाह करके धर्म बदलना कहीं से जायज़ नहीं है। जबरन किसी का धर्म बदल सकते हैं; लेकिन जन्म का मानसिक संस्कार कैसे कोई बदल सकता है? डर से भले कोई हिन्दू बने या मुस्लिम बन जाए, पर मन से तो वही रहेगा जो वह जन्म से है या बने रहना चाहता है

फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' कुटिल मानसिकता के द्वारा मुस्लिम धर्म के ख़िलाफ़ बनाई गई फ़िल्म लगती है। धर्म परिवर्तन किसी भी मज़हब के द्वारा होना ग़लत है। फ़िल्म में जो धर्म परिवर्तन है वह एक साजिश के तहत हो रहा है, एक सामान्य जीवन जीने के लिए नहीं। इस फ़िल्म को बनाने का मक़सद धर्म परिवर्तन से ज़्यादा आई.एस.आई.एस. की गतिविधि होनी चाहिए। जिसमें वे मासूम लड़के-लड़कियों को धर्म का अफ़ीम खिलाकर गुमराह कर रहे हैं और अपने ख़ौफ़नाक इरादे को पूरा कर रहे हैं। इस साजिश में जिस तरह मुस्लिम धर्म के पक्ष में वर्णन है, वह निंदनीय है। 

दुनिया के किसी भी धर्म में कभी भी हिंसा नहीं सिखाई जाती है। ईश्वर, अल्लाह, जीसस या अन्य कोई भी ईश्वर या ईश्वर के दूत सदैव प्रेम की बात करते हैं। हाँ, यह सच है कि धर्म को तोड़-मरोड़कर धर्म के ठेकेदार अपने-अपने धर्म को बड़ा और सबसे सही बनाने में दूसरों को नीचा दिखाते हैं और अपने ही धार्मिक ग्रंथों को अपनी मानसिकता के अनुसार उसका वाचन और विश्लेषण करते हैं। अंधभक्त ऐसे ही पाखण्डी धर्मगुरुओं या मुल्लाओं के चंगुल में फँस जाते हैं। गीता, कुरान या बाइबल को सामान्यतः कोई ख़ुद नहीं पढ़ता; बाबाओं, पादरी या मौलवी के द्वारा सुनकर समझता है और उसी के कहे को ब्रह्मवाक्य समझता है। 
 
विश्व में लगभग 300 धर्म हैं। भारत में  मुख्यतः हिन्दू, इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी इत्यादि धर्म के अनुयायी हैं। जिसे हम धर्म कहते हैं वास्तव में वह सम्प्रदाय है। अपनी-अपनी मान्यताओं और सुविधाओं के अनुसार समय-समय पर अलग-अलग सम्प्रदाय बनते गए। एक को दूसरे से ज़्यादा बेहतर कहना उचित नहीं है। अगर कोई किसी भी सम्प्रदाय से जुड़ाव महसूस नहीं करता है, तो यह उसका निजी स्वभाव या पसन्द है। इससे वह न तो पापी हो जाता है न असामाजिक। ईश्वर की सत्ता को माने या न माने, किसी ख़ास को माने या न माने, व्यक्ति तो वही रहता है। धर्म या सम्प्रदाय को मानना स्वेच्छा से होनी चाहिए। जबरन किसी से न प्रेम किया जा सकता है न नफ़रत। अपने स्वभाव और मत के अनुसार जो सही लगे और जो समाज के नियमों के अधीन हो, वही जीवन जीने का उचित और सही मार्ग है। 

मन्दिर-मस्जिद-गिरिजा-गुरुद्वारा में भटकना, मूर्तिपूजा करना, पाँच वक़्त का नमाज़ पढ़ना, धर्म की परिभषा या परिधि में नहीं आता है। मान्यता, परम्परा, रीति-रिवाज, प्रथा, चलन, विश्वास इत्यादि का पालन करना एक नियमबद्ध समाज के परिचालन के लिए ज़रूरी है। इन सभी का ग़लत पालन कर दूसरों को कष्ट देना या ख़ुद को उच्च्तर मानना ग़लत है। 

जिस तरह हमारा संविधान बना और फिर समय व ज़रूरत के अनुसार उसमें संशोधन किए जाते हैं, उसी तरह हमारा धर्म होना चाहिए - इंसान का, इंसान के द्वारा, इंसान के लिए। जिसमें इंसान की स्वतंत्रता, समानता और सहृदयता का पालन करना ही धर्म हो। समय के बदलाव के साथ मनुष्य के 'इस' धर्म में परिवर्तन होना ज़रूरी है, परन्तु 'इस' धर्म का जो मुख्य तत्व है वह बरकरार रहना चाहिए। 

-जेन्नी शबनम (23.5.2023)
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Thursday, April 20, 2023

103. जीवन के यथार्थ से जुड़ी : मरजीना - दयानन्द जायसवाल

'मरजीना' क्षणिका-संग्रह जेन्नी शबनम, दिल्ली की यह कृति जीवन के यथार्थ से जुड़ी विविध पक्षों को बड़ी ख़ूबसूरती के साथ प्रस्तुत करती है। कवयित्री की यह तीसरी पुस्तक है जो सच्ची और अच्छी भावनाओं का सुंदर दस्तावेज़ है, जिसमें एक कोमल भाव-भूमि की प्रस्तुति है, अपनी संस्कृति और अतीत के वैभव के लिए अटूट आस्था और विश्वास है तथा एक सकारात्मक दृष्टिकोण है जो आज हाथ से फिसलता जा रहा है। इनका यह काव्य-संग्रह एक दिशा बनाता है कि जहाँ हम जन्मे हैं, जिसकी मिट्टी में पलकर बड़े हुए हैं वह भूमि हमारे लिए सर्वोपरि है।
'मरजीना' शब्द ही अपने आप में बहुत ही अच्छा और ख़ूबसूरत है, जिसे लोग काफ़ी पसंद करते हैं। यह मज़बूत व्यक्तित्व को दर्शाता है। यह शब्द अरबी भाषा के 'मर्जान' से बना है जिसका अर्थ ही छोटा मोती है। संग्रह का हर मोती कवयित्री ने सागर की गहराई से चुन-चुनकर लाया है। जेन्नी शबनम जी को विद्यालयी जीवन से ही लिखने-पढ़ने तथा सर्जनात्मक कार्यों में अभिरुचि रही है। इनको इनकी माता का आशीर्वाद रहा है, उन्हें भी हिन्दी के प्रति काफ़ी रुचि थी।
       भावनाओं की दृष्टि से 'मरजीना' की काव्यधारा जब विभिन्न तटों का स्पर्श करती हुई बहती है, तो रास्ते में जो ठहराव मिलते हैं वो इन खण्डों में विभक्त हैं- 'रिश्ते', 'स्टैचू बोल दे', 'जी चाहता है', 'अंतर्मन', 'सवाल', 'स्वाद/बेस्वाद', 'इश्क़', 'कहानी', 'समय-चक्र', 'सच', 'घात', 'बेइख़्तियार', 'औरत', 'साथी', 'तुम', 'समय' और 'चिन्तन'।
इनकी पहली क्षणिका 'मरजीना' से है-
"मन का सागर दिन-ब-दिन और गहरा होता जा रहा
दिल की सीपियों में क़ैद मरजीना बाहर आने को बेकल
मैंने बिखेर दिया उन्हें कायनात के वरक़ पर।''
हिन्दी साहित्य में क्षणिकाएँ भी बेहद प्रचलित हैं। क्षण की अनुभूति को शब्दों में पिरोकर साहित्यिक रचना ही क्षणिका होती है, अर्थात मन में उपजे गहन विचार को कम शब्दों में इस प्रकार बाँधना कि कलम से निकले हुए शब्द सीधे पाठक के हृदय में उतर जाए। इसे हम छोटी कविता भी कह सकते हैं। जीवन अनुभव जितना विराट और वैविध्य होगा क्षणिकाएँ उतनी ही अधिक प्रभावी होगी।
कवयित्री बड़ी सरलता से क्षणिका का सहारा लेती हुई समाज को सन्देश दे रही है जो जीवन के व्यावहारिक पक्ष से सम्बंधित सिद्धांत, नीति अथवा अनुभवसिद्ध तथ्य की पुष्टि करते हैं। इससे जीवन की सच्ची परिस्थितियों का मार्मिक अनुभव व्यक्त होता है-
"ख़ौफ़ के साये में ज़िन्दगी को तलाशती हूँ
ढेरों सवाल हैं पर जबाव नहीं
हर पल हर लम्हा एक इम्तिहान से गुज़रती हूँ
ख़्वाहिशें इतनी कि पूरी नहीं होती  
कमबख़्त, ये ज़िन्दगी मौक़ा नहीं देती।"
जीवन अनुभवों की गहराइयों में उतरकर कविता रचती कवयित्री में संक्षिप्तिकरण की अद्भुत क्षमता है। नारी जीवन की अनेक विडंबनाओं, आशाओं, निराशाओं, मन के भावचित्रों, अनुभूतियों, कल्पनाओं और यथार्थों का जो वर्णन मानवीय सम्बन्धों के माध्यम से व्यक्त की हैं, इस प्रकार है-
"स्त्री की डायरी उसका सच नहीं बाँचती
स्त्री की डायरी में उसका सच अलिखित छपा होता है
इसे वही पढ़ सकता है, जिसे वह चाहेगी
भले ही दुनिया अपने मनमाफ़िक़
उसकी डायरी में हर्फ़ अंकित कर ले।"
x x x x
"रिश्तों की कशमकश में ज़ेहन उलझा है
उम्र और रिश्तों के इतने बरस बीते
मगर आधा भी नहीं समझा है
फ़क़त एक नाते के वास्ते
कितने-कितने फ़रेब सहे
घुट-घुटकर जीने से बेहतर है
तोड़ दें नाम के वह सभी नाते
जो मुझे बिल्कुल समझ नहीं आते।"
इन पंक्तियों में एक गहन अनुभूति पीड़ा व संवेदना निहित है तथा रिश्तों की विसंगतियों और मज़बूरियों में निजी जीवन की आहुति दे दी जाती है। इसमें आंतरिक सन्त्रास, अंतर्द्वंद्व और घुटन की अभिव्यक्ति है जो सामाजिक जीवन के प्रति विद्रोह को स्पष्ट करता है। हमारा जीवन एक अनबुझ पहेली है। इसमें कई तरह के सवाल हैं जो अनेक अर्थों को प्रतिपादित करता है। जीवन समाप्त हो जाता है, पर सवाल रह जाते हैं-
"सवालों का सिलसिला
तमाम उम्र पीछा करता रहा
इनमें उलझकर मन लहूलुहान हुआ
पाँव भी छिले चलते-चलते,
आख़िरी साँस ही आख़िरी सवाल होंगे।"

साहित्य में प्रेम का विषय हमेशा प्रासंगिक रहा है। यह सबसे शुद्ध और सबसे ख़ूबसूरत एहसास है जिसे प्राचीन काल से गाया जाता रहा है। इसकी अनुभूति से हमारा अनुभव रूपांतरित होता है और प्रत्येक वस्तु में दिव्यता तथा आध्यात्मिकता का आविर्भाव होता है। प्रेम स्वयं में व्यापक, विराट व शक्तिशाली अनुभूति है। इसके जागृत होते ही आत्मा की तत्काल अनुभूति हो जाती है। प्रेम की अनुभूति जाग्रत होने से पहले सबकुछ निर्जीव, आनंदरहित व जड़ है। किन्तु इसके जागृत होते ही सबकुछ प्रफुल्लित, दिव्य, चैतन्य और आलोकमय हो जाता है। इसलिए कवयित्री कहती है-
"अल्लाह ! एक दुआ क़बूल करो
क़यामत से पहले इतनी मोहलत दे देना
दम टूटे उससे पहले
इश्क़ का एक लम्हा दे देना।"
संग्रह की अन्य कविताएँ भी विविध भाव व्यक्त करतीं हैं। भावनाओं के अलावा काव्य सृजन के मामले में भी उत्कृष्ट हैं, भाषा में प्रवाह है तथा शिल्प-सौंदर्य है। कवयित्री को हार्दिक
बधाई

-दयानन्द जायसवाल (18.10.2022)
प्रकाशक- अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली
मो- 9716927587
कवयित्री जेन्नी शबनम- 9810743437
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Sunday, March 5, 2023

102. नवधा : ख़ुद को बचा पाने का संघर्ष - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

तसलीमा नसरीन जी और मैं (दाहिने)

 

'नवधा' मेरा चौथा काव्य-संग्रह है तथा 'झाँकती खिड़की' पाँचवाँ, जिसका लोकार्पण अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला, नई दिल्ली में दिनांक 4 मार्च 2023 को हुआ। नवधा की भूमिका आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने लिखी है। प्रस्तुत है उनकी लिखी संक्षिप्त भूमिका:   

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'


प्रवाह के आगे आने वाली शिलाओं पर उछलते-कूदतेफलाँगतेघाटियों में गाते-टकराते नदी बहती जाती है। जीवन इसी नदी का नाम है, जो सुख-दुःख के दो किनारों के बीच बहती है। जब ये अनुभूतियाँ शब्दों में उतरती हैंतो साहित्य का रूप ले लेती हैं। डॉ. जेन्नी शबनम का बृहद् काव्य-संग्रह ‘नवधा’ जीवन की उसी यात्रा में नव द्वारों के माध्यम से प्रस्तुत की गई व्याख्या है।

  

यह काव्य-संग्रह एक स्त्री के उस संघर्ष की कथा हैजो अपने वजूद की तलाश में हैजो सिर्फ़ एक स्त्री बनकर जीना चाहती है। ये अनुभूतियाँ: 1. हाइकु, 2. हाइगा, 3. ताँका, 4. सेदोका, 5. चोका, 6. माहिया, 7. अनुबन्ध, 8. क्षणिकाएँ और 9. मुक्तावलि खण्डों में काव्य की विभिन्न शैलियों में अभिव्यक्त हुई हैं। जेन्नी शबनम का रचना-संसार किसी बाध्यता का नहींबल्कि अनुभूति के गहन उद्वेलन का काव्य है। काव्य की भारतीय और  जापानी शैलियों पर आपका पूरा अधिकार है।


हाइकु जैसी आकारगत छोटी-सी विधा में अपने जीवन के अनुभूत सत्य- प्रेम को ‘साँकल’ कहा हैवह भी अदृश्य-

प्रेम बन्धन / न रस्सी न साँकल / पर अटूट 

लेकिन जो मनोरोगी होगा, वह इस प्रेम को कभी नहीं समझेगा, ख़ुद भी रोएगा और दूसरों को भी आजीवन रुलाता रहेगा-

मन का रोगी भेद न समझता रोता-रुलाता।   

जीवन के विभिन्न रंगों की छटा हाइकु-खण्ड में दिखाई देती है। कोई डूब जाएतो नदी निरपराध होने पर भी व्यथित हो जाती है-

डूबा जो कोई / निरपराध नदी फूटके रोई।   


हाइगा तो है ही चित्र और काव्य का संयोग। सूरज के झाँकने का एक बिम्ब देखिए-

सूरज झाँका / सागर की आँखों में रूप सुहाना। 

क्षितिज पर बादल और सागर का एकाकार होनागहन प्रेम का प्रतीक होने के साथ मानवीकरण की उत्कृष्ट प्रस्तुति है-

क्षितिज पर / बादल व सागर / आलिंगन में।

पाँव चूमने। लहरें दौड़ी आईं मैं सकुचाई। 


ताँका के माध्यम से आप शब्द की शक्ति का प्रभाव इंगित करती हैं। सरलसहज शब्दावली यदि अभिव्यक्ति की विशेषता हैतो उत्तेजना में कही बात एक लकीर छोड़ जाती है। कवयित्री कहती है-

सरल शब्द सहज अभिव्यक्ति भाव गम्भीर, / उत्तेजित भाषण खरोंच की लकीर। 

शब्दों के शूल कर देते छलनी कोमल मन, / निरर्थक जतन अपने होते दूर। 


सेदोका 5-7-7 के कतौता की दो अधूरी कविताओं की पूर्णता का नाम है। दो कतौता मिलकर एक सेदोका बनाते हैं। अगस्त 2012 के अलसाई चाँदनी’ सम्पादित सेदोका-संग्रह से जेन्नी शबनम जी ने तब भी और आज भी इस शैली की गरिमा बढ़ाई है। एक उदाहरण-

 दिल बेज़ार रो-रोकर पूछता- / क्यों बनी ये दुनिया? / ऐसी दुनिया- जहाँ नहीं अपना / रोज़ तोड़े सपना। 


चोका 5-7… अन्त में 7-7 के क्रम में विषम पंक्तियों की कविता है। जेन्नी जी की इन कविताओं में जीवन को गुदगुदाते-रुलाते सभी पलों का मार्मिक चित्र मिलता है। सुहाने पलनया घोसलाअतीत के जो पन्नेवक़्त की मर्ज़ी ये सभी चोका भाव-वैविध्य के कारण आकर्षित करते हैं।   


माहिया गेय छन्द हैजिसमें द्विकल (या 1+1=2) की सावधानी और 12-10-12 की मात्राओं का संयोजन करने पर इसकी गेयता खण्डित नहीं होती। ये माहिया मन को गुदगुदा जाते हैं-

तुम सब कुछ जीवन में मिल न सकूँ फिर भी रहते मेरे मन में।   

हर बाट छलावा है चलना ही होगा पग-पग पर लावा है।


अनुबन्ध’ खण्ड की ये पंक्तियाँ गहरा प्रभाव छोड़ती हैं- 

''ज़ख़्म गहरा देते हो हर मुलाक़ात के बाद और फिर भी मिलने की गुज़ारिश करते हो।''


क्षणिकाओं मेंऔरतपिछली रोटीस्वाद चख लियामेरा घरस्टैचू बोल देमुक्तावलि की कविताओं में- परवरिशदड़बा और तकरार हृदयस्पर्शी हैं। इनमें जीवन-संघर्ष और अन्तर्द्वन्द्व को सफलतापूर्व अभिव्यक्त किया है।


जेन्नी जी का यह संग्रह पाठकों को उद्वेलित करेगातो रससिक्त भी करेगाऐसी आशा है।

 

14.01.2023                                             -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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- जेन्नी शबनम (4.3.2023)
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Monday, January 30, 2023

101. मम्मी (दूसरी पुण्यतिथि)

मम्मी को गुज़रे हुए आज 2 वर्ष हो गए। मम्मी अब यादें बन गईं, पर अब भी लगता है जैसे कहीं गई हैं और लौटकर आ जाएँगी। जानती हूँ वे अब कभी नहीं आएँगी। मेरा मानना है कि मृत्यु के बाद सब ख़त्म। न कोई ऐसी दुनिया होती है जहाँ मृतक रहते हैं, न कोई मरकर तारा बनता है, न पुनर्जन्म होता है, न ही कोई आत्मा-परमात्मा हमें देखता है। हाँ, यह सच है कि अगर पुनर्जन्म या आत्मा-परमात्मा पर विश्वास किया जाए तो ख़ुद को सन्तोष और ढाढस मिलता है कि हमारा अपना और हमारा भगवान् हमारे साथ है। पर कमबख़्त मेरा दिमाग वैसा बना ही नहीं, जो इन विश्वासों और आस्थाओं पर यक़ीन करे। 
 
मम्मी जब तक जीवित रहीं, तब तक ही वे हमारे लिए थीं। अब उनका काम, सोच और निशानियाँ शेष हैं जो हमारे साथ है। मम्मी के कपड़े, बैग, चश्मा, चप्पल, छड़ी इत्यादि भागलपुर में मम्मी के अपने मेहनत के पैसे से बनवाए घर में रखा है। घर आज भी वैसे ही फूलों से खिला हुआ है, जैसा मम्मी छोड़ गई। मम्मी का अन्तिम फ़ोन अब मेरे पास है, जिसे छूकर मम्मी के छुअन का एहसास कर लेती हूँ। मम्मी का फ़ोन नम्बर, जिसे अब मैं इस्तेमाल करती हूँ, को अब भी मम्मी के नाम से ही रखा है। मम्मी के उस फ़ोन से अपने दूसरे नम्बर पर कॉल करती हूँ या कोई सन्देश भेजती हूँ, तो लगता है जैसे मम्मी ने किया है। क्षणिक ही सही, पर मेरे लिए जीवित हो जाती हैं मम्मी। 

मैं जानती हूँ मम्मी के कार्य के कारण उनका बहुत विस्तृत सम्पर्क और समाज था। सभी लोग अब भी उन्हें याद करते हैं। परन्तु यह भी सच है समय के साथ सभी लोग धीरे-धीरे उन्हें भूलने लगेंगे। शायद मुझे और मेरे भाई को ही सिर्फ़ याद रह जाएँगी। जिस तरह मेरे पापा का मम्मी से भी बड़ा विस्तृत समाज था, परन्तु अब लोग भूल गए हैं। पापा के कुछ बहुत नज़दीकी मित्र व छात्र ही उन्हें अब भी यादों में रखे हुए हैं। उसी तरह मम्मी भी भुला दी जाएँगी। बस कुछ ही लोगों की यादों में जीवित रहेंगी। 

मम्मी की मृत्यु के बाद सारे संस्कार किये गए। पिछले वर्ष वार्षिक श्राद्ध हुआ। इस साल जब श्राद्ध होना था, तो कुछ लोगों ने कहा कि 'गया' में जाकर मम्मी-पापा के लिए पिण्डदान कर दिया जाए। एक बार बरखी (वार्षिक श्राद्ध) हो गया है, तो अब ज़रूरी नहीं है। गया में भी हो जाए पिण्डदान, क्या फ़र्क पड़ता है। पर मेरे लिए मम्मी का वार्षिक श्राद्ध करना न मज़बूरी है, न धार्मिक भावना। हर वर्ष वार्षिक श्राद्ध होगा, जिसमें पूजा नहीं भोज होगा। साल में एक बार अपने लोग एकत्रित होंगे, मम्मी-पापा और दादी की यादों को जिएँगे। मम्मी के पसन्द का भोजन करेंगे।    

एक दिन मैं सोच रही थी कि सच में ऐसी कोई दुनिया होती, जहाँ मृत्यु के बाद लोग रहने चले जाते; तब तो सच में बहुत अच्छा होता। मम्मी को वहाँ पूरा परिवार मिल जाता। मेरे दादा-दादी, नाना-नानी, मौसा-मौसी, फुआ-फूफा, बड़का बाबूजी-मइया, चाचा-चाची, मामा, पापा और अन्य ढेरों अपने जो छोड़ गए; मम्मी सबसे मिलतीं। क्या मस्ती भरा समय होता। महात्मा गांधी भी वहाँ मिलते, जिनके आदर्श पर पापा-मम्मी चलते रहे। जब गांधी जो को मम्मी बताएँगी कि भागलपुर में 'गांधी पीस फाउण्डेशन' की स्थापना पापा ने की और मम्मी ने उसे चलाया, तो बापू कितने खुश होंगे। यों बापू की पुण्यतिथि पर मम्मी भी इस संसार से विदा हुईं। काश! ऐसी कोई दुनिया होती, जहाँ मृत्यु के बाद सभी अपने मिल जाते

जानती हूँ, ज़िन्दगी उस तरह नहीं मिलती जैसी चाहत होती है। एक दिन किसी ने कहा ''अकेली तुम ही नहीं हो जिसका बाप मरा है।'' हालाँकि मम्मी उस समय जीवित थीं, पर उनको यह नहीं बताया कि किसने ऐसा कहा है; क्योंकि वे मेरी सारी तकलीफ़ बिना मेरे कहे समझती थीं। हाँ, जानती हूँ कि इस संसार में मुझसे ज़्यादा बहुत लोग दुःखी हैं, पर मेरा दुःख इससे कम नहीं होता बल्कि उनका दुःख भी मुझे पीड़ा पहुँचाता है। क्या करूँ, अपने स्वभाव से लाचार हूँ। 
दादी, पापा, मम्मी
कई बार सोचती हूँ कि शायद मैं ज़रूरत से ज़्यादा भावुक या संवेदनशील हूँ। छोटी-छोटी बातें चुभ जाती हैं, तो माता-पिता का गुज़र जाना कितनी पीड़ा देगी। पिता बचपन में चले गए, 14 वर्ष पूर्व दादी चली गईं, माँ दो साल पहले चली गईं; दुःखी होना लाज़िमी है, पर इतना भी नहीं जितना मुझे होता है। पर क्या करूँ? एक मम्मी थीं, जो अपना कष्ट भूलकर मेरे लिए चिन्तित रहती थीं। वे जब भी मुझसे मेरी तबीयत या समस्या पूछतीं, तो मैं नहीं बताती थी। मैं सोचती थी कि वे शारीरिक रूप से बहुत ज़्यादा अस्वस्थ हैं, ऐसे में अपनी समस्या क्यों बताना; भले वे सब समझ जाती थीं। अब मम्मी न रहीं, तो सोचती हूँ कि अब कोई नहीं जो मुझसे पूछेगा- ''तुम कैसी हो, शूगर कितना है, यह मत खाओ, वह मत खाओ...।'' अब कोई नहीं जो मेरा सम्बल बने और कहे कि ''मैं हूँ न, तुम चिन्ता न करो।''  

मम्मी 
*** 
जीवन का दस्तूर   
सबको निभाना होता है   
मरने तक जीना होता है।   
तुम जीवन जीती रही   
संघर्षों से विचलित होती रही   
बच्चों के भविष्य के सपने   
तुम्हारे हर दर्द पर विजयी होते रहे   
पाई-पाई जोड़कर   
हर सपनों को पालती रही   
व्यंग्यबाण से खुदे हर ज़ख़्म पर   
बच्चों की ख़ुशियों के मलहम लगाती रही। 
  
जब आराम का समय आया   
संघर्षों से विराम का समय आया   
तुम्हारे सपनों को किसी की नज़र लग गई   
तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार फिर बिखर गई   
तुम रोती रही, सिसकती रही   
अपनी क़िस्मत को कोसती रही।
   
अपनी संतान की वेदना से   
तुम्हारा मन छिलता रहा   
उन ज़ख़्मों से तुम्हारा तन-मन भरता रहा   
अशक्त तन पर हज़ारों टन की पीड़ा   
घायल मन पर लाखों टन की व्यथा   
सह न सकी यह बोझ   
अंततः तुम हार गई   
संसार से विदा हो गई   
सभी दुःख से मुक्त हो गई।
   
पापा तो बचपन में गुज़र चुके थे   
अब मम्मी भी चली गई   
मुझे अनाथ कर गई   
अब किससे कहूँ कुछ भी   
कहाँ जाऊँ मैं? 
  
तुम थी तो एक कोई घर था   
जिसे कह सकती थी अपना   
जब चाहे आ सकती थी   
चाहे तो जीवन बिता सकती थी   
कोई न कहता-   
निकल जाओ   
इस घर से बाहर जाओ   
तुम्हारी कमाई का नहीं है   
यह घर तुम्हारा नहीं है।
   
मेरी हारी ज़िन्दगी को एक भरोसा था   
मेरी मम्मी है न!  
पर अब?   
तुमसे यह तन, तुम-सा यह तन   
अब तुम्हारी तरह हार रहा है   
मेरा जीवन अब मुझसे भाग रहा है।
   
तुम्हारा घर अब भी मेरा है   
तुम्हारा दिया अब भी एक ओसारा है   
पर तुम नहीं हो, कहीं कोई नहीं है   
तुम्हारी बेटी का अब कुछ नहीं है   
वह सदा के लिए कंगाल हो गई है।
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मम्मी-पापा
महात्मा गांधी की 75वीं पुण्यतिथि और मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि पर मेरा प्रणाम!

-जेन्नी शबनम (30.1.2023)
(मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि)
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