Friday, December 17, 2010

15. लुप्त होते लोकगीत

हमारी लोक-संस्कृति हमेशा से हमारी परम्पराओं के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती रही है कुछ दशक पूर्व तक आम भारतीय इसकी क़ीमत भी समझते थे और इसको संजोकर रखने का तरीक़ा भी जानते थे लेकिन आज ये चोटिल है, आर्थिक उदारवाद से उपजे सांस्कृतिक संक्रमण ने सब कुछ जैसे ध्वस्त कर दिया है हम नक़ल करने में माहिर हो चुके हैं, वहीं अपनी स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं आश्चर्य की बात है कि हर व्यक्ति यही कहता है कि हमारी संस्कृति नष्ट हो गई है, उसे बचाना है, पाश्चात्य संस्कृति ने इसे ख़त्म कर दिया हैलेकिन शायद लोक-परम्पराओं के इस पराभव में वे ख़ुद शामिल हैं कौन है जो हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है? हमारी ही संस्कृति क्यों प्रभावित हो रही है, दूसरे देशों की क्यों नहीं? आज भी दुनिया के तमाम देश अपनी लोक-परम्पराओं को जतन से संजोकर रखे हैं दोष हर कोई दे रहा, लेकिन इसके बचाव में कोई क़दम नहीं, बस दोष देकर कर्त्तव्य की इतिश्री 
  
लोक-संस्कृति के जिस हिस्से ने सर्वाधिक संक्रमण झेला है, वह है लोकगीत आज लोकगीत गाँव, टोलों, कस्बों से ग़ायब हो रहे हैं कान तरस जाते हैं नानी-दादी से सुने लोकगीतों को दोबारा सुनने के लिए। 
 
हमारे यहाँ हर त्योहार और परम्परा के अनुरूप लोकगीत रहे हैं और आज भी ग्रामीण और छोटे शहरी क्षेत्रों में रहने वाले बड़े-बुज़ुर्गों में इनकी अहमियत बनी हुई है विवाह के अवसर पर राम-सीता और शिव-पार्वती के विवाह-गीत के साथ ही हर विधि के लिए अलग-अलग गीत, शिशु जन्म पर सोहर, बिरहा, कजरी, सामा-चकवा, तीज, भाई दूज, होली पर होरी, छठ पर्व पर छठी मइया के गीत, रोपाई-बिनाई के गीत, धान कूटने के गीत, गंगा स्नान के गीत आदि सुनने को मिलते थे जीवन से जुड़े हर शुभ अवसर, महत्वपूर्ण अवसर के साथ ही रोज़मर्रा के कार्य के लिए भी लोकगीत रचे गए हैं  
 
एक प्यारे से गीत के बोल याद आ रहे हैं, जो अपने गाँव में बचपन में सुनी हूँ…
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी
पुआ के बड़ाई अपन फुआ से कहिय
ललन सुखदायी,
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी
कचौड़ी के बड़ाई अपन भउजी से कहिय
ललन सुखदायी…
खाना पर बना यह गीत मुझे बड़ा मज़ा आता था सुनने में इसमें सभी नातों और भोजन को जोड़कर गाते हैं, जिसमें दूल्हा अपने ससुराल आया हुआ है और उसे कहा जा रहा कि यहाँ जो कुछ भी स्वागत में खाने को मिला है वह सभी इतना स्वादिष्ट है कि अपने घर जाकर अपने सभी नातों से यहाँ के खाने की बड़ाई करना।  
 
एक और गीत है जिसे भाई दूज के अवसर पर गाते हैं इसमें पहले तो बहनें अपने भाई को श्राप देकर मार देती हैं फिर जीभ में काँटा चुभाकर स्वयं को कष्ट देती हैं कि इसी मुँह से भाई को श्राप दिया और फिर भाई की लम्बी आयु के लिए आशीष देती हैं...
जीय जीय (भाई का नाम) भइया लाख बरीस
(बहन का नाम लेकर) बहिनी देलीन आसीस हे…
मुझे याद है गाँव में आस-पास की सभी औरतें इकठ्ठी हो जाती थीं और सभी मिलकर एक-एककर अपने अपने भाइयों के लिए गाती थीं मैं तो कभी यह की नहीं, लेकिन मेरे बदले मेरे भाई के लिए मेरी मइया (बड़ी चाची) शुरू से करती थीं अब तो सब विस्मृत हो चुका है, मेरे ज़ेहन से भी और शायद इस लोकगीत को गाने वाले लोगों की पीढ़ी के ज़ेहन से भी
पारम्परिक लोकगीत न सिर्फ़ अपनी पहचान खो रहा है; बल्कि मौजूदा पीढ़ी इसके सौंदर्य को भी भूल रही है हर प्रथा, परम्परा और रीति-रिवाज के अनुसार लोकगीत होता है और उस अवसर पर गाया जाने वाला गीत न सिर्फ़ महिलाओं को बल्कि पुरुष को भी हर्षित और रोमांचित करता रहा है लेकिन जिस तरह किसी त्योहार या प्रथा का पारम्परिक स्वरूप बिगड़ चुका है, उसी तरह लोकगीत कहकर बेचे जाने वाले नए उत्पादों में न तो लोकरंग नज़र आता है न गीत जहाँ सिर्फ़ लोकगीत होते थे, अब उनकी जगह फ़िल्मी धुन पर बने अश्लील गीत ले चुके हैं अब सरस्वती पूजा हो या दुर्गा पूजा, पंडाल में सिर्फ़ फ़िल्मी गीत ही बजते हैं होली पर गाया जाने वाला होरी तो अब सिर्फ़ देहातों तक सिमट चुका है गाँव में भी रोपनी या कटनी के समय अब गीत नहीं गूँजते सोहर, विरही, झूमर, आदि महज़ टी.वी. चैनल के क्षेत्रीय कार्यक्रम में दिखता है विवाह हो, शिशु जन्म हो या कोई अन्य ख़ुशी का अवसर, फ़िल्मी गीत और डी.जे. का हल्ला गूँजता है यहाँ तक कि छठ पूजा, जो बिहार का सबसे बड़ा पर्व माना जाता, उसमें भी लाउड-स्पीकर पर फ़िल्मी गाना बजता है यों औरतें अब भी छठी मइया का पारम्परिक गीत गातीं हैं अब तो आलम ये है कि भजन भी अब किसी प्रचलित फ़िल्मी गाना की धुन पर लिखा जाने लगा है किसी के पास इतना समय नहीं कि सम्मिलित होकर लोकगीत गाएँ विवाह भी जैसे निपटाने की बात हो गई है पूजा-पाठ हो या कोई त्योहार, करते आ रहे हैं इसलिए करना है जिसका जितना बड़ा पंडाल, जितना ज़्यादा ख़र्च वह सबसे प्रसिद्ध लोकगीतों का वक़्त अब टी.वी. ने ले लिया है गाँव-गाँव में टी.वी. पहुँच चुका है; भले ही कम समय के लिए बिजली रहे पर जितनी देर रहे लोग एक साथ होकर भी साथ नहीं होते, उनकी सोच पर टी.वी. हावी रहता है कुछ आदिवासी क्षेत्र को छोड़ दें तो कहीं भी हमारी पुरानी परम्परा नहीं बची है, न पारम्परिक लोकगीत अब अगर जो बात की जाए कि कोई लोकगीत सुनाओ, तो बस भोजपुरी अश्लील गाना सुना दिया जाता है, जैसे यह लोकगीत का पर्याय बन चुका हो
नहीं मालूम लोकगीत का पुनरागमन होगा कि नहीं, लेकिन पूर्वी भारत में लोकगीतों का लुप्त होना इस सदी का सबसे बड़ा सांस्कृतिक क्षय है; क्योंकि परिवार और समाज की टूटन कहीं-न-कहीं इससे प्रभावित हैगाँव से पलायन, शहरीकरण और औद्योगीकरण इस सांस्कृतिक ह्रास का बहुत बड़ा कारण है हम किसी संस्कृति को दोष नहीं दे सकते कि उसके प्रभाव से हमारी संस्कृति नष्ट हुई है; बल्कि हम स्वयं इन सबको छोड़ रहे हैं और ज़िन्दगी को जीने के लिए नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धा में झोंक रहे हैं पारम्परिक लोकगीत गाने वाले अब बहुत कम लोग बचे हैं और आज की पीढ़ी सीखना भी नहीं चाहती है ऐसे में लोकगीत का भविष्य क्या होगा? क्या यों ही अपनी पहचान खोकर कहीं किसी कोने में पड़े-पड़े अपने ही लिए गाए शोक-गीत?
 
-जेन्नी शबनम (17.12.2010)
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Sunday, October 17, 2010

14. ये डिग्रियाँ ये तमग़े भला किस काम के




ढेर सारी डिग्रियाँ, प्रशंसा पत्र, कार्य-कुशलता प्रमाण पत्र और अन्य सर्टिफिकेट्स की भरमार! फिर ऐसा क्यों है कि जीवन के हर क्षेत्र में सिर्फ़ हार मिलती है क्या ये डिग्रियाँ महज़ काग़ज़ का टुकड़ा है या उस वक़्त की सक्षमता, अध्ययनशीलता और कार्यकुशलता की निशानी, जो अब अक्षमता में बदल चुकी है ऐसा क्यों होता है? बचपन से अब तक की सभी सफलताएँ यों अचानक कैसे असफलता में बदल जाती हैं? ऐसा कैसे हो जाता है? क्यों हो जाता है? क्यों हर वक़्त उम्मीद की जाती है कि शिक्षित स्त्री से कभी कोई ग़लती हो ही नहीं सकती? जीवन के हर क्षेत्र में उसके 'परफेक्ट' होने की न सिर्फ़ उम्मीद बल्कि उसे 'होना ही है' ऐसा माना जाता है कोई चूक नहीं होनी चाहिए, चाहे वह उसके शिक्षा प्राप्ति का विषय रहा हो या नहीं, उसने उस सम्बन्ध में कभी जाना हो या नहीं हर वक़्त हर अपेक्षाओं की हर कसौटी पर खरा उतरने की न सिर्फ़ उम्मीद बल्कि खरा सोना की तरह 24 कैरेट खरा होने की बाध्यता भी होती है  
 
इससे भली तो वे स्त्रियाँ हैं, जिन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली हैं उनका जीवन न तो अवसाद में बीतता है न पति या ससुराल वालों को शिकायत रहती है कि वह कोई भी ग़ैर-वाज़िब माँग कर सकती है इनके मन में भले ही शिकायत हो, पर ज़ुबाँ पर लाने का साहस नहीं करती हैं इनसे सिर्फ़ घर चलाने तथा पति व ससुराल वालों के सत्कार की उम्मीद की जाती है भले ही बात-बात पर ताना सुनती है कि कैसी गँवार से पाला पड़ा है, मूर्ख है कोई बात नहीं समझती है पति की हमबिस्तर होने के दौरान सोने के कोई ज़ेवर या कोई उपहार माँग ले, तो पति सोचता है चलो फिर भी यह सस्ते का सौदा है, ज़ेवर या उपहार के बदले में पत्नी और भी अच्छी ग़ुलाम बनके रहेगी। कॉल गर्ल या वेश्या के पास जाओ तो शायद इससे ज़्यादा की माँग कर बैठती और एक-एक पल का हिसाब चुकता करना पड़ता घर के काम के लिए अगर कामवाली को रखो, तो हर काम के लिए अलग-अलग पैसे दो समाज में मुफ़्त में तारीफ़ भी मिल जाती है कि वह कितना अच्छा पति है, अपनी गँवार और अनपढ़ पत्नी को कितना मानता है इधर पत्नी भी ख़ुश, इठलाते हुए अपना तोहफ़ा सबको दिखाती है कि एक और ज़ेवर या उपहार पति परमेश्वर ने दिया मन में सोचती है कि उसकी माँग पर यह भी हो सकता था ज़ेवर तो दूर की बात दो-चार थप्पड़ जड़ देता तो? क्या ये कम नहीं कि हर पर्व-त्योहार पर जब अपनी माँ के लिए साड़ी खरीदता है, अपनी पत्नी को भी साड़ी देता है कभी-कभार की मार भूल जाए, तो उसे जलाया तो नहीं गया न, क्या ये कम एहसान है ससुरालवालों का या पति परमेश्वर का जब भी पति के लिए तीज का व्रत रखो तो पति महोदय के चेहरे की मुस्कान और पत्नी के साथ सुबह-सुबह उठकर उसके खाने के प्रबंध में हिस्सा लेना, क्या ये कम बड़ी बात हुई भला! साल में ऐसा मौक़ा बार-बार तो आता नहीं जब पूजा के कारण सम्मान मिले, इसलिए इस पक्के फ़ायदे का लाभ उठाने से चूकना भी नहीं चाहिए एक तो नई साड़ी, उस पर से पति का प्यार! वाह! वाह!


अरे निरक्षर होने का बहुत फ़ायदा है एक तो मलाल नहीं रहता कि इतना पढ़-लिखकर क्या किया, क्या यही चूल्हा-चौका! अब चूल्हा-चौका को क्या पता कि काम करने वाली स्त्री शिक्षित है कि अशिक्षित? चूल्हा तो हर हाल में जलेगा और चौका है तो खाना पकेगा ही, घर के लोग शिक्षा देखकर भूख़ पर नियंत्रण थोड़े न रखेंगे! अब भला भूख का भी शिक्षा से क्या सम्बन्ध? खाना स्वादिष्ट होना चाहिए बस, भले विटामिन को पानी में धोकर बहा दिया जाए या प्रोटीन को चूल्हा पर जला दिया जाए पति को पौष्टिक खाना नहीं बल्कि थाली में कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन और पत्नी का गर्व से मुस्कुराता चेहरा दिखना चाहिए बस। भले इससे पति महोदय हाथी से टक्कर लेने लगें और शरीर में रोग को न्योता देने लगें आजकल घर में एक कामवाली ज़रूर होती है; क्योंकि अब ये आम मध्यम वर्ग का ज़रूरी हिस्सा है अन्यथा लोग सोचेंगे कि निम्न वर्ग का घर है, भले ही घर में कई लोग हों काम करने के लिए।  
 
तो बस इनके फ़ायदे देखिए कामवाली ने सारा घर और रसोई साफ़ कर दी, कपड़े भी साफ़ कर दिए एक कप चाय और दो पावरोटी दे दो, तो सब्ज़ी भी कटवा लो और आँटा भी गूँथवा लो अब कपड़ा तो आयरन करने वाले को दे दिया, क्योंकि साहब को कड़क आयरन चाहिए, साथ में बच्चों का कपड़ा भी; क्योंकि स्कूल में साफ़ और अच्छा आयरन किया हुआ ड्रेस चाहिए तो इन सब कामों से छुटकारा अब पत्नी पढ़ी-लिखी नहीं तो पैसे के हिसाब-किताब से मुक्ति न बाज़ार-हाट करना है, न किसी सामान के ख़त्म होने या पैसा के कम होने की चिन्ता करनी है पति महोदय को जब समय मिले सामान ख़रीदकर लाएँगे, बस लिस्ट लिखवा देना है न उधो का लेना न माधो का देना! कोई चिक-चिक नहीं कि तुम ज़्यादा ख़र्च करती हो बस फिर क्या, सुबह फटाफट नाश्ता, टिफिन और बच्चे को तैयार कर देना हैफिर निश्चिन्त होकर चाहे तो सो जाओ या टी.वी. देखो। बच्चे दिन में आएँगे तो वक़्त पर जाकर उनको ले आना है और खाना खिला दिया, फिर कोई काम नहींसारा दिन पड़ोसी से गप्पे मारो या अपनी सहेली से, कौन पूछता है। बच्चों को पढ़ाने से भी छुटकारा, अनपढ़ माँ कैसे पढ़ा पाएगी बच्चे को? बच्चे भी मज़े में कि माँ को क्या पता कि वे क्या पढ़ रहे हैं, कम्प्यूटर पर पढ़ रहे हैं या मस्ती कर रहे हैं शाम को पति के आते ही सजकर पत्नी तैयार और मुस्कुराती हुई सामने हाज़िर ऑफ़िस में मूड ख़राब हो, तो बेवज़ह दो-चार झाड़ पड़ भी गया तो क्या, शाम को गरम पकौड़े और चाय के बाद सब ग़ुस्सा ख़त्म  
 
आजकल तो और भी अच्छा है, बच्चों ने ज़िद की कि बाहर का खाना खाएँगे, तो फिर कभी-कभी खाना पकाने से भी आराम सास-ससुर बुज़ुर्ग हुए तो 8-10 साल के बाद तो वैसे भी चिल्लाना कम कर देते हैं। उन्हें तो बस उनके पसन्द का खाना चाहिए और बेटा जब ऑफ़िस से आए तो बहु के पास नहीं जाना चाहिए इतना होता रहे तो किस बात का झगड़ा? सब मामला अपने-आप निबट और निबह जाता है कि बेटा अब भी बदला नहीं, आज भी ऑफ़िस से आकार पहले उन्हें मिलता है फिर घर में जाता है बहू से मिलने कभी-कभार बेटा से कहकर बहू को 2-4 गाली-गलौज सुनवा दो और पूरे रोब-दाब में रहो, फिर तो बहू जीवन भर सेवा करेगी ही मुफ़्त में बहूरानी भी ''जी माँ'' ''जी पापा'' कहकर अपने पति को ख़ुश करती रहती है, भले ही मन में सास-ससुर से नाराज़गी हो 
 
काम करने का मन न हो, तो ढेरों बहाने हैं तबीयत ख़राब होने केसिर में ख़ूब सारा तेल चुपड़कर चुपचाप पति के सामने शाम को जाएगी और चाय के साथ सूखा बिस्किट दे दिया पति समझ गए कि श्रीमती जी की तबीयत ठीक नहीं फिर आह-ओह करते हुए बिस्तर पर लेट गई आज तो पति का झाड़ भी न मिलेगा और काम से फ़ुर्सत सो अलग खाना बनाने के समय ये उठेंगी और आह-आह करते हुए रसोई में प्रवेश करेंगी ताकि पति जी सुन लें कि अब वह चौका में जा रही है पति कहेंगे कि छोड़ दो, आज खाना बाहर से मँगवा लेते हैं, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं। और ये मारा तीर निशाने पर ''नहीं-नहीं दवा ले लिया है, ठीक हो जाएगी तबीयत, काहे को पैसा बर्बाद करना, बस 10 मिनट में खाना बन जाएगा, तब तक आप टी.वी. देखिए न'' बढ़िया निशाना लगा, पति महोदय उठकर आएँगे बच्चों के पास बच्चे भी होशियार वक़्त का फ़ायदा उठाते हुए ''पापा आज बाहर से खाना मँगाओ न, रोज़-रोज़ घर का खाना खाकर बोर हो गए हैं और मम्मी बीमार भी तो है।'' क्या मारा, एक तीर कई निशाना, काम से आराम भी और बाहर का खाना बिना कहे आ गया सब पर धाक भी जम गया कि घर के प्रति वह कितनी ज़िम्मेदार है देखो खाना तो बना ही रही थी आप ही लोग बाहर से मँगवाए न! 

तो बात अब सीधी-सी है कि शिक्षित स्त्री भली कि अशिक्षित? दोनों के अपने-अपने फ़ायदे और नुक़सान अब ज़रा बेचारी शिक्षित स्त्री का मशीनी इंसान बनना देखिए

शिक्षित स्त्री से हर काम में अपेक्षा होती है कि वह उसे सही-सही निपटाएकभी ग़ुस्सा होकर पति या ससुराल वाले दो-चार बात सुना भी दें तो क्या, वह तो पढ़ी-लिखी समझदार है, उसे सहनशक्ति रखनी चाहिए अब चूल्हा-चौका और घर का काम तो छूटता नहीं चाहे शिक्षित हो या अशिक्षित इस पर अधिकार और एकछत्र राज़ करने का वरदान ईश्वर ने तो सिर्फ़ स्त्रियों को दिया है, तो भला पुरुष का प्रवेश कैसे हो? अब आजकल के कुछ नए युवा समझते नहीं, बस बीवी का हाथ बँटाने पहुँच जाते हैं चौका में। फिर देखो घर का कोहराम; अगर घर में सास-ननद हो इस कोहराम से तो भला है कि चौका को मन्दिर की तरह दूर से ही प्रणाम कर लें ऐसे घर के पति महाराज! अब बीवी शिक्षित है तो उम्मीद यही होती कि वह कमाकर भी लाए, खाना भी पकाए, बच्चों को भी पढ़ाए, आस-पड़ोस से अच्छा सम्बन्ध भी रखे सास-ससुर और उनके रिश्तेदारों तथा पति के मित्रों से प्रेम तथा शालीनता से पेश आए; भले वे लोग दुर्व्यवहार करें या कटाक्ष करें शिक्षित  कन्या तो इसीलिए लाए हैं न कि उसमें सहनशक्ति हो, वर्ना क्या कमी पड़ी थी लड़की की एक-एक पैसा सोच-समझकर ख़र्च करे, बच्चे बीमार पड़ें तो उसका ही दोष कि उसे बच्चे को सँभालना नहीं आता है खाना में कई पकवान न हो, तो पति का ग़ुस्सा दो-चार दिन पर निकलता ही है दो-चार चाँटा न पड़े तो दो-चार अपशब्द ही सही, पर पति का अधिकार है सुनाना और पत्नी का कर्तव्य है सुनना।  
 
घर की स्थिति में और सुधार लाना हो या स्त्री कैरियर कॉनशस है, तो ऐसे में उसका नौकरी करना लाज़िमी है उम्मीद की जाती है कि पढ़ी-लिखी लड़की किसलिए घर लाई गई, जब कमाकर घर में पैसा न लाए जब नौकरी के लिए बाहर जाती है, तो न सिर्फ़ पति बल्कि सास-ससुर और ननद-देवर भी शक से देखेंगे कि कहीं चक्कर तो नहीं चला रही है बाहरबात-बात पर ये शब्द कान में दे दिया जाएगा कि पता नहीं नौकरी करती है या गुलछर्रे उड़ाती है, इतना सजकर क्यों जाती हैथककर वह आए तो कोई एक कप चाय भी न पूछे उसके आने से पहले सभी लोग चाय पी लेंगे ताकि उसके लिए न बनाना पड़े अब वह अकेले के लिए तो बनाएगी नहीं, सबसे पूछेगी ''आप लोग चाय पिएँगे?'', सभी कहेंगे ''हमने तो पी लिया अब अगर तुम पूछ रही हो तो पी लेंगे'', जैसे कि चाय पीकर वे सभी उसपर एहसान करेंगे अगर कामवाली न आए तो चौका में सारा दिन का बर्तन ज्यों-का-त्यों पड़ा हुआ होगा जबकि काम वाली 4 बजे आती है, लेकिन तब से सास-ननद को समय नहीं मिला कि बर्तन धो लें, और जब बहूरानी चाय पीकर बर्तन धोने जाएगी तो वे कहेंगी ''हम तो इंतिज़ार कर रहे थे कि कामवाली शायद देर से आए, बस अब धोने ही जा रहे थे बर्तन कि तुम दोनों आ गई'' पति भी ख़ुश कि माँ को कितनी चिन्ता है बहू की अब बहू तो पढ़ी-लिखी, उसे संस्कारी भी तो बनना है। शिष्टाचार भी तो बहू के लिए ही तय होता है न! भला सास-ननद से बर्तन धुलवाए? भले थककर और काम कर-करके पीठ और कमर का दर्द आजीवन मोल ले ले  
 
सभी काम से निपटकर सोने जाओ तो बिस्तर पर पति को पत्नी नहीं बल्कि कोई नवयौवना चाहिए जो न सिर्फ़ उत्तेजित करे, बल्कि पूर्ण काम-संतुष्टि दे जैसा कि पाँच सितारा होटल की मँहगी कॉल गर्ल देती हों अगर वैसी संतुष्टि न मिले तो ये सुनिए ''अरे काम और नौकरी तो दोनों करके आए हैं, तुमने घर में दो-चार बर्तन क्या धो लिए और 4 रोटी क्या बना ली कि इतनी थक गई, क्या रोज़ रात में होटल में सोने जाऊँ?'' अब इसका क्या जवाब दे भला एक कथित शिक्षित नारी, जो पति की नज़र में बेकार है। नहीं मालूम क्यों नहीं समझ पाती ये शिक्षित स्त्रियाँ कि नारी का जन्म सिर्फ़ भोगने के लिए हुआ है, उसे अपने मन और ज़रूरत को समझाने का हक़ नहीं मिला  
 
अब पढ़ी लिखी माँ है तो यह जवाबदेही भी है कि बच्चों को वह पढ़ाए, बच्चों की सभी ज़रूरतें पूरी करे, बच्चों का मनोविज्ञान समझे घर में कोई कितना भी कुछ कह दे, अपनी छवि ऐसी बनाए रखनी है ताकि बच्चों पर ऐसा असर न हो कि उसकी माँ पढ़ी-लिखी होकर भी जाहिल है आख़िर माँ ही तो बच्चों की प्रथम शिक्षिका है और घर प्रथम पाठशाला, तो घर को मर्यादा में रखने की जवाबदेही भी उसी स्त्री की हुई। अब नौकरी करती है तो पाई-पाई का हिसाब जोड़ेगी ही, कोई भी फ़ालतू ख़र्च हुआ तो ज़ुबान खोल दीलो अब आ गई आफ़त! ''इतनी हिम्मत जो पति से पैसे का हिसाब पूछा, अरे मर्द है कमाता है, क्या वह अपने बाप के घर से लेकर आई है जो उसने पूछने की हिम्मत की?'' अब पैसा जितना है कामवाली तो रखना मुश्किल है, तो भाई मेहनत तो करनी ही पड़ेगी कभी बीमार पड़ जाओ तो और भी बड़ा कोहराम घर में अब तनख़्वाह कटेंगे सो अलग, काम न हो पाने से सारा दिन सबका ताना सुनना होगा सो अलग, पति महोदय अगर बाहर से खाना लेकर आ गए तो सीधा इल्ज़ाम कि वह बीवी का ग़ुलाम हो गया ओह! किसी में कोई चारा नहीं बीमारी में भी घर से बाहर रहना ही भलापर दिन भर पति की जासूस आँखें पीछा कहाँ छोड़ती हैं बीमारी में भी नौकरी पर चल दी मैडम, बात पक्की है कि कोई चक्कर चला रही है घर में घुसते ही सबकी नज़रें एक्स-रे की तरहअब किसके बात का क्या जवाब और कहाँ से हो जवाब।  
 
क्या करे क्या न करे, बड़ी मुश्किल हाय! पढ़-लिखकर नौकरी करो तो अलग समस्या, पढ़ी-लिखी न हो तो रोज़ ताने कि कैसी अनपढ़ से पाला पड़ा। एक उपाय है बचपन से लेकर शादी तक पढ़ाई ऐसी पढ़ो कि बस वक़्त गुज़रे और जब नौकरी खोजो तो तुरन्त मिल जाएन माँ-बाप का नुक़सान हो न अनपढ़ का लेबल लगे और शादी भी फटाफट हो जाएबस शादी होते ही पति को गिरफ़्त में करना है और पति को लेकर दूसरे शहर ट्रांसफर सबसे पहली सीख कि झूठ और बहाना के लिए कोई नई वेबसाईट खोजो, जिससे ऐसी एक्टिंग करो कि बेचारा पति क्या महेश भट्ट और राजश्री प्रोडक्शन वाले भी धोखा खा जाएँ। तो बस काम हो गयानौकरी भी पक्की, पैसा भी कमाओ, ऐश-मौज-मस्ती सब बाहर और घर में घुसते ही आह... ओह... आउच... पति दौड़ेगा... ''क्या हुआ जानू?''

- जेन्नी शबनम (16.10.2010)
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Tuesday, October 12, 2010

13. अम्मा की बिटिया

बेटी- परान्तिका दीक्षा

 
बेटी- परान्तिका दीक्षा, बेटा- अभिज्ञान सिद्धांत 
                                                                                
आज दिनांक 10.10.10 है मुझे याद भी न रहा आज का यह दिन! जाने कैसे भूल गई, जबकि मेरे बच्चे ऐसे ख़ास दिन याद दिलाते रहते हैं जानती हूँ कि आज का ये दिन दोबारा नहीं आएगा वैसे सच कहा जाए तो कोई भी पल जो गुज़र जाता है दोबारा नहीं आता फिर भी कोई एक ख़ास तारीख़, कोई ख़ास बात यादों का हिस्सा बन जाती है आज मैं एक कविता लिखी 'जीवन के बाद रूह का सफ़र' और जब तिथि देखी तो कहा अरे वाह! मेरी एक निशानी, आज के दिन के लिए जब भी इस कविता को पढूँगी यह दिन 10.10.10 भी दिखेगा और यह भी याद रहेगा कि आज मेरी बेटी ख़ुशी यहाँ नहीं है मेरी बेटी के जन्म लेने पर मेरे बेटे ने उसका नाम ख़ुशी रखा, वैसे स्कूल का नाम परान्तिका है आजकल वह मुझसे दूर है, अपने पिता के साथ भागलपुर में ख़ुशियाँ बाँट रही है  
 
यों मैं हर दिन को कोई न कोई ख़ास दिन मानती हूँ, और चाहती हूँ कि हर दिन ख़ुशहाल बीते पर इधर कुछ दिनों से अस्वस्थ हूँ, चलने और लिखने में परेशानी हो रही है फिर भी कोशिश करती रहती है कि लिखना जारी रखूँ, वर्ना और भी उदासी छा जाएगी एक तो तबीयत की वज़ह से दुःखी हूँ और उस पर मेरी बेटी अपने पापा के साथ भागलपुर चली गई, क्योंकि कॉमन वेल्थ गेम्स के लिए उसका स्कूल बंद है उसे भागलपुर में ज़्यादा मज़ा भी आता है; क्योंकि वहाँ पूरी आज़ादी है, बेफ़िक्र होकर खेलती है अपने मित्रों के साथ  
 
मेरे बेटे अभिज्ञान की 'ए' लेवल (12वीं) की बोर्ड परीक्षा 13 अक्टूबर से शुरू हो रही है, इसलिए मैं नहीं जा सकती थी इन छुट्टियों में मैं और मेरा बेटा घर में हैं वह अपने कमरे में बंद रहता है, कभी परीक्षा के लिए पढ़ता है, कभी किन्डल (ई-बुक) पर कोई ई-किताब पढ़ता है, कभी गिटार बजाता है, कभी पी.एस.पी. पर कोई गेम खेलता है या कंप्यूटर में व्यस्त रहता है और बीच-बीच में आकर अपना चेहरा दिखा देता है  
 
जिस दिन मेरी बेटी भागलपुर गई उसी दिन कॉमन वेल्थ गेम्स के शुरुआत का समारोह था यों चलने में मुझे बहुत परेशानी थी, बावजूद अपने पति से कहकर पास का प्रबंध कराया मैंने कह दिया था कि चाहे पास का प्रबंध करो या टिकट का, पर मुझे जाना है देखने; क्योंकि अपने पाँव को लेकर मैं बहुत परेशान थी और लगा कि शायद अब कभी ऐसा समारोह देख पाऊँगी या नहीं पता नहीं मेरे हाथ-पाँव का क्या हो, इसलिए इस मौक़ा को गँवाना नहीं है पर 2 घंटे खड़ा रहना मेरे लिए और भी बड़ी मुसीबत बन गई ख़ैर रुक-रुककर धीरे-धीरे मैं और मेरा बेटा वहाँ तक पहुँचे और समारोह ख़त्म होने तक हमने जीभरकर आनन्द लिया बेटे ने अपने बड़े-से कैमरे से ख़ूब सारी तस्वीर लीं  
 
दूसरे दिन घर में जैसे सन्नाटा पसरा हो कहीं कोई आवाज़ नहीं, कोई चहल-पहल नहीं मेरी बेटी स्कूल से आते ही खाना और टी.वी. देखना एक साथ शुरू करती है सी.आई.डी. उसका सबसे प्रिय सीरियल है और जब तक मैं मना न करूँ वह देखती रहती है वह चुप होकर भी घर में रहे, तो लगता है कि घर भरा हुआ है  
 
आज तक कभी ऐसा न हुआ कि वह मुझसे अलग कहीं दूर गई हो जब वह 4 साल की थी, तब से मैं उसे छोड़कर भागलपुर जाती रही हूँ भागलपुर में काफ़ी काम रहता था उन दिनों जब मैं जाती थी छोड़कर तो मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि उसे कैसा लग रहा होगा शुरू में वह रोती थी, बाद में उसके एक चाचा उसे घूमाने ले जाते और एक डेरी मिल्क जिसे वह काकू कहती थी, उसे देते और वह काकू पाकर मगन! थोड़ी बड़ी हुई तो ख़ुद कहती कि जाओ तुम और वह चाचा-चाची के साथ काफ़ी खुश रहती थी अब तो उसे ज़्यादा फ़िक्र नहीं कि मैं कहाँ हूँ, अगर शहर से बाहर भी हूँ तो उसे कोई मुश्किल नहीं अगर यहाँ हूँ तो स्कूल से आने के बाद बस इतना कि मैं घर में होनी चाहिए और वह टी.वी. में मस्त!  
 
जाने क्यों बार-बार यही सोच रही हूँ कि वह होती तो यह करती वह करती, हम सिनेमा जाते आज, या फिर वह मेरे पसन्द का कुछ खाना बनाकर लाती कभी शाहरुख़ खान या सलमान खान अगर दिख जाए टी.वी. में तो दौड़कर आकर टी.वी. खोल देती कि जल्दी देखो तुम्हारा फेवरिट हीरो वह जानती है कि मैं कभी टी.वी. नहीं देखती, लेकिन अगर वे दोनों हों तो ज़रूर देखती हूँ  
 
भागलपुर उसके दादा-दादी भी साथ गए हैं और नानी तो वहीं रहती हैं कभी नानी के घर तो कभी अपने घर घूम रही है मेरे पति काफ़ी बड़े पैमाने पर दुर्गा पूजा करते  हैं, तो ख़ूब धूम मचा है वहाँ उसे फ़ोन करूँ तो जल्दी से बात करके भागेगी, जैसे कि क्या न छूट रहा हो सोचती हूँ अच्छा है वह मुझ जैसी नहीं बन रही अभी से अपना अलग व्यक्तित्व और अपना एक अलग स्थान चाहती है  
 
एक बेटी का घर में होना कितना ज़रूरी है, अब समझ में आ रहा है मेरी माँ मेरी शादी से पहले कहती थी कि जब तुम्हारी शादी हो जाएगी तो घर कौन देखेगा, कौन रोज़ सुबह स्कूल जाने से पहले मेरी साड़ी के प्लीट ठीक करेगा आज मैं भी सोच रही हूँ कि एक-एककर वह मेरी तरह घर की जवाबदेही लेने लगी है मैं 12 साल के बाद यह सब करने लगी थी और वह तो 8 साल से ही जैसे मेरी माँ बन गई है कहेगी यह पहनो वह पहनो, तरह-तरह के सामान लाएगी अभी 3 दिन के लिए स्कूल से घूमने के लिए जयपुर गई, तो मेरे लिए वहाँ की प्रसिद्ध लाह की चूड़ी लाई  
 
जानती हूँ वह भी एक दिन इसी तरह से इस घर से चली जाएगी, जैसे एक दिन मैं अपना घर छोड़ आई थी मैं भी उसी तरह से उदास होऊँगी जैसे मेरी माँ रहती थी मैं जिस तरह व्यस्त हूँ अपने घर और काम में, एक दिन वह भी हो जाएगी जैसे मेरी माँ को आदत हो गई मेरे बिना रहने की, मुझे भी हो जाएगी  
 
अपना बचपन याद आता है मुझे एक गाना है ''बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले'' मेरे पापा अक्सर यह गाना सुनते और रो देते थे, मेरी माँ से कहते कि जेन्नी एक दिन चली जाएगी इस घर से अब जब भी मैं ये गाना सुनती हूँ, तो समझ आता है कि मेरे पापा-मम्मी को कैसा महसूस होता होगा मुझे सोचकर  
 
अपनी बेटी के बारे में सोचकर आँखें भर आती हैं, मेरी भी और उसके पापा की भी, जब भी यह गाना हम सुनते हैं...  
 
बाबा की रानी हूँ
आँखों का पानी हूँ
बह जाना है जिसे
दो पल कहानी हूँ!
अम्मा की बिटिया हूँ
आँगन की मिटिया हूँ
टुक-टुक निहारे जो
परदेस चिठिया हूँ!  
 
जानती हूँ वह पूजा के बाद आएगी, मेरा घर फिर चहकेगा घर भी जैसे उदास हो गया है ख़ुशी के जाने से बेटियाँ सच में रौनक होती हैं किसी भी घर की मेरी बेटी का नाम ख़ुशी है, तो जहाँ जाती है ख़ुशी भी अपने साथ लिए जाती है अब जल्दी पूजा ख़त्म हो और वह वापस आए, यही इंतिज़ार है  
 
- जेन्नी शबनम (10.10.10)
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