Thursday, November 21, 2024

115. साँसों का संकट

सुबह के लगभग 10 बजे बालकनी में निकली, तो देखा कि धुआँसा पसरा हुआ है, जिसे कोहरा या स्मॉग भी कहते हैं। देखने में तो बड़ा अच्छा लगा, मानो जाड़े के दिनों का कुहासा हो। परन्तु साँस में धूल-कण जाने लगे और आँखों में जलन होने लगी। शाम 5 बजे भी यही स्थिति रही। इस कोहरे में कहीं बाहर निकलने का अर्थ है श्वसन तंत्र और आँखों को कष्ट पहुँचाना। परन्तु कोई घर में कब तक छुपा रह सकता है। अपने कार्य एवं व्यवसाय के लिए बाहर जाना आवश्यक है। घर से बाहर भले मास्क पहनकर जाएँ, पर प्रदूषण के प्रभाव से बच नहीं सकते। घर के दरवाज़े व खिड़कियाँ भले बन्द हों, पर वायु प्रदूषण से बचाव सम्भव नहीं है। फेफड़े परेशान हैं और आँखें लाल। 

यों तो पूरा देश वायु प्रदूषण की चपेट में है; परन्तु दिल्ली में प्रदूषण की स्थिति बदतर हो गई है। ऐसा महसूस होता है जैसे साँस लेने पर आपातकाल लग गया हो। जो व्यक्ति श्वास से सम्बन्धित बीमारी से पीड़ित हैं, उनकी स्थिति बेहद गम्भीर हो चुकी है। स्वस्थ व्यक्ति भी आँखों में जलन, सिर दर्द और साँस लेने में परेशानी का अनुभव कर रहा है। सरकार लगातार प्रदूषण के बचाव के लिए कार्य कर रही है; परन्तु स्थिति बदतर होती जा रही है है। वायु प्रदूषण से आँखों में जलन व चुभन, साँस लेने में कठिनाई, गले में ख़राश, शरीर पर एलर्जी, वाहन चालकों को सड़क ठीक से न दिखना इत्यादि समस्या हो रही है। इससे दमा, हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक जैसी बीमारी का ख़तरा बढ़ता है।  

दिल्ली के इस प्रदूषण पर सरकार और विपक्ष में तकरार जारी है। दोनों एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। मानो इनमें से किसी ने बोरी में भरकर प्रदूषण लाया और पूरी दिल्ली पर छिड़काव कर दिया। विपक्ष का कहना है कि आम जनता के लिए दिल्ली गैस चेंबर बन चुकी है। किन्तु यहाँ सिर्फ़ आम जनता नहीं रहती, देश का राजा अपने मंत्रियों के साथ रहता है, जिसे आरोप लगाने का पूर्ण अधिकार है; समस्या के समाधान का कोई दायित्व नहीं। सत्ता और विपक्ष को किसी भी कठिन समय में आरोप-प्रत्यारोप से बाहर आकर जनता की समस्याओं के समाधान के लिए एकजुट होना चाहिए। 

सबसे अहम प्रश्न यह है कि क्या यह प्रदूषण दिल्ली सरकार फैला रही है? क्या आम जनता अपने कर्त्तव्य का पालन कर रही है? क्या केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार एक साथ मिलकर कोई ठोस क़दम उठा रही है? निःसन्देह सरकार से हमें उम्मीद होती है; परन्तु हम जनता को भी अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत होना आवश्यक है। यदि जनता सचेत रहती, तो वायु प्रदूषण या अन्य कोई भी प्रदूषण नहीं होता। 

सरकार ने पटाखों पर पाबन्दी लगाई; परन्तु जनता ने ग़ैरकानूनी तरीक़े से पटाखे ख़रीदे। पराली जलाने पर पाबन्दी लगाई गई; परन्तु हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों ने ख़ूब परली जलाई। दिल्ली में गाड़ियों की रैली मानो हर दिन होती रहती है। सभी पैसे वालों के पास कई-कई गाड़ियाँ हैं। वे बड़ी-सी गाड़ी में अकेले बैठकर चलना अपनी शान समझते हैं। वे सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करेंगे तो उनकी प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाएगी। इन दिनों निम्न आय वर्ग का व्यक्ति भी दोपहिया वाहन चलाता है। जबकि दिल्ली की परिवहन व्यवस्था देश के किसी भी हिस्से से बेहतरीन है। मेट्रो और बस की सुविधा दिल्ली के लिए वरदान है। दूर जाने के लिए समय और संसाधन के बचाव का सर्वोत्तम विकल्प मेट्रो है; हालाँकि अधिकतर निम्न व मध्यम आय वर्ग के लोग मेट्रो का उपयोग करते हैं। 

बढ़ती गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण के कारण जब दिल्ली सरकार ने ऑड-इवेन का फ़ॉर्मूला लागू किया तो अधिकतर लोगों को इससे परेशानी हो रही थी; जबकि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था सुदृढ़ है। वाहन चालन के ऑड-इवेन की व्यवस्था के बाद शहर में गाड़ियों की भीड़ और प्रदूषण दोनों कम हो गया था। ऐसा लगता था मानो दिल्ली की हवा भी स्वच्छ हवा में साँसें ले रही हो। परन्तु यह फ़ॉर्मूला ज़्यादा दिन चल न सका। दिल्ली सरकार को चाहिए कि ऑड-इवेन फ़ॉर्मूला हमेशा के लिए दिल्ली में लागू करे, ताकि सड़क पर गाड़ियों का दबाव कम हो और सार्वजनिक परिवहन का उपयोग हो, जिससे प्रदूषण पर लगाम लगे। 

पराली, पठाखा व परिवहन के अलावा निर्माण कार्य से होने वाला प्रदूषण भी वायु को दूषित कर रहा है। दिल्ली में ऊँची-ऊँची इमारतें, सड़क, या अन्य निर्माण कार्य बिना उचित प्रबंधन के होता है, जिससे हवा में धूल-कण पसरते हैं। पाबन्दी के बावजूद लकड़ी जलाए जाते हैं, कूड़ा जलाए जाते हैं। पेड़ बेवज़ह काटे जा रहे हैं। कचरा प्रबंधन सही नहीं है। मलबा का निस्तारण सही नहीं हो रहा है। रासायनिक कचरा और कल-कारखाने का धुआँ वातावरण को दूषित करता है। इस प्रकार के कई कार्य हैं, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। यह सब आम जनता कर रही है न कि सरकार; परन्तु दोष सरकार को देते हैं। हम अधिकार की बात करते हैं, लेकिन देश के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं। जब-जब जो प्रतिबन्ध सरकार लगाती है, उसे ईमानदारी से जनता निभाए और स्वहित छोड़कर राष्ट्रहित की बात सोचे, तो हर एक व्यक्ति देश की समस्या के निदान में अपना हाथ बँटा सकता है।   

हर आम जनता का कर्त्तव्य है कि देश पर से कुछ भार काम करे। जनसंख्या नियंत्रण, प्राकृतिक जीवन शैली अपनाना, कारपूलिंग का प्रयोग, संयम, अनुशासन, करुणा, धन-सत्ता के लोभ का त्याग, अहंकार पर नियंत्रण, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार का सहयोग, स्व-चेतन व तार्किक चिन्तन इत्यादि को अपने जीवन में उतारकर किसी भी समस्या और समाधान पर पहल करें तो निश्चित हो सफल हुआ जा सकता है। चाहे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भोजन प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण हो या स्वास्थ्य प्रदूषण। 

- जेन्नी शबनम (20.11.2024)
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Saturday, November 16, 2024

114. साहस और उत्साह से भरी राह

बिहार के भागलपुर में एक शिक्षक परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता भागलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे, जिनका देहान्त वर्ष 1978 में हुआ। मेरे पिता गांधीवादी, साम्यवादी व नास्तिक थे तथा अपने सिद्धान्तों के प्रति अत्यन्त दृढ़ थे। वे अपने सिद्धांतों से तनिक भी समझौता नहीं कर सकते थे, न कार्य में न व्यवहार में। मुझ पर उनके विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा; हालाँकि पिता की मृत्यु के समय मैं 12 वर्ष की थी। मेरी माँ भागलपुर के इण्टर स्कूल में प्राचार्या थीं, जिनका देहान्त वर्ष 2021 में हुआ। मेरी माँ प्राचार्य होने के साथ-साथ सक्रिय समाजसेवी थीं। मेरी माँ राजनीति शास्त्र और शिक्षा में स्नातकोत्तर थीं। उन्हें हिन्दी से विशेष लगाव था। समाचार पत्र व साहित्यिक पत्रिका से अच्छे-अच्छे उद्धरण, भावपूर्ण कविताओं की पंक्तियाँ आदि लिखती थीं। जब मैं समझने लायक हुई तो यह सब पढ़ती थी। शायद इससे मुझमें हिन्दी के लिए प्रेम ने जन्म लिया। माता-पिता से विरासत में मुझे सोचने-समझने व लिखने-पढ़ने का गुण मिला है।  
 
मेरी भाषा और पढ़ाई का माधयम हिन्दी है। बी.ए. तक अँगरेज़ी पढ़ी जो मात्र एक विषय था। मैंने वर्ष 1983 में बी.ए. में नामांकन लिया, जिसमें हिन्दी विषय नहीं ली; क्योंकि हिन्दी व्याकरण मुझे बड़ा कठिन लगता था। यों हिन्दी की कविता, कहानी, उपन्यास एवं आचार्य रजनीश के प्रवचनों को पढ़ना व सुनना मुझे अत्यन्त प्रिय है। जब जहाँ पुस्तकें मिल जातीं, पढ़ती रहती। पढ़ना-लिखना, गाना सुनना और सिनेमा देखना मुझे अत्यन्त रुचिकर लगता है। 

वर्ष 1986 में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में भारतीय महिला राष्ट्रीय महासंघ (NFIW) का सम्मेलन था, जिसमें अपनी माँ के साथ मैं आई। यहाँ अमृता प्रीतम जी आईं। अमृता प्रीतम जी की एक पुस्तक पढ़ी, तब से वे मेरी प्रिय लेखिका बन गईं। सम्मेलन में उनके भाषण हुए। महिलाओं ने उनके साथ तस्वीरें लीं। मेरी प्रिय लेखिका मेरे सामने हैं और मैं झिझक के कारण तस्वीर न ले सकी, जिसका दुःख मुझे आजीवन रहेगा। छात्र जीवन से मैं अनेक सामाजिक संगठनों में सक्रिय रूप से हिस्सा लेती रही हूँ, फिर भी बहुत कम बोलती और बहुत संकोची स्वभाव की थी। जब मैं एम.ए. में गई तब से मैं थोड़ी मुखर हुई और अपनी बात कहने लगी। 

विवाहोपरान्त दिल्ली आ गई। घर के सारे काम करने के साथ-साथ कुछ दिन नौकरी की। फिर नौकरी छोड़ कई तरह के काम किए; लेकिन सक्रिय होकर कोई काम न कर सकी। बच्चे छोटे थे, तो हर काम छूटता गया। पर जब भी अवसर मिलता अपने रूचि के कार्य अवश्य करती।  लिखना-पढ़ना जारी रहा। जब जो मन में आया लिख लिया। यह नहीं मालूम कि मैं जो लिख रही हूँ, किस विधा में है। लिखकर अलमारी के ताखे में कपड़ों के बीच छुपाकर रखती रही। तब कहाँ मालूम था कि भविष्य में हिन्दी और मेरी लेखनी एकमात्र मेरी साथी बन जाएगी। 

हमारे समाज में घरेलू कार्य को कार्य की श्रेणी में नहीं माना जाता है; क्योंकि इससे धन-उपार्जन नहीं होता, जबकि स्त्रियाँ घरेलू काम करके बहुत बचत करती हैं। स्त्री सारा दिन घर का कार्य करे, पर उसे कोई सम्मान नहीं मिलता; भले वह कितनी भी शिक्षित हो। वर्ष 2005 में मैंने पी-एच.डी. किया, लेकिन कोई नियमित कार्य न कर सकी। दोष मेरा था कि मैंने धन-उपार्जन से अधिक बच्चों को महत्व दिया। मैं पूर्णतः घरेलू स्त्री बन गई। घर व बच्चे बस यही मेरी ज़िन्दगी। मुझमें धन-उपार्जन का कार्य न कर पाने का मलाल बढ़ता रहा। हाथ में आई नौकरी को छोड़ने का दुःख सदैव सालता रहता। आत्मनिर्भर होना कितना आवश्यक है यह समझ में आ गया, पर तब तक मैंने बहुत देर कर दी। धीरे-धीरे मेरा आत्मविश्वास ख़त्म होने लगा। मैं मानसिक रूप से टूट चुकी थी। मन में जब जो आता लिखकर छुपा देती, जिससे मन को थोड़ा चैन मिलता था।    

वर्ष 1998 में पता चला कि अमृता प्रीतम हौज़ खास में रहती हैं। फ़ोन पर इमरोज़ जी से बात हुई। उन्होंने कहा कि अमृता बीमार हैं इसलिए बाद में आऊँ। घर-बच्चों में व्यस्त हो गई और अमृता जी से मिलने जाना टलता रहा। एक दिन अचानक अमृता जी से मिलने की तीव्र इच्छा हुई। वर्ष 2005 में फ़ोन कर समय लिया और अपने दोनों बच्चों के साथ मिलने पहुँच गई। मेरे लिए अमृता प्रीतम से मिलना ऐसा था जैसे किसी सपने का साकार होना। अमृता जी से मिलने का सोचकर मैं अत्यंत रोमांचित थी। इमरोज़ जी ने अमृता जी को दिखाया। उन्हें देख मैं भावुक हो गई और मेरी आँखों में आँसू भर आए। मेरी प्रिय लेखिका, जो अत्यन्त आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं, आज सिमटी-सिकुड़ी असहाय अवस्था में पड़ी थीं। अमृता जी से मैं न मिल सकी, न बातें कर सकी, बस क्षीण आवाज़ सुन सकी, जब वे इमरोज़ जी को पुकार रही थीं।  

अमृता जी के घर दुबारा गई, तब तक वे चल बसीं। मैं हमेशा इमरोज़ जी से मिलने जाती रही। जब भी उनसे मिलती तो यों लगता मैंने अमृता जी से मिल लिया। इमरोज़ जी को मैंने बताया कि मैं लिखती हूँ, तो उन्होंने मेरी कविताएँ सुनीं। मैंने उनसे अपनी झिझक बताई तथा यह भी कहा कि मैं लिखती हूँ यह कभी किसी को नहीं बताया कि कोई क्या सोचगा। उन्होंने कहा- ''तुम जो भी लिखती हो, जैसा भी लिखती हो, सोचो कि बहुत अच्छा लिखती हो। जिसे जो सोचना है सोचने दो। तुम अपनी किताबें छपवाओ।'' इमरोज़ जी से मिली प्रेरणा ने जैसे मुझमें आत्मविश्वास भर दिया। वर्ष 2006 में एक कार्यक्रम में पहली बार मैं अपनी एक कविता पढ़ी। जब यह इमरोज़ जी को बताया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद मेरे क़दम इस दिशा में बढ़ गए। मैं अंतरजाल पर बहुत अधिक लिखने लगी और ब्लॉग पर भी लिखने लगी। 

वर्ष 2010 में केन्द्रीय विद्यालय से अवकाश प्राप्त प्राचार्य श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी से मेरा परिचय मेरे ब्लॉग के माध्यम से हुआ। वे हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। वे मुझे अपनी छोटी बहन मानते हैं। उन्होंने मुझमें लेखन के प्रति विश्वास पैदा किया, जिससे मेरा आत्मबल बहुत बढ़ गया। उनके स्नेह, सहायता और शिक्षण से मैं हाइकु, हाइगा, सेदोका, ताँका, चोका, माहिया लिखना सीख गई।

धीरे-धीरे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में मेरी लेखनी छपने लगी। सर्वप्रथम वर्ष 2011 में एक साझा संकलन में मेरी रचनाएँ छपीं। मेरी एकल 5 पुस्तकें और साझा संकलन की 45 पुस्तकें छप चुकी हैं। कई समाचार पत्र में लघुकथा और लेख छप चुके हैं। कई पुस्तकों की प्रूफरीडिंग कर चुकी हूँ। इमरोज़ जी एवं काम्बोज जी ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी और मुझमें आत्मविश्वास और स्वयं के लिए सम्मान पैदा किया, जिसके लिए मैं आजीवन कृतज्ञ रहूँगी। अब मैं बेझिझक गर्व से स्वयं को कवयित्री, लेखिका, ब्लॉगर कहती हूँ। 

निःसन्देह जीवन में मैं बहुत पिछड़ गई। जब मेरी हर राह बन्द हुई, तब इमरोज़ जी और काम्बोज जी ने मुझमें साहस और उत्साह भरकर मुझे राह दिखाई जिस पर चलकर आज यहाँ तक पहुँच सकी हूँ। सदैव मेरे मन में यह बेचैनी रहती थी कि इतनी शिक्षा प्राप्त कर भी कोई कार्य न किया जिससे सम्मान मिले, घर में ही सही। जिस हिन्दी को कठिन मानकर मैंने बी.ए. में नहीं लिया, वही हिन्दी आज मेरी पहचान है। एक कवयित्री और लेखिका के रूप में जब कोई मुझे पहचानता है, तो अत्यन्त हर्ष होता है। सच है, कई रास्ते बन्द हुए तो एक रास्ता ऐसा मिला जिस पर चलकर मुझे सुख भी मिलता है और आनन्द भी। धन उपार्जन भले न कर सकी, लेकिन लेखनी के रूप में मेरी पुस्तकें मेरी अमूल्य सम्पदा है। जिनके लिए मैं व्यर्थ हूँ और जिनसे मैं तिरस्कृत होती रही, उनके लिए मेरा जवाब मेरी लेखनी है। 
 
- जेन्नी शबनम (20.3.24)
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