Thursday, June 21, 2012

38. क्योंकि वह ताजमहल नहीं था

साइनबोर्ड 
एक बार फिर रोई अमृता, फूट-फूटकर रोई। इमरोज़ के कुर्ते को दोनों हाथों से पकड़कर झिंझोड़कर पूछा- ''क्यों नहीं बचाया मेरा घर? क्यों नहीं लड़ सके तुम मेरे लिए?'' ''बोलो इमा, क्यों नहीं रोका तुमने उन लोगों को, जो मेरी ख़्वाहिशों को उजाड़ रहे थे, हमारे प्रेम के महल को ध्वस्त कर रहे थे? हर एक कोने में मैं जीवित थी तुम्हारे साथ, क्यों छीन लेने दिया मेरा संसार?'' 
इमरोज़ जी
इमरोज़ निःशब्द! इमरोज़ बेबस! ख़ामोशी से अपनी माझा को रोते हुए देखते रहे। आँखें भीग गईं, फिर तड़पकर कहा- ''माझा, मैं क्या करता, मेरा हक़ तो सिर्फ़ तुम पर था न, उस घर पर नहीं। मैं कैसे रोकता उन्हें?'' ''माझा! मैं घर को बचा नहीं सका, मैं किसके पास जाकर गिड़गिड़ाता? जिन लोगों ने तुमको इतना सम्मान दिया, पुरस्कृत किया, उनलोगों में से कोई भी तुम्हारे धरोहर को बचाने नहीं आया।'' ''माझा! उस घर को मैं अपने सीने में समेट लाया हूँ। हमारे घर के ऊपर बने विशाल बहुमंजिली इमारत में वे ईंटें दफ़न हैं, जिन्हें तुमने जोड़ा था और मैंने रंगों से सजाया था।'' ''ये देखो माझा! हमारी वह तस्वीर ले आया, जब पहली बार तुम मेरे लिए रोटी सेंक रही थी, तुम्हें कितना अच्छा लगता था मेरे लिए खाना बनाना। ये देखो! वह कप भी मैं ले आया हूँ, जिसमें हर रात मैं तुमको चाय देता हूँ; रात में तुम अब भी लिखते समय चाय पीना चाहती हो न। वह देखो! उस तस्वीर में तुम कितनी सुन्दर लग रही हो, जब पहली बार हम मिले थे। वह देखो! हमारे घर का नेम-प्लेट 'अमृता इमरोज़, के-25', और देखो वह तस्वीर जिसे बनाने में मुझे 5 साल लगे थे, जिसे तुम्हारे कहने पर मैंने बनाया था 'वुमेन विद माइंड'।'' ''माझा, मैं अपनी तक़लीफ़ किसे दिखाऊँ? मेरी लाचारी तुम समझती हो न! तुम तो चली गई, मुझे अकेला छोड़ गई। सभी आते हैं और मुझमें तुमको ढूँढते हैं, पर मैं तुमको कहाँ ढूँढूँ?'' ''माझा, मेरा मन बस अब तुम्हारा घर है, क्योंकि अब तुम सीधे मेरे पास आती हो, पहले तो तुम जीवन के हर खट्टे-मीठे अनुभव के बाद मुझ तक आई थी। तुम्हारी यादें और मैं अब मेरा घर है।''     
बिकने के बाद टूटकर बन रहा k-25
किसी जीवित घर का मिटाया जाना विधि का विधान नहीं, न नियति का क्रूर मज़ाक है; बल्कि मनुष्य के असंवेदनशील होने का प्रमाण है। उस घर का बाशिंदा कितना तड़पा होगा, जब उससे वह घर छीन लिया गया होगा, जिसमें उसकी प्रियतमा की हर निशानी मौजूद है ये सब अतीत की कथा नहीं बल्कि उसका वर्तमान जीवन है। कितना रोया होगा वह। कितना पुकारा होगा वह अपनी प्रियतमा को, जिसने अकेला छोड़ दिया यादों के सहारे जीने के लिए पर उसने सदैव उसे अपने साथ महसूस किया है, उसे सोचा नही बल्कि उसके साथ जी रहा है। कितनी बेबस हुई होगी उस स्त्री की आत्मा जब उसके सपनों का घर टूट रहा होगा और उसका हमसफ़र उसकी निशानियों को चुन-चुनकर समेट रहा होगा। तोड़ दिया गया प्रेम का मन्दिर। फफक पड़ी होंगी दीवार की एक-एक ईंटें। चूर हो गया किसी स्त्री की ख़्वाहिशों का संसार। कैसे दिल न पिघला होगा उसका, जिसने इस पवित्र घर को नष्ट कर दिया। क्या ज़रा भी नहीं सोचा कि अमृता की आत्मा यहाँ बसती है? अमृता को उसके ही घर से बेदख़ल कर दिया गया और उसकी निशानियों को सदा के लिए मिटा दिया गया। 
कुछ यादें- अमृता-इमरोज़
हौज़ ख़ास के मकान नंबर k-25 के गेट में घुसते ही सामने खड़ी मारुती कार, जिसे अमृता-इमरोज़ ने साझा खरीदा था, अब कभी नहीं दिखेगी। घंटी बजाने पर कुर्ता-पायजामा और स्पोर्ट्स शू पहने ज़ीने से उतरकर दरवाज़ा खोलते हर्षित इमरोज़, जो बहुत ख़ुश होकर पहली मंजिल पर ले जाते और सामने लगी खाने की मेज़-कुर्सी पर बिठाते हुए कहते हैं- ''देखो वहाँ अमृता अभी सो रही है'', साथ लगी उस रसोई में ख़ुद चाय बनाते, जिस रसोई में न जाने कितनी बार अमृता ने रोटी पकाई होगी; अब कभी न दिखेगी। रसोई में रखी काँच की छोटी-छोटी शीशियाँ भी उस वक़्त की गवाह हैं, जब अमृता रसोई में अपने हाथों से कुछ पकाती थीं और इमरोज़ उसे निहारते थे। अमृता का वह कमरा जहाँ अमृता ने कितनी रचनाएँ गढ़ीं, जहाँ इमरोज़ की गोद में अन्तिम साँस ली; अब कभी नहीं दिखेगा। कैनवस पर चित्रित अमृता-इमरोज़ की साझी ज़िन्दगी का इन्द्रधनुषी रंग जो उस घर के हर हिस्से में दमकता था, अब कभी नहीं दिखेगा। सफ़ेद फूल जो अमृता को बहुत पसन्द है, इमरोज़ हर दिन लाकर सामने की मेज़ पर सजा देते थे; अब उस मेज़ की जगह बदल चुकी है। अमृता की रूह शायद अब भी उस जगह भटक रही होगी; मेज़, फूल और फूलदान को तलाश रही होगी। छत के पास अब भी पंछी आते होंगे कि शायद इमरोज़ आ जाएँ और दाना-पानी दे जाएँ, पर अब जब छत ही नहीं रहा तो पखेरू दर्द भरे स्वर में पुकारकर लौट जाते होंगे। 
साहिर-अमृता
अमृता का जीवन, अमृता का प्रेम, अमृता की रचनाएँ, अमृता के बच्चों की किलकारियाँ, अमृता के हमसफ़र की जुम्बिश, चाय की प्याली, कैनवस पर इमरोज़ का जीवन- अमृता, रसोईघर में चाय बनाते इमरोज़, रोटी सेंकती अमृता, बच्चों को स्कूटर पर स्कूल छोड़ते इमरोज़, हर शाम पंछियों को दाना-पानी देते इमरोज़, पूरी दुनिया में अपनी रचनाओं के द्वारा सम्मानित अमृता जो अपने बिस्तर पर लाचार पड़ी है - वृद्ध अशक्त अमृता का सहारा बनते इमरोज़, हर एक तस्वीर जिसमें अमृता है का विस्तृत विवरण देते इमरोज़; अमृता और अमृता का साझा-संसार जो उनके मन में सिमट गया है इमरोज़ जो बिना थके कई बार नीचे दरवाज़ा खोलने, कभी छत पर पौधों में पानी डालने, कभी सबसे ऊपर की छत पर पंछियों का कलरव देखने आते जाते रहते। इमरोज़ के माथे पर न शिकन न शिकायत, बदन में इतनी स्फूर्ति मानो अमृता ने अपनी सारी शक्ति सहेजकर रखी हो और विदा होते वक़्त अन्तिम आलिंगन में सौंप दिया हो और चुपके से कहा हो ''मेरे इमा, मैं इस शरीर को छोड़कर जा रही हूँ, मैं तुम्हें फिर मिलूँगी, तुम कभी थकना नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ, पग-पग पर, पल-पल में, वक़्त के उस आख़िरी छोर तक जब तक तुम इस शरीर में हो, सामने वाले कमरे में बैठी मैं हर रात तुम्हारे लिए गीत रचूँगी और जिसे तुम अपने हाथों से नज़्म का रूप दोगे। मैं तुम्हारी माझा, तुम्हारे लिए सदैव वर्तमान हूँ, यों भी तुम इमरोज़ हो, जिसका अर्थ है आज; तुम मेरे आज हो, मेरी ख़्वाहिशों को तुम पालना, हमारे इस घर में मैं हर जगह मौजूद रहूँगी, तुम जीवन का जश्न जारी रखना, तुम्हारे कैनवस पर और तुम्हारी नज़्मों में मैं रहूँगी, मैं तुम्हें फिर मिलूँगी।'' 
मुश्किलों से जूझती अमृता का 'अमृता प्रीतम' बनना इतना सहज नहीं हुआ होगा। पति से अलग हुई एक आम औरत जिसके दो छोटे बच्चे, जीवन सरल नहीं रहा होगा। टूटी-हारी 40 वर्षीया अमृता को इमरोज़ का साथ और फिर समाज की मान्यताओं और प्रतिमानों से जूझना बेहद कठिन हुआ होगा। रेडियो स्टेशन में कामकर घर चलाती अमृता ने कैसे-कैसे दिन देखे होंगें, ये तो बस वे जानती हैं या इमरोज़। अमृता का सम्पूर्ण अस्तित्व जो उस एक घर में बना, पसरा, फिर सिमटा, कितनी क्रूरता से मिटा दिया गया।इमरोज़ के लिए नहीं, तो कम-से-कम उस औरत, जिसकी हर ख़्वाहिशें और ज़िन्दगी यहाँ मौजूद थी, पर तो रहम किया होता। प्रेम की दुहाई देने वाले और अमृता-इमरोज़ के प्रेम की मिसाल देने वाले कहाँ गए? क्या जीवन के बाद ऐसे ही भुला दिया जाता है उसकी हस्ती को, जिसने समाज को एक नई सोच और दिशा दी, जिसने स्त्री होने के अपराधबोध से ग्रस्त होना नहीं सीखा और स्त्री को गौरव प्रदान किया, पुरुष को सिर्फ़ एक मर्द नहीं बल्कि एक इंसान और सच्चे साथी के रूप में समझा।   
नए फ्लैट का एक कोना
अब कहाँ ढूँढूँ उस घर को? प्रेम के उस मन्दिर को? वह घर टूटकर बहुमंजिली इमारत में तब्दील हो चुका है। अमृता बहुत रो रही थी और अपने इमरोज़ को समझा रही थी- ''वह सिर्फ़ एक मकान नहीं था इमा, हमारा प्रेम और संसार बसता था वहाँ। मेरे अपनों ने मुझे मेरे ही घर से बेदख़ल कर दिया। हाँ इमा! जानती हूँ तुम्हारी बेबसी, मेरे घर के कानूनी हक़दार तुम नहीं हो न! दुनिया के रिवाज से तुम मेरे कोई नहीं, ये बस मैं जानती हूँ कि तुम मेरे सब कुछ हो, जानती हूँ तुम यहाँ मुझे छोड़कर जाना नहीं चाहे होगे पर कानून... उफ़!''
नए घर के एक आईने में मैं और इमरोज़ जी
इमरोज़ जी से पूछने पर कि उस घर को क्यों बेच दिया गया, वे कहते हैं- ''जीवन में 'क्यों' कभी नहीं पूछना, हर क्यों का जवाब भी नहीं होता है, जो होता है ठीक ही होता है।'' ''अगर अमृता होती तो उनको कैसा लगता?'' पूछने पर बहुत संजीदगी से मुस्कुराते हुए कहते हैं- ''अगर अमृता होती तो वह घर बिकता ही नहीं।'' ''ये घर भी बहुत बड़ा है और बच्चों को जो पसन्द मुझे भी पसन्द, अपने बच्चों के साथ ही मुझे रहना है।'' 
विस्तार से घर दिखाते इमरोज़ जी और मैं
इमरोज़ के साथ अमृता अब नए घर में आ चुकी है। अमृता के परिवार के साथ दूसरे मकान में शिफ्ट होते समय इमरोज़ जी ने अमृता की हर निशानी को अपने साथ लाया है और पुराने मकान की तरह यहाँ भी सजा दिया है।हर कमरे में अमृता, हर जगह अमृता। चाहे उनके पेंटिंग करने का कमरा हो या उनका शयन कक्ष, गैलरी, भोजन कक्ष, या फिर अन्य कमरा अमृता को देखना या महसूस करना हो, तो हमें के-25 या एन-13 नहीं बल्कि इमरोज़ से मिलना होगा। इमरोज़ जी के साथ अमृता हर जगह हैं, चाहे वे जहाँ भी रहें। 
इमरोज़ जी और मैं
- जेन्नी शबनम (21.6.2012)
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Friday, June 8, 2012

37. विकलांगों का गाँव

''न चल सकते, न सो सकते, न बैठ सकते हैं, कैसे जीवन काटें?'' कहते-कहते आँसू भर आते हैं गीता देवी की आँखों में। मेरे पास कोई जवाब नहीं, क्या दूँ इस सवाल का जवाब? मैं पूछती हूँ ''कब से आप बीमार हैं?'' 50 वर्षीया शान्ति देवी विकलांग हो चुकी हैं, रो-रोकर बताती हैं ''जब से सरकार ने चापाकल गाड़ा है ज़हर पी-पीके हमारा ई हाल हुआ है।'' वे अपने दोनों पाँव को दिखलाती है, जिसकी हड्डियाँ टेढ़ी हो चुकी हैं। उन्होंने कहा ''जब तक चापाकल नहीं गाड़ा गया था, तब तक पानी का बहुत दिक्क़त था।लेकिन अब लगता है कि ये चापाकल ही हमारा जान ले लेगा, तो हम कभी इसका पानी नहीं पीते।'' खटिया पर बैठे हुए वह अपने घर का चापाकल दिखाती है और इशारा करती है उन डब्बों की ओर जिसमें पानी भरकर रखा हुआ है। वह कहती हैं कि सरकार थोड़ा-बहुत पानी का इन्तिज़ाम की है, वहीं से पानी लाकर रखते हैं, बाक़ी काम तो इसी ज़हर वाले पानी से करना पड़ता है।''
45 वर्षीया गीता देवी का पूरा बदन सूख गया है, दोनों हाथ-पाँव की हड्डियाँ टेढ़ी होकर अकड़ गई हैं, ख़ुद से कुछ नहीं कर सकतीं। अपना व्यक्तिगत काम करने में भी असमर्थ हैं। उनकी बीमारी के कारण देखकर लगता है जैसे वह 60 साल की हों। उनसे पूछने पर कि यह बीमारी कब से है, वे ऐसे देखती हैं मानो उनके कान सुन्न पड़ चुके हैं और ज़ुबाँ भी ख़ामोश, बस बेचारगी से चुपचाप देखती हैं। उसका पति बताते हैं कि क़रीब 2-3 साल पहले बीमार हुई और धीरे-धीरे पूरा देह सूखकर अकड़ गया। वे बताते हैं कि वही ज़हर जो पूरे गाँव को एक-एक करके खा रहा है उसी से ऐसा हाल हुआ है।
डी.पी.एस. भागलपुर के प्रधानाध्यापक श्री राकेश सिंह और हिन्दी की शिक्षिका श्रीमती अलका सिंह के साथ मैं भागलपुर शहर से क़रीब 15 किलोमीटर दूर जगदीशपुर प्रखंड के कोलाखुर्द गाँव में पहुँची। राकेश सिंह के एक मित्र जो भागलपुर में फिजियोथेरेपिस्ट हैं और उस गाँव के मरीजों को देखने जाते हैं, हमारे साथ थे। गाँव में घुसते ही 20-25 लोग इकट्ठे हो गए। सभी का अपना-अपना दर्द, कुछ बदन की पीड़ा कुछ मन की पीड़ा। ग्रामीणों ने बताया कि तक़रीबन 2000 की आबादी वाले इस गाँव में लगभग 100 व्यक्ति पूर्णतः या अंशतः विकलांग हो चुके हैं। कितने बड़े-बड़े नेता आए, कितने पेपरों में छपा। देश में कई जगहों पर यहाँ का पानी टेस्ट हुआ और सभी रिपोर्ट में आर्सनिक और फ्लोराइड होने की पुष्टि हुई। फिर भी कोई कुछ नहीं करता। अब भी ज़हर वाला पानी पी रहे हैं सभी। फ्लोराइड और आर्सनिक के कारण लगभग सभी को जोड़ में दर्द और हड्डी की समस्या है। रीढ़ की हड्डी धनुष की तरह मुड़ गई है। कई लोगों ने गाँव को छोड़ दिया है। ग्रामीणों ने बताया कि यहाँ कोई अपनी बेटी नहीं देना चाहता, न यहाँ की बेटी से कोई जल्दी ब्याह करना चाहता है। अपना खेत होते हुए भी कई लोग खेती छोड़कर पंजाब, गुजरात, दिल्ली पलायन कर चुके हैं। उनकी कमाई इतनी कम है कि घरवालों को ले नहीं जा सकते और जितना कमाते हैं परिवार वालों की बीमारी पर ख़र्च हो जाता है। छोटे-छोटे बच्चों का पाँव टेढ़ा हो गया है, वे सीधे चल नहीं पाते हैं। सरकार योजना तो बनाती है, लेकिन कितने लोगों को अपाहिज बनाने के बाद कुछ करेगी क्या पता।
कोलाखुर्द गाँव जहाँ अधिकांश राजपूत हैं और सबके पास खेत है, परन्तु सिंचाई के अभाव में खेत-खलिहान बंजर पड़े हुए हैं। सभी घरों में एक न एक व्यक्ति ज़रूर है जिसे आर्सनिक और फ्लोराइड के दुष्प्रभाव ने मरीज़ बना दिया है। तक़रीबन 30 वर्षों से यहाँ यह समस्या है। लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग ने यहाँ पर स्वच्छ पानी के लिए मिनी प्लांट बिठाया है जिसमें कोई ख़ास दवा डाली जाती है, जिससे पानी शुद्ध होता है। इस दवा की क़ीमत लाखों में हैसरकार द्वारा नियुक्त ठीकेदार अपनी मनमानी करता है और समय पर दवा नहीं डालता, जिसके कारण ये पानी भी ज़हरीला है। जिन-जिन चापाकलों के पानी में आर्सनिक या फ्लोराइड की मात्रा ज़्यादा है, उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिए गए हैं और पानी के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है। परन्तु सभी लोग इन चापाकलों के पानी का उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि मिनी प्लांट समुचित पानी देने में असमर्थ है। लाल निशान वाले एक चापाकल से एक चुल्लू पानी मैंने पीकर देखा कि पीने में ये कैसा लगता है। स्वाद में सामान्य पानी जैसा ही रंगहीन गंधहीन। लेकिन ऐसे रसायन का समिश्रण जिससे इंसान की ज़िन्दगी में तक़लीफ़ और दर्द का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है, जो मृत्युपर्यन्त रहता है।   
इस गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर नारायणपुर कोलाखुर्द गाँव है, जहाँ एक कुआँ है, जिसके पानी में न तो फ्लोराइड है न आर्सनिक। सरकार ने एक योजना बनाई है जिसके तहत इस कुआँ के पास एक बड़ा कुआँ खोदकर पाईप लाइन द्वारा घर-घर पानी की आपूर्ति जाएगी। लेकिन हर सरकारी योजनाओं की तरह यह योजना भी फाइलों में दबी पड़ी है। यहाँ के लोगों के द्वारा बार-बार माँग करने पर सरकार ने तीन महीने के अंदर योजना के कार्यान्वयन की बात कही थी, लेकिन तीन महीने गुज़र चुके हैं।ग्रामीणों की स्थिति और भी विकट होती जा रही है। 
भागलपुर का यह जगदीशपुर प्रखंड कतरनी चावल के उत्पादन के लिए समूचे देश में प्रसिद्ध है। लेकिन इसका कोलाखुर्द गाँव न अनाज उपजाता है न कोई सब्ज़ी, क्योंकि सिंचाई तो इसी पानी से करनी होगी। सिर्फ़ वर्षा के पानी पर निर्भर होकर खेती सम्भव नहीं है। जिन्हें भी संभव हो सका वे गाँव छोड़कर चले गए। जो बिल्कुल असमर्थ हैं शारीरिक या आर्थिक रूप से, धीरे-धीरे ख़ुद को ख़त्म होते देख रहे हैं। अधिकांश मरीज़ ऐसे हो चुके हैं जिनका इलाज सम्भव नहीं है। न उठ सकते, न हिल सकते, न स्वयं दैनिक क्रिया-कलाप कर सकते, ख़ामोशी से मृत्यु का इन्तिज़ार कर रहे हैं।
इस गाँव से लगा हुआ मध्य विद्यालय है, जिसमें 145 बच्चे और 4 शिक्षक हैं। कितने बच्चों को विकलांगता है, यह पूछने पर शिक्षकों ने अनभिज्ञता जताई। 5 बच्चे वहीं सामने दिख गए जिनके पाँव की हड्डी टेढ़ी हो गई हैस्कूल परिसर में मध्याह्न भोजन बनता है और बच्चों को खिलाया जाता है। आज भात (चावल) और दाल फ्राई बना, जिसमें दाल कम और पीला पानी ज़्यादा था। खाना बनाने वाली हमें देखकर डर गई कि कहीं सरकार की तरफ़ से कोई जाँच-पड़ताल तो नहीं। राकेश सिंह ने वहाँ की भाषा (अंगिका) में उसे समझाया कि डरो नहीं हम लोग सरकार के यहाँ से नहीं आए हैं, बस घूमने आए हैं। बहुत कहने पर भी वह खाना दिखाने से डरती रही, फिर वहीं के एक छात्र ने ढक्कन खोलकर खाना दिखाया। मेनू के हिसाब से खाना बना है, लेकिन मात्रा और पोषकता को कोई नहीं देखता। बीच-बीच में इसका भी अकस्मात अवलोकन और परीक्षण आवश्यक है।
कोलाखुर्द का दर्द पिघल-पिघलकर पूरे देश के अख़बार की ख़बरों का हिस्सा बनता है, लेकिन किसी इंसान के दिल को नहीं झकझोरता, न तो सरकार की व्यवस्था पर सवाल उठाता है। यहाँ स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है। भागलपुर जाकर इलाज कराना इनके लिए मुमकिन नहीं; क्योंकि आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि रोज़गार छोड़कर अपने घर वालों का अच्छा इलाज करा सकें। सरकार ने उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिया है, जिसका पानी दूषित है। प्लांट में समुचित पानी नहीं आता है जिससे पूरे गाँव को पानी मिल सके; यों प्लांट भी दवा के अभाव में अशुद्ध पानी ही दे रहा है।ग्रामीणों के पास दो विकल्प हैं, या तो ज़हर पी-पीकर धीरे-धीरे पीड़ा से मरें या गाँव छोड़ दें। एक और विकल्प है जिससे कोलाखुर्द को बचाया जा सकता है और वह है सामूहिक आंदोलन, जिसके लिए समस्त ग्रामीणों को एकजुट होकर हिम्मत दिखानी होगी। फिर शुद्ध पानी-सप्लाई की ठण्डी योजना फ़ाइल से निकल कोलाखुर्द तक पहुँचेगी और एक गाँव मिटने से बच जाएगा। कई बार अधिकार न मिले तो छीनना पड़ता है और शुद्ध पानी हक़ हमारा कानून हमें देता है ।
एक सवाल जो मेरे ज़ेहन में आया और मैं पूछने से ख़ुद को रोक न सकी कि जब सभी जान चुके हैं कि पानी ज़हरीला है, तो महज एक किलोमीटर दूर जहाँ शुद्ध पानी है, वहाँ से कम-से-कम पीने का पानी तो हर घर में लाया जा सकता है, जबतक कि सरकार योजना पर अमल नहीं करती है। यों भी सरकार द्वारा चापाकल गड़वाने से पहले यहाँ के ग्रामीण उसी कुआँ से पानी लाते थे। ज़िन्दगी दाँव पर लगा सकते हैं, लेकिन थोड़ा अधिक मेहनत नहीं कर सकते। सरकार तो अपनी ही रफ़्तार से चलती है, लेकिन हमें अपनी रफ़्तार तो बढ़ानी और बदलनी चाहिए।
अलका सिंह, राकेश सिंह और मैं

जेन्नी शबनम (8.6.2012)
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