Thursday, December 12, 2024

116. रहस्यमय अंतरिक्ष

अंतरिक्ष जिसे अँग्रेज़ी में स्पेस (space) कहते हैं, मुझे सदैव बड़ा ही रहस्यमय लगता है। जब मैं छोटी थी तब अपनी माँ के साथ एक कॉन्फ्रेंस में कलकत्ता (कोलकाता) गई। वहाँ पहली बार तारामण्डल देखने गई। जब वहाँ गई तो दिन था और जैसे शो शुरू हुआ रात हो गई, रात की तरह चाँद-तारे उग गए। जैसे रात में नींद आती है, वैसे ही नींद आ गई और मैं कुर्सी पर सो गई। माँ ने मुझे उठाया और मैं देखने लगी कि आसमान में क्या सब हो रहा है। शो के बाद बाहर आई तो दिन ही था। मुझे समझ नहीं आया कि अभी तो रात थी, दिन कैसे हो गया।  

बचपन में सोचती थी कि आकाश दिन में आसमानी और रात में चाँद-तारों से भरा अँधेरा क्यों हो जाता है। सूरज तो आसमान में रहता है फिर वहाँ अँधेरा कहाँ से आ जाता है। बचपन से ही एक कुतूहल मन में रहता था कि अंतरिक्ष कहाँ है, ब्रह्माण्ड कहाँ है, सूरज डूबकर कहाँ सोने चला जाता है, चाँद बड़ा-छोटा क्यों दिखता है और कभी-कभी कहाँ ग़ायब हो जाता है, आकाश कितना दूर है, वहाँ क्या-क्या होता है, वहाँ कौन-कौन रहता है, क्या मरने के बाद लोग आकाश में रहते हैं या तारा बन जाते हैं, क्या सच में वहाँ ईश्वर रहता है। समय और उम्र के साथ इन सवालों के जवाब थोड़े-थोड़े मुझे मिलते गए, लेकिन पूर्ण जवाब न मिल सका। आज भी मुझे अंतरिक्ष, ब्रह्माण्ड, सूरज, चाँद, तारा, ईश्वर जैसे विषय को जानना-समझना रुचिकर लगता है।      


पृथ्वी के वायुमण्डल के बाहर का ख़ाली स्थान अथवा किसी दो ग्रहों के बीच का शून्य स्थान जिसका असीमित विस्तार है और जिसका क्षेत्र त्रि-आयामी है, अंतरिक्ष कहलाता है। इसमें लाखों आकाशगंगा (Galaxy), सभी ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र, तारे, उल्कापिंड, मैग्नेटिक फील्ड, ब्लैक होल इत्यादि मौजूद है। अंतरिक्ष में न हवा है, न पानी, न गुरुत्वाकर्षण बल। यहाँ सूरज की रोशनी बिखर नहीं सकती है, इसलिए अँधेरा रहता है। अंतरिक्ष एक निर्वात (vacuum) है जहाँ किसी की आवाज़ नहीं सुन सकते। यहाँ ख़तरनाक रेडिएशन है।   


वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष के ढेरों रहस्य खोज लिए, पर अभी भी बहुत से रहस्य ऐसे हैं जो खोजे न जा सके हैं। जिस तरह विज्ञान ने प्रगति की है, मुमकिन है अंतरिक्ष का हर रहस्य खोज लिया जाएगा। भारत तथा अन्य देशों के ढेरों मानव निर्मित उपग्रह यानी कृत्रिम उपग्रह (Satellite) अंतरिक्ष में स्थापित किए गए हैं, जिनसे लगातार अंतरिक्ष के अध्ययन और खोज किए जा रहे हैं। वर्ष 1957 में सोवियत यूनियन ने पहला कृत्रिम उपग्रह 'स्पुतनिक' अंतरिक्ष में स्थापित किया था। एक उपग्रह ट्रैकिंग वेबसाइट के अनुसार मई 2024 तक अंतरिक्ष में कुल सक्रिय उपग्रह क़रीब 9,900 हैं। वर्ष 2028 तक हर साल 990 उपग्रह प्रक्षेपित किए जाने का अनुमान है। 

    

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने 23 अगस्त, 2023 को चन्द्रमा पर चंद्रयान-3 विक्रम लैंडर को चन्द्रमा ध्रुवीय क्षेत्र पर सफलतापूर्वक उतारा था। इस उपलब्धि के कारण हर वर्ष 23 अगस्त को भारत सरकार द्वारा 'राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस' घोषित किया गया है। भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह 'आर्यभट्ट' 19 अप्रैल 1975 को प्रक्षेपित किया गया, जिसे इसरो द्वारा बनाया गया था। इसरो के अनुसार वर्ष 2030 तक अंतरिक्ष में भारत का अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित किया जाएगा, जो भारत के लिए बड़ी उपलब्धि होगी।   


अंतरिक्ष में उपग्रह के ज़रिए परिवहन, संचार, सार्वजनिक सुरक्षा, रक्षा, सरहद की सुरक्षा, शिक्षा, पर्यावरण, स्वास्थ्य व चिकित्सा, वैज्ञानिक व प्रौद्योगिकी अनुसंधान व विकास, अंतरिक्ष विज्ञान, सूचना प्रोद्योगिकी, पृथ्वी अवलोकन, टेलीविजन प्रसारण, मौसम का अनुमान, जलवायु परिवर्तन आदि का काम होता है। टेलीमेडिसिन और टेली-हेल्थ के क्षेत्र में भी उपग्रह से बड़ा योगदान मिलता है। आपदा प्रबंधन और उसके निदान में अंतरिक्ष प्रोद्योगिकी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। मोबाइल सेवा, इंटरनेट कनेक्टिविटी, वित्तीय लेन-देन भी उपग्रह पर निर्भर है। यह न हो तो हम न फ़ोन कर सकेंगे, न टेक्सट भेज सकेंगे और न इंटरनेट का उपयोग कर सकेंगे। ये उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में परिक्रमा कर सभी कार्यों का निष्पादन और संचालन की व्यवस्था करते हैं, साथ ही अंतरिक्ष के रहस्यों का पता करते हैं।       

अंतरिक्ष से जुड़े कार्य में लाखों लोग कार्यरत हैं। घर बैठे हम जो चाहें जान सकते हैं। विज्ञान और तकनीक की प्रगति में अंतरिक्ष उद्योग बहुत सहायक है। आज हम इसके बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं। अंतरिक्ष से जुड़े कार्य हमारे जीवन को सहूलियत, सुविधा और ज्ञान देते हैं, साथ ही हमारे अन्धविश्वास को दूर कर रहे हैं। जिस ब्रह्माण्ड को ईश्वर का स्थान माना जाता था, वहाँ का सारा रहस्य लगभग ज्ञात हो चुका है। संसार, ब्रह्माण्ड, अंतरिक्ष, ग्रह, नक्षत्र इत्यादि का विस्तृत रूप से तथ्यपूर्ण व तर्कपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो चुका है। हमारे ढेरों अंधविश्वास को भी विज्ञान और तकनीक ने नकार दिया है। 


अंतरिक्ष-उद्योग में अंतरिक्ष-पर्यटन-उद्योग लगातार बढ़ रहा है। अंतरिक्ष पर जाना बेहद ख़र्चीला है, फिर भी लोग अंतरिक्ष-यात्रा का अनुभव लेने जाते हैं। यह यात्रा आम लोगों के लिए सहज सुलभ नहीं है। अंतरिक्ष-यात्रा के लिए विशेष प्रकार का प्रशिक्षण लेना होता है; क्योंकि वहाँ सामान्य जीवन नहीं होता, न सामान्य तरीके से रह सकते हैं। भविष्य में इस उद्योग के विस्तार की प्रबल संभावना है; क्योंकि हर देश इस क्षेत्र में सर्वोपरि बनना चाहता है। 


अंतरिक्ष-उद्योग लगातार बढ़ रहा है, जिसके कारण अंतरिक्ष में उपग्रहों की बाढ़-सी आ गई है। नासा के अनुसार करीब 8400 टन कचरा अंतरिक्ष में है, जो लगातार पृथ्वी की कक्षा में घूम रहा है। अगर एक भी टुकड़ा पृथ्वी पर गिरा तो भारी तबाही कर सकता है। उपग्रह प्रक्षेपित करने के लिए जो रॉकेट वहाँ गए उसके अंश, फ्यूल टैंक, बोल्ट्स, बैटरी, लॉन्चिंग से जुड़े हार्डवेयर आदि अंतरिक्ष में कचरा के रूप में जमा हैं। अंतरिक्ष में कचरा कम हो इसके लिए अन्य देशों की तरह इसरो भी लगातार अध्ययन कर रहा है। 

 

अंतरिक्ष के कार्यों से जहाँ दुनिया ने इतनी प्रगति और खोज कर ली है, वहीं इसके नुक़सान भी बहुत अधिक हैं। लगातार सभी देशों में होड़ लगी है कि अंतरिक्ष में कौन कितना ज़्यादा उपग्रह प्रक्षेपण कर अपना वर्चस्व दिखा सकता है। इसके कारण अंतरिक्ष में उपग्रहों की भीड़ बढ़ती जा रही है। प्रतिस्पर्धा और श्रेष्ठता साबित करने के लिए हर देश अंतरिक्ष में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। जिसके पास जितना ज़्यादा उपग्रह होगा उसके पास उतनी ज़्यादा शक्ति होगी। कोई भी देश मनमानी करके कभी भी कहीं भी विनाश ला सकता है और इससे समस्त मानवता ही नहीं, बल्कि पूरी पृथ्वी के नष्ट होने का ख़तरा पैदा हो गया है।


अंतरिक्ष में जितना ज़्यादा उपग्रह स्थापित किया जाएगा उतना ही ज़्यादा कचरा जमा होगा। ज़्यादा उपग्रह होने से अंतरिक्ष-मलबा और कार्बन उत्सर्जन जैसी चुनौती उत्पन्न हो गई है। उपग्रह और अंतरिक्ष-कचरा के बीच टकराव होने का ख़तरा पैदा हो गया है। अंतरिक्ष में जाने वाला हर रॉकेट काला कार्बन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, क्लोरीन, छोड़ता है जिससे पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग और अन्य पर्यावरणीय समस्या पैदा हो रही है। अंतरिक्ष उड़ान की गतिविधि ज़्यादा बढ़ने से ओजोन परत को नुक़सान हो रहा है। रॉकेट के कारण वायुमण्डलीय प्रदूषण हो रहा है। अन्तरिक्ष में लम्बे समय तक रहने से मनुष्य की हड्डियाँ और मांसपेशियाँ कमज़ोर हो जाती हैं, विशेषकर पैरों और पीठ के निचले हिस्से की। 


किसी भी युद्ध की दशा में अब अंतरिक्ष-युद्ध होगा। आज हर देश की तमाम सेवाएँ उपग्रह के ज़रिए ही होती हैं। दुश्मन देश के उपग्रह को नष्टकर उस देश के रक्षा, वित्त, स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार, परिवहन जैसे आधारीय संरचना को ठप्प कर सकते हैं। ऐसे में दुश्मन देश सक्षम होते हुए भी हार जाएगा। उपग्रह के नष्ट होने से ज़मीन पर चल रहे युद्ध पर बहुत बड़ा असर होगा। अंतरिक्ष में मौजूद उपग्रह युद्ध में इस्तेमाल होने वाले हथियारों और सैनिकों को जी.पी.एस. (Global Positioning System) से दिशा-निर्देश देना, दुश्मन की गतिविधियों पर निगरानी करना, कमांड और कंट्रोल देना आदि करते है। अगर ऐसे उपग्रह नष्ट कर दिए जाएँ तो परिणाम का अंदाज़ा हम लगा सकते हैं। इतिहास में पहले अंतरिक्ष युद्ध का उदहारण है जब 31 अक्टूबर 2023 को इज़रायल-हमास युद्ध में इज़रायल पर यमनी मिसाइल हमले के दौरान इज़राइल ने अपने एरो 2 मिसाइल रक्षा प्रणाली द्वारा हौथी बैलिस्टिक मिसाइल को रोक दिया था। 


विज्ञान की प्रगति ने एक तरफ़ अंतरिक्ष तक हमारी पहुँच बना दी है तो दूसरी तरफ़ ख़ौफ़ का ऐसा अनदेखा साया पूरी पृथ्वी ही नहीं ब्रह्माण्ड पर मँडरा रहा है, जिसमें संसार के विनाश का हर उपाय मौजूद है। कौन देश किस तरह से हमला करेगा, इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता है। उपग्रह पर हमला कर किसी भी देश की व्यवस्था को सहज रूप से नष्ट किया जा सकता है। यदि ये उपग्रह नष्ट हुए तो हमारा जीवन पूर्णतः ध्वस्त हो जाएगा। अतः मानवता के लाभ-हानि पर विचार कर अंतरिक्ष क्षेत्र पर राज करने का विचार त्यागकर सिर्फ़ प्रगति के लिए नियंत्रित एवं संयमित होकर अंतरिक्ष का उपयोग किया जाना आवश्यक है।


- जेन्नी शबनम (25.7.2024)

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Thursday, November 21, 2024

115. साँसों का संकट

सुबह के लगभग 10 बजे बालकनी में निकली, तो देखा कि धुआँसा पसरा हुआ है, जिसे कोहरा या स्मॉग भी कहते हैं। देखने में तो बड़ा अच्छा लगा, मानो जाड़े के दिनों का कुहासा हो। परन्तु साँस में धूल-कण जाने लगे और आँखों में जलन होने लगी। शाम 5 बजे भी यही स्थिति रही। इस कोहरे में कहीं बाहर निकलने का अर्थ है श्वसन तंत्र और आँखों को कष्ट पहुँचाना। परन्तु कोई घर में कब तक छुपा रह सकता है। अपने कार्य एवं व्यवसाय के लिए बाहर जाना आवश्यक है। घर से बाहर भले मास्क पहनकर जाएँ, पर प्रदूषण के प्रभाव से बच नहीं सकते। घर के दरवाज़े व खिड़कियाँ भले बन्द हों, पर वायु प्रदूषण से बचाव सम्भव नहीं है। फेफड़े परेशान हैं और आँखें लाल। 

यों तो पूरा देश वायु प्रदूषण की चपेट में है; परन्तु दिल्ली में प्रदूषण की स्थिति बदतर हो गई है। ऐसा महसूस होता है जैसे साँस लेने पर आपातकाल लग गया हो। जो व्यक्ति श्वास से सम्बन्धित बीमारी से पीड़ित हैं, उनकी स्थिति बेहद गम्भीर हो चुकी है। स्वस्थ व्यक्ति भी आँखों में जलन, सिर दर्द और साँस लेने में परेशानी का अनुभव कर रहा है। सरकार लगातार प्रदूषण के बचाव के लिए कार्य कर रही है; परन्तु स्थिति बदतर होती जा रही है है। वायु प्रदूषण से आँखों में जलन व चुभन, साँस लेने में कठिनाई, गले में ख़राश, शरीर पर एलर्जी, वाहन चालकों को सड़क ठीक से न दिखना इत्यादि समस्या हो रही है। इससे दमा, हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक जैसी बीमारी का ख़तरा बढ़ता है।  

दिल्ली के इस प्रदूषण पर सरकार और विपक्ष में तकरार जारी है। दोनों एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। मानो इनमें से किसी ने बोरी में भरकर प्रदूषण लाया और पूरी दिल्ली पर छिड़काव कर दिया। विपक्ष का कहना है कि आम जनता के लिए दिल्ली गैस चेंबर बन चुकी है। किन्तु यहाँ सिर्फ़ आम जनता नहीं रहती, देश का राजा अपने मंत्रियों के साथ रहता है, जिसे आरोप लगाने का पूर्ण अधिकार है; समस्या के समाधान का कोई दायित्व नहीं। सत्ता और विपक्ष को किसी भी कठिन समय में आरोप-प्रत्यारोप से बाहर आकर जनता की समस्याओं के समाधान के लिए एकजुट होना चाहिए। 

सबसे अहम प्रश्न यह है कि क्या यह प्रदूषण दिल्ली सरकार फैला रही है? क्या आम जनता अपने कर्त्तव्य का पालन कर रही है? क्या केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार एक साथ मिलकर कोई ठोस क़दम उठा रही है? निःसन्देह सरकार से हमें उम्मीद होती है; परन्तु हम जनता को भी अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत होना आवश्यक है। यदि जनता सचेत रहती, तो वायु प्रदूषण या अन्य कोई भी प्रदूषण नहीं होता। 

सरकार ने पटाखों पर पाबन्दी लगाई; परन्तु जनता ने ग़ैरकानूनी तरीक़े से पटाखे ख़रीदे। पराली जलाने पर पाबन्दी लगाई गई; परन्तु हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों ने ख़ूब परली जलाई। दिल्ली में गाड़ियों की रैली मानो हर दिन होती रहती है। सभी पैसे वालों के पास कई-कई गाड़ियाँ हैं। वे बड़ी-सी गाड़ी में अकेले बैठकर चलना अपनी शान समझते हैं। वे सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करेंगे तो उनकी प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाएगी। इन दिनों निम्न आय वर्ग का व्यक्ति भी दोपहिया वाहन चलाता है। जबकि दिल्ली की परिवहन व्यवस्था देश के किसी भी हिस्से से बेहतरीन है। मेट्रो और बस की सुविधा दिल्ली के लिए वरदान है। दूर जाने के लिए समय और संसाधन के बचाव का सर्वोत्तम विकल्प मेट्रो है; हालाँकि अधिकतर निम्न व मध्यम आय वर्ग के लोग मेट्रो का उपयोग करते हैं। 

बढ़ती गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण के कारण जब दिल्ली सरकार ने ऑड-इवेन का फ़ॉर्मूला लागू किया तो अधिकतर लोगों को इससे परेशानी हो रही थी; जबकि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था सुदृढ़ है। वाहन चालन के ऑड-इवेन की व्यवस्था के बाद शहर में गाड़ियों की भीड़ और प्रदूषण दोनों कम हो गया था। ऐसा लगता था मानो दिल्ली की हवा भी स्वच्छ हवा में साँसें ले रही हो। परन्तु यह फ़ॉर्मूला ज़्यादा दिन चल न सका। दिल्ली सरकार को चाहिए कि ऑड-इवेन फ़ॉर्मूला हमेशा के लिए दिल्ली में लागू करे, ताकि सड़क पर गाड़ियों का दबाव कम हो और सार्वजनिक परिवहन का उपयोग हो, जिससे प्रदूषण पर लगाम लगे। 

पराली, पठाखा व परिवहन के अलावा निर्माण कार्य से होने वाला प्रदूषण भी वायु को दूषित कर रहा है। दिल्ली में ऊँची-ऊँची इमारतें, सड़क, या अन्य निर्माण कार्य बिना उचित प्रबंधन के होता है, जिससे हवा में धूल-कण पसरते हैं। पाबन्दी के बावजूद लकड़ी जलाए जाते हैं, कूड़ा जलाए जाते हैं। पेड़ बेवज़ह काटे जा रहे हैं। कचरा प्रबंधन सही नहीं है। मलबा का निस्तारण सही नहीं हो रहा है। रासायनिक कचरा और कल-कारखाने का धुआँ वातावरण को दूषित करता है। इस प्रकार के कई कार्य हैं, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। यह सब आम जनता कर रही है न कि सरकार; परन्तु दोष सरकार को देते हैं। हम अधिकार की बात करते हैं, लेकिन देश के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं। जब-जब जो प्रतिबन्ध सरकार लगाती है, उसे ईमानदारी से जनता निभाए और स्वहित छोड़कर राष्ट्रहित की बात सोचे, तो हर एक व्यक्ति देश की समस्या के निदान में अपना हाथ बँटा सकता है।   

हर आम जनता का कर्त्तव्य है कि देश पर से कुछ भार काम करे। जनसंख्या नियंत्रण, प्राकृतिक जीवन शैली अपनाना, कारपूलिंग का प्रयोग, संयम, अनुशासन, करुणा, धन-सत्ता के लोभ का त्याग, अहंकार पर नियंत्रण, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार का सहयोग, स्व-चेतन व तार्किक चिन्तन इत्यादि को अपने जीवन में उतारकर किसी भी समस्या और समाधान पर पहल करें तो निश्चित हो सफल हुआ जा सकता है। चाहे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भोजन प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण हो या स्वास्थ्य प्रदूषण। 

- जेन्नी शबनम (20.11.2024)
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Saturday, November 16, 2024

114. साहस और उत्साह से भरी राह

बिहार के भागलपुर में एक शिक्षक परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता भागलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे, जिनका देहान्त वर्ष 1978 में हुआ। मेरे पिता गांधीवादी, साम्यवादी व नास्तिक थे तथा अपने सिद्धान्तों के प्रति अत्यन्त दृढ़ थे। वे अपने सिद्धांतों से तनिक भी समझौता नहीं कर सकते थे, न कार्य में न व्यवहार में। मुझ पर उनके विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा; हालाँकि पिता की मृत्यु के समय मैं 12 वर्ष की थी। मेरी माँ भागलपुर के इण्टर स्कूल में प्राचार्या थीं, जिनका देहान्त वर्ष 2021 में हुआ। मेरी माँ प्राचार्य होने के साथ-साथ सक्रिय समाजसेवी थीं। मेरी माँ राजनीति शास्त्र और शिक्षा में स्नातकोत्तर थीं। उन्हें हिन्दी से विशेष लगाव था। समाचार पत्र व साहित्यिक पत्रिका से अच्छे-अच्छे उद्धरण, भावपूर्ण कविताओं की पंक्तियाँ आदि लिखती थीं। जब मैं समझने लायक हुई तो यह सब पढ़ती थी। शायद इससे मुझमें हिन्दी के लिए प्रेम ने जन्म लिया। माता-पिता से विरासत में मुझे सोचने-समझने व लिखने-पढ़ने का गुण मिला है।  
 
मेरी भाषा और पढ़ाई का माधयम हिन्दी है। बी.ए. तक अँगरेज़ी पढ़ी जो मात्र एक विषय था। मैंने वर्ष 1983 में बी.ए. में नामांकन लिया, जिसमें हिन्दी विषय नहीं ली; क्योंकि हिन्दी व्याकरण मुझे बड़ा कठिन लगता था। यों हिन्दी की कविता, कहानी, उपन्यास एवं आचार्य रजनीश के प्रवचनों को पढ़ना व सुनना मुझे अत्यन्त प्रिय है। जब जहाँ पुस्तकें मिल जातीं, पढ़ती रहती। पढ़ना-लिखना, गाना सुनना और सिनेमा देखना मुझे अत्यन्त रुचिकर लगता है। 

वर्ष 1986 में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में भारतीय महिला राष्ट्रीय महासंघ (NFIW) का सम्मेलन था, जिसमें अपनी माँ के साथ मैं आई। यहाँ अमृता प्रीतम जी आईं। अमृता प्रीतम जी की एक पुस्तक पढ़ी, तब से वे मेरी प्रिय लेखिका बन गईं। सम्मेलन में उनके भाषण हुए। महिलाओं ने उनके साथ तस्वीरें लीं। मेरी प्रिय लेखिका मेरे सामने हैं और मैं झिझक के कारण तस्वीर न ले सकी, जिसका दुःख मुझे आजीवन रहेगा। छात्र जीवन से मैं अनेक सामाजिक संगठनों में सक्रिय रूप से हिस्सा लेती रही हूँ, फिर भी बहुत कम बोलती और बहुत संकोची स्वभाव की थी। जब मैं एम.ए. में गई तब से मैं थोड़ी मुखर हुई और अपनी बात कहने लगी। 

विवाहोपरान्त दिल्ली आ गई। घर के सारे काम करने के साथ-साथ कुछ दिन नौकरी की। फिर नौकरी छोड़ कई तरह के काम किए; लेकिन सक्रिय होकर कोई काम न कर सकी। बच्चे छोटे थे, तो हर काम छूटता गया। पर जब भी अवसर मिलता अपने रूचि के कार्य अवश्य करती।  लिखना-पढ़ना जारी रहा। जब जो मन में आया लिख लिया। यह नहीं मालूम कि मैं जो लिख रही हूँ, किस विधा में है। लिखकर अलमारी के ताखे में कपड़ों के बीच छुपाकर रखती रही। तब कहाँ मालूम था कि भविष्य में हिन्दी और मेरी लेखनी एकमात्र मेरी साथी बन जाएगी। 

हमारे समाज में घरेलू कार्य को कार्य की श्रेणी में नहीं माना जाता है; क्योंकि इससे धन-उपार्जन नहीं होता, जबकि स्त्रियाँ घरेलू काम करके बहुत बचत करती हैं। स्त्री सारा दिन घर का कार्य करे, पर उसे कोई सम्मान नहीं मिलता; भले वह कितनी भी शिक्षित हो। वर्ष 2005 में मैंने पी-एच.डी. किया, लेकिन कोई नियमित कार्य न कर सकी। दोष मेरा था कि मैंने धन-उपार्जन से अधिक बच्चों को महत्व दिया। मैं पूर्णतः घरेलू स्त्री बन गई। घर व बच्चे बस यही मेरी ज़िन्दगी। मुझमें धन-उपार्जन का कार्य न कर पाने का मलाल बढ़ता रहा। हाथ में आई नौकरी को छोड़ने का दुःख सदैव सालता रहता। आत्मनिर्भर होना कितना आवश्यक है यह समझ में आ गया, पर तब तक मैंने बहुत देर कर दी। धीरे-धीरे मेरा आत्मविश्वास ख़त्म होने लगा। मैं मानसिक रूप से टूट चुकी थी। मन में जब जो आता लिखकर छुपा देती, जिससे मन को थोड़ा चैन मिलता था।    

वर्ष 1998 में पता चला कि अमृता प्रीतम हौज़ खास में रहती हैं। फ़ोन पर इमरोज़ जी से बात हुई। उन्होंने कहा कि अमृता बीमार हैं इसलिए बाद में आऊँ। घर-बच्चों में व्यस्त हो गई और अमृता जी से मिलने जाना टलता रहा। एक दिन अचानक अमृता जी से मिलने की तीव्र इच्छा हुई। वर्ष 2005 में फ़ोन कर समय लिया और अपने दोनों बच्चों के साथ मिलने पहुँच गई। मेरे लिए अमृता प्रीतम से मिलना ऐसा था जैसे किसी सपने का साकार होना। अमृता जी से मिलने का सोचकर मैं अत्यंत रोमांचित थी। इमरोज़ जी ने अमृता जी को दिखाया। उन्हें देख मैं भावुक हो गई और मेरी आँखों में आँसू भर आए। मेरी प्रिय लेखिका, जो अत्यन्त आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं, आज सिमटी-सिकुड़ी असहाय अवस्था में पड़ी थीं। अमृता जी से मैं न मिल सकी, न बातें कर सकी, बस क्षीण आवाज़ सुन सकी, जब वे इमरोज़ जी को पुकार रही थीं।  

अमृता जी के घर दुबारा गई, तब तक वे चल बसीं। मैं हमेशा इमरोज़ जी से मिलने जाती रही। जब भी उनसे मिलती तो यों लगता मैंने अमृता जी से मिल लिया। इमरोज़ जी को मैंने बताया कि मैं लिखती हूँ, तो उन्होंने मेरी कविताएँ सुनीं। मैंने उनसे अपनी झिझक बताई तथा यह भी कहा कि मैं लिखती हूँ यह कभी किसी को नहीं बताया कि कोई क्या सोचगा। उन्होंने कहा- ''तुम जो भी लिखती हो, जैसा भी लिखती हो, सोचो कि बहुत अच्छा लिखती हो। जिसे जो सोचना है सोचने दो। तुम अपनी किताबें छपवाओ।'' इमरोज़ जी से मिली प्रेरणा ने जैसे मुझमें आत्मविश्वास भर दिया। वर्ष 2006 में एक कार्यक्रम में पहली बार मैं अपनी एक कविता पढ़ी। जब यह इमरोज़ जी को बताया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद मेरे क़दम इस दिशा में बढ़ गए। मैं अंतरजाल पर बहुत अधिक लिखने लगी और ब्लॉग पर भी लिखने लगी। 

वर्ष 2010 में केन्द्रीय विद्यालय से अवकाश प्राप्त प्राचार्य श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी से मेरा परिचय मेरे ब्लॉग के माध्यम से हुआ। वे हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। वे मुझे अपनी छोटी बहन मानते हैं। उन्होंने मुझमें लेखन के प्रति विश्वास पैदा किया, जिससे मेरा आत्मबल बहुत बढ़ गया। उनके स्नेह, सहायता और शिक्षण से मैं हाइकु, हाइगा, सेदोका, ताँका, चोका, माहिया लिखना सीख गई।

धीरे-धीरे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में मेरी लेखनी छपने लगी। सर्वप्रथम वर्ष 2011 में एक साझा संकलन में मेरी रचनाएँ छपीं। मेरी एकल 5 पुस्तकें और साझा संकलन की 45 पुस्तकें छप चुकी हैं। कई समाचार पत्र में लघुकथा और लेख छप चुके हैं। कई पुस्तकों की प्रूफरीडिंग कर चुकी हूँ। इमरोज़ जी एवं काम्बोज जी ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी और मुझमें आत्मविश्वास और स्वयं के लिए सम्मान पैदा किया, जिसके लिए मैं आजीवन कृतज्ञ रहूँगी। अब मैं बेझिझक गर्व से स्वयं को कवयित्री, लेखिका, ब्लॉगर कहती हूँ। 

निःसन्देह जीवन में मैं बहुत पिछड़ गई। जब मेरी हर राह बन्द हुई, तब इमरोज़ जी और काम्बोज जी ने मुझमें साहस और उत्साह भरकर मुझे राह दिखाई जिस पर चलकर आज यहाँ तक पहुँच सकी हूँ। सदैव मेरे मन में यह बेचैनी रहती थी कि इतनी शिक्षा प्राप्त कर भी कोई कार्य न किया जिससे सम्मान मिले, घर में ही सही। जिस हिन्दी को कठिन मानकर मैंने बी.ए. में नहीं लिया, वही हिन्दी आज मेरी पहचान है। एक कवयित्री और लेखिका के रूप में जब कोई मुझे पहचानता है, तो अत्यन्त हर्ष होता है। सच है, कई रास्ते बन्द हुए तो एक रास्ता ऐसा मिला जिस पर चलकर मुझे सुख भी मिलता है और आनन्द भी। धन उपार्जन भले न कर सकी, लेकिन लेखनी के रूप में मेरी पुस्तकें मेरी अमूल्य सम्पदा है। जिनके लिए मैं व्यर्थ हूँ और जिनसे मैं तिरस्कृत होती रही, उनके लिए मेरा जवाब मेरी लेखनी है। 
 
- जेन्नी शबनम (20.3.24)
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Friday, October 18, 2024

113. हृदय की संवेदनशीलता और कोमलता बयाँ करता काव्य-संग्रह 'नवधा' - दयानन्द जायसवाल

श्री दयानन्द जायसवाल, साहित्यकार एवं मोक्षदा इन्टर स्कूल, भागलपुर के पूर्व प्राचार्य, ने मेरी पुस्तक पर सार्थक समीक्षा की है मैं हृदय से आभार व्यक्त करते हुए समीक्षा प्रेषित कर रही हूँ
 
'नवधा' अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित डॉ. जेन्नी शबनम, दिल्ली का यह काव्य-संग्रह कवयित्री के हृदय की संवेदनशीलता और कोमलता बयाँ करता है। इनकी दृष्टि विषयों के बहुत गहरे उतरती है और उनके मर्म को सहेज लाती है। बहुत आह्लादकारी हैं इनकी आत्मीय मिठास से बुनी इनकी रचनाएँ, जहाँ आज के विघटनकारी समय में सबकुछ टूट रहे हैं, यहाँ तक कि रिश्ते-नाते भी। वहाँ इनकी रचनाएँ उनको बचाकर रखने की कोशिश ही नहीं, एक कोमल ज़िद भी है। बिम्बों के चयन ही नहीं, रंगों और रसों का  संयोजन भी इनकी रचना की अपूर्व विशेषता है, जिसमें पाठकों को आकृष्ट करने की प्रबल क्षमता है। नारी जीवन की बेचैनी और सामाजिक असमानता दिखाने के बाद भी इन्होंने कहीं पराजय, टूटन, थकान और गतिहीनता का पक्ष नहीं लिया। इनका स्वप्नजीवी मन कुहासे को चीरकर उजाले को जमीन पर लाने के आग्रहों से भरा है।

       कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का 'नवधा' काव्य-संग्रह में नौ विधाओं का संग्रह है। उन नौ विधाओं में ' हाइकु', 'हाइगा', 'ताँका', 'सेदोका', 'चोका', 'माहिया', 'अनुबन्ध', 'क्षणिकाएँ' तथा 'मुक्तावलि' हैं। नवधा-काव्य-सृजन में इनका सम्पूर्ण परिचय और इनके जीवन के मीठे-कटु अनुभवों का आत्मालोचन भी है। इनकी यह सारी काव्य शैली जापानी कविता की समर्थवान विधा है। 

     हाइकु का विकास होक्कू से हुआ है, जो एक लंबी कविता की शुरुआती तीन पंक्तियाँ हैं जिन्हें टंका के नाम से भी जाना जाता है। यह  5-7-5 के शब्दांश होते हैं जिसमें इन्होंने प्रेम की महत्ता को इस प्रकार दर्शाया है-

" प्रेम का काढ़ा 

  हर रोग की दवा

  पी लो ज़रा-सा।"

'हाइगा' जिसका शाब्दिक अर्थ है 'चित्र कविता', जो चित्रों के समायोजन से वर्णित किया जाता है। यह हाइकु का प्रतिरूप है, जिसमें इन्होंने समुद्र की लहर का सचित्र वर्णन किया है- 

"पाँव चूमने

लहरें दौड़ आईं

मैं सकुचाई।"

'ताँका' जापानी काव्य की एक सौ साल पुरानी काव्य विधा है। इस विधा को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान काफ़ी प्रसिद्धि मिली। उस समय इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ है। यह पाँच पंक्तियों और  5-7-5-7-7= 31 वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करता है, जिसे इन्होंने बालकविता के रूप में एक नन्हीं-सी परी को आसमान से उतारी और वो बच्चों का दिल बहलाई और पुनः लौट गई। उसे इन चंद पंक्तियों में भावनाओं का अथाह सागर-सा उड़ेल दी है- 

"नन्हीं सी परी

लिए जादू की छड़ी

बच्चों को दिए

खिलौने और टॉफी

फिर उड़ वो चली।"

'सेदोका' में किसी एक विषय पर एक निश्चित संवेदना, कल्पना या जीवन-अनुभव वर्णित होता है। इसमें क्रमशः 5-7-7-5-7-7 वर्णक्रम की छह पंक्तियाँ होती हैं, जिसे इन्होंने वियोगावस्था का वर्णन, प्रेमिका के मन की पीड़ा को संवेदनाओं की काली घटाओं में इस प्रकार घोली हैं- 

"मन की पीड़ा 

बूँद-बूँद बरसी  

बदरी से जा मिली  

तुम न आए  

साथ मेरे रो पड़ी  

काली घनी घटाएँ।" 

 'चोका' भारतीय दृष्टिकोण से यह एक वार्णिक छंद है जिसमें 5-7-5-7 वर्णों के क्रम में कई पंक्तियाँ हो सकती हैं। इसके अंत की दो पंक्तियों में सात-सात वर्ण होते हैं। इस कला पक्ष के साथ भाव के प्रवाह में रची गयी कविता 'चोका' कहलाती है। 


कवयित्री के मन में अपनी इन कविताओं को लेकर कोई दुविधा नहीं है। देश दुनिया के संघर्षजीवी जन के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकांक्षाओं  और बेहतर ज़िंदगी, बेहतर दुनिया के लिए इनकी मुक्ति चेतना ही प्रतिबद्धता है। दूसरी ओर इस प्रतिबद्धता के पीछे इनकी समस्त भावनाओं, अनुभूतियों, आत्मीयता और कोमलतम संवेदनाओं को बचा लेने का मन दिखता है, जिसके बिना न तो जीवन जीने योग्य दिखता है और न ही मनुष्यता सुरक्षित हो सकती है। इनकी कविताओं में प्रकृति के उपादानों के माध्यम से मानव जीवन के अनुभवों को कुशलता से व्यक्त किया गया है। इसमें अभिव्यक्ति की सहजता और शब्दों की तरलता के साथ-साथ दृश्यात्मक बिम्बों की विशिष्टता देखकर आँखें जुड़ा जाती हैं। 'चोका' की एक कविता है-

  'सुहाने पल' - "मुट्ठी में बंद / कुछ सुहाने पल / ज़रा लजाते / शरमा के बताते / पिया की बातें / हसीन मुलाक़ातें / प्यारे-से दिन / जगमग-सी रातें / सकुचाई-सी / झुकी-झुकी नजरें / बिन बोले ही / कह गई कहानी / गुदगुदाती / मीठी-मीठी खुशबू / फूलों के लच्छे / जहाँ-तहाँ खिलते / रात चाँदनी / आँगन में पसरी / लिपटकर / चाँद से फिर बोली / ओ मेरे मीत /  झीलों से भी गहरे / जुड़ते गए / ये तेरे-मेरे नाते / भले हों दूर / न होंगे कभी दूर / मुट्ठी ज्यों खोली / बीते पल मुस्काए / न बिसराए / याद हमेशा आए / मन को हुलसाए।" 

     रूप, रस, गंध, शब्द-स्पर्श आदि ऐन्द्रिय बिम्बों से बुना गया इनकी अन्य कविताओं का सृजनात्मक कर्म जीवन के सन्दर्भों का समुच्चय है। कवयित्री का यह प्रयास घर को घर की तरह रखने का संकल्प है। घर गहरी आत्मीयता, परस्पर सम्बद्धता, समर्पण, विश्वास और व्यवस्था का एक रूप है। दीवारों के दायरे को भरे-पूरे संसार में तब्दील करना इनका लक्ष्य है। इनका यह सोच इनकी लोक-संपृक्ति का प्रमाण है। 

कवयित्री को हार्दिक बधाई एवं सफलता की शुभकामनाएँ। 

कवयित्री का संपर्क सूत्र-  9810743437

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Thursday, July 18, 2024

112. भगदड़

उत्तर प्रदेश राज्य के हाथरस ज़िला में सिकंदराराव के गाँव फुलरई में 2 जुलाई 2024 को सत्संग के बाद हुई भगदड़ में 121 लोगों की मृत्यु हुई, जिनमें 113 महिलाएँ हैं। यह भगदड़ कथावाचक भोले बाबा उर्फ़ सूरज पाल उर्फ़ नारायण साकार विश्व हरि के सत्संग के बाद हुई। कथावाचन के बाद बाबा के आदेशानुसार वापस जाते समय अनुयायी बाबा का आशीर्वाद व चरण-रज लेने के लिए दौड़ पड़े, जिससे भगदड़ मच गई। 

वर्ष 2013 में 'इंटरनेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन' में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि भारत में 79% भगदड़ धार्मिक सभाओं और तीर्थयात्राओं के कारण होती है। यह भी पाया गया कि ये धार्मिक सामूहिक आयोजन अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में किए जाते हैं, जहाँ बुनियादी सुविधाएँ नहीं होने के कारण ख़तरा बना रहता है।  

वैज्ञानिकों ने एक डाटाबेस तैयार किया है, जिसके आँकड़े के अनुसार भारत और पश्चिमी अफ्रीका भगदड़ की दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा केन्द्र बनता जा रहा है। सबसे ज़्यादा खेल और धार्मिक आयोजनों में ऐसी दुर्घटनाएँ होती हैं।

भीड़ पर से नियंत्रण ख़त्म हो जाए या भीड़ प्रबन्धन असफल हो जाए तो भगदड़ मच जाती है; भीड़ के एकत्रित होने का कारण कुछ भी हो सकता है। न सिर्फ़ भारत में बल्कि विदेशों में भी ऐसी कई दुर्घटनाएँ हुईं हैं। न सिर्फ़ धार्मिक आयोजन बल्कि अन्य कार्यक्रम जहाँ भीड़ बहुत होती है, ऐसे हादसे होते हैं। 

वर्ष 1989 में ब्रिटैन के शेफील्ड के एक स्टेडियम में एक मैच के दौरान प्रशंसकों की भीड़ अनियंत्रित हो गई, जिसमें 96 लोग मारे गए। वर्ष 2001 में अफ्रीका के अकरा के एक स्टेडियम में अनियंत्रित प्रशंसको पर पुलिस द्वारा आँसू-गैस छोड़े जाने पर भगदड़ हो गई, जिसमें 126 लोग मारे गए। वर्ष 2022 में इंडोनेशिया के एक स्टेडियम में भगदड़ के कारण 125 लोग मारे गए। 

अंतरजाल पर मिली सूचनाओं के अनुसार भारत और विदेशों की भगदड़ की बड़ी दुर्घटनाओं का विवरण निम्न है- 

*वर्ष 2003 में महाराष्ट्र के नासिक ज़िले सिंहस्थ कुम्भ मेले में पवित्र स्नान के दौरान हुए भगदड़ में 39 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2005 में महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में मंधारदेवी मन्दिर में वार्षिक तीर्थयात्रा के दौरान 340 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2008 में हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर ज़िले के नैना देवी मन्दिर में चट्टान खिसकने की अफ़वाह से मचे भगदड़ में 162 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2008 में राजस्थान के जोधपुर में चामुण्डा देवी मन्दिर में बम विस्फोट की अफ़वाह के भगदड़ में 250 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2010 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में राम जानकी मन्दिर में कृपालु महाराज द्वारा दान दिए जा रहे खाना व कपड़ा लेने के दौरान मची भगदड़ में 63 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2011 में केरल के इडुक्की ज़िले में सबरीमाला मन्दिर से दर्शन कर लौट रहे लोगों से एक जीप के टकरा जाने के बाद मची भगदड़ में 104 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2011 में उत्तराखण्ड में हरिद्वार के हर की पौड़ी के भगदड़ में 20 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2012 में बिहार के पटना में गंगा नदी के घाट पर छठ पूजा के दौरान अस्थायी पुल के ढहने से हुई भगदड़ में 20 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश के दतिया ज़िले में रतनगढ़ मन्दिर के पास नवरात्र उत्सव के दौरान पुल टूटने की अफ़वाह से मची भगदड़ में 115 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2014 में बिहार के पटना के गाँधी मैदान में दशहरा समारोह की समाप्ति के तुरन्त बाद मची भगदड़ में 32 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2015 में आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी ज़िले में पुष्करम उत्सव के दिन गोदावरी नदी के तट के स्नान स्थल पर भगदड़ में 27 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2022 में जम्मू-कश्मीर के माता वैष्णो देवी मन्दिर में भीड़ के कारण हुई भगदड़ में 12 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2023 में इंदौर के बेलेश्वर महादेव झूलेलाल मन्दिर में रामनवमी के अवसर पर आयोजित हवन कार्यक्रम के दौरान बावड़ी का स्लैब ढह जाने से 36 लोगों की मौत हुई। 

*वर्ष 1990 में सऊदी अरब के मक्का के अल-मुआइसम सुरंग में ईद-उल-अजहा के मौक़े पर हज यात्रा के दौरान भगदड़ में 1426 लोगों की मौत हुई।
*वर्ष 1994 सऊदी अरब के मक्का के पास जमरात पुल के पास शैतान को पत्थर मारने के हज-रस्म के दौरान हुए भगदड़ में 270 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2004 में ही जमारात ब्रिज के पास शैतान को पत्थर मारने के हज-रस्म के भगदड़ में 251 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2022 में दक्षिण कोरिया के सियोल में हैलोवीन समारोह की भगदड़ में 151 लोगों की मौत हुई। 

इन तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत हो या विदेश हर जगह हीरो-वर्शिप (Hero-worship) की जाती है; चाहे वह खेल का मैदान हो या किसी बाबा या ईश्वर के लिए अंधभक्ति। पूजा, प्रेम, भक्ति, आदर, सम्मान, अनुराग, आराधना, सम्मान, पसन्द इत्यादि होना ग़लत नहीं है। ग़लत तो तब होता है जब इनमें से किसी की भी अति हो, और इसी अति का दुष्परिणाम है ऐसा हादसा।  

धर्म के नाम पर न जाने कितनी सदियों से अत्याचार हो रहे हैं और यह सब जानकर भी लोग इसमें फँस जाते हैं। चाहे वह किसी भी धर्म या संप्रदाय की बात क्यों न हो। ईसाई समाज के बाबा दूर खड़े मंत्र पढ़ते हैं और लोग गिरने लगते हैं। हर रविवार को विशेष प्रार्थना के लिए हर ईसाई का चर्च में जाना अनिवार्य है। ऐसे ही मुस्लिम समाज में मुल्ला-मौलवी ने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर है। मक्का-मदीना जाना है तो जाना है, भले शरीर से लाचार हो। हिन्दू देवी-देवताओं के अधिकतर मशहूर मन्दिर पहाड़ों पर या ऊँचे स्थानों पर बने हुए हैं; भले जान चली जाए पर वहाँ जाना ही है। 

बेहद आश्चर्य होता है कि आज का सभ्य और शिक्षित समाज ऐसे बाबाओं के चक्कर में कैसे फँस जाता है; गाँव हो या शहर। स्त्रियाँ इन बाबाओं के चंगुल में ज़्यादा फँसती हैं और अपना सर्वस्व लुटा बैठती हैं, चाहे वे शिक्षित हों या अशिक्षित। कुछ दशक पहले तक बहुत कम लोग अंधभक्त होते थे। नित्य-क्रिया की तरह पूजा-पाठ, वंदना, नमाज़ या प्रार्थना किया करते थे। जिस ख़ास दिन पर कोई उत्सव हो वह मनाया करते थे। परन्तु अब यह सब फ़ैशन की तरह हो गया है। उस पर से हर कुछ दिन में एक नया बाबा आ जाता है और लोग पुण्य कमाने उसके पास दौड़ पड़ते हैं। सोच, समझ, शिक्षा, विज्ञान, तकनीक सबको पछाड़ दे रहा है यह बाबा-मुल्ला समाज। इनके तर्कहीन, अवैज्ञानिक और अनर्गल बातों पर विशवास कर लोग इनका अनुसरण और अनुकरण करते हैं और किसी-न-किसी हादसे के शिकार हो जाते हैं। राम रहीम, निर्मल बाबा, आसाराम, सूरज पाल या अन्य बाबा; इन सभी ने स्त्रियों पर अत्याचार किया और कितनों की जान ले चुके हैं। 

निःसन्देह बाबा-मुल्ला दोषी है; लेकिन हमारा अशिक्षित समाज ज़्यादा दोषी है। धन, सुख, पद, प्रतिष्ठा, संतान, मनोकामना इत्यादि का लोभ और ईश्वर का डर मनुष्य को इन पाखण्डियों के नज़दीक ले जाता है और फिर वे इसका फ़ायदा उठाते हैं। हर धर्म-ग्रन्थ में प्रेम, दया, अहिंसा, मर्यादा, मोक्ष की बातें बताई गई हैं; परन्तु लोग इसे न अपनाकर मन्दिर-मस्जिद-चर्च में भटक रहे हैं और बाबाओं, मुल्लों, पादरियों के चक्कर में पड़ रहे हैं।      

जान-बूझकर पाप करना ही क्यों, जो पुण्य के चक्कर में मन्दिर-मस्जिद भटकना पड़े, बाबाओं या पंडितों से निदान का उपाय करवाना पड़े। जो भी संत, महात्मा, फ़क़ीर या गुरु होते हैं, वे भीड़ जुटाकर लोगों को बरगलाकर जबरन अपनी प्रतिष्ठा नहीं करवाते, न तो वे चमत्कार दिखाते हैं, न अनुयायियों की संख्या बढ़ाते हैं। लेकिन पाखण्डी जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, तरह-तरह के अनुष्ठान क्रिया आदि करके लोगों के दिमाग़ को क़ैद कर लेते हैं और इसका दुरूपयोग कर अपना धन-बल बढ़ाते हैं।    

निःसन्देह हमारी शिक्षा सही नहीं है, हमारे संस्कार सही नहीं है। अन्यथा लोग वर्तमान जीवन का कर्म छोड़कर मृत्यु टालने और मृत्यु के बाद के सुख के लोभ में न पड़ते, न ऐसे पाखण्डी बाबाओं के चक्कर में पड़कर जान गँवाते। जो बाबा आपसी भाईचारा मिटा रहा है, समाज में आपस में दूरी बढ़ा रहा है, अमीर-ग़रीब का दो समाज बाँट रहा है, शिक्षित को भी अंधविश्वास के कुँआ में धकेल रहा है, अशिक्षित को और भी पिछड़ा बना रहा है; ऐसा बाबा हो मुल्ला हो या पादरी या अन्य कोई भी धर्म का ठेकेदार हमें उससे दूर रहना होगा ताकि उसका धर्म का धंधा बंद हो सके। 

धार्मिक आयोजन या यात्राओं में जितने भी भगदड़ हुए हैं, इन सभी के दोषी हम सब हैं, हमारा शिक्षित समाज है और हमारी सरकार। अपने-अपने धर्म, सम्प्रदाय और नियम का पालन लोग अपने-अपने घरों में करें। सरकार को चाहिए कि सार्वजनिक जगह पर सार्वजनिक रूप से धार्मिक आयोजन को बंद करवाए। जिसे प्रार्थना, नमाज़, पूजा-पाठ या कोई ख़ास अनुष्ठान करना है, वह अपने-अपने घरों में करे या फिर जो भी मन्दिर-मस्जिद-गिरजाघर पहले से है, वहाँ जाकर करे। सभी पाखण्डी बाबाओं, मुल्लों, पादरियों व नक़ली धर्म गुरुओं को कठोर दण्ड मिलना चाहिए ताकि आगे कोई बाबा बनने की हिम्मत न करे। अन्यथा लोग ऐसे ही अंधभक्ति में पड़कर जान-माल गँवाते रहेंगे, बाबा बेफ़िक्र रहकर नया-नया अनुयायी बनाता रहेगा, सरकार मुआवज़ा देती रहेगी। अगर कोई ईश्वर कहीं होता होगा, तो मनुष्य के इस गँवारूपन पर हँसता ही होगा। 

- जेन्नी शबनम (18.7.2024)

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Wednesday, May 1, 2024

111. शासक हाथी और शोषित कुत्ता

एक कहावत है- ''हाथी चले बाज़ार कुत्ता भौंके हज़ार।'' इसका अर्थ है आलोचना, निन्दा, द्वेष या बुराई की परवाह किए बिना अच्छे कार्य करते रहना या सही राह पर चलते रहना। इसका सन्देश अत्यन्त सकारात्मक है, जो हर किसी के लिए उचित, सार्थक एवं अनुकरणीय है। हम सभी के जीवन में ऐसा होता है जब आप सही हों फिर भी आपकी अत्यधिक आलोचना होती है। अक्सर आलोचना से घबराकर या डरकर कुछ लोग निष्क्रिय हो जाते हैं या चुप बैठ जाते हैं। कुछ लोग अनुचित राह पकड़ लेते हैं और ''हाथी चले बाज़ार कुत्ता भौंके हज़ार'' कहावत को चरितार्थ करते हैं। वे बिना किसी परवाह के अनुचित कार्य करते रहेंगे; न अपने सम्मान की चिन्ता न दूसरे की असुविधा की फ़िक्र। बस अपना हित साधना है, पूरी दुनिया जाए भाड़ में।   

वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें तो राजनीतिक परिस्थितियों पर यह कहावत सटीक बैठती है, भले नकारात्मक रूप से ही सही। कुछ नेता स्वयं को हाथी मानकर अति मनमानी करते हैं, अति निर्लज्जता से सारे ग़लत काम करते हैं, असंवेदनशीलता की सारी हदें लाँघ जाते हैं, बेशर्मी से दाँव-पेंच लगाकर बाज़ी चलते हैं। उन्हें न अपनी आलोचना की फ़िक्र है, न अपने कुकृत्यों पर शर्मिन्दगी। पद, पैसा और लालच के सामने उन्हें किसी चीज़ की कोई परवाह नहीं। 

इस सन्दर्भ में सोचें तो हम आम जनता कुत्ते की तरह हैं, जो हर अनुचित पर लगातार भौंक रहे हैं और सदियों से भौंकते जा रहे हैं। न किसी को हमारी परवाह है, न कोई हमारी बात सुनता है; फिर भी हम भौंकते रहते हैं। ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद करते रहते हैं। हमारे अधिनायक, बादशाह, शासक, नेता, आका, सत्ताधीश बिगड़ैल हाथी की तरह सत्ता हथियाने के लिए भाग रहे हैं और हम जैसे भौंकते कुत्तों को रौंदते जा रहे हैं। वे हाथी हैं, अपने हाथी होने पर उन्हें घमण्ड है और इस अभिमान में पाँव के नीचे आने वाले कुत्तों को रौंदना उनका कर्त्तव्य; क्योंकि ऐसे कुत्ते उनकी राह में बाधा डालने के लिए खड़े हैं।  

भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, अन्याय, अत्याचार, तानाशाही, निरंकुशता आदि के ख़िलाफ़ हम कितना भी भौंके, कोई सुनवाई नहीं है। नेताओं को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, उन्हें अपने फ़ायदे के लिए जो सही लगता है वे करते हैं; वे हाथी जो ठहरे। आम जनता तो कुत्ता है, भौंके, भौंकता रहे। जिधर रोटी मिलेगी दुम हिलाते हुए कुछ कुत्ता हाथी के पीछे चला जाएगा। कुछ कुत्ता हमेशा की तरह भौंक-भौंककर जनता को जगाएगा ताकि वे अपना अधिकार जाने और सही के लिए भौंकने में साथ दें। 

जब-जब चुनाव आएगा तब-तब हाथी होश में आएगा और गिरगिट-सा रंग बदलते हुए अपनी चाल थोड़ी धीमी करेगा। बाज़ार से गुज़रते हुए रोटी का टुकड़ा फेंकता जाएगा, थोड़ा पुचकारेगा, थोड़ा दया दिखाएगा; जो झाँसे में न आया उसे पाँव तले कुचल देगा। यों भी पेट और वोट का रिश्ता बहुत पुराना है। पाँच साल जनता कुत्ते की तरह भौंके और नेता हाथी की तरह मदमस्त चलता रहे।

समाज में हर तरह के लोग होते हैं, जो हर कार्य का आकलन, अवलोकन और निष्पादन अपने सोच-विचार से करते हैं। हमारी सोच को शिक्षा, धर्म और संस्कृति सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है। जाने कब आएगा वह दिन जब न कोई शासक होग़ा न कोई शोषित। सभी की सोच पर से धर्म और जाति का पर्दा उठेगा और जनहित को ध्यान में रखकर इन्सानियत वाले समाज का निर्माण होगा।  

शासक हाथी और शोषित कुत्ता, खेल जारी है... हाथी अपने मद में चूर जा रहा है और कुत्ते भौंक रहे हैं। हाथी सदा सही होता है और कुत्ता सदा बेवकूफ़! सन्दर्भ भले उलट गया पर कहावत सही है- ''हाथी चले बाज़ार कुत्ता भौंके हज़ार।'' 

- जेन्नी शबनम (1.5.24)

(मज़दूर दिवस)

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Friday, March 8, 2024

110. स्त्री-रोबोट


चित्र गूगल से साभार 
दरवाज़े की घंटी बजी। बहुत क़रीने से साड़ी पहनी हुई एक स्त्री ने मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोल आने का कारण पूछा। फिर बड़े तहज़ीब से बैठक में बिठा पानी लेकर आई। पानी का ग्लास देने के बाद घर के भीतर गई और उस सदस्य को सूचना दी, जिससे मिलना था। फिर वह मुस्कुराती हुई आई और चाय देकर चली गई। अमूमन आम घरों का यह एक सामान्य चलन है। लेकिन जब पता चले कि वह स्त्री जीवित इंसान नहीं बल्कि रोबोट है, तो निःसन्देह हम चौंक जाएँगे या डर जाएँगे, मानो भूत देख लिया हो। 

सुना है कि ऐसे-ऐसे रोबोट बन गए हैं जो हर काम चुटकियों में कर देते हैं, और वह भी उत्तम तरीक़े से। विज्ञान और तकनीक ने मनुष्य का विकल्प रोबोट बनाया है। ऐसे रोबोट बन गए हैं जो स्त्री का विकल्प ही नहीं बल्कि स्त्री ही है, जो हर वह काम करेगी जो एक स्त्री करती है। घर के सारे काम से लेकर पुरुष के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने का कार्य वह बेहिचक और पूरी तन्मयता से करेगी। स्त्री-रोबोट देखने में ख़ूबसूरत और सुडौल होगी, आपके पसन्द का परिधान पहनेगी, आपके पसन्द का भोजन पकाएगी, जो गीत आप सुनना चाहें वह गाएगी, ऑनलाइन आपके बैंक के कार्य करेगी, बाज़ार से ऑनलाइन सामान मँगाएगी, आपके हर कार्य का हिसाब रखेगी, आपके रूटीन का ध्यान रखेगी, खाना-दवा सही वक़्त पर देगी। आपके मनोभाव के अनुरूप वह हर काम करेगी, जिससे आपको आनन्द आए और जीवन सुचारू रूप से चले। बस वह बच्चा पैदा नहीं कर सकती।  

अभी एक फ़िल्म आई थी 'तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया'। इसमें स्त्री पात्र का चरित्र एक ख़ूबसूरत स्त्री-रोबोट का है, जिसके प्रेम में फ़िल्म का नायक पड़ जाता है; यहाँ तक कि उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध भी बनाता है। उस स्त्री-रोबोट से विवाह करने को व्यग्र हो जाता है और विवाह करने के लिए एक सुघड़ सुसंस्कृत बहु के रूप में घरवालों से मिलवाता है। ख़ैर... यह तो फ़िल्म है, जो हमें हमारे समाज के भविष्य का रूप दिखा रहा है। ऐसा सचमुच कब होगा मालूम नहीं, जब हम एक आम स्त्री और रोबोट में फ़र्क़ न कर पाएँ। हालाँकि फ़िल्म में इसके दुष्परिणाम भी दिखाए गए हैं; लेकिन यह तो सत्य है कि हर पुरुष ऐसी ही रोबोट स्त्री चाहता है, जो बिना थके बिना किसी शिकायत किए चौबीस घंटा उसके लिए मुस्कुराती हुई उपलब्ध रहे।  
चित्र गूगल से साभार 
समाज में स्त्रियों की जो स्थिति है ऐसे में मुनासिब है कि संसार से स्त्री प्रजाति मिट जाए और उसकी जगह स्त्री-रोबोट ले ले। हमारे पुरुषप्रधान समाज में सैकड़ों सालों से स्त्री जीवन के सुधार के लिए कार्य किए गए; लेकिन नतीज़ा सिफ़र। कुछ ख़ास तबक़े और वर्ग को छोड़ दें, तो हज़ारों साल से स्त्री की वास्तविक स्थिति में ज़्यादा सुधार नहीं हुआ है। हाँ! अब स्त्री पढ़ रही है, कार्य करती है, बच्चे सँभालती है और पुरुष को बराबर का सहयोग देती है। परन्तु यह सब इतना कम है कि अगर सही मायने में सर्वे हो, तो सारी बातें स्पष्ट रूप से सामने आएँगी। 

बलात्कार व बलात्कार के बाद हत्या, दहेज़ के लिए प्रताड़ना व हत्या, भ्रूण हत्या, अशिक्षा, बाल विवाह, घरेलु हिंसा, छेड़खानी इत्यादि दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। हज़ारों प्रयत्न के बाद भी स्त्रियों को आज़ादी एवं सुरक्षा नहीं मिल सकी है। स्त्री का जीवन माँ के गर्भ में आने से लेकर मृत्युपर्यन्त ख़तरे में रहता है। दोष सिर्फ़ पुरुष समाज का नहीं, हम सभी की इसमें बराबर भागीदारी है। 

'तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया' फ़िल्म देखकर यह ख़याल आया कि सचमुच ऐसे रोबोट बनाए जाएँ, जो पूर्णतः शारीरिक और मानसिक रूप से स्त्री हो, ताकि पुरुष अपने मनमाफ़िक़ उसका संचालन और उपयोग करे। स्त्री-रोबोट 24 घण्टे हर काम के लिए उपलब्ध रहेगी। घर का काम, बैंक का काम या कोई गुप्त कार्य वह आसानी से करेगी। उसे न भूख लगेगी न प्यास, न आँसू बहाएगी न कोई शिकायत करेगी, न उसे कोई तकलीफ़ होगी, न कोई अपेक्षा रखेगी। जितना मर्ज़ी उसके साथ हमबिस्तर हुआ जा सकता है। अगर बलात्कार भी हो, तो वह न चीखेगी न चिल्लाएगी। पुरुष जो भी कार्य का आदेश देगा वह करेगी। 

अधिकतर पति को अपनी पत्नी से शिकायत रहती है। ढेरों चुटकुले बने हैं पत्नी पीड़ित पुरुष द्वारा स्त्री के लिए। पुरुष के अनुसार पत्नी अपने पति को ग़ुलाम बनाकर रखना चाहती है, उसकी आज़ादी छीन लेती है, उसपर हमेशा सन्देह करती है, निराधार आरोप लगाती है, सिर्फ़ पति के पैसे से मतलब रखती है इत्यादि। ऐसे में स्त्री-रोबोट सचमुच बहुत बढ़िया विकल्प है। पुरुष की सारी ज़रूरत स्त्री-रोबोट पूरी करेगी। अगर ऐसा हो जाए तो पुरुषों की दुनिया बहुत अच्छी और आनन्दमय हो जाएगी।  

जहाँ तक सवाल है कि रोबोट बच्चे पैदा नहीं कर सकती, जो एक जीवित स्त्री का कार्य है; तो इसके लिए रोबोटिक्स के इंजीनियर थोड़ी और मेहनत करें और बच्चा पैदा करने वाली स्त्री-रोबोट का आविष्कार करें। फिर इस संसार से सारी स्त्री ख़त्म हो जाएगी। यों स्त्री की हत्या कई कारणों से होती रहती है- माँ के गर्भ में, दहेज के लिए ससुराल में, प्रेम के लिए हामी न भरने पर पागल प्रेमी द्वारा, बलात्कार करके, प्रतिष्ठा के लिए (ऑनर किलिंग)। स्त्री-रोबोट आ जाने से ये सारे अपराध बन्द हो जाएँगे।

स्त्री को यों भी नरक का द्वार कहा गया है। न रहेगा द्वार न कोई प्रवेश करके जाएगा नरक में। स्त्री मुक्त संसार से यह दुनिया स्वर्ग बन जाएगी। फिर सारे पुरुष स्वर्ग में निवास करेंगे। 

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएँ। 

चित्र गूगल से साभार 
-जेन्नी शबनम (8.3.2024)
(अन्तर्रष्ट्रीय महिला दिवस)
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