ज़िन्दगी जाने किन-किन राहों से गुज़री, कितने चौक-चौराहों पर ठिठकी, कभी पगडण्डी कभी कच्ची तो कभी सख़्त राहों से गुज़रीI ज़ेहन में न जाने कितनी यादें हैं, जो समय-समय पर हँसाती हैं, रुलाती हैं, तो कभी-कभी गुदगुदाती भी हैंI उम्र के हर पड़ाव पर जब भी पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो ज़िन्दगी बहुत दूर नज़र आती हैI यों लगता है जैसे वह लड़की मैं नहीं हूँ, जिसके अतीत से मेरी यादें और मैं जुड़ी हूँI
बिहार के भागलपुर के नया बाज़ार मोहल्ले में हमलोग किराए के जिस मकान में रहते थे, वह एक ज़मींदार का बहुत बड़ी कोठी है जो यमुना कोठी के नाम से प्रसिद्ध हैI उस मकान का पूरा प्रथम तल हमलोगों ने किराए पर लिया थाI ख़ूब बड़ा-बड़ा 4 छत, 6 कमरे, ख़ूब बड़ा बरामदाI बरामदे में लोहे के कई पाया (Pillar), जिसे पकड़कर गोल-गोल घूमना मेरा हर दिन का खेल थाI उस मकान के नीचे के हिस्से में अलग-अलग कई किराएदार थेI सभी से हमारे बहुत आत्मीय सम्बन्ध रहेI
मुझे याद है जब मैं दो साल की थी एक किराएदार की शादी हुईI न जाने कैसे उस उम्र में हुई यह शादी मुझे अच्छी तरह याद है; जबकि सभी कहते हैं कि इस उम्र की बातें याद नहीं रहती हैंI जिनकी शादी हुई उनको मैं चाचा कहती थी और उनकी पत्नी मुझे इतनी अच्छी लगीं कि मैं उन्हें मम्मी कहने लगीI जब थोड़ी और बड़ी हुई तब उन्हें चाची जी कहने लगीI सरोज चाचा से बड़े वाले भाई को ताऊ जी और उनकी बड़ी बहन को बुआ जी कहती थीI बचपन में मुझे समझ नहीं था कि ये लोग मेरे सगे चाचा-चाची या ताऊ-बुआ नहीं हैंI स्कूल से आते ही पहले उनके घर जाती फिर अपने घरI छुट्टी के दिनों में उनके साथ ख़ूब खेलती थीI मिट्टी का छोटा चूल्हा, खाना बनाने के छोटे-छोटे बर्तन, छोलनी-कलछुल, चकला-बेलना, तावा, चिमटा, छोटा सूप (चावल साफ़ करने के लिए), छोटी बाल्टी आदि सभी कुछ मेरे पास थाI उन दिनों कोयला और गोइठा (गाय-भैंस के गोबर से बना उपला) को चूल्हा में जलाकर खाना बनाया जाता थाI मेरे छोटे चूल्हे में बिन्दु चाची ताव (चूल्हा जलाना) देती थींI फिर छोटे-छोटे पतीले में भात (चावल), दाल, तरकारी (सब्ज़ी) या कभी खिचड़ी बनाती थींI बड़ा मज़े का दिन होता थाI मेरे पिता रोज़ 12 बजे यूनिवर्सिटी जाते थे, मेरी माँ अक्सर सामाजिक कार्य से बाहर रहती थीं और मैं बिन्दु चाची के साथ ख़ूब खेलती थीI सभी बच्चे उनसे हिले-मिले थेI
इस जन्मदिन के मौक़े पर बचपन का एक जन्मदिन याद आ रहा हैI यह तो याद नहीं कि उस समय मेरी उम्र क्या थी, शायद 5-6 वर्ष की रही होऊँगीI मेरे घर में जन्मदिन पर केक काटने का रिवाज नहीं था और न ही आज की तरह कोई पार्टी होती थीI चाहे मेरा जन्मदिन हो या मेरे भाई का, घर में बहुत बड़ा भोज होता था, जिसमें पिता के भागलपुर विश्वविद्यालय में कार्यरत सहकर्मी शिक्षक, कर्मचारी, विभागाध्यक्ष, मेरे माता-पिता के मित्र और स्थानीय रिश्तेदार आमंत्रित होते थेI पुलाव, दाल, तरकारी, खीर, दल-पूरी (दाल भरी हुई पूरी) बनती थीI दो फीट चौड़ी ख़ूब लम्बी-लम्बी चटाई ज़मीन पर बिछाई जाती थी, जिसे पटिया कहते हैंI उस पर पंक्तिबद्ध बैठकर सभी लोग खाना खाते थेI उपहार लाने की सभी को मनाही होती थी, फिर भी कुछ लोग उपहार ले ही आते थेI मुझे याद है ताऊ जी (किराएदार) ने एक खिलौना दिया, जो गोल लोहे का था और तार बाँधकर उसपर उसे चलाते थेI वह मुझे बड़ा प्रिय थाI मेरे भाई के जन्मदिन पर किसी ने घर बनाने का प्लास्टिक का अलग-अलग रंग और आकार का ईंट (Blocks) दिया था, जिससे घर बनाना बड़ा अच्छा लगता थाI अक्सर मैं अपने भाई के साथ घर बनाने का खेल खेलती थीI
पिता के देहान्त के बाद भी जन्मदिन मनाती रही; लेकिन वह जश्न, धूमधाम और भोज का आयोजन बंद हो गयाI मेरे हर जन्मदिन पर मेरी दादी मेरे पापा को यादकर रोती थी, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद उतने पैसे नहीं थे और पापा के समय के सभी अपने भी बेगाने हो गए थेI दादी कहती थीं ''बउआ रहते तो कितना धूमधाम से जन्मदिन मनातेI'' मेरी दादी मेरे पापा को बउआ और मम्मी को दुल्हिन बुलाती थीI स्कूल और कॉलेज के दिनों में मेरी किसी से बहुत मित्रता नहीं थी, अतः कोई मित्र नहीं आती थीI स्कूल के दिनों में बहुत ख़ास कोई सिनेमा दिखाने पापा ले जाते थेI जब कॉलेज गई तो हमारे मकान मालिक की बहन के साथ ख़ूब सिनेमा देखती थी और बाद में सिनेमा देखना मेरा शौक़ बन गयाI अपने जन्मदिन पर मम्मी के साथ सिनेमा देखना जैसे मेरा नियम-सा बन गयाI दिन में सिनेमा देखती और रात के खाना पर मम्मी के स्कूल के कुछ सहकर्मी और मित्र आ जाते थेI और बस जन्मदिन ख़त्म!
एक जन्मदिन (1986) पर मेरी एक ज़िद मुझे अब तक याद हैI हमारे पारिवारिक मित्र डॉ.पवन कुमार अग्रवाल, भागलपुर मेडिकल कॉलेज में प्रोफ़ेसर और सर्जन तथा मेरे पिता तुल्य थे, एक जन्मदिन पर उन्होंने एक कैसेट उपहारस्वरूप दियाI उन्होंने कहा कि जो भी गाना चाहिए वे रिकॉर्ड करवा देंगेI ''कितने पास कितने दूर'' फ़िल्म का एक गाना ''मेरे महबूब शायद आज कुछ नाराज़ हैं मुझसे'' मेरा प्रिय गाना था; लेकिन यह नहीं मालूम था कि यह किस फ़िल्म का गाना हैI कुछ गाना के साथ यह गाना भी मैंने उनसे कहा कि रिकॉर्ड करवा देंI चूकि फ़िल्म का नाम मालूम नहीं था, तो गाना ढूँढ पाना कठिन था, और मेरी ज़िद कि वह गाना चाहिए ही चाहिएI मैं शुरू की ज़िद्दी! अपने पिता के बाद एक मात्र वही थे जिनसे मैं बहुत सारी ज़िद करती और वे पूरी करते थे; क्योंकि अपनी बेटी की तरह मानते थे मुझेI ख़ैर वह गाना कई दिन के मशक्क़त के बाद उन्हें मिल पाया और मेरी ख़्वाहिश पूरी हुईI
अब भी सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक़ हैI कई जन्मदिन ऐसा आया जब मेरे पति शहर से बाहर रहेI बच्चों के स्कूल जाने के बाद मैं अकेली सिनेमा देखने चली जाती थीI अपने लिए अपने पसन्द का उपहार ख़ुद ख़रीदना और ख़ुद को देना अब भी मुझे पसन्द हैI
बचपन में मुझे हर जन्मदिन में और बड़े होने का उत्साह होता था, जैसे अब मेरे बच्चों को होता हैI लेकिन अब न उत्साह बचा न उमंगI ज़िन्दगी का सफ़र जारी है, जन्मदिन आता है चला जाता हैI कभी मैं अकेली अपना जन्मदिन मनाती हूँ, तो कभी पार्टी होती हैI
आज भागलपुर में हूँI रात की पार्टी की तैयारी चल रही हैI संगीत की धुन सुनाई पड़ रही हैI काफ़ी सारे लोग आने वाले हैंI मेरी बेटी ख़ुशी ने सुबह से धमाल मचाया हुआ हैI बेटा सिद्धांत दिल्ली में है, कॉलेज खुले हैं, वह आ नहीं सकताI पति ने ख़ूब सारी तैयारी करा रखी हैI काफ़ी सारे लोगों ने फ़ोन पर बधाई दियाI मेरे भाई-भाभी जो इन दिनों हिन्दुस्तान से बाहर हैं, का फ़ोन आयाI मेरी माँ का फ़ोन आया, बोलते-बोलते रोने लगीं; क्योंकि वे भागलपुर में नहीं हैंI इन सबके बावजूद न जाने क्यों मन भारी-सा हैI जानती हूँ पार्टी है, हँसना-चहकना हैI यों पार्टी ख़ूब एन्जॉय भी करती हूँI लेकिन न जाने क्यों बचपन मेरा पीछा नहीं छोड़ता हैI क्यों बार-बार मन वहीं भागता है जहाँ की वापसी का रास्ता बंद हो जाता हैI बचपन की खीर-पूरी और भोज याद आ रहा हैI अब तो जन्मदिन मनाना औपचारिकता-सा लगता हैI कुछ फ़ोन, कुछ सन्देश बधाई के, और जवाब शुक्रिया...!
- जेन्नी शबनम (16.11.2011)
- जेन्नी शबनम (16.11.2011)
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