Friday, July 21, 2017

57. ट्यूबलाइट फ्लॉप पर सलमान सुपरहिट


''मैं अपने यक़ीन से अपने भाई को भी वापस ले आऊँगा।'' वास्तविक जीवन में हमेशा जीतने वाला, कई विवादों में उलझा हुआ, बार-बार प्रेम में पड़ने वाला, लड़कियों का क्रश, लड़कों के लिए मसल्स मैन, फ़िल्म निर्माताओं के लिए पैसा कमाने की मशीन 'सलमान खान' ट्यूबलाइट में जब यह डाॅयलाग बोलता है, तब यक़ीन उसके चेहरे पर दिखाई देता है फ़िल्म फ्लॉप हुई है, मगर तेज़ी से बढ़ती उम्र के सलमान की यह फ़िल्म ग़ौर करने लायक़ है  

ट्यूबलाइट के रिलीज होने से पहले फ़िल्म प्रेमियों में हलचल थी।सलमान की लगभग सभी फ़िल्में हिट होती हैं, भले वे किसी भी भूमिका में हों। अमूमन उनका चरित्र संवेदनशील होता है और अगर मारधाड़ है, तो वह कहानी के अनुरूप आवश्यक होता है। उनकी सभी फ़िल्में दर्शकों के अनुकूल होती हैं और सपरिवार देखी जा सकती है। उनकी फ़िल्मों में न नंगापन होता है, न फूहड़पन। फ़िल्म में अगर आइटम सॉन्ग है, तो वह फूहड़ न लगकर मज़ेदार लगता है।  

ट्यूबलाइट के रिलीज होने के दिन फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने से ख़ुद को रोक न सकी। सुबह साढ़े नौ बजे का शो था; मुमकिन है इस कारण भीड़ बहुत नहीं थी, हॉल में कुछ सीटें ख़ाली थीं। सलमान के स्क्रीन पर आते ही हमेशा की तरह युवा दर्शकों ने ताली बजाए और ख़ुश होकर शोर भी किया। फ़िल्म आलोचक को पढ़ने से पता चला कि इस फ़िल्म को दर्शकों का उतना प्यार नहीं मिला, जितना सलमान खान के नाम से मिलता है। मैं कारण नहीं समझ पाई, इस फ़िल्म के पसन्द न किए जाने के पीछे की वज़ह क्या है। फ़िल्म का चित्रांकन, कहानी, पटकथा, लोकेशन, साज-सज्जा सभी बहुत आकर्षक और कहानी के अनुरूप है। कहानी बहुत छोटी है; लेकिन बेहद प्रभावशाली है। मैं सलमान के सभी फ़िल्मों में सबसे ऊपर का स्थान इस फ़िल्म को दूँगी; सलमान की भावनात्मक अदाकारी और मासूमियत के कारण।
 

ट्यूबलाइट युद्ध ड्रामा फ़िल्म है, जिसे कबीर खान ने लिखा और निर्देशित किया है। इसमें एक भोले-भाले बच्चे लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) की कहानी है, जो शारीरिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ है; लेकिन मंदबुद्धि है। कोई भी बात वह थोड़ी देर से समझता है और किसी भी चुनौती से घबरा जाता है, इसलिए सभी उसे ट्यूबलाइट कहते हैं। लक्ष्मण अपने भाई भरत (सुहेल खान) के साथ कुमाऊँ की एक शहरनुमा बस्ती जगतपुर में रहता है।वे अनाथ हैं अतः एक बुज़ुर्ग, जिन्हें वे बन्नी चाचा (ओम पुरी) कहते हैं, उनकी परवरिश करते हैं। कहानी में आज़ादी से पूर्व का भारत दिखाया गया है, जब गांधी जी लक्ष्मण के शहर आते हैं और लक्ष्मण उस समय स्कूल का विद्यार्थी है। गांधी जी द्वारा कही गई बात वह मन में बैठा लेता है कि ''यक़ीन रखने से सब कुछ होता है, ख़ुद पर यक़ीन हो तो चट्टान भी हिलाई जा सकती है और यह यक़ीन दिल में होता है।'' लक्ष्मण के यक़ीन को पहली बार बल तब मिलता है जब शहर में एक जादूगर (शाहरुख खान) आता है।जादू दिखाने के दौरान जादूगर लक्ष्मण से एक बोतल को दूर से हिलाने लिए कहता है। दर्शक इस बात पर ट्यूबलाइट कहकर लक्ष्मण का मज़ाक उड़ाते हैं। काफ़ी कोशिश के बाद बोतल हिल जाता है। यों यह जादूगर के हाथ की सफ़ाई है; लेकिन जादूगर कहता है कि उसने अपने यक़ीन की ताक़त से बोतल को हिलाया है। इसके बाद लक्ष्मण में आत्मविश्वास जागता है और कुछ भी कर सकने का यक़ीन उसमें प्रबल हो जाता है। उसकी आँखों में अपनी पहली सफलता पर विश्वास के आँसू आ जाते हैं और वह कहता है कि वह ट्यूबलाईट नहीं है। 

वर्ष 1962 में भारत-चीन के युद्ध की पृष्ठभूमि पर फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ती है। भरत का चयन युद्ध में सैनिक के रूप में हो जाता है; परन्तु लक्ष्मण का नॉक-नी (knock knee) के कारण चयन नहीं हो पाता। लक्ष्मण का ख़ुद पर से यक़ीन न टूटे इसलिए भरत कहता है कि उसे जगतपुर का कप्तान बनाया गया है, जिसका काम है इलाक़े की हर ख़बर रखना और जानकारी देना। युद्ध छिड़ चुका है और भरत जंग में शामिल होने चला जाता है। एक चीनी बच्चा अपनी माँ के साथ जगतपुर में रहने के लिए आता है।लक्ष्मण सबको सचेत करने के लिए बताता है कि चीनी आ गए हैं। फिर उसे पता चलता है कि उस चीनी स्त्री के परदादा चीन से आकार भारत में बस गए थे, अतः वह भी सबकी तरह भारतीय है। पर बस्ती के लोग माँ-बेटे को परेशान करते हैं और लक्ष्मण उन्हें बचाता है; क्योंकि वह उस बच्चे से प्यार करने लगता है। गांधी जी की कही हुई बात पर उसे यक़ीन है कि ''अगर दिल में ज़रा भी नफ़रत रहेगी, तो तुम्हारे यक़ीन को खा जाएगी।''

युद्ध के दौरान भरत की मृत्यु की सूचना आती है; लेकिन लक्ष्मण को यक़ीन है कि युद्ध ख़त्म होगा और भाई लौटेगा। लक्ष्मण कहता है ''मैं अपने यक़ीन से अपने भाई को भी वापस ले आऊँगा।'' बन्नी चाचा से वह पूछता है कि और यक़ीन उसे कहाँ मिलेगा; क्योंकि भाई को लाने के लिए उसे बहुत यक़ीन चाहिए। बन्नी चाचा जानते हैं कि यक़ीन से कोई चमत्कार नहीं होता है। फिर भी मासूम लक्ष्मण का हौसला बढ़ाने के लिए कहते हैं ''गांधी जी के क़दमों पर चलो यक़ीन आएगा।'' गांधी जी के आदर्शों की फ़ेहरिस्त बनाकर बन्नी चाचा उसे देते हैं, ताकि उसका ख़ुद पर यक़ीन और बढ़ जाए। 
 
इसी बीच एक संयोग होता है। लक्ष्मण पूरे यक़ीन से एक चट्टान को खिसकाने की कोशिश करता है गांधी जी की बात को सच मानता है और उसे यक़ीन है कि वह चट्टान को खिसका देगा। उसके इस कोशिश के दौरान भूकम्प आ जाता है और ज़मीन-चट्टान सब काँपने लगते हैं। बस्ती वाले भी यक़ीन करने लगते हैं कि लक्ष्मण अपने यक़ीन से चट्टान को खिसका दिया है। किसी ग़लतफ़हमी के कारण भरत की मृत्यु की ग़लत सूचना आ गई थी। अब भरत वापस लौटता है। लक्ष्मण को पूर्ण विश्वास है कि उसके यक़ीन के कारण ही उसका भाई वापस लौटा है। 
 
आज जो परिस्थितियाँ हैं उसके सन्दर्भ में यह फिल्म प्रासंगिक है। भारत-चीन युद्ध के दौरान जिस तरह से सभी चीनी को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता था, अब वही स्थिति पुनः बन गई है। कोई भी जो यहाँ जन्म लिया है वह भारतीय है, उस पर सन्देह नहीं करना चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म का हो; एक तरह से इस फ़िल्म का सन्देश यह भी है।  

हमारा समाज किसी फ़िल्म में क्या देखना चाहता है; इस विषय पर बहुत गम्भीर सोच और बहस की ज़रूरत है। फ़िल्म का हीरो कभी हार नहीं माने, दस-दस गुंडों से अकेले भीड़ जाए, तो दर्शक सीटी बजाते हैं। अगर वही हीरो विवश या असहाय दिखता है, तो आज का दर्शक उसे अस्वीकार कर देता है। भले हीरो के उस किरदार में भावुकता और संवेदनाएँ भरी हुई हों अथवा उस फ़िल्म की कहानी की माँग हो। आज के दर्शक हीरोइज्म में यक़ीन करते हैं और शारीरिक रूप से दबंग हीरो को देखने की चाह रखते हैं। मुमकिन है बजरंगी भाई जान की तरह इस फ़िल्म में सलमान चीन की सरहद पार कर जाते या चीनियों से युद्ध करके भाई को छुड़ाकर ले आते, तो शायद यह भी हिट फ़िल्मों में शुमार हो जाती।  

ट्यूबलाइट का फिल्मांकन बेजोड़ है, कलाकारों का अभिनय भी बहुत उम्दा है। सुहेल खान ने अपनी भूमिका बख़ूबी निभाई है। सलमान खान के चेहरे पर इतनी मासूमियत और सौम्यता है कि किसी का भी दिल जीत ले।भावुकता और भोलापन सलमान के अभिनय में कहीं से भी जबरन नहीं लगता, बल्कि सहज लगता है। सुहेल खान पहली बार इस फ़िल्म में मुझे अच्छे लगे हैं। सलमान और सुहेल असल ज़िन्दगी में भी भाई हैं, शायद इस कारण भाइयों के आपसी रिश्तों का दृश्य बहुत जानदार और भावुक बन गया है। शाहरुख खान ने अपनी छोटी-सी भूमिका में अच्छा प्रभाव छोड़ा है। ओमपुरी यों भी एक उम्दा अभिनेता हैं, चाहे जिस भी चरित्र में हों। चीनी माँ-बेटे का किरदार दोनों कलाकारों ने बहुत अच्छा निभाया है।
 

आजकल अच्छी और प्रेरक कहानियों पर फ़िल्में बन रही हैं और उसे दर्शकों से सराहना भी मिल रही है। साथ ही मारधाड़ की फ़िल्में भी ख़ूब नाम कमा रही हैं। इसलिए दर्शकों की नब्ज़ को पहचानना कई बार फ़िल्म निर्माता के लिए कठिन होता है। बहरहाल ट्यूबलाइट भले ही बॉक्स ऑफ़िस पर असफल कहलाए या सलमान के हिट फ़िल्मों में इसका नाम शामिल न हो, भले ही सफलता की दौड़ में सलमान खान एक बार हार गए हों; लेकिन सलमान के अभिनय के लिए निश्चित ही यह फ़िल्म याद रखी जाएगी। ट्यूबलाइट भले फ्लॉप हुई, पर सलमान सुपरहिट हैं    

-जेन्नी शबनम (17.7.2017)
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Saturday, July 1, 2017

56. बंदूक़-बंदूक़ का खेल

नक्सलवाद और मज़हबी आतंकवाद में बुनियादी फ़र्क उनकी मंशा और कार्यकलाप में है। हर आतंकवादी संगठन हिंसा के द्वारा आतंक फैलाकर सभी देशों की सरकार पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है इनकी माँग न सत्ता के लिए है, न बुनियादी ज़रूरतों के लिए नौजवानों को गुमराह कर विश्व में एक मज़हब का वर्चस्व स्थापित करना इनका उद्देश्य है मज़हबी आतंकवाद ने धीरे-धीरे पूरी दुनिया को अपने कब्ज़े में ले लिया है। 
 
नक्सलवाद इन आतंकी संगठनों से बिल्कुल विपरीत, बुनियादी माँगों के लिए अस्तित्व में आया लेकिन आज नक्सलवाद का रूप क्रूरता के सभी हदों को पार कर चुका है इनकी माँग निःसंदेह जायज़ है, पर तरीक़ा अत्यन्त क्रूरतम साम्यवादी सोच का ज़रा भी अंश नहीं इनमें। लाल झंडा उठा लेने से या लाल सलाम और कॉमरेड कह देने से इन्हें साम्यवादी नहीं कह सकते

दाँव-पेंच हो या सत्ता की मज़बूरी, आज देश के हालात पर नियंत्रण सरकार के बूते से बाहर होती जा रही है। आम मध्यमवर्गीय जनता किसी तरह जीवन जी रही है। लेकिन ख़ास आदमी डरा रहता है, उसे सरकारी तंत्र के साथ भी चलना है और हिंसक गतिविधियों से भी बचाना है। निम्न वर्ग की जनता के पास कोई चारा नहीं है। मुख्य धारा से अलग कटे हुए आदिवासी प्रदेश के लोग अब इंसान नहीं रहे, एक ऐसे यांत्रिक मानव बन चुके हैं जिनके शरीर से चेतना निकालकर बंदूक़ जकड़ दी गई है, जिसका नियंत्रण नक्सलवादी सरगनाओं या नेताओं के हाथ में है; जब जहाँ चाहे इस्तेमाल में ले आते हैं। सच्चाई यह है कि ये बेज़ुबान पेट की भूख के लिए ज़िन्दगी दाँव पर लगा बैठे हैं।
बंदूक़ लेकर बंदूक़ से लड़ाई हो, तो बन्दूक़ नहीं ख़त्म होता, दोनों में से कोई एक ख़त्म होता है जो मरता है वह भी हमारा अपना है, चाहे वह सैनिक हो या नक्सलवादी। आज जब सैनिक मारे जाते हैं, तो पूरा देश सुरक्षा-तंत्र की ख़ामियाँ ढूँढता है। परन्तु हर दिन हज़ारों आदिवासी कभी भूख से मरते हैं, कभी नक्सली कहकर फ़र्जी मुठभेड़ में मार दिए जाते हैं, कभी संदिग्ध नक्सली कहकर निरपराध जेल में बंद कर दिए जाते हैं।

हत्या करना, सरकारी संपत्ति नष्ट करना, आतंक फैलाना आदि मुद्दा रह गया है इन नक्सलियों का। आख़िर क्यों ये मुख्य मुद्दा से दूर होकर सिर्फ़ हिंसा पर उतर आए हैं? आदिवासी क्षेत्रों से फैलते हुए सभी राज्यों में नक्सली अपना विस्तार कर रहे हैं। सरकारी शस्त्र को लूटकर अपनी शक्ति मज़बूत कर रहे हैं। आख़िर ये जंग किसके ख़िलाफ़ है? देश भी अपना, सैनिक भी अपने, नक्सली भी इसी देश के वासी हैं। क्या सरकार ग्रीन हंट के द्वारा नक्सली आन्दोलन ख़त्म कर पाएगी? सैनिकों को युद्ध का प्रशिक्षण दिया जाएगा, ताकि नक्सलियों से लड़ें। क्या आदिवासियों की बुनियादी ज़रूरत नक्सलियों की मृत्यु का पर्याय है?

नक्सलियों की क्रूरता और हिंसा को कोई भी देशवासी उचित नहीं कह रहा है। परन्तु सोच कई खेमों में बँट चुकी है। नक्सली के दिशा परिवर्तन या आदिवासी के उत्थान की बात जो कहता है, उसे लाल झंडे के अंदर मान लिया जाता है। लाल झंडा क्रान्ति की बात कहता है, न कि ख़ूनी-क्रान्ति का पक्षधर है या रहा है।

नक्सलवाद कोई एक दिन की उपज नहीं है, वर्षों की असंतुष्टि का प्रतिफल है, जो हिंसा का क्रूरतम और आत्मघाती रूप ले चुका है नक्सलबाड़ी में जब यह शुरू हुआ, उस समय हथियार और हिंसा की लड़ाई नहीं थी; बल्कि अधिकार की लड़ाई थी। धीरे-धीरे स्थिति और भी बदतर होती गई।किसी भी नक्सली क्षेत्र की बात करें, तो वहाँ बुनियादी ज़रूरत भी पूरी नहीं होती है। सहनशक्ति तब तक रहती है जब इंसान ख़ुद भूखा रह जाए, पर उसका बच्चा कम-से-कम भर पेट खाना खा ले। जब बच्चा भूख से दम तोड़ता है, तो हथियार के अलावा उन्हें कुछ नहीं सूझता। क्रूरतम अपराध भले है; लेकिन दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ तो हो जाता है। अब भी वक़्त है, उनकी ज़रूरत पूरी की जाए और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जाए तथा हर तरह का विकास हो। फिर कोई क्यों किसी की जान लेगा या देगा।
चित्र गूगल द्वारा
आख़िर क्या वज़ह है कि नक्सलवाद आदिवासी इलाक़ों में ही पनपते और जड़ जमाते हैं? आज़ादी के इतने सालों बाद तथा राज्य के बँटवारे के बाद भी आख़िरकार छत्तीसगढ़, ओड़िसा और झारखंड में विकास क्यों नहीं हुआ? विकास गर हुआ भी तो आदिवासी इससे वंचित क्यों हैं? नक्सलवाद को जायज़ कोई नहीं कहता है जैसे अन्य अपराध हैं, वैसे ही यह भी अपराध है ग़रीब आदिवासियों के लिए नक्सली बनना भी एक मज़बूरी हैनक्सली न बनें तो नक्सली मार देंगे, बन गए तो पुलिस से मारे जाएँगेज़िन्दगी तो दोनों हाल में दाँव पर लगी हुई है। आम आदमी कभी सरकार को या कभी नक्सली को दोषी कहकर पल्ला झाड़ लेता है; क्योंकि इस हिंसक लड़ाई में न तो नेता मरता है न कोई ख़ास आदमी यह तय है कि नक्सलियों की बुनियादी ज़रूरत जब पूरी होगी, तब ही उनमें प्रजातंत्र में विश्वास जागेगा और तब इस ख़ूनी क्रान्ति का ख़ात्मा सम्भव है। 

-जेन्नी शबनम (1.7.2017)
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Friday, August 5, 2016

55. सिमटता बचपन

 
वैश्विक बदलाव और तकनीकी उन्नति ने जहाँ एक तरफ़ जीवन को सरल और सुविधापूर्ण बनाया है, वहीं समाज में कुछ ऐसे बदलाव भी हुए हैं, जिनके कारण जीवन की सहजता खो गई है। जैसे-जैसे समय बीत रहा है दुनिया एक-एक क़दम आगे नहीं बढ़ रही, बल्कि लम्बी-लम्बी छलाँग लगा रही है। यह परिवर्तन बेहद गहरा और तीव्र है जिसके कारण जीवन मूल्य तो खो ही रहा है, मानवीय मूल्यों में भी गिरावट आ रही है। हर तरफ़ दिख रहे सांस्कृतिक और सामाजिक क्षय के मूल में भी यही कारण है।  

आधुनिक समय में जहाँ एक तरफ़ प्रगति हो रही है और हम दुनिया को सम्पूर्णता में देख रहे हैं, वहीं कहीं-न-कहीं हमारा जीवन एकाकी और संकुचित होता जा रहा है। सामाजिक बदलाव के कारण कई परिस्थितियाँ ऐसी हो गई हैं कि बच्चे असमय बड़ों के गुण सीख रहे हैं और उनकी तरह व्यवहार कर रहे हैं। सीधे कहें तो इस दौर में बचपन कहीं खो गया है। हालाँकि आज के बच्चों को यह सब न तो अनुचित लगता है, न ही अभिभावक उम्र से पहले बच्चों के बचपन के खो जाने को ग़लत मानते हैं। वे इसे सामान्य स्थिति समझते हैं।
नए ज़माने के माता-पिता समाज और परिस्थिति के अनुरूप अपनी अतृप्त आकांक्षाओं को अपने बच्चे में पूरा होते हुए देखना चाहते हैं। फलतः उन पर मानसिक दबाव बढ़ जाता है। माता-पिता की महत्वाकांक्षा बच्चे को कम उम्र में ही बड़ा बना देती है। प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता की भावना बचपन से बच्चों के मन में भर दी जाती है। अतः कम उम्र में बच्चा स्वयं को प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार कर लेता है। छोटी कक्षा के बच्चे भी परीक्षाओं में एक-एक नम्बर के लिए दबाव में रहते हैं। स्कूल के बाद ट्यूशन करना आज नितान्त आवश्यक हो गया है, अन्यथा बच्चे कक्षा में पिछड़ जाएँगे। स्वयं को प्रतियोगिता के लिए तैयार कर अपने लक्ष्य को हासिल करना ही एकमात्र उनका ध्येय होता है।
प्रतियोगिता या स्पर्धा सिर्फ़ शिक्षा के क्षेत्र तक सीमित नहीं रह गई है; बल्कि खेल, गायन, नाट्य, नृत्य, कला, चित्रकारी, आदि हर क्षेत्र में है। खेलने की उम्र में बच्चे बड़ी-बड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते हैं। माता-पिता अपनी समस्त अधूरी कामनाओं को बच्चों में पूरा करने के लिए जी-जान लगा देते हैं। हर बच्चा अपने आप में विशेष होता है, लेकिन हर बच्चा हर क्षेत्र में निपुण हो यह आवश्यक नहीं। उनमें निपुणता लाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाता है। एक तरफ़ पढ़ाई में अव्वल आना है, तो दूसरी तरफ़ प्रतियोगिताओं में भी सफल होना है। इन सबसे बच्चे इतने अधिक मानसिक दबाव में होते हैं कि कभी-कभी यह दबाव उनके अवसाद का कारण बन जाता है।
 
आकांक्षाओं के बोझ तले सिमटते-सिमटते बच्चे समाज से इस तरह कट जाते हैं कि सामूहिकता के महत्व को भूल जाते हैं। सामूहिक खेल जो हमारे बच्चों के शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे, अब मैदानों से ग़ायब हो गए हैं। आज के ज़माने के बच्चों को अगर पढ़ने-लिखने से थोड़ा भी समय बचा, तो वे आधुनिक तकनीकी उपकरण जैसे कम्प्यूटर, मोबाइल, आई पैड आदि में व्यस्त हो जाते हैं। अतः धीरे-धीरे वे एकाकी होने लगते हैं। बच्चों के पास अब न खेलने का समय है, न नातेदारों से मिलने-जुलने का। उन्हें पिछड़ जाने का भय सताता रहता है। बच्चे बालक-बालिका न होकर जैसे वक़्त की कठपुतली बन गए हैं। इनका हर एक मिनट बँधा रहता है।   

अपने और घरवालों की आकांक्षाओं की पूर्ती हेतु बच्चे का भविष्य दाँव पर लग जाता है। बच्चे जानते हैं कि हर हाल में उन्हें अपने लक्ष्य को हासिल करना है। इस दौड़ में जो सफल हो गए, वे अगली दौड़ के लिए जुट जाते हैं। जो बच्चे इसमें पिछड़ जाते हैं, वे अवसादग्रस्त हो जाते हैं। कई बच्चों को जब प्रतियोगिता में पिछड़ने का अनुमान होता है, तो वे आत्महत्या तक कर लेते हैं। झूठ, चोरी, जालसाज़ी आदि ग़लत रास्ता भी इख़्तियार कर लेते हैं।

महत्वाकांक्षाएँ होना आवश्यक है जीवन के लिए, वर्ना जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा नहीं मिलती है। लेकिन आकांक्षाएँ ऐसी भी न हों कि बच्चों का बचपना ही खो जाए और वे उम्र से पहले इतने समझदार हो जाएँ कि ज़िन्दगी उलझ जाए और जीवन को सहजता से न जी सकें। आकांक्षा बच्चे के मन, समझ, बुद्धि, विवेक के अनुसार रखनी चाहिए ताकि बच्चों का बचपना बना रहे और जीवन की प्रतियोगिताओं में मानसिक बोझ से दबकर नहीं अपितु आनन्द से सहभागी बनें।

-जेन्नी शबनम (4.8.2016)
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Monday, November 16, 2015

54. यमुना कोठी की जेन्नी (पहला भाग)


मेरी माँ, मैं, मेरा भाई
यादों के बक्से में रेत-से सपने हैं, जो उड़-उड़कर अदृश्य हो जाते हैं और फिर भस्म होता है मेरा मैं, जो भाप की तरह शनैः-शनैः मुझे पिघलाता रहा है। न जाने खोने-पाने का यह कैसा सिलसिला है, जो साँसों की तरह अनवरत मेरे साथ चलता है। टुकड़ों में मिला प्रेम और ख़ुद के ख़िलाफ़ मेरी अपनी शिकायतों की गठरी मेरे पास रहती है, जो मुझे सम्बल देती रही है।रिश्तों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है मेरे पास, जिसमें अपने-पराए का भेद मेरे समझ से परे है। ज़ेहन में अनकहे क़िस्सों का एक पिटारा है, जो किसी के सुने जाने की प्रतीक्षा में रह-रहकर मन के दरवाज़े पर आ खड़ा होता है।

सोचती हूँ कैसे तय किया मैंने ज़िन्दगी का इतना लम्बा सफ़र, एक-एक पल गिनते-गिनते जीते-जीते पूरे पचास साल। कभी-कभी यों महसूस होता है ज्यों 50 वर्ष नहीं, 50 युग जी आई हूँ। जब कभी अतीत की ओर देखती हूँ, तो लगता है जैसे जिस बचपन को मैंने जिया वह सच नहीं; बल्कि फ़िल्म की कहानी है, जिसमें मैंने अभिनय किया है।

जन्म के बाद दो-तीन साल तक की ज़िन्दगी ऐसी होती है, जिसके क़िस्से हम ख़ूब मनोयोग से दूसरों से सुनते हैं। इसके बाद शुरू होता है एक-एक दिन का अलग-अलग क़िस्सा, जो मष्तिष्क के किसी हिस्से में दबा-छुपा होता है। अब जब फ़ुर्सत के पल आए हैं, तो बात-बात पर अतीत के पन्नों को खोलकर मैं उस दुनिया में पहुँचना चाहती हूँ, जहाँ से ज़िन्दगी की शुरुआत हुई थी।

उम्र के बारह साल ज़िन्दगी से कब निकल गए पता ही नहीं चला। पढ़ना, खेलना, खाना, गाना सुनना, घूमना इत्यादि आम बच्चों-सा ही था। पर थोड़ी अलग तरह से हम लोगों की परवरिश हुई। चूँकि मेरे पिता गांधीवादी और नास्तिक थे, तो घर का माहौल वैसा ही रहा। ऐसे में गांधी जी के विचारों को मैं आत्मसात करती चली गई। हमलोग बिहार के भागलपुर के नया बाज़ार मोहल्ला में 'यमुना कोठी' नामक मकान में रहते थे। उन दिनों इस कोठी का अहाता बहुत बड़ा था। हमारे अलावा कई सारे किराएदार यहाँ रहते थे। मोहल्ले के ढेरों बच्चे एकत्रित होकर इसी अहाते में खेलने आते थे। सबसे ज़्यादा पसन्द का एक खेल था, जिसमें दीवार पर पेंसिल से लकीर खींचकर खेलते थे। एक्खट-दुक्खट, नुक्का-चोरी (लुका छिपी), कोना-कोनी कौन कोना, ओक्का-बोक्का, घुघुआ-रानी कितना पानी, आलकी-पालकी जय कन्हैया लाल की आदि खेलते थे। टेनी क्वेट, पिट्टो, कैरम, बैडमिंटन, ब्लॉक गेम, लूडो भी खेलते थे।

बचपन में भैया और मेरे बीच में मम्मी सोती थी और हम दोनों मम्मी से कहते कि वे मेरी तरफ़ देखें। ऐसे में मम्मी क्या करती भला? वे बिल्कुल सीधी सोती थीं, ताकि किसी एक की तरफ़ न देखें। मैं हर वक़्त मम्मी से चिपकी रहती थी। स्कूल जाने में बहुत रोती, तो हर रोज़ मम्मी को साथ जाना होता था। मम्मी के साथ खाना, मम्मी के साथ सोना, मम्मी के बिना फोटो तक नहीं खिंचवाती थी। हम दोनों भाई-बहन हाथ पकड़कर स्कूल जाते और लौटने में भी हाथ पकड़कर आते थे। भाई एक साल बड़ा है, वह बहुत चंचल था मैं बहुत शांत; धीमे-धीमे चलना, धीरे से बोलना, गम्भीरता से रहना। खेल में भी मुझे झगड़ा पसन्द नहीं। अगर कोई बात पसन्द नहीं, तो बोलना बंद कर देती थी; यह आदत आज भी है। 

अहाते में एक झा परिवार था। उनके तीन बेटे अरविन्द, रविन्द और गोविन्द तथा एक बेटी विभा थी, जो शायद मेरी पहली दोस्त रही होगी। एक बार खेलने में मैंने एक ईंट फेंका, जो जाकर उसके सिर पर लग गया। मैं बहुत डर गई; लेकिन मुझे किसी ने नहीं डाँटा। हम दोनों साथ में झाडू की सींक पर स्वेटर बुनना सीखे। बाद में उसके पिता की बदली हो गई और वे लोग चले गए। आज तक नहीं पता कि वह कहाँ है, उसे कुछ याद भी है या नहीं। अहाते में एक अग्रवाल परिवार था, जिनके यहाँ ब्याहकर नई बहू आईं, जिन्हें शुरू में मैं मम्मी बोलती थी। बाद में बिन्दु चाची फिर चाचीजी कहने लगी वे मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। उनके साथ हम कुछ बच्चे छोटे चूल्हे पर छोटे-छोटे बर्तन में खाना बनाते, गुड्डा-गुड़िया बनाते और खेलते थे।

मेरी एक मौसी (मम्मी की ममेरी बहन) भागलपुर में रहती थीं। उनके तीन बच्चे हैं। अक्सर उनके घर हमलोग जाते और ख़ूब खेलते थे। वे तीन और हम दो मिलाकर पाँच भाई बहन उधम मचाए रखते थे, जब मौसा नहीं होते थे; हालाँकि मैं अधिकतर समय दर्शक होती थी। मेरा बहुत समय मौसी के घर बीता है, तो मैं तीनों भाई बहन के बहुत नज़दीक रही हूँ मौसा उच्च सरकारी पद पर थे, तो हर सिनेमा हॉल में उन्हें पास मिलता था। उन दिनों पिक्चर पैलेस एक सिनेमा हॉल था, जिसके बॉक्स में कुछ कुर्सी और एक बड़ा-सा बिस्तर लगा हुआ था। कुछ फ़िल्में देखने हमें भी ले जाया जाता और हम बच्चे बिस्तर पर बैठकर-लेटकर सिनेमा देखते थे। 
 
मेरी एक मौसी (मम्मी की चचेरी बहन) पटना के कंकड़बाग में सरकारी क्वार्टर में रहती थीं। मौसी शिक्षिका और मौसा सी.आई.डी. में कार्यरत थेनानी (मम्मी की चाची) नाथनगर में शिक्षिका थीं, अवकाशग्रहण के बाद  मौसी के साथ रहती थीं; मौसी एकलौती संतान हैं और मौसा बेटा से बढ़कर उनकी सेवा करते थे मौसी के तीन बेटी और दो बेटे हैंअब सिर्फ़ बड़ी दीदी से सम्पर्क रह गया है वे एस.एम.कॉलेज में हिन्दी की हेड होकर अवकाशप्राप्त की। मौसी से कभी कभी फ़ोन पर बात होती है वर्ष 1977 में मम्मी के साथ मैं मौसी के घर गई वहाँ मुझे स्माल पॉक्स (small pox) हो गया, जिससे पूरा घर अस्त व्यस्त हो गया मेरे बीमार होने से घर में तरकारी में हल्दी-तेल पढ़ना बंद हो गया; कितने दिन यह सब चला अब याद नहीं। फिर कुछ विशेष किया मौसी ने फिर सामान्य खाना बनने लगा। मैं अब स्वस्थ थी तथा पूरे देह के घाव ठीक हो गए, पर नाक पर एक रह गया था फिर अपने गाँव गई वहाँ बोरिंग की तेज़ धार और उसके लिए बने बड़े से हौज़ में कूदने से ख़ुद को रोक न सकी और छलाँग मार दी। नाक पर का फोड़ा छिल गया और हमेशा के लिए दाग़ छोड़ गया 
 
ननिहाल, ददिहाल, मम्मी के मामाओं के घर, मौसी के घर, फुआ के घर, अन्य रिश्ते-नाते के घर पापा हमलोग को अक्सर ले जाते थे। सभी जगह की ढेरों बातें हैं, लिखते लिखते मेरी बचपन की स्मृतियों से एक किताब बन जाएगी। बाढ़ में चकल्लस करना, खेलना इत्यादि ढेरों किस्से हैं

मेरे पिता के एक मित्र हैं प्रोफ़ेसर करुणाकर झा। उनको दो बेटे और चार बेटियाँ हैं। तीसरे नम्बर वाली नीलू (प्रो. नीलिमा झा) मेरी दोस्त है, जो मुज़फ़्फ़रपुर में प्रोफ़ेसर हैवे लोग उन दिनों बूढ़ानाथ में रहते थे। हमलोग अक्सर एक दूसरे के घर गंगा के किनारे बने रास्ते से होकर जाते। घाट किनारे लोहे का रेलिंग बना था, जिसपर हमलोग अवश्य झुला झूलते फिर आगे बढ़ते पापा के एक मित्र हैं शारदा नन्द झा, सिविल इंजिनियर, जिन्हें हम बच्चे गांधी चाचा कहते हैं, झउआकोठी में रहते हैं। उन्हें दो बेटे हैं बड़े वाले को हमलोग पंडीजी कहते हैं गांधी चाचा ने मेरे गाँव के मकान का नक्शा पार्लियामेंट की तरह पाया (पिलर) वाला बनाया; क्योंकि पापा को पसन्द था। मेरे पापा और पापा के ये दोनों मित्र सबसे घनिष्ट मित्र थे; क्योंकि गाँव आस पास है

आदमपुर में छोटी सी.एम.एस. स्कूल से मैंने और भाई ने पढ़ाई की। फिर मैं छह माह मोक्षदा स्कूल में पढ़ी। छुट्टियों में हम अपने गाँव कोठियाँ गए, तो बाढ़ में फँस गए। कोठियाँ उन दिनों मुज़फ़्फ़रपुर ज़िला में पड़ता था, बाद में सीतामढ़ी ज़िला बना, फिर शिवहर ज़िला बनापापा ने हमलोगों को गाँव में दादी के पास छोड़ दिया। मेरे घर के सामने कभी पापा द्वारा खुलवाया हुआ प्राइमरी स्कूल था, उसमें मैं पढ़ने जाने लगी वहाँ सभी बच्चे चट्टी (बोरा) पर बैठकर पढ़ते और शिक्षक बेंच पर बैठते थे। मुझे ख़ास सुविधा मिली, और मास्टर साहब ने मुझे बेंच के दूसरी तरफ़ बिठाया। वहाँ सिर्फ़ दो शिक्षक थे, नाम अब याद नहीं, लेकिन एक शिक्षक को सभी बकुलवा मास्टर कहते थे; क्योंकि उनकी गर्दन लम्बी थी बगुला जैसी। यहाँ कुछ दिन पढ़ाई के बाद मेरे पिता के बड़े भाई जिन्हें हम बड़का बाबूजी कहते हैं, पास के गाँव सुन्दरपुर में प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे, उनके साथ उनके स्कूल जाने लगी। वहाँ से परीक्षा पास कर सातवीं में शिवहर मिडिल स्कूल में पढ़ने लगी। 
 
सातवीं कक्षा में मुझे लेकर केवल तीन लड़की थी- कालिन्दी, शोभा और मैं छठी कक्षा में दो लड़की पढ़ती थी। दोनों क्लास में किसी का भी गेम पीरियड होता, तो हम पाँचों को छुट्टी मिल जाती थी, ताकि हम सभी एक साथ खेल सकें। हमलोग सबसे ज़्यादा कैरम खेलते थे। मेरे क्लास में एक लड़का था उमेश मंडल जो एक गाना बहुत अच्छा गाता था- ''कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों।'' मेरा भाई अमिताभ सत्यम् और मेरा फुफेरा भाई कृष्ण बिहारी प्रसाद 'श्री नवाब हाई स्कूल', महुअरिया, शिवहर में पढ़ता था, जहाँ मेरी सातवीं की परीक्षा का सेंटर पड़ा था। इसके बाद पापा मुझे भागलपुर ले आए; लेकिन उन दोनों को गाँव में पढ़ने के लिए छोड़ दिए।  

गाँव का जीवन बड़ा सरल था। न भय, न फ़िक्र। गुल्ली डंडा, पिट्टो, बैडमिन्टन, कबड्डी, लूडो, साँप-सीढ़ी आदि ख़ूब खेलते थे। यहाँ लड़का-लड़की का कोई भेद नहीं था। बड़का बाबूजी के दोनों बेटे अवधेश भैया और मिथिलेश, हम क़रीब-क़रीब साथ ही रहते; यों हमारा घर अलग-अलग है। मेरी सबसे बड़ी फुआ का एक बेटा कृष्ण बिहारी भैया जिसे मैंने नाम दिया था अमिया भैया, हमारे साथ रहता था। मेरी सबसे छोटी फुआ अक्सर गाँव आती, तो महीनों रहती थीं। उनके तीन बेटी और दो बेटे हैं। उनकी बीच वाली बेटी बेबी दीदी से उन दिनों मैं सबसे नज़दीक थी, दोस्त की तरह। भैया के हमउम्र दोस्त भी हमारे घर पढ़ने के लिए आते; क्योंकि हमारे घर में बिजली थी। हम सभी मिलकर साथ पढ़ते और खेलते थे। 

जो हमारे खेती का काम करता था, उसमें एक का नाम छकौड़ी महरा था। उसकी पत्नी कहती कि पति का नाम नहीं लेना चाहिए। हमलोग ज़िद करते कि नाम बोलो, तो वह कहती छौ गो कौड़ी, और हम लोग ठहाके लगाते। एक और था लक्षण महतो। वह कभी-कभी किसी-किसी शब्द को बोलने में हकलाता था। एक दिन मेरी दादी से कहा- स स स सतुआ बा? (सत्तू है) तब से हमलोग उसे बार-बार ऐसा कहने के लिए कहते, वह कहता और हमारे साथ हँसता था। हमारे एक पड़ोसी थे सियाराम महतो, जिनको हमलोग सियाराम चाचा कहते थे। वे थोड़ा पढ़े लिखे थे। उनको अँगरेज़ी भाषा और ग्रामर की समझ थी। वे कुछ शब्द बोलते और उसका स्पेलिंग पूछते। एक शब्द था लेफ्टिनेंट जिसका स्पेलिंग अलग होता है और हिज्जा अलग। वे अक्सर सभी से यह शब्द ज़रूर पूछते। गाँव में एक थे परीक्षण गिरि। हम लोग उन्हें महन जी (महंत जी) कहते थे। वे जब भी दिखते हमलोग कहते ''गोड़ लागी ले महन जी'', तो वे कहते ''खूब खुस रह बउआ, जुग-जुग जीअ।'' एक थे बनारस पांड़े, जो हमारे यहाँ अक्सर आते और मेरी दादी उन्हें दान-दक्षिणा देतीं। यों मेरे पापा पूजा-पाठ के ख़िलाफ़ थे; परन्तु किसी को कुछ दान करने से दादी को कभी नहीं रोके। गाँव में एक वृद्ध स्त्री थी, जिसका पति-पुत्र कोई नहीं था, वह नितान्त अकेली थी। उसे सभी लोग सनमुखिया कहते थे, मुमकिन है सही नाम सूर्यमुखी हो वह मेरे घर का काम करती थी। वह साइकिल को बाइसिकिल कहती। हम कहते कि साइकिल बोलो, तो कहती- ''साइकिल बोलने नहीं आता है, बाइसिकिल बोलने आता है।'' हमलोग ख़ूब हँसते, क्योंकि वह साइकिल बोलती भी थी। मैंने उसे देखकर सिलबट्टे पर हल्दी पीसना सीखा। गाँव में एक ख़ूब तेज़ और होशियार स्त्री थी, जो पापा की मृत्यु के बाद मम्मी के साथ खड़ी रही, जिसे उसके बेटे के नाम के कारण सभी लोग 'बिसनथवा मतारी' (विश्वनाथ की माँ) बुलाते थे। वह रोज़ मेरे घर आती और कभी क़िस्सा तो कभी गाना सुनाती। कई ऐसे लोग हैं जो ज़ेहन में आज भी हैं, भले मिलना नहीं होता है। 
     
मैं गाँव में जब तक रही या जब भी गाँव जाती, तो पापा के साथ दिनभर मज़दूरों के बीच रहती। उनके पनपियाई (खाना) के लिए मेरे यहाँ से जो भी खाना आता हम भी वही खाते। पेड़ से अमरूद तोड़ना, खेत से साग तोड़ना, तरकारी तोड़ना, फल तोड़ना आदि दादी के साथ करती थी। मुझे मड़ुआ (रागी) की रोटी बहुत पसन्द थी; अक्सर सियाराम चाची मेरे लिए बनाकर ले आती थीं। हमारे घर से काफ़ी दूर गाँव के अंत में मेरे छोटे चाचा का घर है। वहीं हमारा पुराना घरारी (पुश्तैनी मकान) है। यहाँ मेरे पापा के अन्य चचेरे भाई रहते हैं और सभी के घर हमलोग अक्सर आना-जाना करते हैं।

वर्ष 1976 के अंत में सातवीं की परीक्षा देकर मैं भागलपुर आ गई। मेरे लिए दुनिया काफ़ी बदली हुई थी। फिर से नए स्कूल में जाना। मेरा नामांकन घंटाघर स्थित मिशन स्कूल (क्राइस्ट चर्च गर्ल्स हाई स्कूल) में हुआ। इस साल से नई शिक्षा नीति लागू हुई। इस कारण मुझे पुनः सातवीं में नामांकन लेना पड़ा, जिसे उस समय 7th new कहा जाता था। मेरे स्कूल की प्राचार्या मिस सरकार थीं, जिनसे हम छात्रा क्या शिक्षकगण भी ससम्मान डरते थे। सातवीं में मेरी क्लास टीचर शीला किस्कु रपाज थीं, जो मुझे बहुत अच्छी लगती थीं; बाद में वे आई.ए.एस. बन गईं, तो स्कूल छोड़ दिया गाँव से लौटने के बाद मैं पहले से और ज़्यादा शांत हो गई थी। उन्हीं दिनों मेरे पिता की बीमारी की शुरुआत हो रही थी। 

प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा इलाज के लिए हाजीपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के श्री किशोरी प्रसन्न सिन्हा, जिन्हें सभी किशोरी भाई कहते हैं, काफ़ी वृद्ध और पार्टी के सम्मानीय सदस्य थे, के घर 'सुनीति आश्रम' में हमलोग एक महीना रहे। फिर पापा ने आयुर्वेद के द्वारा अपनी बीमारी का इलाज करवाया; लेकिन बीमारी बढ़ती गई। सभी के बहुत मना करने पर भी वे विश्वविद्यालय जाना नहीं छोड़ रहे थे। अंततः 1978 में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु क्या है मुझे तबतक पता नहीं था। पापा के श्राद्ध में यों लग रहा था मानो कोई पार्टी चल रही हो। पूजा-पाठ, भोज, और लोगों की बातें। यह सब जब ख़त्म हुआ तब लगा कि अरे पापा तो नहीं हैं, अब क्या होगा। पर हम सभी धीरे-धीरे उनके बिना जीने के आदी हो गए।

यमुना कोठी के जिस हिस्से में हमलोग रहते थे, उसका आधा हिस्सा अब बिक चुका है। चूँकि इसके मकान मालिक रतन सहाय हमारे दूर के रिश्तेदार हैं, अतः इनके परिवार से सारे सम्पर्क यथावत् हैं। अपनी यादों को दोहराने के लिए मैं अक्सर वहाँ जाती रहती हूँ। मकान के अन्दर आने के लिए लोहे का एक बड़ा-सा गेट था, जिसपर अक्सर हमलोग झुला झूलते थे। मकान का कुछ और हिस्सा बिक जाने से वह गेट भी अब न रहा। मकान में बाहर की तरफ़ एक बरामदा है, जिसपर शतरंज के डिजाइन का फ्लोर बना है। इसपर हमलोग ''कोना-कोनी कौन कोना'' खेलते थे।    

नया बाज़ार के ठीक चौराहे पर बंगाली बाबू का दूकान होता था, जहाँ से हम कॉपी-पेन्सिल और टॉफ़ी ख़रीदते थे; पॉपिंस मुझे बहुत पसन्द था। नया बाज़ार चौक पर नाई का वह दूकान बंद हो चुका है, जहाँ मेरे पापा बाल कटवाते थे। चौराहे पर मिठाई की एक दूकान थी, जहाँ से हम ख़ूब छाली वाली दही और पेड़ा ख़रीदते थे, अब उसकी जगह बदल गई है। यहीं पर एक मिल था, जहाँ हम आटा पिसवाने आते थे। यहीं पर पंसारी का दूकान है, जहाँ से सामान ख़रीदते थे। चौक पर ही निज़ाम टेलर है, जिसके यहाँ अब भी मैं कपड़ा सिलवाती हूँ। निज़ाम टेलर मास्टर तो अब नहीं रहे, उनके बेटे अब सिलाई का काम करते हैं। चौक और मेरे घर के सामने का मस्जिद अब भी है, जहाँ सुबह-शाम अजान हुआ करता है। शारदा टाकिज एक बहुत भव्य सिनेमा हॉल खुला था, जो अब बंद हो चुका है। इसके मालिक महादेव सिंह, जो निःसंतान थे, की मृत्यु के बाद यह विवाद में चला गया। यहाँ हमलोग ख़ूब सिनेमा देखते थे। पिक्चर पैलेस भी बंद हो चुका है। एक अजन्ता टाकिज और दीपप्रभा है, जहाँ हाल-फिलहाल तक सिनेमा देखा मैंने। नाथनगर में जवाहर टाकीज था, जहाँ अपने पापा के साथ मैं अन्तिम फ़िल्म 'मेरे गरीब नवाज़' देखी थी। एक अन्तिम बार पापा की यादों को जीने के लिए कुछ परिचितों के साथ वर्ष 2011 में जवाहर टाकीज में सिनेमा देख आई        

वेराइटी चौक पर बीच में एक मन्दिर है, जिससे वहाँ चौराहा बनता है। यहाँ पर आदर्श जलपान है, जहाँ गुलाब जामुन खाने मैं अक्सर जाती थी। नज़दीक ही आनन्द जलपान था, जहाँ का डोसा बहुत पसन्द था मुझे, पर अब वह बंद हो चुका है। वेराइटी चौक पर लस्सी वाला और कुल्फी वाला है, जब भी मम्मी के साथ मैं बाज़ार जाती, तो लस्सी या कुल्फी खाती। ख़लीफ़ाबाग चौक पर चित्रशाला स्टूडियो है, जो अब आधुनिक हो गया है। यहाँ हमलोग फोटो साफ़ करवाते थे। यहीं पर भारती भवन, किशोर पुस्तक भण्डार आदि है, जहाँ से किताबें ख़रीदते थे। यहाँ पर मैं झालमुढ़ी, भूँजा, मूँगफली, गुपचुप (गोलगप्पे) आदि ठेले वाले से ख़रीदकर खाती थी और अब भी कभी-कभी खाती हूँ।    

नया बाज़ार चौक पर हमारे पारिवारिक मित्र डॉ. पवन कुमार अग्रवाल का क्लिनिक 'ग़रीब नवाज़' है, जो अब छोटे अस्पताल का रूप ले चुका है। डॉ. अग्रवाल शुरू से मुझे बेटी की तरह मानते थे। वर्ष 1986 में मेरे अपेंडिक्स का ऑपरेशन उन्होंने किया था ऑपरेशन से पहले मेरी बहुत सारी ज़िद थी, जिसे उन्होंने पूरा किया, फिर मैं ऑपरेशन के लिए राज़ी हुई। वे जब तक रहे, अपनी सभी समस्याएँ मैं उनके साथ साझा करती रही। वर्ष 2008 में उनका देहान्त हो गया। उनके दोनों पुत्र डॉक्टर हैं और बहुत अच्छी तरह क्लिनिक सँभालते हैं। मेरी माँ के सहकर्मी मुस्तफा अयूब अंकल और इनकी पत्नी राशिदा खानम आंटी रामसर में रहते हैं; वे मुझे शुरू से बहुत मानते रहे; क्योंकि उन्हें बेटी नहीं है। हर सुख-दुःख में इनलोगों का बहुत सहयोग मिला है। मम्मी की दरभंगा कॉलेज की मित्र उषा श्रीवास्तव मौसी, जो अब भागलपुर में रहती हैं, गाना गाती हैं- ''ज़रा नज़रों से कह दो जी, निशाना चूक न जाए'', जिसे तब भी मैं उनसे सुनती थी, अब भी सुनती हूँ। 
 
मेरे मौसा जो उन दिनों भागलपुर में रहते थे, के मित्र ब्रजेश्वर प्रसाद, जिन्हें हमलोग बिरजा चाचा कहते हैं, हमलोग की बहुत मदद करते थे। मेरे लिए किताबें ख़रीद कर लाते मेरा भाई पटना में पढ़ता था, तो काफी मदद करते थे उसके बाद वह आई.आई.टी. कानपुर और फिर अमेरिका चला गया। जब तक वह भारत में रहा, उससे मिलने हम बिरजा चाचा के साथ जाते थे। वे स्वतंत्रता सेनानी थे, अतः उन्हें रेल का पास मिलता था, जिसमें उनके साथ कोई एक आदमी जा सकता है। मैं पटना, शन्तिनिकेतन और दिल्ली उनके साथ जाती थी उनका भी देहान्त हो चुका है 
  
स्कूल के बाद सुन्दरवती महिला महाविद्यालय से मैंने ऑनर्स किया। रोज़ जोगसर, शंकर टाकीज चौक, मानिक सरकार चौक, आदमपुर आदि से होते हुए खंजरपुर स्थित सुन्दरवती कॉलेज जाती थी। ऑनर्स में कुछ माह हॉस्टल में रही; लेकिन एक भी रूम मेट से दोबारा मिलना न हुआटी.एन.बी.लॉ कॉलेज जो तिलकामाँझी में है, वहाँ लॉ क्लास के लिए जाती थी कॉलेज के बाद एम.ए. और पी-एच.डी. के लिए सराय होते हुए यूनिवर्सिटी जाती थी स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी अक्सर पैदल ही जाया करती थी। तब न ज़्यादा गर्मी लगती थी, न जाड़ा। बी.ए. तक मैं बहुत अंतर्मुखी थी। बस काम से काम, न गप्पे लड़ाना पसन्द, न बेवज़ह घूमना। स्कूल की सहपाठियों में नीलिमा, मृदुला, बिन्दु आदि से मिलना हुआ। कॉलेज की दोस्तों में पूनम और रेणुका से मिलती रही हूँ। यूनिवर्सिटी की किसी भी दोस्त से अब सम्पर्क नहीं रहा।           

ढेरों यादें और क़िस्सें हैं, जिन्हें मन कभी भूलता नहीं। इतना ज़रूर है कि भागलपुर कभी छूटा नहीं। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी जाने का रास्ता जैसे अब भी अपना-सा लगता है। यह सब छूटकर भी नहीं छूटता है मुझसे। शहर जाना भले न होता हो, पर ज़िन्दगी जहाँ से शुरू हुई वहीं पर अटक गई है। 

नन्हा बचपन रूठा बैठा है   

*** 

अलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा बचपन छुपा बैठा है  
मुझसे डरकर मुझसे ही रूठा बैठा है
  
पहली कॉपी पर पहली लकीर  
पहली कक्षा की पहली तस्वीर  
छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर  
सब हैं लिपटे साथ यों दुबके  
ज्यों डिब्बे में बंद ख़ज़ाना  
लूट न ले कोई पहचाना
  
जैसे कोई सपना टूटा बिखरा है  
मेरा बचपन मुझसे हारा बैठा है 
अलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।     

ख़ुद को जान सकी न अबतक
ख़ुद को पहचान सकी न अबतक  
जब भी देखा ग़ैरों की नज़रों से
सब कुछ देखा और परखा भी
अपना आप कब गुम हुआ  
इसका न कभी गुमान हुआ
  
ख़ुद को खोकर ख़ुद को भूलकर   
पल-पल मिटने का आभास हुआ  
पर मन के अन्दर मेरा बचपन  
मेरी राह अगोरे बैठा है 
अलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।   

देकर शुभकामनाएँ मुझको  
मेरा बचपन कहता है आज  
अरमानों के पंख लगा  
वह चाहे उड़ जाए आज  
जो-जो छूटा मुझसे अब तक  
जो-जो बिछुड़ा देकर ग़म  
सब बिसराकर, हर दर्द को धकेलकर  
जा पहुँचूँ उम्र के उस पल पर  
जब रह गया था वह नितान्त अकेला
  
सबसे डरकर सबसे छुपकर  
अलमारी के ख़ाने में मेरा बचपन  
मुझसे आस लगाए बैठा है 
आलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।  

बोला बचपन चुप-चुप मुझसे  
अब तो कर दो आज़ाद मुझको  
गुमसुम-गुमसुम जीवन बीता  
ठिठक-ठिठक बचपन गुज़रा  
शेष बचा है अब कुछ भी क्या  
सोच-विचार अब करना क्या  
अन्त से पहले बचपन जी लो  
अब तो ज़रा मनमानी कर लो  
मेरा बचपन ज़िद किए बैठा है 
आलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।   

आज़ादी की चाह भले है  
फिर से जीने की माँग भले है  
पर कैसे मुमकिन आज़ादी मेरी  
जब तुझपर है इतनी पहरेदारी  
तू ही तेरे बीते दिन है  
तू ही तो अलमारी है  
जिसके निचले ख़ाने में  
सदियों से मैं छुपा बैठा हूँ
  
तुझसे दबकर तेरे ही अन्दर  
कैसे-कैसे टूटा हूँ, कैसे-कैसे बिखरा हूँ  
मैं ही तेरा बचपन हूँ और मैं ही तुझसे रूठा हूँ  
हर पल तेरे संग जिया 
पर मैं ही तुझसे छूटा हूँ 
अलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।  

-जेन्नी शबनम (16.11.2015)  
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Wednesday, October 7, 2015

53. ग़ैर-बराबरी बढ़ाता आरक्षण


                     

आरक्षण के मुद्दे पर देश के हर प्रांत में उबाल है। आरक्षण के समर्थन और विरोध दोनों पर चर्चा नए विवादों को जन्म देती है सभी को आरक्षण चाहिए। इससे मतलब नहीं कि वास्तविक रूप से कोई ख़ास जाति आरक्षण की हक़दार हैमतलब बस इतना है कि सभी जातियाँ ख़ुद को आरक्षण की श्रेणी में लाकर वांछित फ़ायदा उठाना चाहती हैं 
 
समय आ गया है कि अब इस मुद्दे पर एक नई बहस छेड़ी जाए हमें निष्पक्ष रूप से इसपर अपना विचार बनाना होगा ये आरक्षण किसके लिए और किसके विरूद्ध है? क्या जातिगत आधार पर आरक्षण उचित है? कितनी जातियों को इसमें शामिल किया जाए? क्या वास्तविक रूप से उन्हें फ़ायदा हो रहा है, जो ज़रूरतमंद हैं? आरक्षण का आधार सामजिक क्यों? आरक्षण का एकमात्र आधार आर्थिक क्यों नहीं? आरक्षण सहूलियत नहीं बल्कि दया है, जिसे किसी ख़ास जाति को दी जा रही है। किसी ख़ास जाति में जन्म लेने पर क्या दया की जानी चाहिए? 

यह न तो उचित है और न तर्कपूर्ण कि किसी ख़ास जाति या धर्म को मानने वाले को आरक्षण मिलना चाहिए; चाहे शिक्षा, किसी पद या किसी स्पर्धा वाली शिक्षा या नौकरी में आश्चर्य है कि ख़ुद को पिछड़ा साबित करने की होड़ लग गई है निश्चित ही आरक्षण के नाम पर हमारे युवाओं को बहकाया जा रहा है और उनको ग़लत दिशा देकर राजनितिक पार्टियाँ अपना-अपना लाभ पोषित कर रही हैं

आरक्षण ने क़ाबिलियत को परे धकेलकर जातिगत दुर्भावना को बढ़ाया है।आरक्षण का दंश देश का हर नागरिक झेल रहा हैआरक्षण से कोई फ़ायदा अब तक न दिखा है और न दिखेगा। आरक्षण का लालच दिखा युवाओं का मतिभ्रम कर आवश्यक मुद्दे पर से ध्यान भटकाया जा रहा है। युवाओं को धर्म और जाति का अफ़ीम खिला-खिलाकर देश के बिगड़ते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दशाओं से विमुख किया जा रहा है देश कई तरह के बाह्य और आन्तरिक संकट से गुज़र रहा है ऐसे में आरक्षण देकर कुछ ख़ास जातियों को फ़ायदा पहुँचाने के एवज़ में संकट को और भी बढ़ावा दिया जा रहा है लड़ता और मरता तो आम युवा है और हानि हमारे ही देश की होती है     

आरक्षण जाति-भेद की दुर्भावना पैदा करने का बहुत बड़ा कारण है। किसी ख़ास जाति को आरक्षण मिलने के कारण उसे वह जगह मिल जाता है, जो कोई दूसरा ज़्यादा उपुयक्त होकर भी गँवा देता हैआरक्षण प्राप्त लोगों का आरक्षण मिलने के बाद कहीं से भी बौधिक बढ़ोतरी के प्रमाण देखने को नहीं मिले हैं। उसी तरह आरक्षण से मुक्त जो भी जातियाँ हैं, वे जन्म के कारण विशिष्ट गुणोंवाली हों या वे सभी धनाढ्य हों, यह भी नहीं देखा है। धर्म और जाति का बौद्धिकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता, और न आरक्षण देकर किसी में बौद्धिकता और क़ाबिलियत पैदा की जा सकती है। कहीं-न-कहीं मन का विभाजन आरक्षण के बाद शुरू हुआ है।

जिस तरह से अधिकांश जातियाँ आरक्षण पाने के लिए लालायित हैं, ऐसा लगता है कि आने वाले समय में गिनती की दो-चार जातियाँ ही बचेंगी, जो आरक्षण से बाहर सामान्य श्रेणी में रह जाएँगी आरक्षण श्रेणी की बहुत सी जातियाँ ऐसी हैं, जो धनवान हैं ऐसी बहुत सी जातियाँ हैं, जो कहने को तो उच्च कूल की हैं, लेकिन खाने-खाने को मोहताज़ हैं ऐसे में विचारणीय है कि किसे आरक्षण की आवश्यकता है?

प्रतिस्पर्धा के युग में आरक्षण हर जाति के लिए रोग बन गया है। योग्यता का मूल्यांकन आरक्षण से होना स्वाभाविक-सा लगता है। आज अल्पज्ञान और अल्पबुद्धि का बोलबाला होता जा रहा है ज्ञान और बुद्धि पर आरक्षण भारी पड़ रहा है और इसका ख़म्याज़ा आरक्षित श्रेणियों की जातियों को भी उठाना पड़ रहा है अगर किसी का उसकी अपनी योग्यता से स्पर्धा में चयन होता है, फिर भी लोगों की निगाह में वह तिरस्कार पाता है और यही माना जाता है कि आरक्षण के कारण वह सफल हुआ है उसकी अपनी योग्यता आरक्षण की बलि चढ़ जाती है 
 
आज जब हम किसी डॉक्टर के पास इलाज के लिए जाते हैं, तो मन में यह आशंका रहती है कि कहीं यह आरक्षण से आया हुआ तो नहीं है ऐसे में उस डॉक्टर की योग्यता पर अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगी दिखती हैमुमकिन है कि आरक्षित श्रेणी का वह डॉक्टर सचमुच प्रतिभाशाली हो, मगर आरक्षण की सुविधा से अनुपयुक्त का चयन उपयुक्त को भी कटघरे में खड़ा कर दे रहा है इस आरक्षण ने मन में सन्देह पैदा कर दिया है और हम एक दूसरे को शक और निरादर से देखने लगे हैं

अगर आरक्षण देना ही है, तो आर्थिक आधार पर दिया जाए; चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या सम्प्रदाय का क्यों न हो, और वह भी सिर्फ़ विद्यालय स्तर की शिक्षा तक। ताकि स्पष्टतः प्रतिभा की पहचान हो सके और उपयुक्त पात्र ही उपयुक्त स्थान ग्रहण करे समान अवसर, सुविधा और वातवरण मिलने पर ही हर नागरिक समान हो पाएगा देश के हर नागरिक के लिए समान कानून, समान न्याय, समान शिक्षा, समान सुविधा और समान अधिकार, और कर्त्तव्य का होना आवश्यक है एकमात्र आर्थिक आधार ही आरक्षण का उचित व उत्तम आधार है और यही होना चाहिए

-जेन्नी शबनम (7.10.2015)
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Thursday, August 20, 2015

52. सावन में बरसाती टोटके


बरसात का मौसम, सावन-भादो का महीना और ऐसे में बारिश! चारों तरफ़ हरियाली, बाग़ों में बहार, मन में उमंग, जाने क्या है इस मौसम में। रिमझिम बरसात! अहा! मन भींगने को करता है। बरसात के मौसम में उत्तर भारत में कजरी गाने की परम्परा रही है। 

सावन ऐ सखी सगरो सुहावन 
रिमझिम बरसेला मेघ रे 
सबके बलमउआ त आबेला घरवा 
हमरो बलम परदेस रे  

सावन के महीने में कई-कई दिन लगातार बारिश हो, सूर्य कई दिनों तक नहीं दिखे, तो इसे कहते हैं झपसी (लगातार मूसलाधार वर्षा) लगना।शहरी जीवन में ऐसे मौसम में लोग चाय के साथ पकौड़ी खाना, लिट्टी चोखा खाना, लॉन्ग ड्राइव पर जाना, पसन्दीदा पुस्तक पढ़ना या गीत सुनना आदि पसन्द करते हैं। ग्रामीण परिवेश में यह सब बदल जाता है। यों अब पहले की तरह गाँव नहीं रहे, अतः काफ़ी कुछ शहरों का देखा-देखी होने लगा है।पहले चूल्हा में लकड़ी ईंधन के रूप में प्रयुक्त होता था, अतः बरसात में मेघौनी लगते ही जरना (जलावन की लकड़ी) एकत्रित कर लिया जाता है।बूँदा-बाँदी में भी खेती के सारे काम होते हैं; क्योंकि इसमें नियत समय पर सब कुछ करना है। पशु-पक्षी की देखभाल, उनके चारा का इंतिज़ाम आदि सब पहले से कर लेना होता है। बाज़ार-हाट का काम और खेती का काम भींगते हुए करना होता है। गाँव में कभी भी कोई असुविधा महसूस नहीं होती है। जब जो है उसमें ही जीवन को भरपूर जिया जाता है।  

यों तो परम्पराएँ गाँव हो या शहर दोनों जगह के लिए बनी हुई हैं; लेकिन कुछ परम्पराएँ गाँवों तक सिमट गई हैं। गाँवों में जब मूसलाधार बारिश हो और पानी बरसते हुए कई दिन निकल जाए, तो एक तरह का टोटका किया जाता है, जिससे बारिश बंद हो और उबेर (बारिश बंद होकर सूरज निकलना) हो जाए।   

बिहार के सीतामढ़ी ज़िले में झपसी लगने पर एक अनोखी परम्परा है। कपड़े का दो पुतला (गुड्डा-गुड़िया) बनाते हैं, एक भाहो (छोटे भाई की पत्नी) और एक भैंसुर (पति का बड़ा भाई)। दोनों को छप्पर (छत) पर एक साथ रख देते हैं। फिर अक्षत और फूल चढ़ाकर पूजा की जाती है। मान्यता है कि भाहो और भैंसुर का सम्बन्ध ऐसा है, जिसमें दूरी अनिवार्य है। इसलिए भाहो-भैंसुर का एक साथ होना और पानी में भींगना बहुत बड़ा पाप और अन्याय है। अतः भगवान इस अन्याय को देखें और पानी बरसाना बंद करें। इस गुड्डा-गुड़िया को बनाकर वही लड़की पूजा करती है, जिसको एक भाई होता है। 

इससे मिलती-जुलती ही बिहार के छपरा ज़िला की परम्परा है। इस टोटका में कपड़े से कनिया और दूल्हा (पति और पत्नी) बनाते हैं। फिर दूल्हा के कन्धा पर एक गमछा (तौलिया) रख दिया जाता है, जिसके एक छोर में खिचड़ी का सामान बाँध दिया जाता है। एक छोटा ईंट रखकर उस पर एक दीया जला देते हैं और उससे सटाकर कनिया व दूल्हा को खड़ा कर दिया जाता है। कनिया और दूल्हा भगवान से कहते हैं कि हमें परदेस जाना है, दिन-रात पानी बरस रहा है, चारों तरफ़ अन्हरिया (अँधेरा) है, हे भगवान! उबेर कीजिए, जिससे हमलोग खाना बनाकर खाएँ और फिर परदेस जाएँ ताकि कमा सकें। मान्यता है कि जिस बच्ची का जन्म ननिहाल में होता है, वही यह गुड्डा-गुड़िया बनाती है और पूजा करती है। 

अब इन टोटकों से क्या होता है, यह तो नहीं पता; लेकिन सुना है कि टोटका करने के बाद पानी बरसना बंद होकर उबेर हो जाता है, भले थोड़ी देर के लिए सही। टोटका कहें, मान्यता या मन बहलाव का साधन, गाँव के लोग हर परिस्थिति का सामना अपने-अपने तरीक़े से करते हैं। प्रकृति के हर नियम के साथ ताल-मेल मिलाकर जीते हैं। यह सब होता है या नहीं, यह तो मालूम नहीं; लेकिन है बड़ा अनूठा और दिलचस्प टोटका।  

-जेन्नी शबनम (20.8.2015)
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