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दयानन्द जायसवाल जी और मैं (भागलपुर) |
'सन्नाटे के ख़त' डॉ. जेन्नी शबनम (सर्वप्रिय विहार, नई दिल्ली) का अयन प्रकाशन से प्रकाशित यह काव्य-संग्रह युगीन आवश्यकता की परिणति है। इनकी काव्य-सृजन-पीठिका को जितना अधिक खँगाला जाएगा उतना इनकी अनबुझी समस्याएँ पारदर्शी होती चली जाएँगी। इनके साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण ही उन तमाम परिस्थितियों की देन लगती है, जिनमें परम्पराएँ चरमरा रही हैं। नई-नई आख्याएँ जाग रही हैं। समता, स्नेह, सम्मान की सर्जना के लिए सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों के बदलते परिवेश की नई-नई समस्याओं के नए-नए सन्दर्भ कवयित्री के सामने हैं, तो ऐसे में भावना का बाँध टूटना ही था। अतः कथ्य के साथ-साथ कथ्य के अनुकूल नए-नए व्यंजना के आयाम भी अभिव्यंजित हैं।
सारस्वत साधना में सतत-रत रहनेवाली उत्कृष्ट साहित्य सृजन कर बहुमूल्य कृतियों से साहित्य-समृद्ध करनेवाली सम्मानित रचनाकारों में प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम की अनेक रचनाएँ देश-विदेश की पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं अनेक साझा-संग्रह में कविता, हाइकु, हाइगा, ताँका, चौका, सेदोका, माहिया, लघुकथा, लेख आदि के अतिरिक्त इनकी मौलिक पुस्तकें 'लम्हों का सफर', 'प्रवासी मन', 'मरजीना', 'नवधा', 'झाँकती खिड़की' के अलावा 'सन्नाटे के ख़त' भी हैं, जिनमें आम जीवन की संवेदना, त्रासद, संकट, सुख-दुःख, बिछुड़न-मिलन आदि विचारों के झंझावात हैं।
साहित्य में जब भी हम जीवन की साधना, अनुभूतियों और मानवीय संवेदनाओं को शब्दों के माध्यम से उकेरने की बात करते हैं, तब काव्य की भूमि सबसे उपजाऊ प्रतीत होती है। ऐसा ही एक सशक्त उदाहरण डॉ. जेन्नी शबनम द्वारा रचित काव्य-संग्रह 'सन्नाटे के ख़त' जो न केवल भावनाओं का दस्तावेज़ है; बल्कि जीवन के विविध रंगों को समेटे एक संवेदनशील यात्रा भी है। 105 कविताओं से सुसज्जित यह संग्रह पाठक को आत्ममंथन, आत्मविश्लेषण और आत्मानुभूति की उस यात्रा पर ले चलता है, जहाँ हर कविता एक दर्पण की तरह सामने खड़ी हो जाती है। संग्रह की कविताएँ केवल शब्दों का संयोजन नहीं है; बल्कि एक एहसास है जो पाठकों के अंतर्मन तक उतर जाता है। कविताएँ न तो जटिल हैं और न ही बनावटी; वे सीधे मन को छूनेवाली हैं। यह संग्रह उन लोगों के लिए एक उपहार है, जो कविता को केवल पढ़ना नहीं; जीना चाहते हैं। इसी संग्रह की एक कविता 'देव' है-
"देव! देव! देव!
तुम कहाँ हो, क्यों चले गए?
एक क्षण को न ठिठके तुम्हारे पाँव
अबोध शिशु पर क्या ममत्व न उमड़ा
क्या इतनी भी सुध नहीं, कैसे रहेगी ये अपूर्ण नारी
कैसे जिएगी, कैसे सहन करेगी संताप
अपनी व्यथा किससे कहेगी
शिशु जब जागेगा, उसके प्रश्नों का क्या उत्तर देगी
वह तो फिर भी बहल जाएगा
अपने निर्जीव खिलौनों में रम जाएगा।
बताओ न देव!
क्या कमी थी मुझमें
किस धर्म का पालन न किया
स्त्री का हर धर्म निभाया
तुम्हारे वंश को भी बढ़ाया
फिर क्यों देव, यों छोड़ गए
अपनी व्यथा, अपनी पीड़ा किससे कहूँ देव?
बीती हर रात्रि की याद, क्या नाग-सी न डसेगी
जब तुम बिन ये अभागिन तड़पेगी? ..."
वर्तमान समय की व्यवहारिक सच्चाइयों से मुठभेड़ करती कविताओं में शहरी जीवन की कृत्रिमता और गाँवों की आत्मीयता के बीच की खाई बड़े ही मार्मिक अंदाज में 'लौट चलते हैं अपने गाँव' नामक कविता में उकेरा गया है। यह कविता बताती है कि शहरी आधुनिकता की चकाचौंध में भी सूनापन है; लेकिन अपनापन तो गाँव की मिट्टी में ही साँस लेता है-
"मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से।
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव
अपने घर चलते हैं
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते ही हर घर उठ जाता है
चटाई बीनती हुक्का गुड़गुड़ाती
बुढ़िया दादी धूप सेंकती है
गाती बाँधे नन्हकी स्लेट पर पेन्सिल घिसती है। ..."
एक रचनाकार जन-जीवन से संघर्ष करते-करते जब थक जाता है, हार जाता है, तब इस हार के अंतर शब्द ही उसके साँस बन जाते हैं और तब जैसे जीवनानुभूति के नए पर निकल आते हैं और उसके बाद ही जैसे छलाँग लगाते हैं- जीवन से सृष्टि, सृष्टि से ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड में स्व के अस्तित्व की अनुभूति करता है। ऐसी अवस्था में कवयित्री शबनम सबसे ज्यादा भावुक होती हैं और उस भाव चेतना के लिए स्थापित सिद्धांतों का उतना महत्त्व नहीं देतीं, जितना मानवीय निश्छलता का। जीवन संघर्ष उसकी भावुकता को जितना सघन और पैना बनाते हैं उतनी ही प्रबलता से हृदय द्रवित होता है और व्यंजना के संकेत स्वयं अपने अनुरूप शब्द शिल्प लेकर 'अपनों का अजनबी बनना' ऐसी कविता को जन्म देते हैं-
"समीप की दो समानान्तर राहें
कहीं-न-कहीं किसी मोड़ पर मिल जाती हैं
दो अजनबी साथ हों
तो कभी-न-कभी अपने बन जाते हैं।
जब दो राह
दो अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े फिर?
दो अपने साथ रहकर अजनबी बन जाएँ फिर?
सम्भावनाओं को नष्ट कर नहीं मिलती कोई राह
कठिन नहीं होता, अजनबी का अपना बनना
कठिन होता है, अपनों का अजनबी बनना।
एक घर में दो अजनबी
नहीं होती महज़ एक पल की घटना
पलभर में अजनबी अपना बन जाता है
लेकिन अपनों का अजनबी बनना, धीमे-धीमे होता है।
व्यथा की छोटी-छोटी कहानी होती है
पल-पल में दूरी बढ़ती है
बेगानापन पनपता है
फ़िक्र मिट जाती है
कोई चाहत नहीं ठहरती है।
असम्भव हो जाता है
ऐसे अजनबी को अपना मानना।"
कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का यह संग्रह 'सन्नाटे के ख़त' शिवत्व की चाहत में अपने ही भीतर एक द्वंद्वात्मक सम्बन्ध जी रहे हैं। शरीर एक बोझ तब लगने लगता है जब आत्मा अपनी अस्मिता के लिए घुटन महसूस करने लगे। यह तथ्य मैं जीवन की पथरीली पगडण्डी पर नंगे पाँव चलने वाले कवयित्री की काल्पनिक राही के सन्दर्भ में कह रहा हूँ, जिसको बार-बार अपनी पहचान के लिए अग्नि परीक्षा से गुज़रना पड़ता है। यदि उसे अपनी आत्मशक्ति और अपने संयम के प्रति अगाध आस्था न होती, तो विजय-यात्रा के अपने पड़ावों पर शब्द आतिथ्य उसके लिए बोझ के अतिरिक्त कुछ न होता। एक तरफ़ 'सन्नाटे के ख़त' में पाए जाने वाले भावनात्मक आक्रोश की प्रबलता का भार है, तो दूसरी तरफ यथार्थग्राही काव्य की चिन्ता, उसके बाद कविता के विशिष्ट हो पाने की दमतोड़ मेहनत। इन शक्तियों की क़दमताल में कवयित्री संयमित-अर्जित निखार से कभी खुलकर हँस नहीं पायी। वह सामाजिक चुनौतियाँ तथा जीवन के कटु क्षणों के ख़त के सन्नाटे का सामना करने में सशक्त- अशक्त होती रही है। कभी अभिजात की ज़ेब से उछलकर फ़कीर की झोली में गिरती है, तो कभी प्रकृति सम्पदा से आसक्त मानवीयकृत होती है और कभी नगर-बोध तो कभी ग्राम-बोध आदि से झूलती हुई नजर आती है। कहने का अभिप्राय है कि ख़त हमेशा अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने को भाषाशैली की बाजारों में दूर-दूर भटकता रहा। सन्नाटे के नाम चुप्पी से भरा ख़त पाकर कवयित्री का दार्शनिक मन बार-बार उनके फंदे से फिसलकर लहूलुहान होता हुआ अपनी सर्जनात्मक ज़मीन को और उर्वर-उपजाऊ बनाने का संकल्प दोहराता रहा इस 'अनुबन्ध' कविता के रूप में-
"एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच
कभी साथ-साथ फलित न होना
एक अनुबन्ध है स्वप्न और यथार्थ के बीच
कभी सम्पूर्ण सत्य न होना
एक अनुबन्ध है धरा और गगन के बीच
कभी किसी बिन्दु पर साथ न होना
एक अनुबन्ध है आकांक्षा और जीवन के बीच
कभी सम्पूर्ण प्राप्य न होना
एक अनुबन्ध है मेरे मैं और मेरे बीच
कभी एकात्म न होना।"
कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का अनुभूति-पक्ष जितना सबल है, उसका शिल्प-पक्ष उतना ही सुंदर है। शब्द-योजना, बिम्ब-योजना आदि शिल्प-सौंदर्य कविता को मूल्यवान बनाते हैं। सफलता हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं।
कवयित्री का संपर्क सूत्र- 9810743437
-दयानन्द जायसवाल
संस्थापक सह प्रधान सम्पादक, सुसंभाव्य पत्रिका
भागलपुर
तिथि- 20.5.2025
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4 comments:
बहुत सुन्दर ! बधाई !
बहुत सार्थक समीक्षा। एकदम सही तस्वीर सामने आ चुकी है। संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई।
बहुत परिश्रम से लिखी समीक्षा। विषयवस्तु का सार्थक विश्लेषण।
बहुत सुंदर सार्थक समीक्षा। आप दोनों को हार्दिक बधाई।सुदर्शन रत्नाकर
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