एक कहावत है- ''हाथी चले बाज़ार कुत्ता भौंके हज़ार।'' इसका अर्थ है आलोचना, निन्दा, द्वेष या बुराई की परवाह किए बिना अच्छे कार्य करते रहना या सही राह पर चलते रहना। इसका सन्देश अत्यन्त सकारात्मक है, जो हर किसी के लिए उचित, सार्थक एवं अनुकरणीय है। हम सभी के जीवन में ऐसा होता है जब आप सही हों फिर भी आपकी अत्यधिक आलोचना होती है। अक्सर आलोचना से घबराकर या डरकर कुछ लोग निष्क्रिय हो जाते हैं या चुप बैठ जाते हैं। कुछ लोग अनुचित राह पकड़ लेते हैं और ''हाथी चले बाज़ार कुत्ता भौंके हज़ार'' कहावत को चरितार्थ करते हैं। वे बिना किसी परवाह के अनुचित कार्य करते रहेंगे; न अपने सम्मान की चिन्ता न दूसरे की असुविधा की फ़िक्र। बस अपना हित साधना है, पूरी दुनिया जाए भाड़ में।
वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें तो राजनीतिक परिस्थितियों पर यह कहावत सटीक बैठती है, भले नकारात्मक रूप से ही सही। कुछ नेता स्वयं को हाथी मानकर अति मनमानी करते हैं, अति निर्लज्जता से सारे ग़लत काम करते हैं, असंवेदनशीलता की सारी हदें लाँघ जाते हैं, बेशर्मी से दाँव-पेंच लगाकर बाज़ी चलते हैं। उन्हें न अपनी आलोचना की फ़िक्र है, न अपने कुकृत्यों पर शर्मिन्दगी। पद, पैसा और लालच के सामने उन्हें किसी चीज़ की कोई परवाह नहीं।
इस सन्दर्भ में सोचें तो हम आम जनता कुत्ते की तरह हैं, जो हर अनुचित पर लगातार भौंक रहे हैं और सदियों से भौंकते जा रहे हैं। न किसी को हमारी परवाह है, न कोई हमारी बात सुनता है; फिर भी हम भौंकते रहते हैं। ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद करते रहते हैं। हमारे अधिनायक, बादशाह, शासक, नेता, आका, सत्ताधीश बिगड़ैल हाथी की तरह सत्ता हथियाने के लिए भाग रहे हैं और हम जैसे भौंकते कुत्तों को रौंदते जा रहे हैं। वे हाथी हैं, अपने हाथी होने पर उन्हें घमण्ड है और इस अभिमान में पाँव के नीचे आने वाले कुत्तों को रौंदना उनका कर्त्तव्य; क्योंकि ऐसे कुत्ते उनकी राह में बाधा डालने के लिए खड़े हैं।
भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, अन्याय, अत्याचार, तानाशाही, निरंकुशता आदि के ख़िलाफ़ हम कितना भी भौंके, कोई सुनवाई नहीं है। नेताओं को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, उन्हें अपने फ़ायदे के लिए जो सही लगता है वे करते हैं; वे हाथी जो ठहरे। आम जनता तो कुत्ता है, भौंके, भौंकता रहे। जिधर रोटी मिलेगी दुम हिलाते हुए कुछ कुत्ता हाथी के पीछे चला जाएगा। कुछ कुत्ता हमेशा की तरह भौंक-भौंककर जनता को जगाएगा ताकि वे अपना अधिकार जाने और सही के लिए भौंकने में साथ दें।
जब-जब चुनाव आएगा तब-तब हाथी होश में आएगा और गिरगिट-सा रंग बदलते हुए अपनी चाल थोड़ी धीमी करेगा। बाज़ार से गुज़रते हुए रोटी का टुकड़ा फेंकता जाएगा, थोड़ा पुचकारेगा, थोड़ा दया दिखाएगा; जो झाँसे में न आया उसे पाँव तले कुचल देगा। यों भी पेट और वोट का रिश्ता बहुत पुराना है। पाँच साल जनता कुत्ते की तरह भौंके और नेता हाथी की तरह मदमस्त चलता रहे।
समाज में हर तरह के लोग होते हैं, जो हर कार्य का आकलन, अवलोकन और निष्पादन अपने सोच-विचार से करते हैं। हमारी सोच को शिक्षा, धर्म और संस्कृति सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है। जाने कब आएगा वह दिन जब न कोई शासक होग़ा न कोई शोषित। सभी की सोच पर से धर्म और जाति का पर्दा उठेगा और जनहित को ध्यान में रखकर इन्सानियत वाले समाज का निर्माण होगा।
शासक हाथी और शोषित कुत्ता, खेल जारी है... हाथी अपने मद में चूर जा रहा है और कुत्ते भौंक रहे हैं। हाथी सदा सही होता है और कुत्ता सदा बेवकूफ़! सन्दर्भ भले उलट गया पर कहावत सही है- ''हाथी चले बाज़ार कुत्ता भौंके हज़ार।''
- जेन्नी शबनम (1.5.24)
(मज़दूर दिवस)
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9 comments:
सही कहा आपने. वर्तमान समय में ऐसा ही हो रहा है. जनता नेताओं की तानाशाही सहने को विवश है
हम भेद बकरियाँ ही तो हैं, जो उनके पीछे दौड़ rahe हैं। हम कितना ही भौंकें उनके ऊपर कोई भी असर नहीं होने वाला है। सब तो एक ही सांचे में ढले हैं। जो सत्ता में बैठ वह मेरे और दूसरा उसकी कमियां निकलता रहे उसको करनी मनमानी ही है। कर बढ़ेंगे , नौकरी जायेगी , नई का सृजन नहीं होगा और राजनीति में बस एक बार साम दाम दंड भेद आप सदन तक पहुँच जाइये फिर तो आजीवन पेंशन, सुविधायण कोई कर नहीं और पीढ़ियों तक दबदबा बना रहेगा।
ये खेल हमेशा से यूं ही चल रहे हैं और चलते रहेंगे
छोटी-बड़ी मछलियों का खेल है। अवसर मिलते ही कुत्तों को भी हाथी बनते देखा है। इंटर चेंजेबल हैं दोनों।
छोटी-बड़ी मछलियों का खेल है। अवसर मिलते ही कुत्तों को भी हाथी बनते देखा है। इंटर चेंजेबल हैं दोनों।
छोटी-बड़ी मछलियों का खेल है। अवसर मिलते ही कुत्तों को भी हाथी बनते देखा है। इंटर चेंजेबल हैं दोनों।
सही विचार। यही तो देखते और भुगतते आ रहे हैं। परिवर्तन आना आवश्यक है।सुदर्शन रत्नाकर
Yes
बहुत सार्थक आलेख, बधाई
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