Monday, December 1, 2014

50. यह हत्या नहीं स्त्रियों का सामूहिक नरसंहार है

छत्तीसगढ़ में नसबंदी के दौरान 14 स्त्रियों की मौत ने एक बार फिर सोचने के लिए विवश किया कि हमारे देश में आम स्त्रियों की क़ीमत क्या है। न उनके जीवन का कोई मोल, न उनकी मृत्यु का कोई अर्थ! हम ज़बरदस्त ग़ैरबराबरी से जूझ रहे ऐसे संवेदनहीन और असभ्य समाज का हिस्सा बनते  जा रहे हैं, जो वर्चस्व, सत्ता और प्रतिस्पर्धा को एकमात्र जीने का मूल मंत्र बना चुका है। अजीब ये है कि इन सबमें उसके सामने केवल स्त्री खड़ी है। 

छत्तीसगढ़ के इस हादसे के परिपेक्ष में यह सोचना होगा कि स्वास्थ्य शिविर में जाकर चिकित्सा कराने वाला तबक़ा कौन है। यह समाज का वह वर्ग है जिसे सरकारी खानापूर्ति की भरपाई के लिए लक्ष्य-पूर्ति का साधन बना दिया जाता है। असुरक्षित और अस्वस्थ माहौल में सीमित संसाधनों के द्वारा चिकित्सा करना या शल्य-क्रिया को अंजाम देना निश्चय ही अमानवीय अपराध है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह अपराध वैधानिक तरीक़े से हो रहा है; क्योंकि शिविरों के हालात का अनुमान जनसाधारण को है। निर्धन जनता या ऐसे क्षेत्र के निवासी जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है, इन स्वास्थ्य केन्द्रों और शिविरों पर निर्भर होते हैं और अपनी जान ख़तरे में डालने को मज़बूर होते हैं। 
  
समाज कल्याण से जुड़ी सरकारी योजनाओं के तहत लगने वाले नसबंदी शिविरों का सच किसी से छिपा नहीं है। इन शिविरों में एक-एक दिन में सौ-सौ ऑपरेशन किए जाते हैं। एक वरिष्ठ चिकित्सक होता है, जिसके अंतर्गत कई प्रशिक्षु होते हैं जो यह काम निबटाते हैं। यह शिविर जहाँ भी लगता है वहाँ न आधुनिक ऑपरेशन थियेटर होता है, न आपातकालीन चिकित्सा के लिए कोई यंत्र, न स्वच्छ वातावरण। यह हमारे भारत का सच है कि इन शिविरों में सिर्फ़ वही स्त्रियाँ या पुरुष जाते हैं, जो आर्थिक रूप से अत्यंत कमज़ोर होते हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति ज़रा भी ठीक है, भले वे दिहाड़ी मज़दूर ही क्यों न हों, निजी अस्पताल में ही जाकर इलाज कराते हैं। इस सच से न हमारे देश की जनता इंकार कर सकती है, न सरकार।

यह सोचने का विषय है कि स्त्रियाँ ही आबादी बढ़ाने और रोकने का दण्ड क्यों भुगतती हैं? स्त्रियों की ही नसबंदी क्यों, पुरुष की क्यों नहीं? क्या यह नसबंदी पुरुषों के लिए ज़्यादा सुरक्षित और कारगार नहीं? स्त्रियों की नसबंदी का ऑपरेशन पुरुषों की तुलना में जटिल और मुश्किल होता है।जबकि पुरुष की नसबंदी स्त्रियों की तुलना में बहुत सरल है, जिसमें न तो कोई जटिल प्रक्रिया है न किसी तरह का कोई ख़तरा, न ऑपरेशन के बाद लम्बी अवधि तक विश्राम की आवश्यकता।      

स्त्रियों पर ही संतानोत्पत्ति और नसबंदी का सारा कारोबार आधारित क्यों है? क्या बिना पुरुष के स्त्रियाँ बच्चा पैदा करती हैं? जब पुरुष के बिना संतानोत्पत्ति संभव नहीं, फिर नसबंदी पुरुष क्यों नहीं कराते? न सिर्फ़ अशिक्षित बल्कि शिक्षित पुरुषों का भी मानना है कि नसबंदी कराने से पौरुष ताक़त में कमी आ जाती है। जबकि वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुका है कि यह सच नहीं सिर्फ़ अज्ञानता है। पुरुष नसबंदी के कई फ़ायदों में एक अहम् फ़ायदा यह भी है कि किसी कारण से यदि फिर से संतान चाहें तो संतान संभव है। लेकिन स्त्री के मामले में ऐसा संभव नहीं है।

हमारी परम्पराओं का हमारे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। अपनी पढ़ाई के दौरान मुझे परिवार नियोजन विषय पर कुछ महिलाओं से बातचीत करने का मौक़ा मिला, जिसमें एक स्तब्ध करने वाला सच सामने आया। एक स्त्री ने बताया कि उसके पति के नसबंदी कराने के बाद भी उसे बच्चा हुआ।डॉक्टर ने कहा कि सामान्यतः ऐसा नहीं होता है, लेकिन कभी-कभी कुछ अपवाद हो जाते हैं। डॉक्टर के कहने के बाद भी उसका पति उसके चरित्र पर शक करता रहता है। एक दूसरी स्त्री जो काफ़ी पढ़ी-लिखी थी उसका कहना था कि अगर किसी कारण उसके पति का नसबंदी ऑपरेशन असफल हुआ और वह गर्भवती हो गई, तो आजीवन उसे शक से देखा जाएगा, इससे बेहतर है कि स्त्री स्वयं ही ऑपरेशन करा ले। एक छोटा-सा तो ऑपरेशन है, आजीवन एक डर और इल्जाम से तो बचा जा सकता है।एक अविवाहित आधुनिक स्त्री का कहना था कि दो बच्चे के बाद ऑपरेशन करा लो, क्या पता पति का ऑपरेशन सफल न हुआ तो एक और बच्चे का बोझ सहो, या फिर गर्भपात काराओ, इतने झमेले से तो अच्छा है कि स्त्री ही ऑपरेशन कराके हमेशा के लिए झंझट से मुक्त हो जाए और पति के शक से भी छुटकारा रहेगा। यों सभी स्त्रियों की राय यही थी कि स्त्री को ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए अन्यथा फिर से गर्भवती होना या गर्भपात कराना पड़ सकता है 

इन सभी पहलुओं पर विचार करें तो कहीं-न-कहीं हमारा समाज, हमारी सोच, हमारी मान्यताएँ और परम्पराएँ इन सबके लिए दोषी हैं। हमारा पुरुष समाज जो स्त्री का चरित्र उसके बदन में खोजता है और उसके बदन पर ही अपना चरित्र गँवाता है, फिर भी उस स्त्री के लिए ज़रा-सी ज़हमत उठाना नहीं चाहता है जबकि पुरुष नसबंदी में न पीड़ा होती है, न वक़्त लगता है; ऑपरेशन के एक घंटे के बाद पुरुष काम पर वापस जा सकता है। सरकारी प्रचार-प्रसार के बाद भी पुरुष इस बात को समझ नहीं पाते कि नसबंदी के बाद भी उसकी यौन-शक्ति वैसी ही रहेगी। कोई भी पुरुष सहजता से ऑपरेशन नहीं कराता है। यह सिर्फ़ अशिक्षित समाज का चेहरा नहीं, बल्कि शिक्षित और प्रगतिशील बिरादरी का भी चेहरा है।

हमारे समाज की संकीर्ण मानसिकता का परिणाम है कि न सिर्फ़ वे 14 स्त्री मारी गईं, बल्कि 14 परिवार बिखर गया और उनके बच्चे माँ के प्यार-दुलार से वंचित हो गए। इस घटना को दुर्घटना या लापरवाही कहकर आरोपी चिकित्सकों को कटघरे में खड़ा किया जाए, कानूनी सज़ा दी जाए या मृत स्त्रियों के परिवार को मुआवज़ा दिया जाए; पर क्या इन सबसे उन मृत स्त्रियों को वापस लाया जा सकता है? क्या स्त्रियों के साथ हो रहे इन अपराधों और अमानवीय अत्याचारों का खात्मा कभी सम्भव है? क्या यों ही शोषित वर्ग की शोषित स्त्रियाँ बली चढ़ती रहेंगी? 

- जेन्नी शबनम (1.12.2014)
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45 comments:

Sumit Pratap Singh said...

विचारणीय आलेख...

विभा रानी श्रीवास्तव said...

आपके आलेख में कई बात है जिनसे मैं सहमत हूँ

shikha varshney said...

सदियों की रूड़ीवादी मानसिकता है जेन्नी जी. बदलने में न जाने कितना वक्त लगेगा अभी. दुखद है पर दिल्ली अभी बहुत दूर है :(

विजय कुमार सिंघल said...

बहुत अच्छे विचार !

Mahesh Barmate "Maahi" said...

पुरुष प्रधान समाज की सच्चाई को प्रदर्शित करता सार्थक लेख..

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

यह स्त्रियों ही नहीं, समग्रता में मनुष्यता का संहार है. जनसंहार कहा जाना चाहिए इसे. वैश्वीकरण के नाम पर आए बेलगाम पूंजीवाद ने हमें चिकित्सा और शिक्षा व्यवस्था के नाम पर जो निर्मम दुकानदारी दी है, उसका यह एक नमूना भर है. इसे स्त्री-पुरुष के नज़रिये से नहीं, दमनकर्ता और दमित के नज़रिये से देखना होगा.

Kailash Sharma said...

पुरुष प्रधान समाज में सब दर्द स्त्रियों को ही सहना होता है..बहुत सारगर्भित आलेख...

कालीपद "प्रसाद" said...

आपका विश्लेषण बहुत सही है और मैं आपसे सहमत हूँ lरोबोट टेस्ट हटा दें l

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत ही गंभीर मुद्दे पर आपका आलेख साधुवाद |हमारे देश की सरकारों के लिए इंसानों की कीमत बस चंद रूपये होती है कभी अपराधियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं होती है |भ्रष्टाचार और भी अधिक जिम्मेदार है नकली दवाये खाद्य सामग्री सभी बाज़ार में बिना रोक टोक उपलब्ध हैं सरकारें और अफसर पैसा बटोरने में मस्त हैं हम अगर जीवित हैं तो ईश्वर की कृपा से |

मनोज कुमार said...

इस घटना ने कई विचारणीय मुद्दे हमारे सामने खड़े किए हैं, जिस पर अपने बड़ी गम्भीरता से चर्चा की है।

Rakesh Kumar said...

बहुत ही ज्वलन्त मुद्दे को आपने उठाया है.दिल पर ठेस लगती है ऐसी दुर्घटनाओं से जिसका कारण हद दर्जे की लापरवाही और वाह वाही लूटना ही रहा.सभी को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है.

ऋता शेखर 'मधु' said...

पुरुष और स्त्री मानसिकता की सही तस्वीर दिखाई जेन्नी जी, चौदह महिलाओं की मौत बहुत गंभीर बात है वो भी डाक्टर की लापरवाही से, इस तरह की घटनाएँ बहुत सारे सवाल खड़ी करती हैं...जागरुकता भरे आलेख के लिए बहुत बधाई !!

Awadhesh Singh - अवधेश सिंह said...

इस घटना सी मीडिया भरा पड़ा है , सबकी दृष्टि एक ही है । मुझे तो लगता है की स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सभी सरकारी संस्थाएं मक्कारी और भृस्टाचार में आकंठ डूबी हुई हैं यह मौत का तांडव में तब बहुत नजदीकी से देख पाया जब मैं भारत सरकार के क्षेत्रीय प्रचार अधिकारी के पद पर गावों की पीएचसी और सीएचसी और सीएमओ दफ्तर जाकर इनके व्योरे पर रिपोर्ट तैयार करता था । नकली दवा , झोला छाप मुन्ना भाई के हाथो से मासूमो की गर्दन कैसे बचे । सब बड़ा मुश्किल और दुखदाई है , जेनी जी ।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

इस पोस्ट पर टिप्पणी करना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। इसलिये हम पतली गली से निकलते हुये सिर्फ़ तकनीकी पक्ष पर इतना कहना चाहेंगे कि वैसेक्टोमी के स्थान पर आजकल नॉन स्कैल्पल वैसेक्टोमी की जाती है जो पूर्वापेक्षा और अधिक सुरक्षित और आसान है । ऑपरेशन के समय ही दोनो पक्षों को फ़िज़ियोलॉजिकल फ़ैक्ट बता दिया जाना चाहिये कि पुरुष नसबन्दी के बाद भी जब तक वास डिफ़रेंस में शुक्राणु रहेंगे तब तक गर्भधारण सम्भव है । इसलिए पर्याप्त समय तक सहवास से बचना ही होगा । यूँ सबसे अच्छा तरीका यह है कि सीमेन टेस्ट में जब शुक्राणु की संख्या शून्य हो जाय तो सहवास सुरक्षित होगा । यदि स्त्री गर्भवती हो जाती है तो पैटरनिटी के लिये पत्नी पर संदेह करने के स्थान पर अपना सीमेन टेस्ट करवा लेना चाहिये ।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

ऐसे अच्छे दिन किस काम के ....

मुकेश कुमार सिन्हा said...

अच्छे दिनों का मतलब शायद यही है !!

Anupama Tripathi said...

प्रभावशाली आलेख है ........कहने पढ़ने से कुछ हल्का फर्क पढ़ सकता है किन्तु मानसिकता बदलना इतना आसान भी नहीं जेन्नीजी !!हाँ अलबत्ता आपका आलेख इस ओर एक सार्थक कदम है !!

डॉ. जेन्नी शबनम said...

SUMIT PRATAP SINGH said...
विचारणीय आलेख...

त्वरित टिप्पणी के लिए शुक्रिया सुमित जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

vibha rani Shrivastava said...
आपके आलेख में कई बात है जिनसे मैं सहमत हूँ

आंशिक ही सही सहमति के लिए बहुत आभार विभा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

shikha varshney said...
सदियों की रूड़ीवादी मानसिकता है जेन्नी जी. बदलने में न जाने कितना वक्त लगेगा अभी. दुखद है पर दिल्ली अभी बहुत दूर है :(

हाँ, दिल्ली तो सच में दूर ही नहीं बहुत दूर है, जाने अभी कितने युग...
टिप्पणी के लिए धन्यवाद शिखा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

विजय कुमार सिंघल said...
बहुत अच्छे विचार !


टिप्पणी के लिए बहुत आभार विजय जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Mahesh Barmate said...
पुरुष प्रधान समाज की सच्चाई को प्रदर्शित करता सार्थक लेख..


आपका बहुत धन्यवाद महेश जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

इष्ट देव सांकृत्यायन said...
यह स्त्रियों ही नहीं, समग्रता में मनुष्यता का संहार है. जनसंहार कहा जाना चाहिए इसे. वैश्वीकरण के नाम पर आए बेलगाम पूंजीवाद ने हमें चिकित्सा और शिक्षा व्यवस्था के नाम पर जो निर्मम दुकानदारी दी है, उसका यह एक नमूना भर है. इसे स्त्री-पुरुष के नज़रिये से नहीं, दमनकर्ता और दमित के नज़रिये से देखना होगा.
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इष्ट देव सांकृत्यायन जी,
आपने सही कहा कि इसे स्त्री पुरुष के नज़रिए से नहीं बल्कि दमनकर्ता और दमित के नज़रिए से देखना चाहिए. सरकारी तंत्र की निर्ममता स्त्री पुरुष दोनों के लिए बराबर है. मेरा सवाल है कि नसबंदी के लिए स्त्री ही क्यों, पुरुष क्यों नहीं? सार्थक टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Kailash Sharma said...
पुरुष प्रधान समाज में सब दर्द स्त्रियों को ही सहना होता है..बहुत सारगर्भित आलेख...
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सार्थक टिप्पणी और सराहना के लिए बहुत शुक्रिया कैलाश शर्मा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

कालीपद "प्रसाद" said...
आपका विश्लेषण बहुत सही है और मैं आपसे सहमत हूँ lरोबोट टेस्ट हटा दें l

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मेरे विचार से सहमत होने व टिप्पणी के लिए धन्यवाद कालीपद प्रसाद जी.
कई बार अनुपयुक्त टिप्पणी आ जाती है और ध्यान नहीं जा पाता. इसलिए टिप्पणी मॉडरेशन में किया हुआ है.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

जयकृष्ण राय तुषार said...
बहुत ही गंभीर मुद्दे पर आपका आलेख साधुवाद |हमारे देश की सरकारों के लिए इंसानों की कीमत बस चंद रूपये होती है कभी अपराधियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं होती है |भ्रष्टाचार और भी अधिक जिम्मेदार है नकली दवाये खाद्य सामग्री सभी बाज़ार में बिना रोक टोक उपलब्ध हैं सरकारें और अफसर पैसा बटोरने में मस्त हैं हम अगर जीवित हैं तो ईश्वर की कृपा से |
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हाँ बस यही कह सकते हैं. क्योंकि सरकार और सरकारी तंत्र इस कदर भ्रष्टाचार में लिप्त है कि हम सभी मूक दर्शक भर रह गए हैं विकल्पहीन. टिप्पणी के लिए बहुत आभार जयकृष्ण जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

मनोज कुमार said...
इस घटना ने कई विचारणीय मुद्दे हमारे सामने खड़े किए हैं, जिस पर अपने बड़ी गम्भीरता से चर्चा की है।

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सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद मनोज जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Rakesh Kumar said...
बहुत ही ज्वलन्त मुद्दे को आपने उठाया है.दिल पर ठेस लगती है ऐसी दुर्घटनाओं से जिसका कारण हद दर्जे की लापरवाही और वाह वाही लूटना ही रहा.सभी को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है.
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हमारी जनता को जागरूक होना ही होगा, तभी कोई उम्मीद दिख सकती है. टिप्पणी के लिए धन्यवाद राकेश जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

ऋता शेखर मधु said...
पुरुष और स्त्री मानसिकता की सही तस्वीर दिखाई जेन्नी जी, चौदह महिलाओं की मौत बहुत गंभीर बात है वो भी डाक्टर की लापरवाही से, इस तरह की घटनाएँ बहुत सारे सवाल खड़ी करती हैं...जागरुकता भरे आलेख के लिए बहुत बधाई !!
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मेरे विचार को आपकी सहमति मिली, बहुत धन्यवाद ऋता जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Awadhesh Kumar said...
इस घटना सी मीडिया भरा पड़ा है , सबकी दृष्टि एक ही है । मुझे तो लगता है की स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सभी सरकारी संस्थाएं मक्कारी और भृस्टाचार में आकंठ डूबी हुई हैं यह मौत का तांडव में तब बहुत नजदीकी से देख पाया जब मैं भारत सरकार के क्षेत्रीय प्रचार अधिकारी के पद पर गावों की पीएचसी और सीएचसी और सीएमओ दफ्तर जाकर इनके व्योरे पर रिपोर्ट तैयार करता था । नकली दवा , झोला छाप मुन्ना भाई के हाथो से मासूमो की गर्दन कैसे बचे । सब बड़ा मुश्किल और दुखदाई है , जेनी जी ।
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आपने खुद नज़दीक से यह सब देखा है; सच में कई बार लगता है कि हम सब कितने लाचार हैं. सरकारी तंत्र में इतनी बेईमानी भर गई है कि आम इंसान की ज़िन्दगी की कीमत कुछ भी नहीं और न उनके दर्द से कोई मतलब है इन्हें. बड़ी तकलीफ होती है यह सब देख कर. प्रतिक्रिया के लिए आभार अवधेश जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

कौशलेन्द्र said...
इस पोस्ट पर टिप्पणी करना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। इसलिये हम पतली गली से निकलते हुये सिर्फ़ तकनीकी पक्ष पर इतना कहना चाहेंगे कि वैसेक्टोमी के स्थान पर आजकल नॉन स्कैल्पल वैसेक्टोमी की जाती है जो पूर्वापेक्षा और अधिक सुरक्षित और आसान है । ऑपरेशन के समय ही दोनो पक्षों को फ़िज़ियोलॉजिकल फ़ैक्ट बता दिया जाना चाहिये कि पुरुष नसबन्दी के बाद भी जब तक वास डिफ़रेंस में शुक्राणु रहेंगे तब तक गर्भधारण सम्भव है । इसलिए पर्याप्त समय तक सहवास से बचना ही होगा । यूँ सबसे अच्छा तरीका यह है कि सीमेन टेस्ट में जब शुक्राणु की संख्या शून्य हो जाय तो सहवास सुरक्षित होगा । यदि स्त्री गर्भवती हो जाती है तो पैटरनिटी के लिये पत्नी पर संदेह करने के स्थान पर अपना सीमेन टेस्ट करवा लेना चाहिये ।
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जब पुरुष अपनी कामुकता पर नियंत्रण नहीं रख पाता और अपने ही नाते रिश्ते को कलंकित कर देता है वैसे में सुरक्षित सहवास का पाठ सिखाना क्या संभव है? एक डॉक्टर के रूप में आपने नसबंदी का पक्ष रखा है पर प्रायोगिक तौर पर यह मुमकिन कहाँ होता है. शिक्षा की हालत हमारे देश में क्या है सर्वविदित है. नसबंदी के लिए ये राजी हुए यही क्या कम है. कितना भी आसान हो स्त्री की नसबंदी का ऑपरेशन पुरुष की तुलना में कठिन है. पति के ऑपरेशन के बाद यदि पत्नी गर्भवती होती है तो पैटरनिटी के लिए सीमेन टेस्ट भी परोक्ष रूप में पत्नी के चरित्र पर संदेह का ही रूप हुआ न.
टिप्पणी के साथ ही जानकारी देने के लिए बहुत आभार कौशलेन्द्र जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Mukesh Kumar Sinha said...
ऐसे अच्छे दिन किस काम के ....

अच्छे दिनों का मतलब शायद यही है !!

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सच अब लगता है कि अच्छे दिन यही है, हर कुकर्म अब और भी पूरे जोर पर है. निराशा, दुःख और आक्रोश एक साथ होता है. यहाँ आने के लिए धन्यवाद मुकेश.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Anupama Tripathi said...
प्रभावशाली आलेख है ........कहने पढ़ने से कुछ हल्का फर्क पढ़ सकता है किन्तु मानसिकता बदलना इतना आसान भी नहीं जेन्नीजी !!हाँ अलबत्ता आपका आलेख इस ओर एक सार्थक कदम है !!
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मानसिकता ही तो नहीं बदलती है. क्योंकि इस मामले शिक्षा अशिक्षा की बात ही नहीं न अमीरी गरीबी की बात है. अलिखित नियम बन चूका है कि जितनी पीड़ा हो बस स्त्री झेले. और दूसरी तरफ सरकार की अमानवीयता.
सार्थक टिप्पणी के लिए बहुत शुक्रिया अनुपमा जी.

Asha Joglekar said...

आपने ठीक कहा शोषित वर्ग की स्त्री जो सबसे ज्यादा शोषित है इस तरह के अत्याचारों की वही बली चढती है। स्त्री होना ही अभिशाप है और गरीब स्त्री होना तो.......। कब संवेदनशील होंगे हम, कब जागेंगे।

ashok andrey said...

आपका यह सारगर्भित आलेख मन को झिंझोड़ता है.इस लेख में उठाये गये सभी प्रश्न हमारे समाज की कुंठित सोच को ही उजागर करता है.जहां पुरुष अपनी साड़ी कुंठाए स्त्री पर थोप कर चैन की नीद सोता है और समाज के तथाकथित ठेकेदार भी इसी सोच को हमेशा पल्लवित करते दीखाई देते हैं.हमारी युवा पीढ़ी को आगे आकर इस सोच को बदलना होगा.
आपके इस सार्थक लेख के लिए मैं आपको साधुवाद कहना चाहता हूँ.

Satish Saxena said...

गंभीर आलेख , आभार आपका !!

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Asha Joglekar said...
आपने ठीक कहा शोषित वर्ग की स्त्री जो सबसे ज्यादा शोषित है इस तरह के अत्याचारों की वही बली चढती है। स्त्री होना ही अभिशाप है और गरीब स्त्री होना तो.......। कब संवेदनशील होंगे हम, कब जागेंगे।
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यही सब से तो मन और ज्यादा व्यथित हो जाता है, हर तरफ से स्त्री ही शोषित होती है. यहाँ तो गरीबी और स्त्री दोनों एक साथ है. मेरे विचार से सहमति के लिए आपका आभार आशा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

ashok andrey said...
आपका यह सारगर्भित आलेख मन को झिंझोड़ता है.इस लेख में उठाये गये सभी प्रश्न हमारे समाज की कुंठित सोच को ही उजागर करता है.जहां पुरुष अपनी साड़ी कुंठाए स्त्री पर थोप कर चैन की नीद सोता है और समाज के तथाकथित ठेकेदार भी इसी सोच को हमेशा पल्लवित करते दीखाई देते हैं.हमारी युवा पीढ़ी को आगे आकर इस सोच को बदलना होगा.
आपके इस सार्थक लेख के लिए मैं आपको साधुवाद कहना चाहता हूँ.
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सरकारी असंवेदनशीलता और इसके कारण मृत्यु बड़ी दुखद धटना है. एक तरफ स्त्री पर परमपराओं की सारी जिम्मेवारी है जिसे चाहे तो पुरुष खुद पर ले सकते हैं लेकिन राहत देने की बजाय वे पीछे हट जाते हैं, दूसरी तरफ सरकार का क्रूर व्यवहार... जाने कब सोच बदलेगी. टिप्पणी के लिए बहुत आभार अशोक जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Satish Saxena said...
गंभीर आलेख , आभार आपका !!
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मेरे लेख पर टिप्पणी देने के लिए धन्यवाद सतीश जी.

ashok andrey said...

आपका यह सारगर्भित आलेख मन को झिंझोड़ता है.इस लेख में उठाये गये सभी प्रश्न हमारे समाज की कुंठित सोच को ही उजागर करता है.जहां पुरुष अपनी सारी कुंठाए स्त्री पर थोप कर चैन की नीद सोता है और समाज के तथाकथित ठेकेदार भी इसी सोच को हमेशा पल्लवित करते दीखाई देते हैं.हमारी युवा पीढ़ी को आगे आकर इस सोच को बदलना होगा.
आपके इस सार्थक लेख के लिए मैं आपको साधुवाद कहना चाहता हूँ.

Maheshwari kaneri said...

vicharniy aalekh. Aabhar

कहकशां खान said...

बिलकुल सही कहा आपने कि यह सामूहिक नारीसंहार है।

डॉ. जेन्नी शबनम said...

ashok andrey said...
आपका यह सारगर्भित आलेख मन को झिंझोड़ता है.इस लेख में उठाये गये सभी प्रश्न हमारे समाज की कुंठित सोच को ही उजागर करता है.जहां पुरुष अपनी सारी कुंठाए स्त्री पर थोप कर चैन की नीद सोता है और समाज के तथाकथित ठेकेदार भी इसी सोच को हमेशा पल्लवित करते दीखाई देते हैं.हमारी युवा पीढ़ी को आगे आकर इस सोच को बदलना होगा.
आपके इस सार्थक लेख के लिए मैं आपको साधुवाद कहना चाहता हूँ.

27 December 2014 at 12:23 pm
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अशोक आंद्रे जी,
मेरे लेख पर दोबारा आपकी प्रतिक्रया पाकर हर्षित हूँ. आपके स्नेह और सराहना के लिए आभार!

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Maheshwari kaneri said...
vicharniy aalekh. Aabhar

23 February 2015 at 4:35

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आपकी प्रतिक्रया पाकर ख़ुशी हुई, मन से आभार!

डॉ. जेन्नी शबनम said...

कहकशां खान said...
बिलकुल सही कहा आपने कि यह सामूहिक नारीसंहार है।

24 February 2015 at 12:17 am

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प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद!