महात्मा गांधी के बारे में जब भी सोचती हूँ, तो एक अजीब-सा आकर्षण होता है। उन्हें जितना पढ़ती हूँ और भी ज़्यादा जानने-समझने की उत्कंठा होती है। न जाने क्यों गांधी जी का व्यक्तित्व सदैव चुम्बकीय लगता है मुझे। इतना सहज और सरल जीवन यापन करने वाला वृद्ध, महान चिन्तक ही नहीं बल्कि हमारे देश के सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा का मार्गदर्शक भी है।
कुछ माह जब मैं शान्तिनिकेतन में रही, तब टैगोर के सभी पाँच घरों में घूमने गई; जिनमें से एक घर 'श्यामली' है, जो पूर्णतः मिट्टी का बना है। जब गांधी जी शान्तिनिकेतन आए, तब इसी घर में ठहरे थे। उस समय की स्मृतियाँ गांधी जी और रबीन्द्रनाथ टैगोर की तस्वीर के रूप में वहाँ अब भी सुरक्षित है। श्यामली में जब पहली बार मैं गई तो लगा जैसे गांधी जी यहीं कहीं आस-पास होंगे और अचानक आकर कहेंगे ''बहुत थक गई होगी, हाथ-पाँव धो लो, थोड़ा फल खाकर थोड़ी देर आराम कर लो, फिर उठकर चरखा कातेंगे।''
मुझे मालूम है गांधी जी को पूर्णतः समझ पाना मेरे लिए असंभव है। निःसंदेह अपने पिता के कार्य और विचार को जानने और समझने के कारण गांधी जी को इतना भी समझ पाई हूँ। जब भी गांधी जी के बारे में सोचती हूँ तो मुझे मेरे पिता याद आते हैं। यों मेरे पिता की स्मृतियाँ अब क्षीण होने लगी हैं, परन्तु जो भी यादें शेष हैं उनमें मेरे पिता के विचार, सिद्धांत और जीवन शैली है, जो वक़्त-वक़्त पर मुझे राह दिखाते रहे हैं। सच है कि गांधीवाद की मान्य परिभाषा के अनुसार मैं गांधीवादी नहीं हूँ, लेकिन मेरी नज़र में जो गांधीवाद है उसके मुताबिक़ जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण गांधीवादी है। निःसन्देह मेरे पिता का प्रभाव मुझपर पड़ा है, इस कारण मेरे सोचने का तरीक़ा ऐसा हुआ।
मेरे पिता जैसे जीते थे वही उनका विचार था और जो उनका विचार था वही उनका जीवन जीने का तरीक़ा। आचार्य कृपलानी, आचार्य विनोबा भावे, प्रो. गोरा आदि के नज़दीक रहे मेरे पिता पूरी तरह गांधीवादी विचार के समर्थक थे। गांधीवादी सोच उनके द्वारा सोच-विचारकर अपनाई गई जीवन शैली नहीं थी; बल्कि पिता के जीवन जीने का तरीक़ा था, जो उनके अपने विचार से प्रेरित था।
मेरे पिता जैसे जीते थे वही उनका विचार था और जो उनका विचार था वही उनका जीवन जीने का तरीक़ा। आचार्य कृपलानी, आचार्य विनोबा भावे, प्रो. गोरा आदि के नज़दीक रहे मेरे पिता पूरी तरह गांधीवादी विचार के समर्थक थे। गांधीवादी सोच उनके द्वारा सोच-विचारकर अपनाई गई जीवन शैली नहीं थी; बल्कि पिता के जीवन जीने का तरीक़ा था, जो उनके अपने विचार से प्रेरित था।
मेरे पिता गांधी जी के विचार से कब क्यों और कैसे प्रभावित हुए, यह तो मालूम नहीं। मेरी दादी से अपने पिता के बचपन की कहानी जब सुनती थी, तो आश्चर्य होता था। मेरे पिता बचपन से ही ऐसा जीवन जीते थे, जिसे गांधीवादी कहा जा सकता है। चाहे वह खानपान, पहनावा, समाज कल्याण की बात हो या अधिकार और कर्तव्य की बात। मेरे पिता का अपना विचार था और जीवन जीने का अपना तरीक़ा, जो बहुत कुछ गांधी जी के विचारों-सा था। मेरे पिता कई बार लोगों द्वारा असमाजिक घोषित किए गए; क्योंकि कुछ ऐसी परम्पराएँ जो उनके मुताबिक़ अनुचित थीं, किसी भी क़ीमत पर वे उसमें हिस्सा नहीं लेते थे। सड़ी-गली परम्पराओं के विरुद्ध वे सदैव रहते।प्राकृतिक चिकित्सा को वे अपने जीवन में उतार चुके थे। मेरे पिता कई बार लोगों की नज़र में उपहास का कारण भी बनते थे; क्योंकि उस समय मेरे पिता की सोच आम परम्परावादी लोगों की सोच से बिल्कुल अलग थी। ख़ुद खादी पहनते रहे और घर में भी सभी का खादी पहनना अनिवार्य था। सादा जीवन उच्च विचार के वे अनुयायी थे और दिखावा से हमेशा दूर रहते थे।
मेरे पिता के अपने लिए बहुत सारे नियम थे। वे चाहते थे कि हम सभी उन नियमों को माने लेकिन जबरन नहीं; बल्कि हमारी सोच विकसित हो। मेरे अपने बचपन में कई बार मुझे अजीब लगता था और कई बार ग़ुस्सा भी आता था। जंक-फूड खाने की मनाही थी। ज़रूरत से ज़्यादा कपड़े हमारे पास नहीं होते थे। गाँव के स्कूल से मेरे भाई की शिक्षा हुई। मैं भी कुछ वर्ष गाँव में रहकर पढ़ाई की। गाँव में जैसे मेरे पिता की आत्मा बसती थी। गाँव के लोगों पर मेरे पिता के विचार का इतना प्रभाव पड़ा कि कई लोगों ने परिवार नियोजन को अपनाया था। उन्होंने गाँव में स्कूल खुलवाया तो गाँव के लोग शिक्षा की ओर अग्रसर हुए। उन्होंने जाति और वर्ग-भेद को मिटाया। अंधविश्वास को प्रमाण के साथ साबित कर उसके उन्मूलन की बात वे करते थे। मेरे पिता के विचारों में समाजवाद, साम्यवाद, गांधीवाद और नास्तिकता का संयोग था। वे शुद्ध शाकाहारी थे और इसके प्रसार में सदैव लगे रहते थे।उनके अथक प्रयास से मेरे गाँव में बिजली आई। उन्होंने गाँव में लाइब्रेरी की स्थापना की। आधुनिक वैज्ञानिक तरीक़े से खेती करने के लिए ग्रामीणों के बीच कई कार्यक्रम का आयोजन किया।
गांधी जी के लिए जितना महत्वपूर्ण था देश के प्रमुख मुद्दों पर चर्चा करना उतना ही महत्वपूर्ण था किसी पशु की देखभाल करना, किसी बच्चे के साथ खेलना या किसी आम ग़रीब की कोई समस्या सुनना। जीवन का हर काम गांधी जी के लिए समान रूप से महत्व रखता था। गांधी जी कहते थे ''ईश्वर सत्य है'', परन्तु प्रोफ़ेसर गोरा (गोपाराजू रामचंद्र राव) से इस पर चर्चा और बहस के बाद गांधी जी ने कहा ''सत्य ही ईश्वर है''। मेरे अपने विचार से गांधी जी का अपनी समझ को बदलना एक क्रान्ति जैसी बात है, जिसे आज हर इंसान को समझना चाहिए।
महात्मा गांधी युग पुरुष थे। सत्य व अहिंसा के मार्ग पर चलकर सम्पूर्ण मानव एवं समाज के उत्थान की अवधारणा और सर्वोदय की कामना गांधी जी का लक्ष्य था। गांधी जी न सिर्फ़ महान चिन्तक थे, बल्कि मानवतावादी भी थे। जीव-जंतुओं के प्रति प्रेम और जाति-धर्म से परे इंसानियत धर्म के अनुयायी गांधी जी सदैव ख़ुद पर परीक्षण और प्रयोग करते रहे और अन्तिम सत्य की तलाश
करते रहे। मेरे विचार से जिसे गांधीवाद कहा गया वह कोई कठिन नियम या परिभाषित सोच नहीं, बल्कि जिन
विचारों को मानकर गांधी जी सहज जीवन जीते थे वही गांधीवाद है। यों गांधी जी यह कभी नहीं चाहते थे कि गांधीवाद कहकर कोई ख़ास नियम बनाया जाए, जो लोगों पर प्रभावी हो। गांधी जी शुरू से आत्म-चिन्तन और आत्म-नियंत्रण की बात करते रहे। सत्य और अहिंसा उनके दो ऐसे शस्त्र थे जिनके द्वारा कोई भी जंग जीतना कठिन भले हो नामुमकिन नहीं होता। भारत की आज़ादी का जंग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। गांधी जी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के बाद थे। गांधी जी मनुष्य की क्रियाशीलता पर ज़्यादा ज़ोर देते थे और मनुष्य का समग्र उत्थान चाहते थे।
गांधी जी के कुछ कथन जो मुझे प्रभावित करते हैं:
* ''अधभूखे राष्ट्र के पास न कोई धर्म, न कोई कला और न कोई संगठन हो सकता है।'' (महात्मा, भाग- 2, पृष्ठ- 251)
* ''अधिकारों की प्राप्ति का मूल स्रोत कर्त्तव्य है।'' (महात्मा, भाग- 2, पृष्ठ- 367)
* ''गांधीवाद जैसी कोई विचारधारा नहीं है।'' ''गांधीवाद नाम की कोई वस्तु है ही नहीं और न मैं अपने पीछे कोई सम्प्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ। मेरा यह दावा भी नहीं है कि मैंने कोई नए तत्व या सिद्धांत का आविष्कार किया है।मैंने तो केवल जो शाश्वत सत्य है, उसको अपने नित्य के जीवन और प्रश्नों पर अपने ढंग से उतारने का प्रयास किया है।'' (कहानियों में सत्य की साधना: डॉ. विनय)
मुझे ऐसा लगता है कि कहीं-न-कहीं हमसे बहुत बड़ी चूक हुई है। अन्यथा आज़ादी के बाद समाज का इतना रुग्ण रूप देखने को न मिलता। गांधी और गांधी के सिद्धांतों को एक सिरे से ख़ारिज कर देने का परिणाम है कि आज मनुष्य इंसानियत की हर कसौटी से बाहर निकल चुका है। हिंसा और असहिष्णुता का ख़म्याज़ा आज पूरा देश भुगत रहा है। समाज में न स्त्री का कोई सम्मान है, न आम आदमी का। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं।संवेदनाएँ धीरे-धीरे मर रही हैं। हर आदमी डरा हुआ है और दूसरों को डरा रहा है। अधर्म अपने परकाष्ठा पर पहुँच चुका है। पेट में भोजन नहीं, रहने को मकान नहीं, लेकिन धर्म-जाति के नाम पर आज का युवा मरने-मारने पर आमादा है। भूख, ग़रीबी, शिक्षा, सभी का बज़ारीकरण और राजनीतिकरण हो चुका है।
गांधी जी के विचार, सिद्धांत और सोच को एक बार पुनः स्थापित करने की ज़रूरत है ताकि एक सुखद, ख़ुशहाल और संतुलित समाज बन सके। गांधी जी ने कहीं पर कहा था ''अगर बिना हिंसा के साम्यवाद आता है तो उसका स्वागत है।'' मेर विचार और विश्वास है कि अहिंसक साम्यवादी समाज से ही एक निपुण, पूर्ण और सफल देश बन सकता है। जिससे ऊँच-नीच और स्त्री-पुरुष का भेदभाव न होगा, पशु-पक्षी को भी जीने का हक़ मिलेगा। इसके लिए गांधी जी को एक बार फिर से जीवन में उतारना होगा। गांधी जी की प्रासंगिकता को नाकारा नहीं जा सकता है और यही एक मात्र अन्तिम उपाय बचा है जिससे हम अन्तिम लक्ष्य पर पहुँचकर अमन-चैन से जीवन यापन कर सकते हैं।
- जेन्नी शबनम (2.10.2014)
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11 comments:
मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ की हमसे कहीं न कहीं बहुत बड़ी चूक हुई है . आपके पिताजी की किताब पढ़ रहा हूँ . और वाकई ये बात साबित होती है .
आपका आभार इस लेख के लिए !
विजय
राजनीतिक उपलब्धियों के लिये गांधी एक दुधारू गाय बन चुके हैं ...एक ऐसी गाय जिसे दुहने के बाद गली-मोहल्ले में छोड़ दिया जाता है भटकने के लिए।
आपका लेख अच्छा है. गाँधी में बहुत सी अच्छी बातें थीं, जिनसे हम लाभ उठा सकते हैं, जैसे सफाई, आर्थिक विचार आदि.
विजय कुमार सिंघल
आदरणीया जेन्नी जी
‘‘....मैंने तो केवल जो शाश्वत सत्य है, उसको अपने नित्य के जीवन और प्रश्नों पर अपने ढंग से उतारने का प्रयास किया है।’’ गांधीजी की यह स्वीकारोक्ति ही शायद सबसे बड़ा सच है। मोटे तौर पर हम चाहे जिस दृष्टिकोंण से विचार करें, गांधी जी के चिंतन का आधार मनुष्यता पर टिका है। अनुशासन के दायरे में जीवन की आजादी मनुष्य मात्र को मिले, मुझे लगता है यही गांधी जी की चाहत थी। जीवन को जिस अनुशासन के दायरे में वह देखना चाहते थे, अहिंसा, सहिष्णुता और समानता उसके बड़े स्तम्भ थे। खेद इस बात का है कि आज गांधीवाद के नाम पर उस प्रतीकात्मकता का शोर तो मचाया जाता है, जो गांधी जी के अपेक्षित उद्देश्यों को हासिल करने के उस समय के साधन मात्र थे, लेकिन उनके विचारों के मूलाधार को सामयिक साधनों के निर्माण में उपयोग नहीं किया जाता। समय के साथ बहुत सारी चीजें बदल जाती हैं, विशेषतः साधन। लेकिन यदि समस्याएं वैसी ही हैं यानी मनुष्य को जीवन की आजादी प्राप्त नहीं है, तो गांधी जी का चिंतन प्रासंगिक रहेगा ही, उसके मूलाधर को सामयिक साधनों के विकास में उपयोग किया जाना चाहिए। इस पर चर्चा होनी चाहिए, लेकिन या तो होती नहीं या प्रतीकात्मकता तक सीमित रह जाती है। आज जिस तरह मनुष्य अपने घर, गांव, शहर, राज्य या देश में भयाक्रान्त है, पीड़ित है और व्यवस्था मूक दर्शक बनी हुई है, वल्कि कहूं कि शोषकों, पीड़कों और भय पैदा करने वालों की बन्धक बनी हुई है, गांधीवाद के कवच में क्या गांधी जी का दर्शन कहीं उपस्थित दिखाई देता है! आपके विचार और गांधी जी के विचारों के प्रति आसक्ति स्वागतेय है।
आप का विचार प्रवाह जिसका केंद्र "गाँधी" है और जिसका ताना बाना गाँधी दर्शन और चिंतन है एक
स्वागत योग्य और सराहनीय प्रस्तुति है | गाँधी एक दृष्टि है एक पथ है एक विचार है एक प्रकाश पुंज है |गाँधी की प्रासंगिकता सर्वकालिक और सर्वस्थानिक है बहुत ही सुन्दर लेख है जितनी भी
तारीफ़ की जाए कम है ,सादर
बहन जेन्नी शबनम जी आपका अय्ह लेख बहुत सधा हूआ है । काव्य के साथ गद्यलेहन में भी आपका कोई जवाब नहीं।सच्चे गाँधीवाद को आपके इस लेख से समझा जा सकता है । आपके पूज्य पिताजी की विचारधारा को प्रणाम । गांधीवाद को छोड़ने का अभिशाप हम सब झेल रहे हैं। साझा संसार में आपके परिपक्व विचार बहुत प्रभावित करते हैं। इस ब्लाग को अपने नियमित लेहन से सदा सजाते रहिए ।
प्रिय डा जेन्नी जी
आपके द्वारा लिखित यह लेख जो पूर्णत: गांधी जी पर केन्द्रित है से गुजरना अपने को उस विचार धारा को अपनाने जैसा है.मैंने गाँधी जी को कई बार पढ़ा है और जानने की प्रबल इच्छा ने हमेशा प्रेरित किया है.
जब मैंने श्री गिरिराज किशोर जी द्वारा लिखित उपन्यास "पहला गिरमिटिया" को पढ़ा तो गांधी जी को समझने व् आत्मसात करने में भरपूर मदद मिली.वे हमारे समय के युग पुरुष थे इसमें कोई संदेह नहीं है और लाखों सालों में ही ऐसे महापुरुष ईश्वरीय कृपा से धरती पर अवतरित होते हैं.
आपके इस लेख के माध्यम से आपके पिता जी को करीब से पहचानने का मौका मिला. इस आलेख को पढवाने के लिए मैं आपका आभार व्यक्त करता हूँ.लगा कि आपने बहुत गहरे जाकर गांधी जी को समझा व जाना है.लेकिन दुःख इस बात का है कि आज के युग में हम भूलते जा रहे हैं यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो और कया है.
खैर मैं एक बार फिर आपको धन्यवाद देता हूँ इस बेहतरीन लेख के लिए.
अशोक आंद्रे
गांधी की प्रासंगिकता आजकल उनको है जिनके पास गांधी की दुकानदारी है जिसको खराब लगे उनसे क्षमा का अनुरोध करते हुए मैं अपने अध्यन के आधार पर मानता हूँ की गांधी के टकराव बिन्दु जिस यथार्थ के साथ थे वह सारे यथार्थ अब अतीत हैं ।
अब न छुआ छूत है , न स्वदेशी की बाध्यता , न नमक पर रोकथाम , न भारतीयों पर विदेशी बंदिशे और न अंग्रेजों की हुक्मरानी ।
ग्लोबल व्यापार फोरम में हम अब विश्व साझीदार हैं , पैरों से सर तक हम ब्रांडेड हैं , माउस से वारे नारे कर डालर से झोली भर रहें हैं तब गांधी और उनकी प्रासंगिकता "मुगले आजम " फिल्म की तरह, अतीत की एक बेजोड़ कृति से ज्यादा अपना अर्थ नहीं रखती है शायद यही कारण है की वर्तमान में सामाजिक - आर्थिक और वैचारिक माडल में कैलाश सत्यार्थी और मलाला को नोबुल के लिए उपयुक्त माना गया है । - अवधेश सिंह
आदरणीय
विजय कुमार जी, कौशलेंद्र जी, विजय सिंघल जी, उमेश महादोषी जी, अज़ीज़ जौनपुरी, रामेश्वर काम्बोज जी, अशोक आंद्रे जी, अवधेश जी,
आप सभी ने मेरे विचार से सहमति जताई और यहाँ उपस्थित होकर अपने वैचारिक टिप्पणियों के द्वारा मेरा मान बढाया, इसके लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद. उम्मीद है कि यूँ ही आप सभी का स्नेह मिलता रहेगा ताकि मैं अपने विचार आप सभी के समक्ष रख सकूँ. बहुत आभार!
बेहतर नज़रियाँ।
बेहतर सोच,बेहतर नज़रियॉ,बेहतर अभिव्यक्ति।
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