Wednesday, February 15, 2012

34. स्मृतियों में शान्तिनिकेतन (भाग- 2)


प्रकृति का प्राकृत सुन्दर रूप, हर तरफ़ हरियाली, जीवन्तता, भारतीय कला-संस्कृति की अनुगूँज, सहज और सरल जीवन-शैली, विचार में मौलिकता, आपसी प्रेम-सौहार्द आदि कितनी ही विशेषताओं का सम्मिलित स्वरुप 'शान्तिनिकेतन' है शिक्षित और विचारशील लोग, जिनके जीवन में वैसे ही उतार चढ़ाव हैं, जैसे हर मनुष्य के जीवन में होते हैं; लेकिन उन सबको लेकर जीवन को पूरी शिद्दत से जीना ताकि चैन के पल जीवनभर स्थिर रहे। शायद यहाँ की मिट्टी या गुरुदेव के सोच की देन है। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर की कर्मभूमि 'शान्तिनिकेतन' शब्द ही हृदय में शान्ति और सरल जीवन का अनुभव करा देता है। कला के हर क्षेत्र का मर्मज्ञ हो या फिर जिज्ञासु, जीवन में एक बार गुरुदेव की भूमि पर जाकर उस स्थान को अनुभव करना चाहता; है जिसे कला, शान्ति और संस्कृति का पर्याय कह सकते हैं।

शान्तिनिकेतन से मेरा नाता सुकून पाने जैसा ही रहा, क्योंकि वहाँ मेरा जाना कतिपय किसी उद्देश्य के लिए नही था और न ही मैंने जाने के लिए कोई प्रयास किया था। जीवन में चलते हुए कई बार अचानक ऐसे मोड़ आ जाते हैं कि सब कुछ उलट-पलट हो जाता है। कई बार ऐसा भी कि अपार कठिनाइयों को पार कर एक नयी दुनिया और नए लोक में पहुँच जाते हैं; जहाँ के लिए मन ने सोचा भी न होता है, शायद ऐसा ही कुछ हुआ मेरे साथ। यूँ तो कुछ कठिनाइयाँ बचपन में आ गई थीं; जब पिता का देहान्त हुआ। फिर भी जीवन में ज़ियादा फ़र्क़ नहीं पड़ा; क्योंकि भविष्य की समझ नहीं थी उस समय। उसके बाद का सबसे कठिन और दुखद समय था, जब सन् 1989 में भागलपुर दंगा हुआ और हमारे घर में पनाह लिए लोगों में से 22 का क़त्ल कर दिया गया। उसके बाद से उस घर में रहना बहुत कठिन भरा समय था। कई महीनों तक किसी किसी रिश्तेदार के घर में हम लोगों ने समय काटा, क्योंकि उस घर में जाने से भी हृदय काँपता था।
गौर किशोर घोष
मेरे जीवन में शान्तिनिकेतन के साथ भागलपुर दंगा का अजीब सम्बन्ध जुड़ गया है। सन् 1990 का शायद फरवरी-मार्च का महीना था। दिल्ली की एक पत्रकार 'नलिनी सिंह' ने भागलपुर के दंगे पर वृत्तचित्र बनाया; जिसमें अन्य रिपोर्ट के साथ ही मेरे घर पर हुए दंगे की रिपोर्ट भी थी और उसका राष्ट्रीय प्रसारण किया। कोलकाता के एक दैनिक अख़बार 'आनन्द बाज़ार पत्रिका' से सम्बद्ध गौर किशोर घोष ने इस ख़बर को सुना। कुछ लोगों की एक टीम बनाकर वे भागलपुर आए ताकि पीड़ित लोगों के बीच सौहार्द और सद्भावना स्थापित करने में सहयोग कर सकें तथा उन ख़बरों तक पहुँच सकें; जहाँ अब तक मीडिया की नज़र नहीं गई थी। उसी दौरान वे मेरे घर भी आए। दंगे पर एक पूरी रिपोर्ट तस्वीर के साथ उन्होंने 17 जून 1990 के आनन्द बाज़ार पत्रिका में छापी। उस रिपोर्ट के बाद कई अख़बारों में ख़बर छपी, जिनमें 15 जुलाई 1990 को नव भारत टाइम्स, 29 जुलाई 1990 के सेंटिनल प्रमुख है। इस दौरान गौर दा के साथ मैं और मेरी माँ ने भागलपुर में सद्भावना-कैम्प में हिस्सा लिया। गौर दा ने मेरी मानसिक स्थिति को समझते हुए कहा कि एम. ए. की परीक्षा के बाद मैं उनके साथ चलूँ।
बाएँ सबसे किनारे मेरी माँ प्रतिभा सिन्हा  
शान्तिनिकेतन की धरती पर मैं पहली बार गौर दा और अपनी माँ के साथ पहुँची। दिन और महीना तो अब याद नहीं पर गर्मी का मौसम था। गौर दा हमें रिक्शे से लेकर शान्तिनिकेतन के रतनपल्ली में 'रंजना' नामक मकान में आए, जहाँ हमारे ठहरने का प्रबन्ध किया गया था; वह मकान बानी सिन्हा का घर था। बानी दी उनकी मित्र थीं और भागलपुर दौरे पर भी कई बार आई थीं। हमलोग बानी दी और गौर दा के सभी मित्रों के घर गए, जो शान्तिनिकेतन में रहते थे। सभी लोगों ने बहुत उत्साह से हमारा स्वागत किया। गौर दा के साथ बानी दी, श्यामली दी (खस्त्गीर) और मनीषा बनर्जी अक्सर भागलपुर आते रहते थे, तो उनसे पूर्व परिचय था। विश्वभारती विश्वविद्यालय की प्रो वाइस चांसलर और विनय भवन की प्राचार्या सुश्री आरती सेन, जो गौर दा की मित्र थीं, के घर अक्सर हमलोग जाते थे। आरती दी बहुत ही सरल और संवेदनशील महिला थीं। अब जब 20 साल बाद मैं दोबारा शान्तिनिकेतन गई, तो पता चला कि वे अवकाश प्राप्त कर चुकी हैं; उनके बारे में और कोई जानकारी नहीं मिली।
बाएँ से- आरती दी की बहन, गौर दा, प्रतिभा सिन्हा   
मेरी सभी परीक्षाओं के ख़त्म होने के बाद दोबारा मैं शान्तिनिकेतन आ गई। गौर दा मुझे लेने के लिए स्टेशन आए। उस दौरान कई लोगों से मुलाक़ात हुई, कुछ बैठकों में भी मैंने हिस्सा लिया। यहाँ आकर नहीं लगता था कि मैं किसी अनजान अहिन्दी-भाषी क्षेत्र में हूँ। सभी लोग मुझसे हिन्दी में ही बात करते थे, भले ही उन्हें बोलने में असुविधा हो। गौर दा ने कहा था कि मैं आकर यही रहूँ, तो मैं अपने कुछ सामान के साथ आ गई थी। रतनपल्ली के उस मकान 'रंजना' में बानी दी कई सालों से किराए पर रह रही थीं। दो कमरे का मकान जिसमें एक ही कमरे में दो अलग-अलग चौकी लगी थी, जिस पर मैं और बानी दी सोते थे। बानी दी बहुत अच्छा सूप बनाती थीं। अक्सर रात का हमारा खाना ब्रेड और सूप होता था। यूँ काम करने वाली एक स्त्री 'काली दासी' थी जो खाना भी बनाती थी। बानी दी को कुत्ते पालने का बहुत शौक़ था, जो आज भी है। मकान के मुख्य दरवाज़े पर एक कमरा था; जहाँ एक देशी कुतिया अपने 6 -7 बच्चों के साथ रहती थी। बानी दी का अपना नियम था- सुबह वक़्त पर तैयार होकर विश्वभारती विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में जाना। जिस दिन देर हो जाती तो वे कहतीं- ''उफ़ आज फिर से हमको देर हो गिया''। मैं सोचती थी कि जब वे कोई नौकरी नही करतीं, फिर देर हो जाने से परेशान क्यों होती हैं। वे सिर्फ़ पढ़ने के लिए लाइब्रेरी जाती हैं। अपना सारा समय लाइब्रेरी में व्यतीत करती हैं। एस्ट्रो फिजिक्स उनका प्रिय विषय है। हर दिन शाम को बानी दी की मित्र मंडली एकत्र होती थी। उसमें अलग-अलग विषय और वर्ग के कॉलेज के छात्र होते थे। सभी मिलकर चाय या कॉफ़ी बनाते और ख़ुद ही बर्तन धोकर रख देते थे। कभी-कभी वे टेलिस्कोप से किसी ग्रह या तारे के बारे में बतातीं। पशु-पक्षियों के बारे में पढ़ना उन्हें बहुत पसन्द था।
बाएँ से- मैं, लुत्फा दी, बानी दी, नाम नहीं पता, दीपान्निता, मनीषा  
बानी दी को कोलकाता जाना था, तो कुछ दिन के लिए मैं मनीषा की अतिथि बनकर उसके साथ मृणालिनी छात्रावास में रही। मनीषा विश्वभारती विश्वविद्यालय में अँगरेज़ी विषय से एम. ए. कर रही थी। एक कमरे में चार छात्राएँ थीं और सभी ने अपनी चौकी को एक साथ जोड़ लिया था, इस लिए मेरे होने से उन्हें दिक्कत नहीं हुई। कमरे से ही लगा हुआ शौचालय था। मेस का खाना पारम्परिक बंगाली तरीके का बेहद साधारण था, जिसके स्वाद में मीठापन होता है। मेस में बनी चुकन्दर और गाजर की तरकारी मुझे बहुत पसन्द थी; जबकि वहाँ की छात्राओं को पसन्द नहीं थी। कुछ लड़कियाँ जिन्हें एक पूरा कमरा रहने के लिए मिला था, अपने लिए खाना भी बनाया करती थीं। उस छात्रावास में मैं बहुत कम समय रही; लेकिन बहुत अच्छा लगा वहाँ रहना। छात्रावास जैसा बन्धन नहीं लगा वहाँ। शायद शान्तिनिकेतन की हवाओं में भी अपनापन है। मनीषा और उसकी कुछ मित्रों के साथ बोलपुर के एक सिनेमा हॉल में हम लोग एक बांग्ला सिनेमा देखने गए थे; क्योंकि अब तक मैं बांग्ला समझने लगी थी और थोड़ा-थोड़ा बोलने भी लगी थी। 'आशिकी' सिनेमा के गीत का बंगाली रूपांतरण का कैसेट खरीद लाई और ख़ूब सुना करती थी।
श्यामली दी और मैं 
एक दिन गौर दा विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलपति के घर मुझे ले गए। कुलपति श्री असिन दासगुप्ता ने मुझसे कहा कि तुम मुझसे हिन्दी में बात करो, तुम हमको हिन्दी सिखाओ हम तुमको बांग्ला सिखाएँगे। भागलपुर के दंगे की घटना की बात हुई। गौर दा और कुलपति ने विचार किया कि विश्वविद्यालय में किसी कोर्स में मेरा नामांकन करा दिया जाए। कुलपति ने कोई प्रावधान बनाया जिसके तहत मेरा नामांकन हो सके। जब पेपर में यह ख़बर छपी कि भागलपुर से आई एक लड़की के नामांकन के लिए कुलपति ने ख़ास नियम की घोषणा की है, तो बिहार के कुछ छात्र बानी दी के घर आए और इस ख़बर के बारे में बताया। वो पूछने लगे कि कौन है वो लड़की; क्योंकि बानी दी भागलपुर जाया करती थीं। जब बानी दी ने बताया कि वह मैं हूँ, तो सभी अचम्भित हुए कि इतने दिनों से मैं रह रही हूँ और किसी को यह जानकारी नहीं थी। कुलपति बहुत सरल इंसान थे और शायद गुरुदेव के सोच के वारिस। मुझे याद है एक दिन मैं लाइब्रेरी गई थी। अचानक देखा कि एक सज्जन आए और पुस्तकों की रैक पर पड़ी धूल झाड़ने लगे। वहाँ का चपरासी यह देख हड़बड़ा गया, दौड़कर आया और माफ़ी माँगने लगा। उस रैक को झाड़ने के बाद वे चुपचाप दूसरी तरफ़ चले गए, और वह चपरासी जल्दी-जल्दी बाक़ी के रैक को साफ़ करने लगा। वे सज्जन विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलपति थे। मैं हतप्रभ होकर यह सब देखती रही। न डाँटा, न ग़ुस्सा किया और कर्त्तव्य का पाठ सिखा दिया उन्होंने। निश्चित ही उनकी सरलता और कार्यशैली गुरुदेव की शिक्षा का परिणाम थी। एक बार गौर दा के साथ मैं कोलकाता गई तो वे किसी से मिलने गए और मुझे भी साथ ले गए। वे बुज़ुर्ग थे और बहुत शांत और सरल। गौर दा ने हमारा परिचय कराया। बाद में गौर दा ने बताया कि वे विश्वभारती विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति हैं श्री अमलान दत्त। मुझे आश्चर्य हुआ; क्योंकि किसी भी विश्वविद्यालय का कुलपति इतना सहज और सरल नहीं देखा था मैंने, चाहे वो अमलान दा हों या फिर असिन दा। 
गौर दा, रमा कुंडू, मेरी माँ, श्यामा कुंडू (बर्दमान के गौर दा के मित्र)
विश्वभारती में बांग्ला और संगीत में मेरे नामांकन की बात हुई तो फिर मेरे लिए छात्रावास या अलग कमरे की आवश्यकता हुई। बानी दी के मकान के बगल में लुत्फा दी का मकान था। उनके मकान की पहली मंज़िल पर एक कमरा मैंने किराए पर लिया। इस बीच में काफ़ी लोगों से पहचान हुई। विश्वविद्यालय में युवा महोत्सव का आयोजन होने वाला था। हर तरफ़ चहल-कदमी बढ़ गई थी। उन्हीं दिनों मेरी पहचान उत्तर प्रदेश की एक लड़की सुनीता गुप्ता से हुई जो छात्रावास में रह रही थी। हिन्दी भाषी होने के कारण उससे मित्रता बढ़ गई। वह रोज़ मेरे घर आती, मैं खिचड़ी बनाती और फिर खाकर हम दोनों निकल जाते। मैंने ज़ियादा स्थान नहीं देखे थे, तो सुनीता मुझे सभी जगह की जानकारी दिया करती। बच्चों का विद्यालय पाठ भवन से गुज़रना बड़ा अच्छा लगता था। संगीत भवन और विद्या भवन भी घूम आई; क्योंकि वहाँ मुझे पढ़ना था। कभी कैंटीन चली जाती, कभी संगीत भवन, जहाँ कुछ न कुछ नाट्य या संगीत का कार्यक्रम होता रहता था।
मैं, गौर दा, मनीषा, लुत्फा दी 
शान्तिनिकेतन घूमने के लिए हर समय टूरिस्ट आते रहते हैं। मुझे याद है जब मैं और सुनीता कैम्पस में कहीं जा रही होती तो पर्यटक को वहाँ का लोकल गाइड बांग्ला में कहता ''वो देखो शान्तिनिकतन की लड़की, कितना लम्बा बाल है'', सुनीता के बाल बहुत लम्बे थे घुटने से भी बड़े, और यह सुनकर हम दोनों हँस देते थे। 
 
लाइब्रेरी से साथ लगे मैदान में पौष मेला लगता है। भारतीय लोक कला और संस्कृति के विकास व विस्तार के लिए इस मेला का विशेष महत्त्व है। मेले में हस्तकला, चित्रकला, लोककला, मिट्टी का सामान, धातु का सामान, खिलौने, कलाकृति, विभिन्न प्रान्तों की कसीदाकारी के वस्त्र, शिल्प उद्योग के सामान आदि का प्रदर्शन और बिक्री होता है। एक बड़े से पंडाल में लोक गीत, लोक नृत्य, बाउल गान आदि का आयोजन होता है। विश्वविद्यालय के छात्र और कलाकार भी इसमें हिस्सा लेते हैं। गुरुदेव से सम्बन्धित प्रदर्शनी लगाई जाती है। हर उम्र और तबके के लोग 3 दिन तक मेले में डूबे रहते हैं। खाने का सामान बहुत सस्ती दर पर मिलता है। यूँ भी बंगाल में अन्य जगहों के मुकाबले महँगाई काफ़ी कम है। इस मेला को देखने दूर-दूर से लाखों लोग आते हैं। होटल हो या किसी का मकान इस समय कहीं भी जगह नहीं मिलती है। पौष महीने की सातवीं तिथि से इस मेले का शुभारम्भ होता है। यूँ तो विधिवत 3 दिन का मेला होता है; लेकिन ये लगभग 15 दिन तक चलता रहता है। छोटी-छोटी वस्तुएँ, सजावटी सामान, कपड़े, शॉल, मिट्टी-लकड़ी के आभूषण, वगैरह मेले से मैं ख़ूब ख़रीदती थी।
बानी दी, गौर दा की पत्नी
अभी नामांकन-परीक्षा हुई नहीं थी; अतः मैं ख़ाली थी। श्रीनिकेतन के स्कूल के संगीत शिक्षक श्री दुर्गाचरण मजुमदार, जिन्हें दुर्गा दा कहती थी, से बानी दी ने मेरे गाना सीखने का प्रबन्ध किया। दुर्गा दा एक छात्रावास में रहते थे। क़रीब एक महीना रोज़ शाम को मैं उनसे संगीत सीखती रही। यह अलग बात कि मेरे गले ने विद्रोह कर दिया और मैं संगीत सीख नहीं सकी। गाने की क्लास के बाद दुर्गा दा रोज़ मुझे रतनपल्ली छोड़ने आते थे। मैं अक्सर कालो की दूकान से मिष्टी दोई (मीठी दही) ख़रीदकर लाती और दही-चूड़ा खा लेती थी, क्योंकि रोज़ का खाना पकाना मुझे कभी पसन्द नहीं है। ख़ास अवसर के लिए कुछ ख़ास पकाना मुझे पसन्द रहा है। यूँ खाना को मैं कभी अहमियत नहीं देती, ज़रुरत भर खा लेना पर्याप्त है। मेरे लिए यह ज़ियादा आवश्यक था कि अपने समय को शान्तिनिकेतन के विभिन्न क्रिया-कलाप में लगाऊँ; चाहे वह गौर दा के साथ या श्यामली दी या बानी दी के साथ।
श्यामली खस्तगीर 
एक दिन एक मित्र आया। उसने बताया कि विश्वविद्यालय में रॉक म्यूजिक का ग्रुप आया है। मैं उसके साथ चली गई देखने और सुनने। जीवन में पहली बार ऐसा कार्यक्रम लाइव देख रही थी। कभी श्यामली दी का घर 'पलाश' जो दक्खिनपल्ली में है, कभी मंजु दी के घर तो कभी बानी दी के घर जाती रहती थी। मुझे याद है 1991 की पहली जनवरी को मैं शान्तिनिकेतन में ही थी। मेरा अनुमान था कि यहाँ भी कुछ न कुछ उत्सव ज़रूर मनाया जाएगा, जैसा कि बाक़ी जगह नए साल के उपलक्ष्य में होता है। लेकिन पूरे विश्वविद्यलय में कोई आयोजन नही, न ही शान्तिनिकेतन में कुछ भी ख़ास; क्योंकि यहाँ हिन्दी तिथि से सब कुछ होता है। पहली जनवरी को मैं और सुनीता खिचड़ी खाकर किसी के घर मिलने गए थे। यहाँ बसंतोत्सव ख़ूब धूमधाम से मनाया जाता है। होली भी बहुत अच्छी तरह यहाँ मनाते हैं। भारतीय संस्कृति और परम्परा का सुन्दर रूप और जीवन यहाँ देखने को मिलता है। 
श्यामा कुंडू, रमा कुंडू, गौर दा, मैं  
हमारे कुछ परिचित शान्तिनिकेतन आए थे, उनके साथ मैं भी शान्तिनिकेतन के सभी स्मृति स्थलों पर घूमने गई थी। यूँ पहले भी कई बार गई थी जब भी मन किया। उपासना गृह के बाहर बैठना बहुत अच्छा लगता है। यूँ विश्वविद्यालय में कहीं भी जाएँ, कला के सुन्दर नमूने ज़रूर दिखते हैं, कला भवन हो या संगीत भवन बहुत सुन्दर चित्रकारी और कलाकृति है। चारो तरफ़ हरियाली, कहीं भी बैठने से सुकून मिलता है। उत्तरायण में स्थित गुरुदेव का पाँचों घर उदयन, कोणार्क, श्यामली, पुनश्च और उदीची भी अपने-अपने तरह का अनूठा मकान है। जब महात्मा गाँधी आए थे श्यामली में ठहरे थे। उन पलों की स्मृति में बापू और गुरुदेव की तस्वीर श्यामली में लगी है।  सभी जगह गुरुदेव की तस्वीर और उनके कला को प्रदर्शित किया गया है। गुरुदेव कुछ लिखते और अगर कुछ ग़लत हो जाए तो उसे इस तरह काटते कि एक अलग तरह की आकृति बन जाती थी, जो अपने आप में कला का एक उदाहरण है; गुरुदेव की यह एक अलग शैली भी बन गई। सच है कि कलाकार के मन में कब क्या आ जाता है और किस में क्या कला दिख जाता है, कहना मुश्किल है। उनकी कलाकृति का बेजोड़ नमूना आज भी गुरुदेव के सभी घरों में दिखता है। बिचित्र में, जिसे रबिन्द्र भवन भी कहते हैं, गुरुदेव द्वारा उपयोग की गई वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया है। इन्हें देखकर अजीब सा रोमाँच और हर्ष होता है। ऐसा लगता है जैसे गुरुदेव अभी-अभी कहीं से आएँगे और अपने किसी घर में बैठकर कोई कविता या गीत रचेंगे या फिर कोई चित्र ही बनाने लग जाएँगे।
  
शान्तिनिकेतन में बानी दी और श्यामली दी के जितने भी मित्र हैं, सभी के घर मैं उनके साथ गई। श्यामली दी के मित्र चीन व जापान आदि से भी हैं और उनके घर भी वे मुझे अक्सर ले जाती थीं। मैंने पहली बार जापान की चाय बनाने और पीने की अनोखी शैली और परम्परा को यहीं देखा। जाने कितने लोगों से मेरा परिचय हुआ, कुछ लोगों को तो मैं भी भूल गई। बातों-बातों में याद आ जाते हैं वे सभी। बानी दी के भाई इन्द्रजीत रॉय चौधरी, जिन्हें टॉम दा कहती हूँ, अक्सर बानी दी के घर आते थे। टॉम दा कोलकाता में रहते हैं। पुरानी कलात्मक वस्तुओं को संगृहित करने का उन्हें शौक़ है। बहुत अच्छे चित्रकार हैं और उनकी कलाओं की प्रदर्शनी लगती रहती है। टॉम दा ने कोलकाता से ताँत की साड़ी मुझे तोहफ़े में दी। किसी ज्योतिष ने मुझे ग्रह की दो अँगूठी पहनने को कहा था, टॉम दा ने ख़ुद ही दोनों अँगूठी बनाई। आज भी मेरे पास एक अँगूठी सुरक्षित है और दूसरी घर में है; लेकिन कहीं गुम है। बानी दी की एक बहन कोयली दी पूर्वपल्ली में रहती थीं। उनके घर भी अक्सर जाती थी। बांग्ला फिल्म के मशहूर अभिनेता उत्पल दत्त उनके बहुत अच्छे मित्र थे। बानी दी अक्सर मज़ाक में कहतीं कि मेरा दोस्त तो दाढ़ी वाला बुड्ढा है और कोयली का दोस्त सिनेमा का हीरो। बानी दी का तात्पर्य गौर दा से था। गौर दा बड़ी-बड़ी दाढ़ी रखे हुए थे। कोयली दी का पुत्र देवराज रॉय जिन्हें सोमी कहते हैं इन्डियन स्टेटिसटिकल इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली में कार्यरत थे, जिनसे मैं दिल्ली आने के बाद भी मिली। 
 
शान्तिनिकेतन में किसी की शादी में गई थी, वहाँ पहली बार बंगाली विधि-विधान से शादी की रस्म देखी। उस शादी में अभिनेत्री मुनमुन सेन की नानी आई थीं। बाद में पता चला कि शान्तिनिकेतन में बहुत सारे लोग अवकाश का समय बिताने आते हैं और कई सारे लोगों ने अवकाश प्राप्ति के बाद के बचे हुए समय को शान्ति से व्यतीत करने के लिए यहाँ मकान लिया हुआ है। शान्तिनिकेतन में अधिकतर एक और दो मंज़िल के मकान हैं। सभी मकान में सुन्दर रंग-सज्जा और फुलवारी या फूलों के गमले ज़रूर दिखते हैं, जो आँखों को भी शान्ति प्रदान करते हैं।

मैं जब भी शान्तिनिकेतन से भागलपुर जाती तो शयमाली दी या गौर दा बोलपुर स्टेशन छोड़ने आते थे। श्यामली दी बांग्ला सीखने के लिए बांग्ला अक्षर ज्ञान की एक किताब दीं, जिसे पूरी ट्रेन में मैं पढ़ती और याद करती रही थी। धीरे-धीरे बोलना तो सीख ही गई बांग्ला पढ़ना-लिखना भी सीख गई। टॉम दा की माँ श्रीमती रेणुका रॉय चौधरी की एक पुस्तक का हिंदी रूपांतरण का काम मैंने और मनीषा ने मिलकर शुरू किया था लेकिन मुझे शान्तिनिकेतन छोड़ना पड़ा और फिर ज़िन्दगी में इतनी अस्थिरता आई कि मुझसे बांग्ला भाषा भी दूर हुई और शान्तिनिकेतन भी दूर हो गया। शान्तिनिकेतन से जुड़ी मेरी यादें और अनुभव ऐसे हैं जिन्हें शब्दों में बाँध नहीं पाती हूँ। जिस बेफ़िक्री और मस्ती भरी ज़िन्दगी को मैंने वहाँ जिया है दोबारा वैसी ज़िन्दगी पाना असम्भव है। वहाँ की बातें, वहाँ की यादें, वहाँ के लोग सब कुछ मेरी स्मृतियों में यथावत हैं। मेरी स्मृतियों का शान्तिनिकेतन आज भी मेरे लिए वैसा ही है भले कुछ लोग छोड़कर चले गए, कुछ लोग सदा के लिए विदा हो गए, बहुत कुछ बदल गया यहाँ इन दो दशकों में मेरी तरह।

- जेन्नी शबनम (फरवरी 14, 2012)

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