Tuesday, October 7, 2014

49. मेरे गाँधी, अपने गाँधी

महात्मा गाँधी के बारे में जब भी सोचती हूँ तो एक अजीब-सा आकर्षण होता है। उन्हें जितना पढ़ती हूँ और भी ज्यादा जानने-समझने की उत्कंठा होती है। न जाने क्यों गाँधी जी का व्यक्तित्व सदैव चुम्बकीय लगता है मुझे। इतना सहज और सरल जीवन यापन करने वाला वृद्ध, महान चिन्तक ही नहीं बल्कि हमारे देश के सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा का मार्गदर्शक भी है। 

कुछ माह के लिए जब मैं शान्तिनिकेतन में रही थी तब वहाँ टैगोर के सभी पाँच घरों में घूमने गई; जिनमें से एक घर 'श्यामली' है, जो पूर्णतः मिट्टी का बना है। जब गाँधी जी शान्तिनिकेतन आए थे तब इसी घर में ठहरे थे। उस समय की स्मृतियाँ गाँधी जी और रबिन्द्रनाथ टैगोर की तस्वीर के रूप में वहाँ अब भी संजोई हुई है। श्यामली में जब पहली बार मैं गई तो लगा जैसे गाँधी जी यहीं कहीं आस पास होंगे और अचानक आकर कहेंगे ''बहुत थक गई होगी, हाथ पाँव धो लो, थोड़ा फल खाकर थोड़ी देर आराम कर लो, फिर उठकर चरखा कातेंगे।'' 

मुझे मालूम है गाँधी जी को पूर्णतः समझ पाना मेरे लिए असंभव है। निःसंदेह अपने पिता के कार्य और विचार को जानने और समझने के कारण ही गाँधी जी को इतना भी समझ पाई हूँ। जब भी गाँधी जी के बारे में सोचती हूँ तो मुझे मेरे पिता याद आते हैं। यूँ मेरे पिता की स्मृतियाँ अब क्षीण होने लगी हैं, परन्तु जो भी यादें शेष हैं उनमें मेरे पिता के विचार, सिद्धांत और जीवन शैली है, जो वक़्त-वक़्त पर मुझे राह दिखाते रहे हैं। सच है कि गाँधीवाद की मान्य परिभाषा के हिसाब से मैं गाँधीवादी नहीं, लेकिन मेरी नज़र में जो गाँधीवाद है उसके हिसाब से जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण गाँधीवादी है। मुमकिन है मेरे पिता का प्रभाव मुझपर पड़ा हो और शायद इसी कारण सोचने का तरीका भी ऐसा हो गया हो। 

मेरे पिता जैसे जीते थे वही उनका विचार था और जो उनका विचार था वही उनका जीवन जीने का तरीका। आचार्य कृपलानी, आचार्य विनोबा भावे, प्रो. गोरा आदि के नज़दीक रहे मेरे पिता पूरी तरह गाँधीवादी विचार के समर्थक थे। उनका गाँधीवादी सोच, सोच-विचारकर अपनाई गई जीवन शैली नहीं थी बल्कि उनके जीवन जीने का तरीका था जो उनके अपने विचार से प्रेरित था।           
मेरे पिता गाँधी जी के विचार से कब क्यों और कैसे प्रभावित हुए, यह तो मालूम नहीं। लेकिन मेरी दादी से अपने पिता के बचपन की कहानी जब सुनती तो आश्चर्य होता था। मेरे पिता बचपन से ही ऐसे जीवन जीते थे जिसे गाँधीवाद कहा जा सकता है। चाहे वो खानपान हो, पहनावा हो, समाज कल्याण की बात हो या फिर अधिकार और कर्तव्य की बात। मेरे पिता का अपना विचार था और जीवन जीने का अपना तरीका जो बहुत कुछ गाँधी जी के विचारों-सा था। मेरे पिता कई बार लोगों के द्वारा असमाजिक भी घोषित किए गए। क्योंकि कुछ ऐसी परम्पराएँ जो उनके मुताबिक़ अनुचित थीं, किसी भी क़ीमत पर वे उसमें हिस्सा नहीं लेते थे। सड़ी-गली परम्पराओं के विरुद्ध वे सदैव रहते थे। प्राकृतिक चिकित्सा को वे अपने जीवन में उतार चुके थे। मेरे पिता कई बार लोगों की नज़र में उपहास का कारण भी बनते थे, क्योंकि उस समय मेरे पिता का सोच आम परम्परावादी लोगों के सोच से बिलकुल अलग होता था। ख़ुद खादी पहनते रहे और घर में भी सभी का खादी पहनना अनिवार्य था। सादा जीवन उच्च विचार के वे अनुयायी थे और दिखावा से हमेशा दूर रहते थे।

मेरे पिता के अपने लिए बहुत सारे नियम थे। वे चाहते थे कि हम सभी उन नियमों को माने लेकिन जबरन नहीं; बल्कि हमारा सोच ऐसे ही विकसित हो मेरे अपने बचपन में कई बार मुझे अजीब लगता था और कई बार ग़ुस्सा भी आता था जंक-फूड खाने की मनाही थी ज़रूरत से ज्यादा कपड़े हमारे पास नहीं होते थे गाँव के स्कूल से मेरे भाई की शिक्षा हुई, और मैं भी कुछ वर्ष गाँव में रहकर पढ़ाई की गाँव में जैसे मेरे पिता की आत्मा बसती थी गाँव के लोगों पर मेरे पिता के विचार का इतना प्रभाव पड़ा कि कई लोगों ने परिवार नियोजन को अपनाया था। उन्होंने गाँव में स्कूल खुलवाया तो गाँव के लोग शिक्षा की ओर अग्रसर हुए  उन्होंने जाति और वर्ग भेद को मिटाया अंधविश्वास को प्रमाण के साथ साबित कर उसके उन्मूलन की बात वे करते थे मेरे पिता के विचारों में समाजवाद, साम्यवाद, गाँधीवाद और नास्तिकता का संयोग था। वे शुद्ध शाकाहारी थे और इसके प्रसार में सदैव लगे रहते थे उनके ही अथक प्रयास से मेरे गाँव में बिजली आई उन्होंने गाँव में लाइब्रेरी की स्थापना की आधुनिक वैज्ञानिक तरीके से खेती करने के लिए ग्रामीणों के बीच कई कार्यक्रम का आयोजन किया

गाँधी जी के लिए जितना महत्वपूर्ण था देश के प्रमुख मुद्दों पर चर्चा करना उतना ही महत्वपूर्ण था किसी पशु की देखभाल करना या फिर किसी बच्चे के साथ खेलना या किसी आम रीब की कोई समस्या सुनना जीवन का हर काम गाँधी जी के लिए समान रूप से महत्व रखता था गाँधी जी कहते थे ''ईश्वर सत्य है'', परन्तु प्रोफ़ेसर गोरा से इस पर चर्चा और बहस के बाद गाँधी जी ने कहा ''सत्य ही ईश्वर है'' मेरे अपने विचार से गाँधी जी का अपनी समझ को बदलना एक क्रान्ति जैसी बात है, जिसे आज हर इंसान को समझना चाहिए  

महात्मा गाँधी युग पुरुष थे सत्य अहिंसा के मार्ग पर चलकर सम्पूर्ण मानव और समाज के उत्थान की अवधारणा और सर्वोदय की कामना गाँधी जी का लक्ष्य था गाँधी जी न सिर्फ महान चिन्तक थे बल्कि मानवतावादी भी थे जीव जंतुओं के प्रति प्रेम और जाति धर्म से परे इंसानियत धर्म के अनुयायी गाँधी जी सदैव ख़ुद पर परीक्षण और प्रयोग करते रहे और अंतिम सत्य की तलाश करते रहे। मेरे विचार से जिसे गाँधीवाद कहा गया वह कोई कठिन नियम या परिभाषित सोच नहीं है, बल्कि जिन विचारों को मान कर गाँधी जी सहज जीवन जीते थे वही गाँधीवाद कहलाया। यूँ गाँधी जी यह कभी नहीं चाहते थे कि गाँधीवाद कह कर कोई ख़ास नियम बनाया जाए जो लोगों पर प्रभावी हो गाँधी जी शुरू से आत्म चिन्तन और आत्म नियंत्रण की बात करते रहे सत्य और अहिंसा उनके दो ऐसे शस्त्र थे जिनके द्वारा कोई भी जंग जीतना कठिन भले हो नामुमकिन नहीं होताभारत की आज़ादी का जंग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है गाँधी जी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के बाद थे गाँधी जी मनुष्य की क्रियाशीलता पर ज्यादा जोर देते थे और मनुष्य का समग्र उत्थान चाहते थे

गाँधी जी के कुछ कथन जो मुझे प्रभावित करते हैं:

''अधभूखे राष्ट्र के पास न कोई धर्म, न कोई कला और न कोई संगठन हो सकता है'' (महात्मा, भाग- 2, पृष्ठ- 251) 

''अधिकारों की प्राप्ति का मूल स्रोत कर्त्तव्य है'' (महात्मा, भाग- 2, पृष्ठ- 367)


''गाँधीवाद जैसी कोई विचारधारा नहीं है।'' ''गाँधीवाद नाम की कोई वस्तु है ही नहीं और न मैं अपने पीछे कोई सम्प्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ। मेरा यह दावा भी नहीं है कि मैंने कोई नए तत्व या सिद्धांत का आविष्कार किया है। मैंने तो केवल जो शाश्वत सत्य है, उसको अपने नित्य के जीवन और प्रश्नों पर अपने ढंग से उतारने का प्रयास किया है।'' (कहानियों में सत्य की साधना: डॉ0 विनय)

मुझे ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं हमसे बहुत बड़ी चूक हुई है। अन्यथा आज़ादी के बाद समाज का इतना रुग्ण रूप देखने को न मिलता गाँधी और गाँधी के सिद्धांतों को एक सिरे से ख़ारिज कर देने का परिणाम है कि आज मनुष्य इंसानियत की हर कसौटी से बाहर निकल चुका है हिंसा और असहिष्णुता का ख़ामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है समाज में न स्त्री का कोई सम्मान है न आम आदमी का हालात बाद से बदतर होते जा रहे हैं संवेदनाएँ धीरे-धीरे मर रही हैं। हर आदमी डरा हुआ है और दूसरों को डरा रहा है अधर्म अपने परकाष्ठा पर पहुँच चुका है। पेट में भोजन नहीं, रहने को मकान नहीं लेकिन धर्म जाति के नाम पर आज का युवा मरने मारने पर आमादा है। भूख, रीबी, शिक्षा, सभी का बजारीकरण और राजनीतिकरण हो चुका है

गाँधी जी के विचार, सिद्धांत और सोच को एक बार पुनः स्थापित करने की ज़रुरत है ताकि एक सुखद, खुशहाल और संतुलित समाज बन सके। गाँधी जी ने कहीं पर कहा था ''अगर बिना हिंसा के साम्यवाद आता है तो उसका स्वागत है''। मेरा अपना विचार और विश्वास है कि अहिंसक साम्यवादी समाज से ही एक निपुण, पूर्ण और सफल देश बन सकता है जहाँ ऊँच-नीच और स्त्री-पुरुष का भेदभाव न होगा, पशु-पक्षी को भी जीने का हक़ मिलेगा; इसके लिए गाँधी जी को एक बार फिर से जीवन में उतारना होगा। गाँधी जी की प्रासंगिकता को नाकारा नहीं जा सकता है और यही एक मात्र अंतिम उपाय बचा है जिससे हम अंतिम लक्ष्य पर पहुँच कर अमन-चैन से जीवन यापन कर सकते हैं।

- जेन्नी शबनम (2. 10. 2014)

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