Friday, March 8, 2013

43. हद से बेहद तक

अक्सर सोचती हूँ कि औरतों के पास इतना हौसला कैसे होता है। कहाँ से आती है इतनी ताक़त कि हार-हार कर भी उठ जाती है फिर से दुनिया का सामना करने के लिए। अजीब विडम्बना है स्त्री-जीवन! न जीवन जीते बनता है न जीवन से भागते। औरत जानती है कि उसकी जीत उसके अपने भी बर्दाश्त नहीं कर सकते और उसे अपने अधीन करने के सभी निरर्थक और क्रूर उपाय करते हैं; शायद इस कारण ही औरतें जानबूझकर हारती हैं। एक नहीं कई उदाहरण हैं, जब किसी सक्षम स्त्री ने अक्षम पुरुष के साथ रहना स्वीकार किया, महज़ इसलिए कि उसके पास कोई विकल्प नहीं था। पुरुष के बिना स्त्री को हमारा समाज सहज स्वीकार नहीं करता है। किसी कारण विवाह न हो पाए तो लड़की में हज़ारों कमियाँ बता दी जाती हैं, जिनके कारण किसी पुरुष ने उसे नहीं अपनाया। दहेज और सुन्दरता विवाह के रास्ते की रुकावट भले ही हो लेकिन ख़ामी सदैव लड़की में ढूँढ़ी जाती है। पति की मृत्यु हो जाए, तो कहा जाता है कि स्त्री के पिछले जन्म के कर्मों की सज़ा है। तलाकशुदा या परित्यक्ता हो तो मान लिया जाता है कि दोष स्त्री का रहा होगा।


भ्रूण हत्या, बलात्कार, एसिड हमला, जबरन विवाह, दहेज़ के लिए अत्याचार, आत्महत्या के लिए विवश करना, कार्यस्थल पर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न, घर के भीतर शारीरिक और मानसिक शोषण, सामाजिक विसंगतियाँ आदि स्त्री-जीवन का सच है। स्त्री जाए तो कहाँ जाए इन सबसे बचकर या भागकर। न जन्म लेने का पूर्ण अधिकार, न जीवन जीने में सहूलियत और न इच्छा मृत्यु के लिए प्रावधान! क्या करे स्त्री? जन्म, जीवन और मृत्यु स्त्री के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिए गए हैं। 

शिक्षित समाज हो या अशिक्षित, निम्न आर्थिक वर्ग हो या उच्च; स्त्रियों की स्थिति अमूमन एक जैसी है। अशिक्षित निम्न समाज में फिर भी स्त्री जन्म से उपयोगी मानी जाती है, अतः भ्रूण-हत्या की सम्भावना कम है। 3-4 साल की बच्ची अपने छोटे भाई बहनों की देख-रेख में माँ की मदद करती है तथा घर के छोटे-मोटे काम करना शुरू कर देती है। अतः उसके जन्म पर ज्यादा आपत्ति नहीं है। 

मध्यम आर्थिक वर्ग के घरों में स्त्रियों की स्थिति सबसे ज्यादा नाज़ुक है। वंश परम्परा हो या फिर दहेज़ के लिए रकम की कमी; दोष स्त्री का और सज़ा स्त्री को। कई बार यूँ लगता है जैसे पति के घर में औरत की स्थिति बँधुआ मज़दूर की है; तमाम जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी वह फ़ुज़ूल समझी जाती है, अप्रत्यक्ष आर्थिक उपार्जन करते हुए भी बेकार समझी जाती है। न वह अपने अधिकार की माँग कर सकती है न उसके पास पलायन का कोई विकल्प है। सुहागन स्वर्ग जाना और जिस घर में डोली आई है अर्थी भी वहीं से उठनी है; इसी सोच से जीवन यापन और यही है स्त्री-जीवन का अन्तिम लक्ष्य।  

उच्च आर्थिक वर्ग में स्त्रियों की स्थिति ऐसी है जिसका सहज आकलन करना बेहद कठिन होता है। सामाजिक मानदण्डों के कारण जब तक असह्य न हो गम्भीर परिस्थितियों में भी स्त्रियाँ मुस्कुराती हुई मिलेंगी और अपनी तकलीफ़ छुपाने के लिए हर मुमकिन प्रयास करेंगी। समाज में सम्मान बनाए रखना सबसे बड़ा सवाल होता है। अतः अपने अधिकार के लिए सचेत होते हुए भी स्त्रियाँ अक्सर ख़ामोशी ओढ़कर रहती हैं। अत्यन्त गम्भीर परिस्थिति हो तो स्वयं को इससे निकाल भी लेती हैं। यहाँ दहेज़ अत्याचार और भ्रूण हत्या की समस्या नहीं होती, लेकिन अन्य समस्याएँ सभी स्त्रियों के समान ही होती हैं। इन घरों में स्त्रियों को आर्थिक व शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक तकलीफ़ ज्यादा होती है। अगर स्त्री स्वावलंबी हो तो सबसे बड़ा मुद्दा अहंकार और भरोसा होता है। स्त्री को अपने बराबर देखकर पुरुष के अहम् को चोट लगती है, जिससे आपसी सम्बन्ध में ईर्ष्या-द्वेष समा जाता है और एक दूसरे को सन्देह से देखने लगते हैं। इस रंजिश से भरोसा टूटता है और रिश्ता महज़ औपचारिक बनकर रह जाता है। फलतः मानसिक तनाव और अलगाव की स्थिति आती है। कई बार इसका अंत आत्महत्या पर भी होता है।  

स्त्रियाँ अपनी परिस्थितियों के लिए सदैव दूसरों को दोष देती हैं; यह सच भी है, परन्तु इससे समस्या से निजात नहीं मिलती। कई बार स्त्री ख़ुद अपनी परिस्थितियों के लिए जिम्मेवार होती है। स्त्रियों की कमज़ोरी उनके घर और बच्चे होते हैं, जो उनके जीने की वज़ह हैं और त्रासदी का कारण भी बन जाता है। स्त्री की ग़ुलामी का बहुत बड़ा कारण स्त्री की अपनी कमज़ोरी है। पुरुष को पता होता है कि कहाँ-कहाँ कोई स्त्री कमज़ोर पड़ सकती है और कैसे-कैसे उसे कमज़ोर किया जा सकता है। सम्पत्ति, चरित्र, गहना-ज़ेवर आदि ऐसे औज़ार हैं जिसका समय-समय पर प्रयोग अपने हित के लिए पुरुष करता है। पुरुष के इस शातिरपना से स्त्रियाँ अनभिज्ञ नहीं हैं, पर अनभिज्ञ होने का स्वाँग करती हैं, ताकि उनका जीवन सुचारू रूप से चले व घर बचा रहे। 

एक उद्घोषणा है कि पुरुष के पीछे-पीछे चलना स्त्री का स्त्रैण गुण और दायित्व है, जबकि पुरुष का अपने दम्भ के साथ जीना पुरुषोचित गुण और अधिकार है। स्त्रियों को सदैव सन्देह के घेरे में खड़ा रखा जाता है और चरित्र पर बेबुनियाद आरोप लगाए जाते हैं, ताकि स्त्री का मनोबल गिरा रहे और पुरुष इसका लाभ लेते हुए अपनी मनमानी कर सकें। स्त्री अपने को साबित करते-करते आत्मग्लानि की शिकार हो जाती है। हमारे अपने हमसे खो न जाएँ औरतें इससे डरती हैं, जबकि पुरुष यह सोचते हैं कि स्त्रियाँ उनसे डरती हैं। स्त्री का यह डर पुरुष का हथियार है जिससे वह जब-न-तब वार करता रहता है।

निःसंदेह स्त्रियाँ शिक्षित हों तो आत्विश्वास स्वतः आ जाता है और हर परिस्थिति का सामना करने का हौसला भी। वह स्वावलंबी होकर जीवन को प्रवाहमय बना सकती है। जीवन के प्रति उसका सोच आशावादी होता है, जो उसे हर परिस्थिति में संयमित बनाता है। वह विवेकशील होकर निर्णय कर सकती है। विस्फोटक स्थिति का सामना सहजता से कर अपने लिए अलग राह भी चुन सकती है। वह अपने अधिकार और कर्तव्य के बारे में जागरूक होती है। वह अकेली माँ की भूमिका भी बख़ूबी निभाती है। समाज का कटाक्ष दुःख भले पहुँचाता है तोड़ता नहीं है, अतः वह सारे विकल्पों पर विचार कर स्वयं के लिऐ सही चुनाव कर सकती है।

स्त्रियों को पुरुषों से कोई द्वेष नहीं होता है। वे महज़ अपना अधिकार चाहती हैं, सदियों से ख़ुद पर किए गए अत्याचार का बदला नहीं। स्त्री के अस्तित्व के लिए पुरुष जितना ज़रूरी है, पुरुष के अस्तित्व के लिए उतनी ही ज़रूरी स्त्री है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं; यह बात अगर समझ ली जाए और मान ली जाए तो इस संसार से सुन्दर और कोई स्थान नहीं है।

आज़ादी चाहती हूँ बदला नहीं

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तुम कहते हो
अपनी क़ैद से आज़ाद हो जाओ
बँधे हाथ मेरे
सींखचे कैसे तोडूँ ?
जानती हूँ उनके साथ
मुझमें भी ज़ंग लग रहा है
पर अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद
एक हाथ भी आज़ाद नहीं करा पाती हूँ

कहते ही रहते हो तुम
अपनी हाथों से
काट क्यों नहीं देते मेरी जंज़ीर?
शायद डरते हो
बेड़ियों ने मेरे हाथ मज़बूत न कर दिए हों
या फिर कहीं तुम्हारी अधीनता अस्वीकार न कर दूँ
या फिर कहीं ऐसा न हो
मैं बचाव में अपने हाथ तुम्हारे ख़िलाफ़ उठा लूँ

मेरे साथी!
डरो नहीं तुम
मैं महज़ आज़ादी चाहती हूँ बदला नहीं
किस-किस से लूँगी बदला
सभी तो मेरे ही अंश हैं
मेरे ही द्वारा सृजित मेरे ही अपने अंग हैं
तुम बस मेरा एक हाथ खोल दो
दूसरा मैं ख़ुद छुड़ा लूँगी
अपनी बेड़ियों का बदला नहीं चाहती
मैं भी तुम्हारी तरह
आज़ाद जीना चाहती हूँ

तुम मेरा एक हाथ भी छुड़ा नहीं सकते
तो फिर आज़ादी की बातें क्यों करते हो?
कोई आश्वासन न दो न सहानुभूति दिखाओ
आज़ादी की बात दोहरा कर
प्रगतिशील होने का ढोंग करते हो
अपनी खोखली बातों के साथ
मुझसे सिर्फ़ छल करते हो
इस भ्रम में न रहो कि मैं तुम्हें नहीं जानती हूँ
तुम्हारा मुखौटा मैं भी पहचानती हूँ

मैं इंतज़ार करुँगी उस हाथ का 
जो मेरा एक हाथ आज़ाद करा दे
इंतज़ार करुँगी उस मन का 
जो मुझे मेरी विवशता बताए बिना मेरे साथ चले
इंतज़ार करुँगी उस वक़्त का
जब जंज़ीर कमज़ोर पड़े और
मैं अकेली उसे तोड़ दूँ

जानती हूँ कई युग और लगेंगे
थकी हूँ पर हारी नहीं
तुम जैसों के आगे विनती करने से अच्छा है
मैं वक़्त और उस हाथ का
इंतज़ार करूँ
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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर तमाम महिला और पुरुष को बधाई !

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2013)

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