Saturday, August 27, 2011

28. अन्ना-अनशन-आन्दोलन

अन्ना हजारे का आन्दोलन अंततः ख़त्म हो गया है I सरकार कितने वक़्त में जन लोकपाल को अमली जामा पहनाएगी, यह तो अपने तय वक़्त पर ही हम सबके सामने आएगा I पर इतना तो निश्चित ही हम कह सकते हैं कि इस आन्दोलन में जनता की भागीदारी ने ये साबित कर दिया है कि आज पूरा देश जिस तरह भ्रष्टाचार से त्रस्त और आहत है इससे निज़ात पाने के लिए हर मुमकिन रूप अख्तियार किया जा सकता है I अन्ना के समर्थन में तमाम विपक्षी पार्टियाँ, सामाजिक संगठन और देश की पूरी जनता है I इस पर कहीं कोई दो मत नहीं कि भ्रष्टाचार को किसी भी कीमत पर ख़त्म करना चाहिए I सरकार हो या आम जनता या ख़ास जनता या फिर विपक्षी पार्टियाँ सभी चाहते हैं कि देश से भ्रष्टाचार दूर हो और हमने जिस आज़ाद प्रगतिशील भारत का सपना देखा है वो पूरा हो I


अन्ना हजारे के अनशन को सभी अपने-अपने तरीके से ले रहे थे I मकसद तो यही है कि भ्रष्टाचार दूर हो लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या सिर्फ जन लोकपाल बिल से भ्रष्टाचार दूर हो जाएगा? अन्ना के अनशन के दसवें दिन मैं राम लीला मैदान गयी यह देखने कि आम जनता पर इसका असर कैसा है और वो किस तरह इस आन्दोलन से खुद को जोड़ते हैं I सामान्य जनता के लिए अलग पंक्ति बनी थी, जिससे रामलीला मैदान में प्रवेश कर सकते हैं I अपने पुत्र के साथ एक पंक्ति में मैं भी लग गयी I एक दूसरी पंक्ति भी थी जो साथ ही आगे बढ़ रही थी I कुछ लोग मेरी कतार से निकल कर दूसरी कतार में दौड़ कर चले जा रहे थे क्योंकि उन्हें लगा कि उसे पहले जाने दिया जाएगा I कुछ कार्यकर्ता उन लोगों को वहाँ से पकड़ कर वापस उनकी पंक्ति में ला रहे थे, तब तक दूसरा दौड़ जा रहा था I मज़ा भी आ रहा था देखकर लेकिन मैं सोचने लगी कि जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ यहाँ आन्दोलन हो रहा है वहीं पहुँचने के लिए लोग अपना आचरण गलत कर रहे हैं I 'दिल्ली पुलिस' के नाम से प्रचलित गलत छवि को पुलिस वाले आज पूरी तरह साफ़ करने के मूड में दिख रहे थे, किसी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई झुंझलाहट नहीं, आवाज़ में भी तल्खी नहीं, मुस्कुराते हुए, सुरक्षा के लिए तैनात दिख रहे थे I स्कूल ड्रेस पहने स्कूली बच्चे, छात्र, युवा, दफ़्तर से काम के बाद लौटने वाले कर्मचारी या अधिकारी, हर तबके और उम्र के पुरुष और महिलायें, मज़दूर, रेड लाईट पर भीख माँगने वाले आदि भीड़ में शामिल दिखे I कहीं अफरातफरी नहीं पर लोगों में आक्रोश बहुत अधिक था I  

मैदान में प्रवेश करते ही बदबू का भभका नाक में घुसा I बारिश के पानी से जहाँ-तहाँ पानी लगा था I अन्ना-रसोई का मुफ़्त भोजन वितरण की अलग पंक्ति जो ख़त्म ही नहीं हो रही थी 
I मैदान में खाने की प्लेट, पानी का ग्लास, केले का छिलका बिखरा पड़ा था I एक तरफ सफाई कर्मचारी साफ़ करने में भिड़े थे तो दूसरी तरफ लोग खा-पीकर जहाँ-तहाँ गंदगी फैला रहे थे I

अन्ना के मंच की तरफ बढ़ने पर 25-26 वर्षीय छोटे कद का एक नवयुवक दिखा जिसने दोनों हाथों से एक बड़ा सा कागज़ पकड़ा हुआ था I जैसे ही नज़दीक गई तो मैं रुक कर पढ़ने लगी I उसमें लिखे का अर्थ था कि सोनिया गाँधी जैसा चाहती हैं मनमोहन सिंह वैसा ही करते हैं, लेकिन भाषा बहुत ही अभद्र थी I बहुत उत्साहित और जोश में वो पूछने लगा ''आंटी कैसा लगा? मैंने लिखा है, बहुत दिमाग लगाया फिर लिखा है, सही है न ?'' मैंने उससे पूछा कि आप क्या करते हैं? उसने बताया कि वो गंगा राम हॉस्पिटल में डॉक्टर है, फिर पूछने लगा ''आंटी बताइए न ठीक लिखा है मैंने?'' मैंने पूछा कि ऐसा क्यों लिखा है? उसने कहा ''आंटी आपको एक चुटकुला सुनाऊँ?'' मैंने मुस्कुराकर हाँ में सर हिलाया I उसने सुनाया कि एक हिन्दू एक मुस्लिम और एक सिख मरने के बाद स्वर्ग गए I वहाँ सबसे पूछा गया कि तुमने क्या-क्या किया, ज़िन्दगी कैसी कटी, आराम था न? हिन्दू ने बताया कि उसने पूजा पाठ किया, तीर्थ यात्रा की और आनंद से ज़िन्दगी जीया 
I मुस्लिम ने कहा कि उसने नमाज़ पढ़ा, रोजा रखा और मक्का गया, वो ख़ुश है उसने अपनी ज़िन्दगी बहुत आराम से जीया है I सिख बोला ''कैसा आराम? आपने कैसी ज़िन्दगी दी मुझे? मुझे टॉफी बना दिया, नीचे से भी मरोड़ा जाता है ऊपर से भी I'' मैं समझ नहीं पाई कि इसमें चुटकुला क्या है I मैंने उससे पूछा कि इसका अर्थ क्या हुआ I उसने कहा कि मनमोहन सिंह है न ! वो दोनों हाथ नचा-नचा कर बताने लगा कि जैसे टॉफी को दोनों तरफ से मरोड़ कर बंद करते हैं वैसे ही (अर्थात सरदारों के बाल और दाढ़ी) I आश्चर्य हुआ एक डॉक्टर की भाषा और सोच पर, ये कैसा आन्दोलन कर रहे जिसमें प्रधानमंत्री के बारे में ऐसी भाषा I

आगे बढ़ने पर भीड़ बढ़ती जा रही थी I एक व्यक्ति चुपचाप एक चार्ट पेपर लेकर खड़ा था और जो भी सामने से गुज़रता उधर घूम कर उसे पढ़ाता I लिखा था- ''सावधान सावधान, अभी अभी हमें पता चला है कि पाकिस्तान के दो सूअर हमारे देश के किसी नाले में घूस गए हैं, बचकर रहना I उनके नाम हैं कपिल सिब्बल मनीष तिवारी I'' मैं अवाक् होकर उसे देखने लगी I पर उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं I बड़ा अजीब लगा कि ये कैसी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, व्यक्तिगत टिप्पणी वो भी इतना घटिया I
आगे बढ़ने पर रामदेव बाबा का बड़ा सा बैनर दिखा जिसपर उन्होंने कहा है कि काला धन वापस आएगा तो हमारे देश को क्या-क्या लाभ होगा I बाबा का आकलन और अनुमान देखकर आश्चर्य हुआ I उस बैनर की तस्वीर हमने ले ली; जब कला धन वापस आ जाएगा तो याद रहेगा कि बाबा के अनुमान के मुताबिक़ क्या-क्या हो पाया और क्या नहीं I

धीरे-धीरे भीड़ में घुसते गए हम I बहुत बुरा हाल था I मीडिया के मंच तक भी नहीं पहुँच पाए कि लगा कि अब बेदम हो जायेंगे I एक तरफ अन्ना के मंच पर बिहार के भोजपुरी फिल्म अभिनेता-गायक मनोज तिवारी का देश भक्ति गीत गूँज रहा था तो दूसरी तरफ कुछ लोग नारा लगा रहे थे - ''सोनिया जिसकी मम्मी है वो सरकार निकम्मी है'', ''मनमोहन जिसका ताऊ है वो सरकार बिकाऊ है I''

वहाँ से ही वापस हो गयी क्योंकि अन्ना के मंच तक पहुँचना असंभव था I पंडाल में एक जगह कुछ ग्रामीण महिलायें बैठी दिखी और साथ में गेरुआ वस्त्र पहने दाढ़ी वाले दो बाबा I वो जन लोकपाल बिल को और इस आन्दोलन को कितना समझती हैं ये जानने के लिए मैं उनसे बात करने लगी I वे सभी 'भारतीय किसान यूनियन' सतना, मध्य प्रदेश, से थे I एक गेरुआधारी का नाम लालमन कुशवाहा है I मैं जिनसे बात कर रही थी उनका नाम शान्ति कुशवाहा है I शान्ति ने बताया कि किसान यूनियन के नेता ईश्वरचंद्र त्रिपाठी के साथ वे सभी आये हैं I मैंने पूछा कि यहाँ क्या हो रहा है, आप क्या करने आयी हैं? शान्ति ने बताया कि हमलोग अन्ना का साथ देने के लिए आये हैं, भ्रष्टाचार दूर करने के लिए I मैंने पूछा कि आपके गाँव में भ्रष्टाचार है? तो एक दूसरी महिला जो शांति के बगल में बैठी थी उत्तेजित होकर कहने लगी कि ''कहाँ नहीं है भ्रष्टाचार? सबको घूस देना पड़ता है तब कोई काम होता है, कहाँ से लाये हम पैसा?'' शान्ति से मैंने पूछा कि क्या आपको कभी घूस देना पड़ा है? उसने कहा ''नहीं हम तो नहीं दिए हैं लेकिन मुखिया और थाना में और अस्पताल में पैसा देना होता है तभी कोई काम होता है I'' मैंने पूछा कि आपको यहाँ कोई दिक्कत? कब से आये हैं आप लोग? उसने बताया कि ''आजे सुबह ही आये हैं, खाना भी मिला है और कोई दिक्कत नहीं है, जब ईश्वरचंद्र जी कहेंगे तभी हम लोग यहाँ से जायेंगे I'' बगल वाली महिला अपना बैज और कार्ड दिखाने लगी जिसपर मेंबर भारतीय किसान यूनियन लिखा था I मैंने कहा कि जन लोकपाल बिल क्या है आपको मालूम है? वो बोली कि ''हम नहीं जानते नेता जी जानते हैं, वही हम लोग को लाये हैं उनके साथ ही हम आये हैं अन्ना का साथ देने''I सच भी है ये ग्रामीण महिलायें लोकपाल बिल क्या जाने, बस इतना जानती है कि अन्ना का साथ देंगे तो देश से भ्रष्टाचार दूर होगा I अन्ना-आन्दोलन को सक्रिय सहयोग देने के लिए शुभकामना देकर हम पंडाल से बाहर आये I पंडाल में ही एक जगह ''यादव वंश का इतिहास'' नामक किताब की बिक्री हो रही थी जिसकी मात्र 3 प्रति ही वहाँ बच गयी थी, बगल में बड़ा-बड़ा पोस्टर उस इतिहास को बताने के लिए लगा था I

सामने दो युवक मुस्कुराता हुआ अपना बैनर लिए खड़ा दिखा, फिर मुझे देखकर नज़दीक आया, किसी के भी आने से वो नज़दीक जा रहा था ताकि उसका बैनर पढ़ा जा सके, मैं पढ़कर स्तब्ध रह गयी ''एच.आई.वी से ज्यादा खतरनाक है कपिल सिब्बल I'' बेटे से मैंने कहा कि फोटो ले लो, तो उन दोनों ने पूरे जोश में आकर फोटो खिंचवाया I 

आन्दोलनकर्ता के साथ ही मुफ़्त खाना खाने वालों की भीड़ वैसी ही बनी हुई थी I केला लेने के लिए अलग एक लम्बी कतार थी, कुछ लोग उनमें से एक बार लेने के बाद खाकर वहीं छिलका फेंक फिर दोबारा पंक्ति में लग जा रहे थे I सच ही है भूख हो तो किसी का भी ईमान भ्रष्ट हो जाता है और कोई मौक़ा चूकने नहीं देता भले वो भ्रष्टाचार के विरुद्ध बोलता हो या फिर भ्रष्टाचार से त्रस्त हो I बाहर निकलने वाले गेट पर एक पोस्टर टंगा था जिसमें लिखा था ''संसद का घेराव करो, जल्दी चलो, जय भारत माता की'', ''अन्ना भूखा है, कुत्ते पार्टी करते हैं''I

अन्ना का अनशन भ्रष्टाचार के विरुद्ध है और हर बार वो हिंसा नहीं करने की गुजारिश करते थे I शारीरिक हिंसा तो कहीं नहीं है इस आन्दोलन में परन्तु मानसिक और भाषाई हिंसा सभी जगह नज़र आ रहा है I सरकार की गलत नीतियाँ और उनके विरुद्ध आवाज़ उठाना हर नागरिक का अधिकार भी है और कर्तव्य भी, लेकिन व्यक्तिवादी गाली देना या अशिष्ट भाषा का प्रयोग करना कहीं से जायज़ नहीं है I निःसंदेह अन्ना के साथ पूरा देश है क्योंकि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ पूरा देश है, लेकिन अन्ना को क्या पता कि उनके समर्थक और उनको चाहने वाले उन्हीं के आन्दोलन के पंडाल में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हुए खुद अपना आचरण भ्रष्ट कर रहे हैं I गाँधी और अन्ना को एक कहने वाले कभी गाँधी को पढ़ लें तो शायद अहिंसा, अनशन और आन्दोलन का अर्थ समझ जायेंगे I

- जेन्नी शबनम (अगस्त 27, 2011)

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Saturday, August 20, 2011

27. कठपुतलियों वाली श्यामली दी



श्यामली दी हम सभी को छोड़ कर चली गयीं और इसके साथ ही गुरुदेव की सोच की एक और विरासत का अंत हुआ अभी एक महीने भी तो नहीं हुए जब उनसे मिली थी, कागज़ों और रंगों से खेलती हुई सबकी प्यारी श्यामली दी समझ में नहीं आ रहा इस घटना को किस रूप में लूँ? 20 सालों से दोबारा शान्तिनिकेतन जाने का सपना पाल रखी थी, और जब गई तो सभी से मिली भी और आने के दिन ही श्यामली दी को लकवा (paralysis) का अटैक आया अंतिम दिनों में शायद मुझे उनसे मिलना था बस एक दिन पहले उनके साथ काफी हाउस में बैठ कर कॉफ़ी पी थी, उनके साथ दूकान गयी थी जहाँ से उन्होंने मेरे लिए किताब लिए, और उनके साथ ही एक मित्र के घर बाउल का गाना सुनने और रात्रि भोजन के लिए गयी थी, जहाँ उनकी ख़ुद की बनाई ख़ास सब्जी (चचरी) भी थी अटैक से ठीक पहले वो मेरे और मेरे बेटे के लिए नाश्ते की तैयारी कर रही थीं आधा खाना बना चुकी थीं, आधा वैसे ही कटा खुला रखा हुआ था मेरे पहुँचने तक सिर्फ उनके दाहिने हाथ और पैर पर असर हुआ था, चेहरा ठीक था और बोल पा रही थीं  मेरे पहुँचने से पहले उन्होंने ख़ुद मनीषा को फ़ोन कर बताया कि उन्हें अटैक आया है और वो जल्दी आ जाए उन्होंने मंजु दी से जो संयोग से मेरे साथ ही उनसे मिलने आई थीं क्योंकि काफी दिनों से वो मिली नहीं थीं, अपना थैला मँगा कर उसमें रखे पैसे उन्हें दिए जिसे मनीषा को दे देने के लिए कहा ताकि उनका इलाज़ उनके अपने पैसों से हो, किसी और की मदद वो लेना नहीं चाहती थीं जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो पूरे होश में थीं और बताई कि कैसे यह सब हुआ और बोलते-बोलते आवाज़ लड़खड़ाने लगी साँस लेने में उन्हें बहुत तकलीफ़ हो रही थी मंजु दी और मैंने बहुत कहा कि अस्पताल चलिए, लेकिन वो राज़ी नहीं थीं फिर उन्होंने कहा कि ठीक है डॉक्टर को बुला लो मंजु दी ने डॉक्टर को फ़ोन किया लेकिन डॉक्टर शान्तिनिकेतन में उपलब्ध नहीं थे तब तक मनीषा आ गई और फिर ज़िद कर हम सबने उन्हें गाड़ी से अस्पताल भेजा गाड़ी में बैठते हुए उनकी साँसे भी अटक रही थी, बहुत मुश्किल से उनको बिठाया गया जाते-जाते भी मनीषा और मंजु दी से वे कहती रहीं कि मुझे ज़रूर से खाना खिला दे जो कुछ भी वो बना पाई हैं इशारे से वो मुझे कह रही थीं कि घर जाकर खा लो बहुत कोशिश कर भी वो कुछ बोल नहीं पा रहीं थीं अस्पताल में प्राथमिक चिकित्सा किया गया, और देखते ही देखते शरीर का समूचा दाहिना हिस्सा काम करना बंद कर दिया  


स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उन्हें दुर्गापुर ले जाने का निर्णय लिया गया जब ये बात श्यामली दी को बताया गया तो बहुत जोर से चिल्लाने लगी कि उन्हें शान्तिनिकेतन में ही रहना है कहीं बहार नहीं जाना है, जबकि उनकी आवाज़ स्पष्ट नहीं थी पर इशारे में भी वो यही कहती रहीं एक मित्र ने उन्हें कहा कि आप फिक्र न करें सारा इंतजाम हो जाएगा, तो और भी गुस्सा हो गईं उन्हें शायद लगा कि अस्पताल में ख़र्च ज़्यादा होगा और किसी और का पैसा खर्च न हो, इसलिए इशारे में कही कि मनीषा के पास पैसा है, किसी और से पैसा नहीं लेना है मैंने और मंजु दी ने समझाया कि आपके ही पैसे से इलाज़ हो रहा है आप फ़िक्र न करें  


शान्तिनिकेतन जहाँ प्रकृति, शिक्षा, कला, संस्कृति और विद्वता का केंद्र है, एक अच्छा अस्पताल नहीं, जहाँ सामान्य बीमारी से अलग किसी गम्भीर बीमारी का इलाज किया जा सके एम्बुलेंस ऐसी स्थिति में नहीं कि उस से श्यामली दी को दुर्गापुर भेजा जा सके। वहाँ मेरी गाड़ी भी थी और मनीषा की भी लेकिन आपातकालीन प्राथमिक चिकित्सा के बिना श्यामली दी को दुर्गापुर ले जाना संभव नहीं था। उन्हें साँस लेने में बहुत दिक्कत हो रही थी, लगातार ऑक्सीजन दिया जा रहा था दुर्गापुर से एम्बुलेंस चल चुका था इस बीच सत्य (श्यामली दी के एक मित्र) ने साथ जाने का फैसला लिया तो श्यामली दी के पैसे और झोला उन्हें दे दिया गया। इस बीच श्यामली दी के मित्र और शुभचिंतक जमा हो चुके थे और सभी बहुत दुखी थे  

अभी एम्बुलेंस के आने में 2 घंटा और लगना था मनीषा ने कहा कि मैं भी जाकर खाना खा लूँ और इस बीच उसके कुछ सेमीनार होने थे वो सम्मिलित होकर शीघ्र आ जाएगी खाना खाकर वापस आकर मैंने श्यामली दी को बता दिया कि उनके घर जाकर उनका बनाया खाना मैंने खा लिया है और अब आप चिंता न करें वो बस मुस्कुरा दी और मुझे देखने लगीं उनकी आँखों में आँसू थे, शायद अपनी असमर्थता की पीड़ा पर बोलने की बहुत चेष्टा करती रहीं लेकिन आवाज़ गले में अटक रही थी मैंने उन्हें दिलासा दिया कि आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएँगी आप दूसरे अस्पताल में चलिए कुछ नहीं बोली बस डबडबाई आँखों से देखती रहीं  

मनीषा से लगातार मैं संपर्क में थी, दुर्गापुर में उनके सिर का ऑपरेशन हुआ कोई सुधार तो नहीं लेकिन स्थिर थीं लगातार वेंटिलेटर पर रहीं तब तक उनका पुत्र आनंदा भी कनाडा से आ गया फिर उनको कोलकाता ले जाया गया क्योंकि स्थिति दिन ब दिन बिगड़ रही थी। 18 जुलाई को उनको अटैक आया था और तब से लगतार अस्पताल में उनका इलाज चलता रहा मनीषा कई बार जाकर उनको देख चुकी थी मनीषा के लिए श्यामली दी बहुत महत्व रखती हैं, मनीषा के लिए जैसे सिर पर से साया उठ गया हो यूँ मनीषा के अपने माता पिता जीवित हैं परन्तु मानसिक संबल सदैव श्यामली दी से मिलता था 15 अगस्त को श्यामली दी ने अंतिम साँस लिया 

श्यामली दी का पूरा नाम श्यामली खस्तगीर है वो एंटी न्यूक्लिअर एक्टिविस्ट के साथ ही लोक-कला-संस्कृति जिसमें पेपर क्राफ्ट, कठपुतली (पपेट), मूर्तिकला, चित्रकला आदि के प्रसार के लिए भी काम करती रहीं वो समाज सेविका के साथ ही लेखिका, कलाकार, चित्रकार, शिल्पकार आदि कलाओं में निपुण मर्मज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हैं अपने घर 'पलाश' जो कि शान्तिनिकेतन के पूर्वपल्ली में स्थित है, गरीब बच्चों को पढ़ाती थीं इस घर में सभी तरफ इनके पिता और इनकी कला के नमूने कुछ सहेजे कुछ बिखरे हुए देखे जा सकते हैं इनके पिता श्री सुधीर खस्तगीर प्रसिद्ध शिल्पकार और चित्रकार थे, साथ ही गाँधीवादी और समाजवादी विचारधारा के व्यक्ति थे शुरूआती दिनों में देहरादून के प्रसिद्द दून स्कूल में 20 साल वे कला के शिक्षक रहे फिर लखनऊ के जी.सी.ए कॉलेज में प्रिंसिपल रहे श्यामली दी की माँ बनारस के एक ब्राह्मण परिवार से थीं श्यामली दी के सिर से माँ का साया बचपन में ही उठ गया था उनका बचपन देहरादून में बीता बाद में शान्तिनिकेतन से उन्होंने कला की पढ़ाई की विश्वविद्यालय के चीना भवन के विभागाध्यक्ष के पुत्र 'तान ली' जो कि कनाडा के मशहूर आर्किटेक्ट हैं से विवाह किया और साथ ही कनाडा चली गईं वहाँ जाने के बाद वे भारत के साथ ही अमेरिका और कनाडा के शान्ति आन्दोलन से भी जुड़ गईं और अमेरिका में इस आन्दोलन के कारण उनकी गिरफ्तारी भी हुई कनाडा के वैभवशाली जीवन से जल्द ही ऊब गईं और फिर अपने पति से अलग होकर वापस शान्तिनिकेतन आ गईं अपनी सोच और विचारधारा के कारण वो मेधा पटकर और बाबा आमटे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता के संपर्क में आईं और साथ मिलकर काम करती रहीं 44 वर्षीय आनंदा जो उनके एकमात्र पुत्र हैं कनाडा में अपने परिवार के साथ रहते हैं  
शान्तिनिकेतन से 10 किलो मीटर दूर तिलुतिया गाँव में एक आश्रम को शयमाली दी ने अपनी मृत्यु के बाद दाह संस्कार के लिए तय कर रखा है उनके चाहने और जानने वाले देश-विदेश से आज यहाँ शान्तिनिकेतन में इकत्रित हो चुके हैं श्यामली दी का शरीर आज शान्तिनिकेतन में ज़मींदोज़ कर दिया गया और उसी जगह पर एक पेड़ लगाया गया जैसा कि श्यामली दी की अंतिम इच्छा थी  
शान्तिनिकेतन जैसे उनके जिस्म का कोई हिस्सा हो, या फिर वज़ूद का शान्तिनिकेतन से बाहर वो रहने का सोच भी नहीं सकती थीं अपनी पूरी ज़िन्दगी उन्होंने शान्तिनिकेतन को समर्पित कर दिया और आज ख़ामोशी से अपने चाहने वालों को छोड़ सदा के लिए शान्तिनिकेतन में समाहित हो गईं 

- जेन्नी शबनम (अगस्त 16, 2011)
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Monday, August 15, 2011

26. स्मृतियों से शान्तिनिकेतन (भाग- 1)


ये जाना पहचाना रास्ता अब अनजान था, शायद वक़्त पहचान को अजनबियत में भी बदल देता है सड़क के दोनों ओर हरे-हरे पेड़, बीच में कुछ दूर छोटे बड़े शांत पहाड़, तेज़ भागती गाड़ी और किसी बॉलीवुड की फ़िल्म की तरह तेज़ी से आँखों से गुज़रता फ्लैश बैक मन में उमंग, उत्सुकता और उल्लास बीच-बीच में मनीषा (मनीषा बनर्जी जो मेरी मित्र है और पास के गाँव के एक सरकारी इंटर स्कूल में शिक्षिका है) का फ़ोन आता कि हमलोग कहाँ तक पहुँचे? यूँ तो भागलपुर से शान्तिनिकेतन 210 किलोमीटर ही है, पर सड़क की बदहाल स्थिति के कारण हमें 6 घंटे लग गए भागलपुर से बाँका, मंदारहिल, दुमका, सिउरी होते हुए हम शान्तिनिकेतन पहुँचे शान्तिनिकेतन का रतनपल्ली, जहाँ आज से 20 साल पहले मैं कई महीने रह चुकी हूँ, बिल्कुल पहचान ही न पाई सबकुछ बदला-बदला लग रहा था अपरिचित-सा अचानक एक दूकान पर नज़र पड़ी 'रंजना', मैंने चौंककर कहा ''अरे ये तो हाशिम भाई की दूकान है (लुत्फा दी के शौहर) जिनके मकान में मैं रहती थी पर कालो की दूकान कहाँ है? जहाँ गौर दा के साथ अक्सर खाने के लिए जाती थी'' मैं चारो तरफ़ देख रही थी, कितना कुछ बदल गया है यहाँ मैं भी तो पूर्णतः बदल गई हूँ, जब यहाँ से गई थी तो अविवाहित थी, दोबारा यहाँ आई हूँ अपने 18 साल के बेटे के साथ मन में सोचकर ख़ुद ही हँसी भी आई और ख़ुद पर तरस भी सच वक़्त और दूरी सब कुछ बदल देता है, शायद अपनापन भी तब तक मनीषा अपनी बेटी मेघना जो 9 वर्ष की है के साथ वहाँ तक आ चुकी थी और फिर उसके साथ हमलोग उसके घर गए मनीषा से मेरा परिचय भागलपुर में हुआ था, जब भागलपुर दंगा (अक्टूबर 1989) के बाद गौर दा एक टीम बनाकर हमारे घर आए थे, और बाद में 1990 में मुझे शान्तिनिकेतन लेकर गए जहाँ बानी दी और मनीषा के साथ मैं रही थी उन दिनों मनीषा अँगरेज़ी में एम. ए. कर रही थी और मृणालिनी छात्रावास में रहती थी अब वह रतनपल्ली में अपना मकान ख़रीद ली है जहाँ पति से अलग होने के बाद अपनी एकमात्र बेटी के साथ रहती है 
मनीषा ने मेरे लिए शुद्ध शाकाहारी खाना बनवा रखा था और मेरे बेटे के लिए मछली यूँ मनीषा भी शाकाहारी है मैंने कहा भी कि सिद्धांत (मेरा बेटा अभिज्ञान सिद्धांत) के लिए मछली क्यों बनवाई, तो बोली कि बंगाल आए और मछली न खाए, ऐसा कैसे होगा। मनीषा का घर बड़ा प्यारा है ऊपर के कमरे में हमारे रहने का प्रबन्ध किया था उसने खाना खाकर हम बात कर ही रहे थे कि लुत्फा दी (लुत्फा मुंशी) आ गईं वे हिन्दी नहीं बोल पातीं हैं और मैं अब ठीक से बँगला नहीं बोल पाती हूँ। मुझे देखकर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ कि एक लड़की दुबली पतली चुप-चुप-सी रहने वाली, अब एक औरत है, जिसका छेले (बेटा) 18 साल का, थोड़ी मोटी-मोटी-सी हँसती खिलखिलाती हुई थोड़ी देर बातें हुईं फिर घर आने का कहकर वे चली गईं  
शाम को हमलोग प्रकृति गए, जहाँ क्राफ्ट मेला लगता है छोटे पौष मेला जैसा, लेकिन वैसा ही मनमोहक मिट्टी, लकड़ी, पत्थर आदि से बना कान का गले का आभूषण, हाथ से बना पेपर, बाटिक प्रिंट के कपड़े, बाऊल के गीत सब कुछ थे वहाँ। फिर वहाँ से श्यामली दी (श्यामली खस्तगीर जो एक सामजिक कार्यकर्ती, लेखिका, चित्रकार, हस्तकला और लोककला की मर्मज्ञ हैं) से मिलने मनीषा के साथ हमलोग पास के एक कॉफ़ी हाउस गए, जहाँ से श्यामली दी के साथ एक मित्र के घर जाना था, जहाँ रात्रि भोजन भी और बाऊल गान भी होना था मैं, मनीषा, मेघना और सिद्धांत कुछ खाने का ऑर्डर कर श्यामली दी के आने का इन्तिज़ार कर रहे थे थोड़ी देर में श्यामली दी उसी पुराने अंदाज़ में आईं सूती साड़ी, दोनों कंधे पर दो झोला, पर इस बार उनको चप्पल पहने भी देखा मुझे याद है उन दिनों वे शान्तिनिकेतन में बिना चप्पल के रहती थीं मैंने पाँव छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया, फिर मेरी मम्मी का हाल पूछने लगीं वहाँ से वे एक किताब की दूकान में हमें ले गईं, जहाँ से उन्होंने 5 किताब ख़रीदे और अपनी लिखी हुई एक किताब जो वे साथ लाई थीं, मुझे तोहफ़े में दिया साथ ही सेरेमिक की एक छोटी सी प्याली और एक सुराही भी दी जो सजावट के लिए है और शान्तिनिकेतन के पॉटरी में बनता है फिर वहाँ से हम लोग सत्य शिवरमन के घर गए जो अभी हाल ही में शान्तिनिकेतन रहने आए हैं और पेशे से पत्रकार हैं वहाँ 5-6 बाऊल (गेरुआ वस्त्र पहनते हैं, एकतारा से धुन बजाते हैं और भक्ति गाना गाते हैं जो सूफी संगीत की तरह होता है) पहले से आ चुके थे, बस हमलोग के आने का इन्तिज़ार हो रहा था सबसे नमस्कार के बाद उनका गाना शुरू हुआ, हम सभी डूब रहे थे उनके गाने में गाने के बाद खाना लगाया गया सत्य और उनकी मित्र मधुमिता ने ख़ुद ही सारा खाना बनाया था और श्यामली दी की बनाई हुई एक ख़ास सब्जी भी थी खाने के बाद श्यामली दी को उनके घर पर छोड़ कर हम मनीषा के घर आ गए  

दूसरे दिन विश्वभारती विश्वविद्यालय घूमने जाना था साथ ही पुराने एक-दो मित्र से मिलना भी था नाश्ते के बाद मनीषा के साथ हम लोग हिन्दी भवन गए हिन्दी भवन की विभागाध्यक्ष मंजु दी (मंजु रानी सिंह) से मिले, वे भागलपुर की रहने वाली हैं और उनकी शिक्षा विश्वभारती में हुई है जब मैं यहाँ रहती थी तो अक्सर उनसे मिलती थी सुभाष (सुभाष चन्द्र राय) जो अब हिन्दी भवन में ही व्याख्याता हैं (बेगुसराय के रहने वाले हैं, उन दिनों यहाँ के छात्र थे और वी.पी.सिंह का गहरा प्रभाव होने के कारण उनकी ही तरह कुरता पायजामा और टोपी पहनते थे) को भी मंजु दी ने बुला लिया सुभाष अब भी वैसे ही हैं, पर अब टोपी उतार दिया है बानी दी (जिनके घर पर मैं एक महीना रही थी) के घर अक्सर छात्रों का जमावड़ा होता था जिनमें सुभाष भी होते थे रात को मंजु दी ने खाने पर बुलाया और फिर रात में मिलने का कहकर मैं सिद्धांत को टैगोर का घर दिखाने ले गई टैगोर का पाँचो घर- उदयना, कोणार्क, श्यामली, पुनश्च और उदीची हमने देखा 'बिचित्र' जिसे रबिन्द्र भवन भी कहते हैं, जहाँ टैगोर का म्यूजियम है इनदिनों बन्द हैं, सुरक्षा के कड़े प्रबंध के लिए कुछ निर्माण कार्य चल रहा है संगीत भवन और कला भवन भी हम घूम आए फिर मृणालिनी छात्रावास (कुछ दिन वहाँ भी मनीषा के साथ रही थी) देखते हुए मनीषा के घर वापस आए मनीषा ने साड़ी, कुर्ता, बैग, फ़ाइल होल्डर, मिट्टी का गले-कान का सेट आदि मेरे लिए और मेरे परिवार के लिए तोहफ़े में दिया जो उसने वहीं के कॉपरेटिव स्टोर से लिया था खाना खाकर हम और मनीषा बातें करने बैठ गए बीती ज़िन्दगी की बातें जिनमें मनीषा की मुश्किलों भरी ज़िन्दगी और गौर दा (गौर किशोर घोष जो आनन्द बाज़ार पत्रिका के सिनियर एडिटर, कहानीकार, उपन्यासकार, लेखक थे; 1981 में उन्हें पत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक सम्प्रेषण कला के लिए मैग्सेसे सम्मान मिला था तथा सामाजिक कार्यकर्ता भी थे) की बातें प्रमुख थीं गौर दा ही थे जो मुझे शान्तिनिकेतन लेकर आए थे; क्योंकि मैं उन दिनों बहुत परेशान रहती थी फिर मनीषा का एक मित्र रेहान आया, जो मनीषा का सहकर्मी है, जिससे बातें कर हमलोग लुत्फा दी के घर गए 
लुत्फा दी के घर में किराया लेकर मैं बिलकुल अकेले कई माह रही थी। बड़ी-सी खुली छत पर एक कमरा 'एल' आकर का, उससे लगा एक बड़ा-सा रसोईघर, बाहर दरवाज़े से लगा शौचालय मेरे पास सामान के नाम पर एक चटाई और पतला तोसक (गद्दा), एक तकिया, कुछ कपड़े, एक छोटा सूटकेस, एक स्टोव, एक कूकर, कुछ बर्तन, एक वाकमैन और ढेर सारे कैसेट थे। मैं अपने घर पर इतना डरती थी कि अकेले सो भी नहीं सकती थी और यहाँ अकेले रह रही थी बड़े प्यारे दिन थे वे भी कुछ जल्दी-जल्दी बना-खा लिया और चल पड़े किसी तरह का कोई डर नहीं उन्हीं दिनों सुनीता गुप्ता नाम की एक छात्रा जो हॉस्टल में रहती थी, से मेरी दोस्ती हुई उसके बाल बहुत लम्बे थे घुटने से भी ज़ियादा बड़े जब भी कोई पर्यटक उसे देखता तो कहता देखो बंगाली लड़की का बाल, और हम दोनों हँस देते थे, क्योंकि वह बंगाली नहीं थी, गोरखपुर की रहने वाली थी पूरे पौष मेला में हम दोनों मेरे घर पर खिचड़ी बनाकर खा लेते और निकल जाते, दिन भर मेला देखते रहते पता नहीं वह कहाँ है आजकल उसका पता नहीं मिल पाया मुझे लुत्फा दी ने ढेर सारी तैयारी कर रखी थी खाने की पहले मुझे वह कमरा देखना था, जहाँ मैं रहती थी बहुत उत्साह से पूरा घर दिखाया उन्होंने अब वहाँ पर एक और कमरा बन गया है जिसमें उनकी एकमात्र बेटी जब ससुराल से आती है तो रहती है मेरे बाद कोई और नहीं रहा वहाँ फिर हमलोगों ने नाश्ता किया बहुत अच्छा खाना बनाती हैं लुत्फा दी उन दिनों भी अक्सर कुछ न कुछ खिलाती थीं मुझे मेरे लिए शान्तिनिकेतन का एक बैग और सिद्धांत के लिए एक वालेट तोहफ़ा में दिया उन्होंने अपनी लिखी पुस्तक (बांग्ला लिपि में) जो उनकी आत्मकथा है मुझे दिया दोबारा आने का कहकर हमलोग वहाँ से विदा हुए ठीक उनके मकान से लगा हुआ बानी दी (बानी सिन्हा, 92 वर्षीया, गौर दा की मित्र, जिनके घर मैं एक महीना से भी ज़ियादा रही थी) का घर था, अब वे दूसरे मकान में रहती हैं और अस्वस्थ होने के कारण इन दिनों कोलकाता में अपनी बहन के पास रह रही हैं, बाहर से खड़े होकर उस मकान को देख लिया फिर हम बोलपुर बाज़ार चल पड़े, यहाँ का कुछ ख़ास सामान यादगार स्वरुप लेने के लिए 

रात्रि भोजन के लिए हमलोग मं
जु दी के घर के लिए निकले रास्ते में अमर्त्य सेन का घर आया, गाड़ी थोड़ी धीमी कर हमने उस घर को ठीक से देख लिया मंजु दी के घर कविताओं पर थोड़ी चर्चा हुई मंजु दी और मनीषा ने अपनी-अपनी स्वरचित कविता सुनायी मैं अपनी उसी दिन की लिखी हुई कविता सुनायी जो शान्तिनिकेतन पर लिखी थी कविता के भाव इस तरह है जैसे कि शान्तिनिकेतन और मेरे बीच वार्ता हो रही हो कि क्यों छोड़ गई थी शान्तिनिकेतन, फिर से दोबारा आना वक़्त निकाल कर कुछ दिनों के लिए, साथ-साथ यादों को जिएँगे 
 
उन्हीं दिनों की तरह 
*******
चौंककर उसने कहा 
''जाओ लौट जाओ 
क्यों आयी हो यहाँ  
क्या सिर्फ़ वक़्त बिताना चाहती हो यहाँ?
हमने तो सर्वस्व अपनाया था तुम्हें 
क्यों छोड़ गई थी हमें?''
मैं अवाक्! निरुत्तर!
फिर भी कह उठी 
उस समय भी कहाँ मेरी मर्ज़ी चली थी 
गवाह तो थे न तुम,
जीवन की दशा और दिशा को 
तुमने ही तो बदला था,
सब जानते तो थे तुम 
तब भी और अब भी
सच है, तुम भी बादल गए हो 
वो न रहे, जैसा उन दिनों छोड़ गई थी मैं, 
एक भूलभुलैया या फिर अपरिचित सी फ़िज़ा 
जाने क्यों लग रही है मुझे। 
तुम न समझो 
पर अपना सा लग रहा है मुझे 
थोड़ा-थोड़ा ही सही,
आस है 
शायद तुम वापस अपना लो मुझे 
उसी चिर-परिचित अपनेपन के साथ   
जब मैं पहली बार मिली थी तुमसे,   
और तुमने बेझिझक सहारा दिया था मुझे   
ये जानते हुए कि मैं असमर्थ और निर्भर हूँ   
और हमेशा रहूँगी,   
तुमने मेरी समस्त दुश्वारियाँ समेट ली थीं   
और मैं बेफ़िक्र   
ज़िन्दगी के नए रूप देख रही थी   
सही मायने में ज़िन्दगी जी रही थी   
सब कुछ बदल गया है वक़्त के साथ,   
जानती हूँ   
पर उन यादों को जी तो सकती हूँ   
ज़रा-ज़रा पहचानो मुझे   
एक बार फिर उसी दौर से गुज़र रही हूँ,   
फ़र्क़ सिर्फ़ वजह का है   
एक बार फिर मेरी ज़िन्दगी तटस्थ हो चली है   
मैं असमर्थ और निर्भर हो चली हूँ   
तनिक सुकून दे दो   
फिर लौट जाना है मुझे   
उसी तरह उस गुमनाम दुनिया में   
जिस तरह एक बार ले जाई गई थी तुमसे दूर   
जहाँ अपनी समस्त पहचान खोकर भी   
अब तक जीवित हूँ   
मत कहो-   
''जाओ, लौट जाओ'',   
एक बार कह दो-   
''शब, तुम वही हो मैं भी वही   
फिर आना कुछ वक़्त निकालकर   
एक बार साथ-साथ जिएँगे   
फिर से उन्हीं दिनों की तरह   
कुछ पल!'' 
-0-
मं
जु दी से दुर्गा दा का पता करने को कहा था। मैं जब यहाँ रह रही थी तब एक महीने तक रोज़ एक घंटा दुर्गा दा से गाना सीखती थी जिस दिन यहाँ से वापस गई किसी से मिल न पाई, दुर्गा दा को धन्यवाद भी न दे सकी थी मुझे उनका पूरा नाम भी मालूम न था, सिर्फ दुर्गा दा ही जानती थी मंजु दी ने उनके घर का पता लगा लिया था सुबह 8 बजे मिलने का वक़्त दिया उन्होंने एक उलझन यह भी थी कि क्या ये वही दुर्गा दा हैं या कोई और हैं, और इसका समाधान उनसे मिलने के बाद ही होना था तय हुआ कि सुबह मंजु दी के साथ जाऊँगी और अगर वे वही दुर्गा दा न हुए तो फिर उनसे पता करुँगी ख़ैर पता भी सही था और दुर्गा दा भी वही थे वे बहुत ख़ुश हुए मुझसे मिलकर पर पहचानने में थोड़ा वक़्त लगा उन्हें बानी दी का नाम कहने पर तब यादकर सके वे मुझे क्योंकि बानी दी ने ही मेरे संगीत शिक्षा के लिए उनसे बात की थी 

आज वापस लौटना था
 श्यामली दी ने सुबह अपने घर नाश्ते पर बुलाया था। नाश्ते के बाद सीधे वहीं से भागलपुर लौट जाने की बात तय हुई थी। दुर्गा दा से मिलने के बाद मेरे साथ ही मंजु दी मनीषा के घर आ गईं, काफ़ी दिनों से वे श्यामली दी से मिली नहीं थीं, तो मेरे साथ ही उनके घर चलेंगी मनीषा बाद में आने का बोली क्योंकि उस दिन उसे 3-4 सेमीनार में जाना था, जहाँ उसे बोलना भी था। हम अपना सारा सामान लेकर चल दिए क्योंकि श्यामली दी के घर से ही भागलपुर के लिए निकल जाना था  
श्यामली दी का घर 'पलाश' जहाँ मैं बहुत आया करती थी और उनसे लाल चन्दन के बीज से गहना बनाना सीखा था, आज भी गेट के भीतर घुसते ही गिरा हुआ दिखा बेटे को मैंने कहा कि कुछ बीज उठा लो, कैसे बनाती थी याद करुँगी जैसे ही हम लोग उनके घर के बरामदे में पहुँचे कि एक अफ्रिकन जो उनका मित्र है घबराया हुआ बाहर आया और बताया कि श्यामली दी को अटैक आया है हम सभी दौड़ते हुए अन्दर पहुँचे एक कुर्सी पर वे निढ़ाल बैठी थीं, एक पाँव और एक हाथ में लकवा (paralysis) का अटैक हो चुका था चेहरे पर उस समय तक नहीं हुआ था और बोल पा रही थीं हमारे पहुँचने से पहले ही उन्होंने मनीषा को फ़ोन कर दिया था कि उन्हें अटैक आया है हॉस्पिटल जाने को राज़ी नहीं थीं पर बहुत कहने पर राज़ी हुईं कि शान्तिनिकेतन के ही हॉस्पिटल में जाएँगी बाहर नहीं एक कमरे की तरफ इशारा कर उन्होंने एक झोला मँगवाया और उसमें से पैसे निकाल कर मंजु दी को दिया कि मनीषा को दे देना मंजु दी से बार-बार कह रही थीं कि जेन्नी को खाना खिला देना धीरे-धीरे उनके चेहरे पर भी असर होने लगा तब तक मनीषा आ गई फिर हम सभी मिलकर मनीषा की गाड़ी से उनको अस्पताल भेजे फिर सत्य शिवरमन को सूचना दी गई, वे आए तो उन्हें लेकर हम अस्पताल पहुँचे अस्पताल में उनके मित्रों की भीड़ लग गई थी चूँकि कोई भी उनका रक्त-सम्बन्धी नहीं था तो अस्पताल की कार्यवाही में दिक्कत आ रही थी, परन्तु डॉक्टर अपना काम कर रहे थे डॉक्टर ने उनको दुर्गापुर या कोलकाता ले जाने के लिए कहा, क्योंकि स्थिति बहुत नाज़ुक थी शरीर का पूरा दाहिना हिस्सा लकवाग्रस्त हो चुका था और चेहरा भी वहाँ जब हम लोग मिलने गए तो उन्होंने इशारे से कहा कि खाना खा लेना और मंजु दी को कहा कि जेन्नी को खाना खिला देना हम लोगों ने कहा कि दुर्गापुर जाना है तो इस स्थिति में भी इनकार करने लगी कि शान्तिनिकेतन छोड़कर नहीं जाना है तब तक दुर्गापुर से एम्बुलेंस लाने की व्यवस्था हो गई थी सत्य ने स्वयं उनके साथ एम्बुलेंस में जाने का निर्णय लिया तत्पश्चात श्यामली दी का झोला जिसमें पैसा था सत्य को दे दिया गया  
मनीषा ने मुझसे कहा कि एम्बुलेंस आने में 2 घंटा लगेगा तब तक घर जाकर खा लो नहीं तो श्यामली दी को बहुत दुःख होगा, तब तक वह भी अपने सेमीनार से होकर आ जाएगी मंजु दी के साथ हम श्यामली दी के घर आए एक रिक्शावाला वहीं रहता है, उसने बताया कि श्यामली दी रात में बहुत देर तक जागी थीं और सुबह से हमारे लिए खाने की तैयारी कर रही थीं खाना बनाने और खिलाने की शौक़ीन रही हैं श्यामली दी मिक्स पराठा बना चुकी थीं, पनीर बना कर रखी थीं, आलू उबला हुआ, प्याज आधा कटा हुआ, फ्रिज़ में कई तरह की सामग्री इस परिस्थिति में खाने का मन नहीं हो रहा था पर इंसुलिन लिए काफ़ी देर हो चुका था तो खाना भी आवश्यक था फिर पनीर आलू को भूंजकर पराठा और अचार के साथ हम तीनों ने खाना खाया इस बीच मंजु दी ने सिद्धांत से कहा कि घर की तस्वीर ले लो, क्योंकि श्यामली दी के पिता सुधीर खस्तगीर एक बहुत बड़े शिल्पकार और चित्रकार थे, और ख़ुद श्यामली दी भी उनकी कीमती कलाकृति सब वैसे ही पड़ी हुई थी श्यामली दी के पुत्र 'आनन्दो तान ली' कनाडा में रहते हैं, जब तक वे आ न जाएँ तब तक पता नहीं किसके पास घर की चाबी हो मैंने मनीषा से कहा कि उनके घर की चाबी वह ख़ुद रखे किसी और को न दे, क्योंकि मनीषा को श्यामली दी बहुत मानती थीं फिर वापस आकर मैंने श्यामली दी को बताया कि हम लोगों ने उनका बनाया खाना खा लिया है, तो वे मुस्कुरा दीं और भर्राई हुई आवाज़ में कुछ कहा उन्होंने शब्द गले में अटके जा रहे थे, बहुत चेष्टा कर भी स्पष्ट बोल नहीं पा रही थीं आँखें भींग गई थी उनकी उस मुस्कराहट में लग रहा था जैसे कि उनके बनाए हुए खाने को मेरे खा लेने से उनको तसल्ली मिली हो इस अवस्था में भी उन्हें अपने से ज़ियादा दूसरों की फ़िक्र थी अपना इलाज उन्हें अपने पैसे से ही कराने की ज़िद भी
करीब 3 बजे हम लोग भागलपुर के लिए चल दिए। मुझे अस्पताल में दुर्गा दा का फ़ोन आया कि रास्ते में उनका विद्यालय है, मिलते हुए जाना श्रीनिकेतन में रास्ते में उनसे मिलते हुए हम वापस भागलपुर के लिए रवाना हो गए, साथ में कुछ अच्छी और कुछ दुःख भरी यादों को साथ लिए गौर दा से तो मैं मिल न सकी थी, सन 2000 में ही उनकी मृत्यु हो गई थी, जो मुझे सन 2003 में पता चला ज़िन्दगी में मैं ऐसी उलझी कि विवाह पूर्व के सारे रिश्ते खोते चले गए बानी दी भी अब बहुत ज़ियादा अस्वस्थ हो चली हैं, शान्तिनिकेतन कम ही रहती हैं बाद में कोलकाता जाना हुआ तो टॉम दा (इन्द्रजीत रॉय चौधरी जो चित्रकार और पुराने वस्तु के संग्राहक हैं और बानी दी के भाई हैं) से मुलाक़ात हुई उन दिनों टॉम दा जब भी शान्तिनिकेतन आते थे तो मुझसे ज़रूर मिलते थे। जब मैं वहाँ रह रही थी तब अपने हाथों से बनायी हुई दो अँगूठी और बंगाल की एक साड़ी उपहारस्वरूप उन्होंने मुझे दी थी दोबारा एक बार और कोलकाता जाना हुआ तो उनकी माँ रेणुका रॉय चौधरी से मुलाक़ात हुई जो अपने समय की विख्यात उपन्यासकार थीं 

श्यामली दी का ऑपरेशन हो चुका है और लोगों को थोड़ा-थोड़ा पहचान रही हैं लेकिन स्थिति बहुत ही नाज़ुक बनी हुई है
 उनका बेटा भी आ चुका है और माँ का पूरा ख़याल रख रहा है अब श्यामली दी को कोलाकाता ले जाया गया है, लेकिन स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता जा रहा है, अब भी वे वेंटीलेटर पर हैं जब तक बोल सकी और इशारे से भी, अब भी शान्तिनिकेतन जाने की बात करती हैं आगे क्या होगा नहीं पता, लेकिन मुझे लगता है कि अब उन्हें वापस शान्तिनिकेतन ले ही आना चाहिए, कम से कम मानसिक रूप से तो वे मज़बूत महसूस करेंगी यूँ भी उनके प्राण शान्तिनिकेतन में ही बसते हैं, भले कुछ कहने में अब असमर्थ हो गई हैं उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना सभी जानने और चाहने वाले कर रहे हैं स्वस्थ हो जाने के बाद एक बार फिर से शान्तिनिकेतन जाऊँगी श्यामली दी से मिलने 

- जेन्नी शबनम (11. 8. 2011)

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