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Saturday, September 27, 2025

128. ख़ुश रहें कि हम ज़िन्दा हैं


चित्र: गूगल से साभार 
पूरी दुनिया में कोरोना के संक्रमण का क़हर अब भी जारी है। कोरोना ने न धर्म पूछान जाति देखीन व्यवसाय जानान घर देखान धन देखान उम्र देखीन प्रांत पूछान देश देखान सरोकार जानाएक सिरे से सभी को अपनी चपेट में लेने लगा। कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर आने वाली हैजिसके लिए स्वास्थ्य संगठनों ने कहा है कि इसका असर बच्चों पर ज़्यादा होगा। कोरोना की पहली और दूसरी लहर की मार से उबर भी न पाए हैं कि तीसरी लहर की चेतावनी ने बेहद डरा दिया है हमें। लेकिन समय के आगे नतमस्तक हैं, अब जो होगा देखा जाएगा। हज़ार कोशिशों के बावजूद कोरोना संक्रमण के प्रसार पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। अतः इस न्यू नार्मल के अनुसार हमें अपनी जीवन पद्धति को बदलकर जीवन को ख़ुशनुमा बनना होगा; ताकि जो वक़्त हमारे पास है, ख़ुशियों से भरा हो। अभी ज़िन्दा हैकल हम हों, न हों। एक पुराने गीत के अर्थपूर्ण बोल को सदा ेंहमें याद रखना चाहिए- ''आगे भी जाने न तूपीछे भी जाने न तू / जो भी हैबस यही एक पल हैजीनेवाले सोच लेयही वक़्त है कर ले पूरी आरज़ू।''

विगत वर्ष 2020 के फरवरी माह में इस कोरोना विषाणु के संक्रमण से महामारी की चेतावनी आई थीपरन्तु इसकी भयावहता से हम लोग अनभिज्ञ थेअतः लापरवाही हुई। कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ाने के लिए ताली-थाली-घंटी बजाने तथा दीप या मोमबत्ती जलाने का आह्वान हुआ। लोगों ने इसे भी काफ़ी मनोरंजक बनाया और पटाखे भी फोड़े लेकिन कोरोना इतना भी कमज़ोर नहीं है। वह और ज़ोर से मृत्यु का तांडव करने लगा। किसके साथ क्या हो रहा है, इससे हम सभी अनभिज्ञ रहे और अपने-अपने घरों में सिमटकर रह गए। न जाने कब तक ऐसा चलता रहेगा। मन में ढेरों सवाल हैजिनका जवाब किसी के पास नहीं। हाँयह ख़ुशी की बात है कि इतनी जल्दी कोरोना का टीका आ गया और करोड़ों लोगों ने लगवा भी लियायद्यपि लोग लगातार संक्रमित हो रहे हैं। इस ख़बर के इन्तिज़ार में हम सभी हैं- जब यह सूचना आए कि हमारे जीवन से कोरोना सदा के लिए विदा हो गया और हम निर्भीक होकर अपने पुराने समय की तरह जी सकते हैं। 

कोरोना काल में यों तो ढेरों समस्याअसुविधादुःख हमारे जीवन का हिस्सा बनेपरन्तु इन प्रतिकूल और भयावह परिस्थितियों में भी हम खुशियाँ बटोरना सीख गए। कोरोना काल में अंतर्जाल ने पूरे समय हम सभी का साथ दिया और मन बहलाए रखा। ख़ूब सारे सृजन कार्य हुएचाहे वह लेखन हो या अन्य माध्यम। फेसबुक लाइव, इंस्टाग्राम लाइव, यूट्यूब  लाइवज़ूम मीटिंग इत्यादि होता रहा। ख़ूब सारी लाइव कवि-गोष्ठी हुई। मेरे एक मित्र ने प्रतिदिन इंस्टाग्राम पर लाइव कार्यक्रम किया, जिसमें देश के बड़े-बड़े हस्ताक्षर जिनमें लेखककविसंगीतज्ञनर्तकलोक कलाकारफ़िल्मी कलाकारफ़िल्मी कार्य से संबद्ध मशहूर लोगसामजिक कार्यकर्ताकला मर्मज्ञ इत्यादि शामिल हुए। ओ.टी.टी पर ख़ूब फ़िल्में प्रसारित हुईं। हर दिन एक नए कार्यक्रम में हम सभी उपस्थित होकर जीवन की कठिनाइयों को पीछे छोड़कर जो है जितना हैउसमें मनोरंजन करने लगे।

 

कोरोना शुरू होने के बाद स्कूल-कॉलेज जो बंद हुए तो अब तक लगभग बंद हैं। यूँ ऑनलाइन पढ़ाई चल रही है अब तो बिना परीक्षा दिए ही बोर्ड का रिजल्ट भी निकालना पड़ा। बच्चों के लिए यह सब बहुत सुखद है। सुबह-सुबह स्कूल जाने से छुट्टी मिली। मनचाहा खाना खाने को मिला। पढ़ने के लिए कोई पूर्व निर्धारित समय नहीं। बस मस्ती-ही-मस्ती। कुछ बच्चों ने खाना पकाना सीखाकिसी ने बागवानीकोई चित्रकारी कर रहा है, तो कोई अपने किसी अधूरी चाहत को पूरी कर रहा है। घर के काम में बच्चे भी हिस्सा ले रहे हैक्योंकि बाहर से कार्य करने कोई नहीं आ सकता है। घर में सभी लोग आपस में गप्पे लड़ा रहे हैं या कोई खेल खेल रहे हैं। सभी साथ बैठकर सामयिक घटनाओं पर चर्चापरिचर्चा और विचारों का आदान- प्रदान कर रहे हैं। अब बच्चे-बड़े सभी ने इस न्यू नार्मल को आत्मसात् कर जीवन को एक नई दिशा देकर जीने की कोशिश शुरु कर दी है 

 

कोरोना के इस गम्भीर और अतार्किक समय में उचित और सटीक क्या हो, यह कोई नहीं बता सकता है। अनुमान, आकलन, अफ़वाहअसत्यअसंवेदनशीलताआरोप-प्रत्यारोप इत्यादि का चारों तरफ़ शोर है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कुछ ऐसा है, जो मन को ख़ुशी दे जाता है। जब से कोरोना शुरू हुआ है, तभी से स्कूल, कॉलेज, ऑफ़िस, दुकानबाज़ार इत्यादि सभी कुछ बंद है। पूरा परिवार जो कभी एक साथ बैठने को तरसते थाआज सब एकत्र होकर न सिर्फ़ खाना खाते है; बल्कि एक दूसरे के साथ मिल-बाँटकर घर का काम भी निपटा रहे हैं। समय के इस काल ने जैसे सम्बन्धों की डोर को मज़बूती से बाँध दिया हो। जिनसे दूरी हो गई थी, वे भी अभी एक दूसरे का हाल-समाचार फ़ोन से ले रहे हैं। बच्चे हों या बुज़ुर्ग तकनीक का प्रयोग करना सीख गए हैं। घर से ही कार्यालय का कार्य हो रहा है जिससे काफ़ी पैसे बच रहे हैं। कम में जीने की आदत अब लोगों में पड़नी शुरू हो गई है। लोग जीवन की सच्चाई से वाक़िफ हो चुके हैं कि जीवन का भरोसा नहींकब बिना बुलाए कोरोना आ टपके और अपनों से सदा के लिए जुदा कर दे।

 

कोरोना के कारण लॉकडाउन होने से पर्यावरण पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। आसमान इतना साफ़ और सुन्दर हो गया है कि सहज ही नज़रें आसमान को ताकने लगती हैं। आम दिनों में प्रदूषण के कारण साँस लेना मुश्किल होता जा रहा है। पशुओं का विचरनापक्षियों का कलरव सभी कुछ ओझल-सा होता जा रहा है। शहरीकरण के कारण पशु-पक्षी जो पालतू नहीं हैउनका जीवन ख़तरे में रहता हैक्योंकि उनके लिए कोई समुचित स्थान नहीं है, जहाँ वे रह सकें। कचरे में पड़े हानिकारक प्लास्टिक में बचा भोजन गाय-भैंस खाते हैऔर वही दूध घरों में इस्तेमाल होता है। कोरोना में जानवरों के खाने का भी प्रबंध किया गयाजो अपने आप में बहुत उचित और सराहनीय क़दम है। पक्षी पेड़ों पर बेहिचक ऊधम मचाये हुए है, क्योंकि उन्हें मानव का डर जो नहीं रहा। पेड़-पौधे जो प्रकृति की धरोहर हैं, ख़ूब चहक रहे हैं; क्योंकि न तो उन्हें कोई काट रहा है न फूलों को तोड़ रहा है। बाग़-बगीचे अपनी हरियाली के साथ लहलहा रहे हैं। चारों तरफ़ इतनी सुन्दर और स्वच्छ हवा है कि मन खिल गया है, जब तक कोरोना का भय याद न रहे। जंगलज़मीनआसमाननदीखेतबाग़-बगीचा सभी जैसे खुलकर साँसें ले पा रहे हों। कंक्रीट के जंगल में अब ताज़ी बयार बह रही हैप्रदूषण चिड़िया की भाँति फुर्र हो गया है। नदियाँ गीत गाती हैं और उसकी लहरें अठखेलियाँ करती हुईं अपने गंतव्य की तरफ़ बेरोक-टोक भागी जा रही हैं। किसी तरह का कोई प्रदूषण नहीं। चारों तरफ़ शान्ति व्याप्त है। आश्चर्यजनक यह भी है कि आम दिनों में लोग जितने बीमार होते हैं, उससे बहुत कम अब लोग बीमार हो रहे हैं। 

 

सूरज-चाँद ख़ूब खिल रहे हैं। यूँ वे पहले भी दमकते रहे हैपरन्तु अब साफ़ आसमान होने के कारण यों महसूस होता है, मानों वे बहुत नज़दीक हमारी मुट्ठी की पकड़ में आ गए हैं। हवा में ख़ूब ताज़गी है। बारिश में बहुत मस्ती है। नदियाँ इतनी साफ़ हो गईं हैं कि आसमान का नीलापन पानी में घुल गया सा प्रतीत हो रहा है। भोर में चिड़ियों की चहचहाहट, जो खोती चली जा रही थीअब गूँजने लगी है। न बाहर गाड़ियों का शोर हैन आदमी की भीड़ में अफरा-तफरी। न भागमभाग है, न चिल्ल-पों। बच्चे अब शिशु घर में नहीं जा रहेअपने माता-पिताभाई-बहन के साथ घर में हैं और घर के कामों को करना सीख रहे हैं। अपने-अपने स्तर पर सभी एक दूसरे की मदद कर रहे हैं और नया कुछ सीख रहे हैं। बुज़ुर्ग अब सोशल मीडिया का प्रयोग करने लगे हैं। अभी के इस कोरोना काल में एक तरफ़ जीवन आशंकाओं से त्रस्त है, तो दूसरी तरफ़ समय और जीवन के प्रति सोच का नज़रिया बदल गया है। जीवन को सकारात्मक होकर लोग देख रहे हैं। सच ही है, ''हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िन्दगीहर पल यहाँ जीभर जियोजो है समाँ कल हो न हो।''

 

एक मज़ेदार बात यह है कि लॉकडाउन खुलने के बाद लोग बाहर किसी बहुत परिचित को देखकर भी नहीं पहचान पाते हैं; क्योंकि मास्क है। अब आज का न्यू नार्मल यही है कि हम अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिए मास्क पहने रहें। मास्क की उपलब्धता के लिए इसका व्यवसाय बहुत तेज़ी से फ़ैल रहा है। एक-से-एक ख़ूबसूरत मास्करंग बिरंगे मास्कपरिधान से मैचिंग मास्कचित्रकारी और फूलकारी किये हुए मास्करबड़ व फीते वाले मास्कअलग-अलग आकार और आकृति वाले मास्क। आजकल परिधान से ज़्यादा नज़र मास्क पर ही है। बच्चे भी बिना ना-नुकुर किये मास्क पहन रहे हैं। बहुत से लोग सुरक्षा के ख़याल से मास्क के ऊपर से फेस शील्ड भी लगाते हैं। शुरू में तो यह सब बड़ा अटपटा लग रहा था; परन्तु अब इसकी आदत हो गई है, देखने की भी और लगाने की भी। परन्तु मास्क के अन्दर होंठों पर हँसी टिकी रहनी चाहिए। हमें ख़ुश रहना है कि हम ज़िन्दा हैं।  

 

हवाई यात्रा में बीच की सीट पर जिन्हें सीट मिलती है उन्हें मास्कफेस शील्ड के अलावे पी.पी.इ. किट पहनना होता है। यों लगता है जैसे अंतरिक्ष की उड़ान के लिए वे तैयार हुए हैं। लेकिन हवाई-यात्रा में जब भोजन का समय होता है, तो मास्क और फेस शील्ड हटाकर भोजन करते हैं और फिर वापस पहन लिए जातें हैं। मैं सोचती हूँ कि जितनी देर यात्री भोजन करते हैंक्या कोरोना बैठकर सोचता होगा कि भोजन करते समय संक्रमण नहीं फैलाना चाहिएइसलिए वह रुक जाता होगा! अन्यथा कोरोना को आने में देर ही कितनी लगती है और दो गज़ की दूरी पर तो कोई भी नहीं रहता है

 

एक बात जो मुझे शुरू से अचम्भित कर रही है कि कोरोना की पहली लहर में ग्रामीण क्षेत्र इससे प्रभावित नहीं हुआ। मुमकिन है उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक हो। इस बात पर सभी को विचार करना चाहिए कि पहली लहर में आख़िर इस संक्रमण से गाँव अछूता क्यों रहानगर और महानगर इससे ज़्यादा प्रभावित हुए। आश्चर्यजनक यह भी है कि एक ही घर में किसी को कोरोना हुआकिसी को नहीं। अब यह कोरोना ऐसा क्यों कर रहायह भी सोचने का विषय है। सारे तर्क फेल हो रहे हैं। बस जो हो रहा है, उसे देखते जाना हैसमय के साथ तालमेल बिठाकर चलना है। आँख बंद कर लेने से न समस्या दूर होती हैन मुट्ठी बंद कर लेने से समय हमारी पकड़ में ठहरा रहता है; इसलिए जितना ज़्यादा हो जीवन में संतुलन बनाकर जीभरकर जीना चाहिए। हमें जीवन में सार्थक बदलाव लाकर जितना ज़्यादा हो सके प्रकृति के साथ जीना चाहिए।   

 

कोरोना महामारी भले ही लाखों लोगों को लील रहा है; लेकिन बहुत बड़ी सीख भी दे रही है। जीवन क्षणभंगुर हैजितना हो सके समय का सदुपयोग करें और खुश रहें। सच तो यही है कि जीवन जीना भूल गए हैं। समय के हाथ की कठपुतली बन उसके इशारे पर बस जीते चले जा रहे हैं। न ख़ुशीन उमंग, न नयापन। बने बनाए ढर्रे पर ज़िन्दगी घिसट रही है। किसी के पास इतना भी समय नहीं है कि ज़रा-सा रुककर किसी का हाल पूछ लेंकिसी से बेमक़सद दो मीठे बोल बोल लेंबेवजह हँसे-नाचें-गाएँकुछ पल सुकून से प्रकृति के सानिध्य में चुपचाप बैठ जाएँप्रकृति की चित्रकारी को जीभरकर देखें, उससे बातें करेंपशु-पक्षी को अपनी तरह प्राणी समझकर उसे जीने दें। कोरोना महामारी ने हमें ज़रूरत और फ़िज़ूलप्राकृतिक और अप्राकृतिक, बुनियादी ज़रूरत और विलासितास्वाभाविक और कृत्रिम जीवन शैलीअपना-परायाप्रेम-द्वेष, इस सभी की अवधारणा को अच्छी तरह समझा दिया है। इस पाठ को हम सभी को याद रखना चाहिए और हमें अपने बचे हुए समय को ख़ुशी-ख़ुशी जीना चाहिए क्योंकि सच यही है ''कल हो न हो।''  

 

अगर कोरोना हो गया तो समुचित इलाज करवाएँ। अगर कोरोना से बचे हुए है,ं तो स्वयं में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का पूर्ण प्रयास करें। जीवन को जितना ज़्यादा हो सके प्रकृति के क़रीब लाएँशुद्ध शाकाहारी भोजन एवं नियमित जीवनशैली अपनाएँसाथ ही मन में सकारात्मक भाव रखें। अभी के इस त्रासद वक़्त में हम ज़िन्दा हैं और दो वक़्त का खाना नसीब है, तो समझना चाहिए कि हम क़िस्मतवाले हैं। भविष्य में क्या होगा कोई नहीं जानतापर जो समय हमारी मुट्ठी में है, उसे ख़ूब खुश होकर अपनों के साथ हँसते हुए बाँटें। एक गीत जो अक्सर मैं सुनती हूँ ''जो मिले उसमें काट लेंगे हम / थोड़ी खुशियाँ थोड़े आँसू, बाँट लेंगे हम''  सचमुच वक़्त यही है जब हम दूसरों का दुःख बाँटेंखुशियाँ बाँटेंहँसी बाँटेंसमय बाँटेंजीवन बाँटें। 

  

प्रकृति का रहस्य तो सदा समझ से परे हैपरन्तु कोरोना काल में समय ने 'समय की क़ीमतसबको समझा दी है। समय का सदुपयोग कर दुनिया कैसे सुन्दर बनाया और रखा जाए इस पर चिन्तनमनन और क्रियाशीलता आवश्यक है। हम ख़ुश रहें कि हम ज़िन्दा हैसाँसों से नहीं आत्मा से ज़िन्दा हैं।


-जेन्नी शबनम (4.8.21)

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Friday, June 8, 2012

37. विकलांगों का गाँव

''न चल सकते, न सो सकते, न बैठ सकते हैं, कैसे जीवन काटें?'' कहते-कहते गीता देवी की आँखों में आँसू भर आते हैं। मेरे पास कोई जवाब नहीं, क्या दूँ इस सवाल का जवाब मैं पूछती हूँ ''कब से आप बीमार हैं?'' 50 वर्षीया शान्ति देवी विकलांग हो चुकी हैं, रो-रोकर बताती हैं ''जब से सरकार ने चापाकल गाड़ा है, ज़हर पी-पीके हमारा ई हाल हुआ है।'' वे अपने दोनों पाँव को दिखलाती हैं, जिसकी हड्डियाँ टेढ़ी हो चुकी हैं। उन्होंने कहा ''जब तक चापाकल नहीं गाड़ा गया था, तब तक पानी का बहुत दिक्क़त था।लेकिन अब लगता है कि ये चापाकल ही हमारा जान ले लेगा, तो हम कभी इसका पानी नहीं पीते।'' खटिया पर बैठे हुए वह अपने घर का चापाकल दिखाती हैं और इशारा करती हैं उन डब्बों की ओर जिसमें पानी भरकर रखा हुआ है। वे कहती हैं कि सरकार थोड़ा-बहुत पानी का इन्तिज़ाम की है, वहीं से पानी लाकर रखते हैं, बाक़ी काम तो इसी ज़हर वाले पानी से करना पड़ता है।''
45 वर्षीया गीता देवी का पूरा बदन सूख गया है, दोनों हाथ-पाँव की हड्डियाँ टेढ़ी होकर अकड़ गई हैं, ख़ुद से कुछ नहीं कर सकतीं। अपना व्यक्तिगत काम करने में भी असमर्थ हैं। उनकी बीमारी के कारण देखकर लगता है जैसे वह 60 साल की हों। उनसे पूछने पर कि यह बीमारी कब से है, वे ऐसे देखती हैं मानो उनके कान सुन्न पड़ चुके हैं और ज़ुबाँ भी ख़ामोश, बस बेचारगी से चुपचाप देखती हैं। उनके पति बताते हैं कि क़रीब दो-तीन साल पहले बीमार हुई और धीरे-धीरे पूरा देह सूखकर अकड़ गया। वे बताते हैं कि वही ज़हर जो पूरे गाँव को एक-एक करके खा रहा है उसी से ऐसा हाल हुआ है।
डी.पी.एस. भागलपुर के प्रधानाध्यापक श्री राकेश सिंह और हिन्दी की शिक्षिका श्रीमती अलका सिंह के साथ मैं भागलपुर शहर से क़रीब 15 किलोमीटर दूर जगदीशपुर प्रखंड के कोलाखुर्द गाँव में पहुँची। राकेश सिंह के एक मित्र जो भागलपुर में फिजियोथेरेपिस्ट हैं और उस गाँव के मरीजों को देखने जाते हैं, हमारे साथ थे। गाँव में घुसते ही 20-25 लोग इकट्ठे हो गए। सभी का अपना-अपना दर्द, कुछ बदन की पीड़ा कुछ मन की पीड़ा। ग्रामीणों ने बताया कि तक़रीबन 2000 की आबादी वाले इस गाँव में लगभग 100 व्यक्ति पूर्णतः या अंशतः विकलांग हो चुके हैं। कितने बड़े-बड़े नेता आए, कितने पेपरों में छपा। देश में कई जगहों पर यहाँ का पानी टेस्ट हुआ और सभी रिपोर्ट में आर्सनिक और फ्लोराइड होने की पुष्टि हुई। फिर भी कोई कुछ नहीं करता। अब भी ज़हर वाला पानी पी रहे हैं सभी। फ्लोराइड और आर्सनिक के कारण लगभग सभी को जोड़ में दर्द और हड्डी की समस्या है। रीढ़ की हड्डी धनुष की तरह मुड़ गई है। कई लोगों ने गाँव को छोड़ दिया है। ग्रामीणों ने बताया कि यहाँ कोई अपनी बेटी नहीं देना चाहता, न यहाँ की बेटी से कोई जल्दी ब्याह करना चाहता है। अपना खेत होते हुए भी कई लोग खेती छोड़कर पंजाब, गुजरात, दिल्ली पलायन कर चुके हैं। उनकी कमाई इतनी कम है कि घरवालों को ले नहीं जा सकते और जितना कमाते हैं परिवार वालों की बीमारी पर ख़र्च हो जाता है। छोटे-छोटे बच्चों का पाँव टेढ़ा हो गया है, वे सीधे चल नहीं पाते हैं। सरकार योजना तो बनाती है; लेकिन कितने लोगों को अपाहिज बनाने के बाद कुछ करेगी क्या पता।
कोलाखुर्द गाँव जहाँ अधिकांश राजपूत हैं और सभी के पास खेत है; परन्तु सिंचाई के अभाव में खेत-खलिहान बंजर पड़े हुए हैं। सभी घरों में एक-न-एक व्यक्ति ज़रूर है, जिसे आर्सनिक और फ्लोराइड के दुष्प्रभाव ने मरीज़ बना दिया है। तक़रीबन 30 वर्षों से यहाँ यह समस्या है। लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग ने यहाँ पर स्वच्छ पानी के लिए मिनी प्लांट बिठाया है जिसमें कोई ख़ास दवा डाली जाती है, जिससे पानी शुद्ध होता है। इस दवा की क़ीमत लाखों में हैसरकार द्वारा नियुक्त ठीकेदार अपनी मनमानी करता है और समय पर दवा नहीं डालता, जिसके कारण ये पानी भी ज़हरीला है। जिन-जिन चापाकलों के पानी में आर्सनिक या फ्लोराइड की मात्रा ज़्यादा है, उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिए गए हैं और पानी के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है। परन्तु सभी लोग इन चापाकलों के पानी का उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि मिनी प्लांट समुचित पानी देने में असमर्थ है। लाल निशान वाले एक चापाकल से एक चुल्लू पानी पीकर मैंने देखा कि पीने में ये कैसा लगता है। स्वाद में सामान्य पानी जैसा ही रंगहीन गंधहीन। लेकिन ऐसे रसायन का समिश्रण जिससे इंसान की ज़िन्दगी में तक़लीफ़ और दर्द का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है, जो मृत्युपर्यन्त रहता है।   
इस गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर नारायणपुर कोलाखुर्द गाँव है, जहाँ एक कुआँ है, जिसके पानी में न तो फ्लोराइड है न आर्सनिक। सरकार ने एक योजना बनाई है जिसके तहत इस कुआँ के पास एक बड़ा कुआँ खोदकर पाईप लाइन द्वारा घर-घर पानी की आपूर्ति जाएगी। लेकिन हर सरकारी योजनाओं की तरह यह योजना भी फाइलों में दबी पड़ी है। यहाँ के लोगों के द्वारा बार-बार माँग करने पर सरकार ने तीन महीने के अंदर योजना के कार्यान्वयन की बात कही थी, लेकिन तीन महीने गुज़र चुके हैं।ग्रामीणों की स्थिति और भी विकट होती जा रही है। 
भागलपुर का यह जगदीशपुर प्रखंड कतरनी चावल के उत्पादन के लिए समूचे देश में प्रसिद्ध है। लेकिन इसका कोलाखुर्द गाँव न अनाज उपजाता है न कोई सब्ज़ी; क्योंकि सिंचाई तो इसी पानी से करनी होगी। सिर्फ़ वर्षा के पानी पर निर्भर होकर खेती सम्भव नहीं है। जिन्हें भी सम्भव हो सका वे गाँव छोड़कर चले गए। जो बिल्कुल असमर्थ हैं शारीरिक या आर्थिक रूप से, धीरे-धीरे ख़ुद को ख़त्म होते देख रहे हैं। अधिकांश मरीज़ ऐसे हो चुके हैं जिनका इलाज सम्भव नहीं है। न उठ सकते, न हिल सकते, न स्वयं दैनिक क्रिया-कलाप कर सकते, ख़ामोशी से मृत्यु का इन्तिज़ार कर रहे हैं।
इस गाँव से लगा हुआ मध्य विद्यालय है, जिसमें 145 बच्चे और चार शिक्षक हैं। कितने बच्चों को विकलांगता है, यह पूछने पर शिक्षकों ने अनभिज्ञता जताई। पाँच बच्चे वहीं सामने दिख गए, जिनके पाँव की हड्डी टेढ़ी हो गई हैस्कूल परिसर में मध्याह्न भोजन बनता है और बच्चों को खिलाया जाता है। आज भात (चावल) और दाल फ्राई बना, जिसमें दाल कम और पीला पानी ज़्यादा था। खाना बनाने वाली हमें देखकर डर गई कि कहीं सरकार की तरफ़ से कोई जाँच-पड़ताल तो नहीं। राकेश सिंह ने वहाँ की भाषा (अंगिका) में उसे समझाया कि डरो नहीं हम लोग सरकार के यहाँ से नहीं आए हैं, बस घूमने आए हैं। बहुत कहने पर भी वह खाना दिखाने से डरती रही, फिर वहीं के एक छात्र ने ढक्कन खोलकर खाना दिखाया। मेनू के हिसाब से खाना बना है; लेकिन मात्रा और पोषकता को कोई नहीं देखता। बीच-बीच में इसका भी अकस्मात अवलोकन और परीक्षण आवश्यक है।
कोलाखुर्द का दर्द पिघल-पिघलकर पूरे देश के अख़बार की ख़बरों का हिस्सा बनता है; लेकिन किसी इंसान के दिल को नहीं झकझोरता, न तो सरकार की व्यवस्था पर सवाल उठाता है। यहाँ स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है। भागलपुर जाकर इलाज कराना इनके लिए मुमकिन नहीं; क्योंकि आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि रोज़गार छोड़कर अपने घर वालों का अच्छा इलाज करा सकें। सरकार ने उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिए हैं, जिसका पानी दूषित है। प्लांट में समुचित पानी नहीं आता है, जिससे पूरे गाँव को पानी मिल सके; यों प्लांट भी दवा के अभाव में अशुद्ध पानी ही दे रहा है।ग्रामीणों के पास दो विकल्प हैं, या तो ज़हर पी-पीकर धीरे-धीरे पीड़ा से मरें या गाँव छोड़ दें। एक और विकल्प है जिससे कोलाखुर्द को बचाया जा सकता है और वह है सामूहिक आंदोलन, जिसके लिए समस्त ग्रामीणों को एकजुट होकर हिम्मत दिखानी होगी। फिर शुद्ध पानी-सप्लाई की ठण्डी योजना फ़ाइल से निकल कोलाखुर्द तक पहुँचेगी और एक गाँव मिटने से बच जाएगा। कई बार अधिकार न मिले तो छीनना पड़ता है और शुद्ध पानी हक़ हमारा कानून हमें देता है ।
एक सवाल जो मेरे ज़ेहन में आया और मैं पूछने से ख़ुद को रोक न सकी कि जब सभी जान चुके हैं कि पानी ज़हरीला है, तो महज एक किलोमीटर दूर जहाँ शुद्ध पानी है, वहाँ से कम-से-कम पीने का पानी तो हर घर में लाया जा सकता है, जब तक सरकार योजना पर अमल नहीं करती है। यों भी सरकार द्वारा चापाकल गड़वाने से पहले यहाँ के ग्रामीण उसी कुआँ से पानी लाते थे। ज़िन्दगी दाँव पर लगा सकते हैं, लेकिन थोड़ा अधिक मेहनत नहीं कर सकते। सरकार तो अपनी ही रफ़्तार से चलती है, लेकिन हमें अपनी रफ़्तार तो बढ़ानी और बदलनी चाहिए।
अलका सिंह, राकेश सिंह और मैं

-जेन्नी शबनम (8.6.2012)
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