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Thursday, November 21, 2024

115. साँसों का संकट

सुबह के लगभग 10 बजे बालकनी में निकली, तो देखा कि धुआँसा पसरा हुआ है, जिसे कोहरा या स्मॉग भी कहते हैं। देखने में तो बड़ा अच्छा लगा, मानो जाड़े के दिनों का कुहासा हो। परन्तु साँस में धूल-कण जाने लगे और आँखों में जलन होने लगी। शाम 5 बजे भी यही स्थिति रही। इस कोहरे में कहीं बाहर निकलने का अर्थ है श्वसन तंत्र और आँखों को कष्ट पहुँचाना। परन्तु कोई घर में कब तक छुपा रह सकता है। अपने कार्य एवं व्यवसाय के लिए बाहर जाना आवश्यक है। घर से बाहर भले मास्क पहनकर जाएँ, पर प्रदूषण के प्रभाव से बच नहीं सकते। घर के दरवाज़े व खिड़कियाँ भले बन्द हों, पर वायु प्रदूषण से बचाव सम्भव नहीं है। फेफड़े परेशान हैं और आँखें लाल। 

यों तो पूरा देश वायु प्रदूषण की चपेट में है; परन्तु दिल्ली में प्रदूषण की स्थिति बदतर हो गई है। ऐसा महसूस होता है जैसे साँस लेने पर आपातकाल लग गया हो। जो व्यक्ति श्वास से सम्बन्धित बीमारी से पीड़ित हैं, उनकी स्थिति बेहद गम्भीर हो चुकी है। स्वस्थ व्यक्ति भी आँखों में जलन, सिर दर्द और साँस लेने में परेशानी का अनुभव कर रहा है। सरकार लगातार प्रदूषण के बचाव के लिए कार्य कर रही है; परन्तु स्थिति बदतर होती जा रही है है। वायु प्रदूषण से आँखों में जलन व चुभन, साँस लेने में कठिनाई, गले में ख़राश, शरीर पर एलर्जी, वाहन चालकों को सड़क ठीक से न दिखना इत्यादि समस्या हो रही है। इससे दमा, हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक जैसी बीमारी का ख़तरा बढ़ता है।  

दिल्ली के इस प्रदूषण पर सरकार और विपक्ष में तकरार जारी है। दोनों एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। मानो इनमें से किसी ने बोरी में भरकर प्रदूषण लाया और पूरी दिल्ली पर छिड़काव कर दिया। विपक्ष का कहना है कि आम जनता के लिए दिल्ली गैस चेंबर बन चुकी है। किन्तु यहाँ सिर्फ़ आम जनता नहीं रहती, देश का राजा अपने मंत्रियों के साथ रहता है, जिसे आरोप लगाने का पूर्ण अधिकार है; समस्या के समाधान का कोई दायित्व नहीं। सत्ता और विपक्ष को किसी भी कठिन समय में आरोप-प्रत्यारोप से बाहर आकर जनता की समस्याओं के समाधान के लिए एकजुट होना चाहिए। 

सबसे अहम प्रश्न यह है कि क्या यह प्रदूषण दिल्ली सरकार फैला रही है? क्या आम जनता अपने कर्त्तव्य का पालन कर रही है? क्या केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार एक साथ मिलकर कोई ठोस क़दम उठा रही है? निःसन्देह सरकार से हमें उम्मीद होती है; परन्तु हम जनता को भी अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत होना आवश्यक है। यदि जनता सचेत रहती, तो वायु प्रदूषण या अन्य कोई भी प्रदूषण नहीं होता। 

सरकार ने पटाखों पर पाबन्दी लगाई; परन्तु जनता ने ग़ैरकानूनी तरीक़े से पटाखे ख़रीदे। पराली जलाने पर पाबन्दी लगाई गई; परन्तु हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों ने ख़ूब परली जलाई। दिल्ली में गाड़ियों की रैली मानो हर दिन होती रहती है। सभी पैसे वालों के पास कई-कई गाड़ियाँ हैं। वे बड़ी-सी गाड़ी में अकेले बैठकर चलना अपनी शान समझते हैं। वे सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करेंगे तो उनकी प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाएगी। इन दिनों निम्न आय वर्ग का व्यक्ति भी दोपहिया वाहन चलाता है। जबकि दिल्ली की परिवहन व्यवस्था देश के किसी भी हिस्से से बेहतरीन है। मेट्रो और बस की सुविधा दिल्ली के लिए वरदान है। दूर जाने के लिए समय और संसाधन के बचाव का सर्वोत्तम विकल्प मेट्रो है; हालाँकि अधिकतर निम्न व मध्यम आय वर्ग के लोग मेट्रो का उपयोग करते हैं। 

बढ़ती गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण के कारण जब दिल्ली सरकार ने ऑड-इवेन का फ़ॉर्मूला लागू किया तो अधिकतर लोगों को इससे परेशानी हो रही थी; जबकि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था सुदृढ़ है। वाहन चालन के ऑड-इवेन की व्यवस्था के बाद शहर में गाड़ियों की भीड़ और प्रदूषण दोनों कम हो गया था। ऐसा लगता था मानो दिल्ली की हवा भी स्वच्छ हवा में साँसें ले रही हो। परन्तु यह फ़ॉर्मूला ज़्यादा दिन चल न सका। दिल्ली सरकार को चाहिए कि ऑड-इवेन फ़ॉर्मूला हमेशा के लिए दिल्ली में लागू करे, ताकि सड़क पर गाड़ियों का दबाव कम हो और सार्वजनिक परिवहन का उपयोग हो, जिससे प्रदूषण पर लगाम लगे। 

पराली, पठाखा व परिवहन के अलावा निर्माण कार्य से होने वाला प्रदूषण भी वायु को दूषित कर रहा है। दिल्ली में ऊँची-ऊँची इमारतें, सड़क, या अन्य निर्माण कार्य बिना उचित प्रबंधन के होता है, जिससे हवा में धूल-कण पसरते हैं। पाबन्दी के बावजूद लकड़ी जलाए जाते हैं, कूड़ा जलाए जाते हैं। पेड़ बेवज़ह काटे जा रहे हैं। कचरा प्रबंधन सही नहीं है। मलबा का निस्तारण सही नहीं हो रहा है। रासायनिक कचरा और कल-कारखाने का धुआँ वातावरण को दूषित करता है। इस प्रकार के कई कार्य हैं, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। यह सब आम जनता कर रही है न कि सरकार; परन्तु दोष सरकार को देते हैं। हम अधिकार की बात करते हैं, लेकिन देश के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं। जब-जब जो प्रतिबन्ध सरकार लगाती है, उसे ईमानदारी से जनता निभाए और स्वहित छोड़कर राष्ट्रहित की बात सोचे, तो हर एक व्यक्ति देश की समस्या के निदान में अपना हाथ बँटा सकता है।   

हर आम जनता का कर्त्तव्य है कि देश पर से कुछ भार काम करे। जनसंख्या नियंत्रण, प्राकृतिक जीवन शैली अपनाना, कारपूलिंग का प्रयोग, संयम, अनुशासन, करुणा, धन-सत्ता के लोभ का त्याग, अहंकार पर नियंत्रण, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार का सहयोग, स्व-चेतन व तार्किक चिन्तन इत्यादि को अपने जीवन में उतारकर किसी भी समस्या और समाधान पर पहल करें तो निश्चित हो सफल हुआ जा सकता है। चाहे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भोजन प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण हो या स्वास्थ्य प्रदूषण। 

- जेन्नी शबनम (20.11.2024)
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Wednesday, November 16, 2022

100. भागलपुर की जेन्नी (पार्ट- 2)

पहला भाग- 
 
सुनसान राहों पर चलते हुए कोई चीख कानों में पड़े, तो जैसे आशंका से मन डर जाता है, ठीक वैसे ही उम्र के इस मोड़ पर सुनसान यादों में कोई चीख-चीखकर मुझे झकझोर रहा है। अब क्या? अब क्या शेष बचा? अब क्या करना है? अब? कितना विकराल-सा लग रहा है यह प्रश्न- ''अब क्या?'' 

सोचती हूँ 56 वर्ष कितने अधिक होते हैं, लेकिन इतनी जल्दी मानो पलक झपकते ही ख़र्च हो गए और अब जीवन के हिस्से में साँसों का कर्ज़ बढ़ रहा है। ख़ुश हूँ या निरुद्देश्य जीवन पर नाराज़ हूँ, यह सवाल अक्सर मुझे परेशान करता है। उम्र के इस मोड़ पर पहुँचकर प्रौढ़ होने का गर्व है, तो कहीं-न-कहीं बेहिसाब सपनों के अपूर्ण रह जाने का मलाल भी है। अफ़सोस अब वक़्त ही न बचा। या यों कि मुमकिन है वक़्त बचा हो, मगर मन न बचा। जीते-जीते इतनी ऊबन हो गई है कि जी करता है कि अगर मुझमें साहस होता तो हिमालय पर चली जाती; तपस्या तो न कर सकूँगी, हाँ ख़ुद के साथ नितान्त अकेले जीवन ख़त्म करती या विलीन हो जाती। 

पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है मेरी ज़िन्दगी कई अध्यायों में बँटी है और मैंने क़िस्त-दर-क़िस्त हर उम्र का मूल्य चुकाया है। मेरे जीवन के पहले अध्याय में सुहाना बचपन है जिसमें मम्मी-पापा, दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, चाचा-चाची, फुआ-फूफा, मौसा-मौसी, भाई, ढेरों चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई-बहन, रिश्ते-नाते, मेरा कोठियाँ, मेरा यमुना कोठी, मेरा स्कूल, पापा की मृत्यु से पहले का स्वछंद सरल जीवन है। फिर पापा की लम्बी बीमारी और अंततः मृत्यु जैसी स्तब्ध कर देने वाली पीड़ा है। दूसरे अध्याय में 25 वर्ष तक पढ़ाई के साथ दुनिया का दस्तूर समझना और पूरी दुनियादारी सीखना है। भागलपुर दंगा और दंगा के बाद का जीवन और समाज का परिवर्तन तथा अमानवीय मानसिकता व सम्बन्ध है। तीसरे अध्याय में 25 वर्ष की उम्र में मेरा हठात् प्रौढ़ हो जाना, जब न बचपना जीने की छूट न जवानों-सी अल्हड़ता है; वह है विवाह और विवाहोपरान्त कुछ साल है। जिसमें जीवन से समझौते और जीवन को निबाहने की जद्दोजहद है। दुःख के अम्बारों में सुख के कुछ पल भी हैं, जो अब बस यादों तक ही सीमित रह गए हैं। दुःख की काली छाया में सुख के सुर्ख़ बूटों को तराशने और तलाशने की नाकाम कोशिश है। चौथे अध्याय में मेरे बच्चों के वयस्क होने तक का मेरा जीवन है, जिसे शायद मैं कभी किसी से कह न सकूँ, या कह पाने की हिम्मत न जुटा सकूँ। यों कहूँ की प्रौढ़ जीवन से वृद्धावस्था में प्रवेश की कहानी है, जो मेरी आँखों के परदे पर वृत्तचित्र-सा चल रहा है, जिसमें पात्र भी मैं और दर्शक भी मैं। जाने कौन जी गया मेरा जीवन, अब भी समझ नहीं आता। अगर कभी हिम्मत जुटा सकी तो अपने जीवन के सभी अध्यायों को भी लिख डालूँगी।  

ज़िन्दगी तेज़ रफ़्तार आँधी-सी गुज़र गई और उन अन-जिए पलों के ग़ुबार में ढेरों फ़रियाद लिए मैं हाथ मलते हुए अपनी भावनाओं को काग़ज़ पर उकेरती रही; कोई समझे या न समझे। ऐसा लगता है जैसे मेरी उम्र साल-दर-साल नहीं बढ़ती है; बल्कि हर जन्मतिथि पर 10 साल बड़ी हो जाती हूँ। मेरा जीवन जीने के लिए नहीं, अपितु तमाम उम्र अभिनय करते जाने के लिए बना है। कितने पात्रों का अभिनय किया, पर किसी भी पात्र का चयन मेरे मन के अनुसार नहीं है। जाने कौन है जो पटकथा लिखता है और मुझे वह चरित्र जीने के लिए मज़बूर करता है मेरा वास्तविक जीवन कहाँ है? क्या हूँ मैं? संत-महात्मा ठीक ही कहते हैं कि जीवन भ्रम है और मृत्यु एकमात्र सत्य। जिस दिन सत्य का दर्शन हुआ; अभिनय से मुक्ति होगी। मेरा अनुभव है कि जिसकी तक़दीर ख़राब होती है बचपन से ही होती है और कभी ठीक नहीं होती; भले बीच-बीच में छोटी-छोटी खुशियाँ, मानों साँसों को रोके रखने के लिए आती हैं। 

मेरे जन्म के बाद के कुछ साल बहुत सुखद बीते। पापा-मम्मी-दादी के साथ पलते बढ़ते हुए हम दोनों भाई-बहन बड़े हो रहे थे। कुछ साल गाँव में दादी के पास रहकर पढ़ाई की। इससे यह अच्छा हुआ कि मैं ग्रामीण परिवेश को बहुत अच्छी तरह समझ सकी। मैं उस समाज का हिस्सा बन सकी, जहाँ बच्चे गाँव के वातावरण में रहकर पढ़ते भी है और मस्ती भी करते हैं। जहाँ लड़का-लड़की में कोई भेद नहीं होता है; हाँ स्वभावतः उनके कार्य का बँटवारा हो जाता है और कोई किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है। ज़िन्दगी बहुत सहज, सरल और उत्पादक होती है। 

2 साल गाँव में रहकर मैं भागलपुर मम्मी-पापा के पास आ गई। परन्तु भाई गाँव में रहकर ही मैट्रिक पास किया। मेरा भाई पढ़ने में बहुत अच्छा था, तो आई.आई.टी. कानपुर और उसके बाद स्कॉलरशिप पर अमेरिका चला गया। वर्ष 1984 में महिला समाज की तरफ़ से मुझे मेडिकल की पढ़ाई के लिए रूस जाना था। सब कुछ हो गया, लेकिन बाद में पता चला कि मैंने आर्ट्स से आई.ए. किया है तो नामांकन न हो सकेगा। फिर 1988 मेरा भाई मुझे पढ़ने के लिए अमेरिका ले जाना चाहा, लेकिन मुझे वीजा नहीं मिला; क्योंकि मैं वयस्क हो गई थी और लॉ की पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। क़िस्मत ने मुझे फिर से मात दी।  

जुलाई 1978 में मेरे पापा का देहान्त  हो गया। पापा की मृत्यु के पश्चात जीवन जैसे अचानक बदला और 12 वर्ष की उम्र में मैं वयस्क हो गई। मम्मी की सभी समस्याएँ बहुत अच्छी तरह समझने लगी। यहाँ तक कि गाँव के हमारे कुछ रिश्तेदार चाहते थे कि मेरी माँ को मेरी दादी घर से निकाल दे और हम भाई-बहन को अपने पास गाँव में रख ले। पर मेरी दादी बहुत अच्छी थीं, जिसने ऐसा कहा था उसे बहुत सटीक जवाब दिया उन्होंने। मम्मी को दादी ने बहुत प्यार दिया, मम्मी ने भी उन्हें माँ की तरह माना। मेरी मम्मी अपना सुख-दुःख दादी से साझा करती थीं। दादी का सम्बल मम्मी के लिए बहुत बड़ा सहारा था। 6 मई, 2008 को 102 साल की उम्र में दादी का देहान्त हुआ, मम्मी उसके बाद बहुत अकेली हो गईं।  

मेरे स्कूल में तब 9वीं और 10वीं का स्कूल-ड्रेस नीले पाड़ की साड़ी और सफ़ेद ब्लाउज था। ब्लाउज की लम्बाई इतनी हो कि ज़रा-सा भी पेट दिखना नहीं चाहिए। साड़ी पहनकर अपने घर नया बाज़ार से अपने स्कूल घंटाघर चौक तक पैदल जाना बाद में सहज हो गया। साड़ी पहनने से मन में बड़े होने का एहसास भी होने लगा। हाँ यह अलग बात कि कॉलेज जाते ही टी-शर्ट पैंट, सलवार कुर्ता पहनने लगी, साड़ी सिर्फ़ सरस्वती पूजा में। मेरे समय में 11वीं-12वीं की पढ़ाई कॉलेज में होती थी, जिसे आई.ए. यानी इंटरमीडियट ऑफ़ आर्ट्स कहते हैं। मैंने बी.ए. ऑनर्स सुन्दरवती कॉलेज से तथा टी.एन.बी. लॉ कॉलेज से एलएल.बी. किया। भागलपुर विश्वविद्यालय से गृह विज्ञान में एम.ए. किया। वर्ष 2005 में भागलपुर विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. किया।     
 
मैं 1986 में समाज कार्य और नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इण्डियन वुमेन से जुड़ने के अलावा राजनीति से भी जुड़ गई। ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के भागलपुर इकाई की वाइस प्रेजिडेंट बनी। मीटिंग, धरना, प्रदर्शन ख़ूब किया। वर्ष 1989 के दंगा के बाद वह सब भी ख़त्म हो गया। हाँ, बिहार महिला समाज की सदस्य मम्मी के जीवित रहने तक रही। अब अपना वह जीवन सपना-सा लगता है। मैं पापा के चले हुए राह पर अंशतः चलती हूँ उनकी तरह विचार से कम्युनिस्ट, मन से थोड़ी गांधीवादीवादी और पूर्णतः नास्तिक हूँ। पूजा-पाठ या ईश्वर की किसी भी सत्ता में मेरा विश्वास नहीं है। परन्तु त्योहार ख़ूब मज़े से मनाती हूँ। छठ में मोतिहारी अपने मामा-मामी और मम्मी के मामा-मामी के पास हर साल जाती रही। दीवाली, जगमग करता दीपों का त्योहार मेरे मन के संसार को उजियारा से भर देता है। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और नया साल मेरे लिए प्रफुल्लित करने वाला दिन होता है।  

10वीं से लेकर एम.ए. और लॉ की पढ़ाई फिर पी-एच.डी. मैंने ऐसे की जैसे कोई नर्सरी से लेकर 10वीं तक पढ़ता है। नर्सरी के बाद पहली कक्षा फिर दूसरी कक्षा फिर तीसरी...। बिना यह सोचे कि आगे क्या करना है। बस पढ़ते जाओ, पास करते जाओ। अब यों महसूस होता है जैसे कितनी कम-अक़्ल थी मैं, भविष्य में क्या करना है, सोच ही नहीं पाई। लॉ करने के बाद बिहार बार काउन्सिल की सदस्यता ली, काम नहीं कर सकी। क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में तूफ़ान आना बाक़ी था, तो रास्ता और मंज़िल दोनों मेरे हाथ की लकीरों से खिसक गया। 
 
वर्ष 1989 के भागलपुर दंगा में मेरा घर प्रभावित हुआ और 22 लोगों की हत्या हुई उस घर में रह पाना मुमकिन न था। एक तरह से यायावर की स्थिति में छह माह गुज़रे। दंगा के कारण एम.ए. की परीक्षा देर से हुई। दंगा के उस माहौल में और जिस घर में 22 लोग मारे गए हों, वहाँ रहना और पढ़ाई पर ध्यान लगाना बहुत कठिन हो रहा था। लेकिन समय को इन सभी से मतलब नहीं होता है, ज़िन्दगी को तो वक़्त के साथ चलना होता है। कुछ व्यक्तिगत समस्या के कारण भी मेरी मानसिक स्थिति ठीक न थी। फिर भी एम.ए. में यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ, टॉपर से 1 नम्बर कम आया। बाद में 1995 में BET (बिहार एलिजिबिलिटी टेस्ट फॉर लेक्चरशिप) भी किया लेकिन बिहार छोड़कर पुनः दिल्ली आ गई और एक बार फिर से मेरा मुट्ठी से धरती फिसल गई थी।  

कोलकाता के आनन्द बाज़ार पत्रिका के विख्यात पत्रकार गौर किशोर घोष, जिन्हें पत्रकारिता के लिए मैग्सेसे अवार्ड मिला, वे प्रसिद्ध कहानीकार-उपन्यासकार थे और जिनकी कहानी पर 'सगीना महतो' फिल्म बनी है; मुझे मेरे हालात से बाहर निकालकर अपने साथ शान्तिनिकेतन ले गए। शान्तिनिकेतन की अद्धभुत दुनिया ने मुझे सर-आँखों पर बिठाया। शान्तिनिकेतन की स्मृतियों पर मैंने कई संस्मरण भी लिखे हैं। गौर दा ने मुझे बहुत प्यार दिया और मेरे लिए बहुत फ़िक्रमन्द रहे। शान्तिनिकेतन में बहुत से मित्र बने जिनसे आज भी जुड़ी हुई हूँ। हाँ, यह ज़रूर है कि शान्तिनिकेतन छोड़ने के बाद उसने मुझे मेरे हालात पर छोड़ दिया। मेरी तक़दीर को अभी बहुत खेल दिखाना जो था। शान्तिनिकेतन मुझसे छूट गया और फिर एक बार मैं मझधार में आ गई। 

यों लगता है जैसे किसी ने मेरे लिए ही कहा था- ''तक़दीर बनाने वाले, तूने कमी न की, अब किसको क्या मिला, ये मुक़द्दर की बात है'' यों तो तक़दीर से बहुत मिला, पर इस तरह जैसे यह सब मेरे हिस्से का नहीं किसी और के हिस्से का था, जो रात के अँधियारे में तक़दीर के राह भटक जाने से मुझ तक आ गया था। शेष फिर कभी...। 

- जेन्नी शबनम (16.11.2022)
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Sunday, December 11, 2011

32. दिल्ली के 100 साल

गूगल से साभार
दिल्ली के 100 साल! नहीं-नहीं! दिल्ली तो तब से है जब से पृथ्वी है जाने कितने युग-काल की साक्षी यहाँ की ज़मीन और आबो-हवा का अपना वजूद रहा है; भले ही पहले यहाँ जंगल, पहाड़, खेत-खलिहान या कोई अनजान बेनाम बस्ती रही हो नदी के किनारे आबादी बसती है, तो निःसन्देह यहाँ यमुना के किनारे आबादी रही होगी कितनी संस्कृति बदली और नाम बदले गए महाभारत काल का इन्द्रप्रस्थ धीरे-धीरे बदलते-बदलते अंत में देहली और फिर दिल्ली में परिणत हुआ दिल्ली ने न जाने कितने बदलाव और बिखराव को देखा है धीरे-धीरे बसी दिल्ली ने हम सभी को ख़ुद में समाहित कर लिया; भले ही हम किसी भी प्रदेश या भाषा के हों, दिल्ली ने सभी का स्वागत किया और अपनाया है
 
पुरानी दिल्ली तो सदियों से वही है बाज़ार, मकान, इमारत, मन्दिर, मस्जिद, पीढ़ियों को हस्तांतरित नाम और पहचान के साथ बदलती हुई सुदृढ़ पुरानी दिल्ली किसी एक या किसी ख़ास की नहीं रही है दिल्ली, विशेषकर नई दिल्ली वक़्त-वक़्त पर कितने नाम बदले होंगे इसके, कितने राजघराने, कितने राजशाही और सत्ताधारी को देखा इसने घने जंगल कटे होंगे, कच्ची सड़कें पक्की हुई होंगी, राजमार्ग बने होंगे, यातायात के साधन बढ़े होंगे, ऐतिहासिक धरोहरें विकसित हुई होंगी लोग बदलते गए और बढ़ते गए दिल्ली भी अपनी निशानियों के साथ बदलती रही और बढ़ती रही दिल्ली की मिट्टी जो अब ईंट-कंक्रीट में पूरी तरह बदल चुकी है, आज भी सभी के दिलों पर राज करती है और सभी को पनाह देती है आज भी दिल्ली में सुकून देने वाले उद्यान हैं, हरियाली है, प्रकृति की समस्त ऊर्जा हैI
 
 
दिल्ली दिलवालों का शहर है, दिल्ली सभी को अपना लेती है, अमीर हो या ग़रीब दिल्ली सभी की है, दिल्ली किसी की अपनी नहीं, दिल्ली की बेरुख़ी के चर्चे, लोगों की संगदिली के चर्चे, दिल्ली के ठग भी मशहूर हुए, दिल्ली की चकाचौंध, दिल्ली की रातें, दिल्ली की गर्मी, दिल्ली की ठण्ड आदि कितनी शोहरत और बदनामी का दाग़ लिए दिल्ली अपनी जगह क़ायम है जितने लोग सभी का अपना नज़रिया कभी कोई यहाँ से हारकर गया, तो किसी ने दुनिया जीत ली अब ये दिल्ली की क़िस्मत नहीं, दिल्लीवालों की तक़दीर है कि किसको क्या मिला 
 
मेरे लिए दिल्ली आज भी उतनी ही प्रिय है, जितनी बचपन में थी 21 वर्ष से दिल्ली में हूँ; लेकिन आज भी मन में दिल्ली के लिए एक अनोखा एहसास रहता है ऐसा लगता है मानो दिल्ली कोई सुदूर देश का स्थान हो, जहाँ की दुनिया हमसे बहुत अलग और निराली है वह जगह जहाँ आज़ादी के बाद स्वतंत्र भारत का तिरंगा फहराया गया होगा, वह जगह जहाँ देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रहते हैं, वह जगह जहाँ नागरिकों द्वारा चुने गए देश को चलाने वाले प्रतिनिधि रहते हैं, वह जगह जहाँ देश की राजधानी है, वह जगह जहाँ...।
 
 
मैं जब छोटी थी,, तो दिल्ली के बारे में जाने क्या-क्या नहीं सोचती थी मेरे पिता को घूमने और तस्वीर लेने का बहुत शौक़ था जब हम दोनों भाई-बहन छोटे थे, तो हमें दादी के पास छोड़ मेरी माँ को साथ लेकर वे देश के अधिकतर शहर घूम आए जहाँ भी जाते ढेर सारी तस्वीरें लेते मेरे पिता को तस्वीर लेने और उसे साफ़ करने का भी शौक़ था जब भी घूमकर आते तो अपनी ली गई तस्वीरों को साफ़ करते हम दोनों भाई-बहन बैठकर कौतूहल से रील को निगेटिव और फिर पॉजेटिव बनते हुए देखते सारी तस्वीरों पर वे जगह का नाम और तिथि लिखते थे हमलोग दिल्ली का लाल किला, क़ुतुबमीनार, जंतर-मंतर, इंडिया गेट, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, गांधी समाधि इत्यादि की तस्वीरें देखते और तरह-तरह के सवाल पूछते पाप-मम्मी से राष्ट्रपति भवन, संसद, गांधी समाधि, दिल्ली गेट, दरियागंज, गोलचा सिनेमा हॉल का नाम ख़ूब सुना था
 
मेरे पुत्र अभिज्ञान द्वारा ली गई तस्वीर
 
मैं पहली बार दिल्ली कब आई, यह याद नहीं वर्ष 1986 में पहली बार अपने होश में अपनी माँ के साथ मैं एन.ऍफ़.आई.डब्लू (NFIW) के राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दिल्ली आई, जिसमें कई महान हस्तियों के साथ अमृता प्रीतम को भी देखा मैं अमृता जी की फैन, पर उनके साथ तस्वीर खिंचवाने में भी हिचकती रही और वे अपना भाषण देकर चली गईं भले मारग्रेट अल्वा के साथ फोटो खिंचवा ली; क्योंकि लड़कियाँ उनके साथ तस्वीर लेने में दिलचस्पी ले रही थीं कालान्तर में अमृता प्रीतम से मिली, तो उनकी अवस्था ऐसी अशक्त थी कि तस्वीर और बात करना तो दूर उनको देखकर ही आँखें भर आईं दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कॉन्फ्रेंस था और उसके बाद हमलोग कुछ ख़ास जगह घूमने गए थे ऐसा लगा जैसे किसी अनोखे शहर में आ गए हों भाषा वही हिन्दी, परन्तु उच्चारण अलग, पहनावा वही जैसा हमलोग पहनते थे, खान-पान भी वही मैं इस अलग दुनिया को जीभरकर देख रही थी कि क्या-क्या है यहाँ, जो मेरी सोच से अलग है 
 
वर्ष 1987 में हम लोग पुनः दिल्ली आए मेरा भाई छात्रवृत्ति प्राप्त कर आगे की पढ़ाई करने अमेरिका जा रहा था मेरे पिता के मित्र श्री रामाचार्य गांधी समाधि, राजघाट के इंचार्ज थे उनके घर पर हमलोग रुके पापा-मम्मी जब भी दिल्ली आते, तो उनके घर पर ही रुकते थे भाई को विदा करने के बाद दूसरे दिन हम लोग एन.ई.एक्सप्रेस जो सुबह छह बजे चलती थी, से पटना के लिए चले दिल्ली स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी और हमारे दो सूटकेस चोरी हो गएI हमारा सारा सामान जिसमें मेरी माँ और मेरे कपड़े थे, चोरी चले गएI ट्रेन छोड़नी पड़ीI घंटो बाद रेल थाना में एफ.आई.आर. दर्ज हो पायाI फिर रामाचार्य चाचा ने कनाट प्लेस के खादी भण्डार से कपड़े ख़रीदे; क्योंकि हमारे पास पहनने को कपड़े नहीं थेI दूसरे दिन हम लौट आए, पूरी ज़िन्दगी के लिए एक टीस साथ लिएI चोरी गए सामानों में मेरे पसन्दीदा कैसेट, सभी अच्छे कपड़े, कुछ किताबें तथा अन्य ज़रूरी सामान थेI पैसे की तंगी थी, तो दोबारा ये सब ख़रीदना मुमकिन न थाI उसके बाद से जब भी पहाडगंज जाती, तो ढूँढती कि शायद हमारा वह दोनों टूरिस्टर सूटकेस मिल जाएI  
 
1988 में फिर दिल्ली आईI मेरे भाई ने मुझे ओहियो, अमेरिका में पढ़ने के लिए बुलाया थाI लेकिन वीजा रिजेक्ट हो गया, क्योंकि मैं बालिग थी और मेरे नाम अपने देश में कोई संपत्ति नहीं थीI फिर 1989 में मेरी शादी तय हो गई उसके बाद अक्सर दिल्ली आना-जाना लगा रहाI जब-जब दिल्ली आती ख़ूब घूमतीI  
 
1991 में शादी के बाद दिल्ली के बेर सराय में हम रहे, फिर मुनिरका, फिर सावित्री नगर (मालवीय नगर) के मकान नंबर-1 में किराए पर रहने लगेI शुरु में मकान-मालकिन को यक़ीन नहीं था कि हम शादीशुदा हैं, उनका कहना था कि हमलोग विद्यार्थी की तरह बहुत छोटे दिखते हैंI 1992 में मेरी नौकरी यूनिटेक लिमिटेड में हो गई, जिसका कार्यालय साकेत में थाI बस से आना जाना करती थी; क्योंकि ऑटो के लिए पैसे नहीं होते थेI बस में इतनी भीड़ कि खड़ा होना भी आफ़तI काम से तीस हज़ारी कोर्ट जाना होता थाI ऑफ़िस के चपरासी से मैं बस नंबर और रूट पूछकर बस से जाती थीI वह अक्सर कहता कि जब आपको ऑटो का किराया मिलता है, तो बस से क्यों जाती हैं? एक घटना के बाद ऑटो से अकेले जाने में मुझे डर लगता थाI  
 
एक बार मैं अपने पति के साथ परिक्रमा होटल में रात का खाना खाने गईI वापसी में काफ़ी रात हो गईI बस मिली नहीं, एक ऑटो मिलाI जैसे मैं बैठी कि उसने ऑटो चला दिया, मैं चिल्लाने लगी रोकने के लिए और मेरे पति एक हाथ से ऑटो पकड़कर दौड़ने लगेI कुछ दूर जाकर उसने रोका, जहाँ करीब 20-25 की संख्या में ऑटो चालाक खड़े थेI वे सभी हमारे ऑटो के पास आ गएI संयोग से सामने से एक पुलिस वैन आ रही थी, जो भीड़ देखकर रुक गईI फिर हम पुलिस की गाड़ी से उस ऑटोवाले को लेकर पार्लियामेंट स्ट्रीट थाना गएI बाद में पुलिसवालों ने दूसरा ऑटो किया और रात को एक बजे हम घर पहुँचेI उस दिन से ऑटो पर जाने से डर लगने लगाI कहीं जाना हो बस में चली जाती, लेकिन ऑटो में नहींI
 
मेरे पुत्र अभिज्ञान सिद्धांत द्वारा ली गई दिल्ली की एक  तस्वीर
 
जिन दिनों मेट्रो और फ़्लाइओवर के लिए सड़कें खोदी जा रही थीं, लोग कहते कि सरकार दिल्ली में हर तरफ़ गड्ढे करवा रही है, दिल्ली की सड़कें गड्ढे में तब्दील हो रही हैI जब मेट्रो और फ़्लाइओवर बन गए, तब मैं उनसे कहती कि अब किसे फ़ायदा हो रहा है? क्या सरकार के मंत्री आ रहे इस मेट्रो में? या फिर फ़्लाइओवर पर सिर्फ नेता-मंत्री चलेंगे? आम जनता को बहुत सुविधा हुई है मेट्रो सेI कहीं भी जाना अब आसान लगता हैI मेट्रो, फ़्लाइओवर, सुन्दर बसें, मॉल, सिनेमा हॉल देखकर अच्छा लगता हैI सड़कें साफ़-सुथरी हैंI मॉल में सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक़ हैI अब तो ढेर सारे मॉल बन गए हैंI सिनेमा देखने लक्ष्मी नगर और गुड़गाँव तक चली जाती हूँI क्या करूँ दिल है कि मानता नहींI घर में ऊब जाओ तो अकेले भी मॉल में जाकर सिनेमा देखकर कुछ वक़्त बिताकर लौटने पर मन को अच्छा लगता हैI सरोजनी नगर, मालवीय नगर, ग्रीन पार्क आज भी मेरा पसन्दीदा बाज़ार हैI गौतम नगर और सावित्री नगर का वीर बाज़ार, साकेत का सोम बाज़ार अब भी लगता है; वहाँ से तरकारी व सामान अब भी मँगाती हूँI आदत है कि जाती नहींI 
  
मेरे पुत्र द्वारा ली गई दिल्ली की एक तस्वीर
 
दिल्ली की भीड़ देखकर अब मन घबराता हैI दिन-ब-दिन भीड़ बढ़ती जा रही हैI आए दिन ट्रैफ़िक जामI कहीं जाना हो, तो जाम के लिए अलग से समय लेकर जाना होता हैI कभी-कभी लगता है कि यहाँ किसी को दूसरे की फ़िक्र नहीं हैI अगर अकेले हैं, तो यहाँ कोई नहीं पूछता कि अकेले क्यों हैं? अगर उदास हैं, तो कोई नहीं पूछता कि उदास क्यों हैं? कोई दुर्घटना हो जाए, तो भी शायद कोई नहीं देखे कि क्या हुआI सभी अपने-आप में व्यस्त, ख़ुद के लिए समय नहीं, दूसरे की परवाह कौन करेI कभी-कभी यह भी अच्छा लगता है जैसे चाहो रहो, कोई टोकता नहींI हर पहलू का अपना रंग, अपना मज़ाI
 
 
अब तो 21 साल हो गए दिल्ली को देखते-जानते-समझतेI कई बार दिल्ली अपनी-सी लगती है, तो कई बार बेगानीI दिल्ली ने बहुत कुछ दिया है मुझेI सपने देखना भी सिखाया दिल्ली ने और टूटे सपनों के साथ जीना भीI आधी से ज़्यादा ज़िन्दगी यहीं बीत गईI हर सुख-दुःख की मेरी साथी रही है दिल्लीI उन दिनों भी दिल्ली ने हमारा साथ दिया, जब एक वक़्त का खाना भी मुश्किल था, और अब जब सब कुछ हैI सब कुछ दिल्ली का ही दिया हुआ हैI अब मुझे सबसे ज़्यादा मन यहीं लगता हैI दिल्ली दिल्ली है, सच है दिल्ली देश का दिल है और मेरा भीI

-जेन्नी शबनम (11.12.2011)
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