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Tuesday, May 6, 2025

124. मेरी दादी


 दादी 
''उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है 
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है।''
मेरी दादी उपरोक्त कविता की ये पंक्तियाँ, जिसे वंशीधर शुक्ल ने अवधी भाषा में लिखी है, कहती थीं, जब हम बच्चे उठने में देर करते थे। दादी से मुझे जीवन, दुनियादारी और परम्पराओं की सीख व समझ गीत, दोहे, भजन, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, कहावत, पहेली, कहानी इत्यादि द्वारा मिली। कबीर के दोहे, सूरदास के पद या विद्यापति की पदावली, दादी से ही मैंने सब सुना व जाना। बोधकथा, जातककथा, धर्मग्रंथों की कहानी, शिक्षाप्रद क़िस्से, तोता-मैना की कहानी, गोनू झा की कहानी, सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी इत्यादि की कहानियाँ दादी हमें सुनाती थीं। रोज़ रात में सोते समय हम दादी से कहते- ''दादी क़िस्सा सुनाओ।'' दादी रामायण या महाभारत का कुछ अंश कहानी की तरह सुनातीं। दादी हमेशा कबीर का यह दोहा कहती थीं- ''साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय, मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए।'' तुलसीदास का एक दोहा भी अक्सर कहती थीं- ''वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।''   
दादी
कितनी बातें, कितनी यादें, कितने क़िस्से हम अपनी स्मृतियों में समेटे होते हैं। जब कोई बात चलती है या याद आती है, तो किताब की तरह जीवन का हर सफ़्हा खुलता चलता है। अतीत को याद करते हुए मन हमेशा बचपन की तरफ़ लौटता है, जहाँ अपने लोगों के साथ जीवन बीता होता है। मेरी दादी मेरे जीवन का अहम हिस्सा रही हैं। खाना पकाती हुई, खेत-खलिहान-बगीचा का अवलोकन करती हुई, ख़ाली पैर भोरे-भोरे तरकारी तोड़कर लाती हुई, अनाज जोखती (तौलना) हुई, अनाज उसनती (उबालना) हुई, ढेंकी में चूड़ा कुटवाती हुई, जाँता में दलिया-दाल दरवाती हुई, मूँज से डलिया बुनती हुई, लालटेन जलाती हुई, घूर (अँगीठी) तापते हुए लोगों से बतियाती हुई, गीत गाती हुई, क़िस्सा सुनाती हुई, मेरे पापा को यादकर रोती हुई, मेरी मम्मी के हर दुःख में हिम्मत बँधाती हुई; न जाने कितने रूपों में दादी याद रहती हैं।  
हम बच्चे 
दादी से जुड़ी इतनी बातें हैं कि याद करूँ तो एक पुस्तक लिख जाए। दादी में मानवता कूट-कूटकर भरी हुई थी। दादी को ग़ुस्सा होते हुए कभी नहीं देखा; परन्तु कुछ ग़लत हो, तो बेबाकी से बोलती थीं। सभी से प्रेम करना, भूखे को खाना खिलाना, दान करना, सभी की फ़िक्र करना, रिश्ते-नाते निभाना, सभी की मदद करना, आदर-सत्कार करना, अपने-पराए का भेद न रखना इत्यादि कितना कुछ गुण दादी में था। वे धार्मिक थीं, उन्हें ईश्वर में आस्था थी; लेकिन वे कभी भी मूर्तिपूजक या पाखण्डी नहीं थीं। दादी बेहद प्रगतिशील सोच की स्त्री थीं। वे ज़्यादा शिक्षा नहीं ले सकीं, मागर ज़रूरत भर पढ़ लेती थीं। वे शिक्षा को बहुत महत्व देती थीं। हिन्दी के अलावा वे कैथी भाषा भी पढ़ती थीं। 
पापा, भइया, मम्मी 
मेरी दादी किशोरी देवी जिनका जन्म वर्ष 1906 में बिहार के शिवहर ज़िला के माली गाँव में हुआ। मेरे दादा सूरज प्रसाद की पहली पत्नी का देहान्त हो चुका था, अतः दादा की दूसरी शादी मेरी दादी से हुई। दादी के चार बच्चे, जिनमें मेरे पापा सबसे बड़े थे, तथा पहली दादी के दो बच्चे मिलाकर दादी छह बच्चों की माँ बनी। दादी शुरू से सभी बच्चों का पालन-पोषण एक समान करती रहीं; लेकिन पापा के बड़े भाई जिन्हें मैं बड़का बाबूजी कहती हूँ, दादी को सदैव सौतेली माँ ही मानते रहे। मेरे दादा दो भाई थे और दोनों के परिवार शिवहर के कोठियाँ गाँव में आस-पास रहते थे। मेरे दादा का संयुक्त परिवार होने के कारण मेरे पिता की शिक्षा में बहुत बाधा आ रही थी; क्योंकि कृषि पर निर्भरता थी। एक बच्चे (मेरे पिता) पर ज़्यादा पैसे ख़र्च हो रहे थे, जिससे घर में कलह होने लगा। अंततः बँटवारा हुआ और दादा-दादी के साथ पापा रह गए। दादी ने मेरे पिता की शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बँटवारे के बाद मेरे छोटे चाचा घराड़ी (पुश्तैनी मकान) में रह गए और मेरे दादा-दादी, बड़का बाबूजी का परिवार और मेरे पापा गाँव के बाहर यानी जहाँ से गाँव शुरू होता है, घर बनाकर रहने लगे। मेरे होश सँभालने के बाद पापा ने अलग घर बनवाया जहाँ दादी रहती थीं; दादा का बहुत पहले देहान्त हो चुका था। पापा-मम्मी भागलपुर में कार्यरत थे, तो दादी ही पापा के ज़मीन की खेती का काम देखती थीं। गाँव का कोई भी कार्य दादी से पूछे बिना पापा नहीं करते थे। माँ-बेटे का इतना अच्छा सम्बन्ध बहुत कम देखने को मिलता है। लगभग हर महीने या दो महीने पर वे भागलपुर आतीं, तो अनाज, दाल, तरकारी, घी इत्यादि लेकर आती थीं। जब भी पापा-मम्मी को कहीं बाहर जाना होता, तो वे हम भाई-बहन के लिए भागलपुर आ जाती थीं।
मम्मी, मैं, भाई, फुफेरा भाई, दादी 
हमारे बचपन में ननिहाल-ददिहाल में बच्चों का पालन पोषण होना आम बात थी। मेरी बीचवाली फुआ का बेटा कुछ साल दादी के पास रहकर अपने घर लौट गया। मेरी सबसे बड़ी फुआ का एक बेटा बचपन से हमारे साथ रहा, जबतक उसकी शादी न हो गई। मेरा एक चचेरा भाई लगभग हमारे साथ ही रहता और रात में अपने घर चला जाता था। चूँकि हमारे घर में बिजली थी, अतः भाई के साथ पढ़ने वाले कुछ बच्चे भी हमारे घर पर पढ़ने आते थे। हम सभी बच्चे एक साथ पढ़ते, फिर वे सभी अपने-अपने घर चले जाते या कभी रात में रुक भी जाते थे। मेरे दोनों भाई गाँव में दादी के पास रहकर मेट्रिक किए; लेकिन मैं दो साल गाँव में पढ़कर भागलपुर आ गई। मेरा फुफेरा भाई भी आगे की पढ़ाई के लिए भागलपुर आ गया और मेरा भाई पटना चला गया। उसके बाद खेत को बटइया पर देकर दादी भागलपुर आ गईं। दादी ने हम सभी की बहुत अच्छी तरह देखभाल की, पढ़ाया और समझदार बनाया। 
मैं, मम्मी, भइया, प्रो. गोरा 
मेरी दादी विचार से धार्मिक स्त्री थीं। किसी भी सुख या दुःख में दादी हमेशा रामचरितमानस की यह चौपाई कहतीं- ''होइहि सोइ जो राम रचि राखा।'' वे किसी ग़लत के सामने डटकर खड़ी हो जाती थीं, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। पापा कम्युनिस्ट, नास्तिक और गांधीवादी थे। हमारे घर में हर जाति-धर्म के लोगों का स्वागत-सत्कार होता था। पापा की मृत्यु के बाद बड़का बाबूजी के घर अगर कोई ऐसा मेहमान आ गया जो कम्युनिस्ट पार्टी या निम्न जाति का हो, तो उनके खाने के लिए मेरे घर से थाली जाती थी; क्योंकि कम्युनिस्ट  धर्म और छुआछूत नहीं मानते हैं। वर्ष 1989 में जब भागलपुर दंगा हुआ और हमारे घर में लगभग 100 लोग छुपे थे, तो उन सभी का खाना दादी ही बनाती रहीं। दादी ने कभी छुआछूत नहीं माना। शायद पापा के प्रभाव के कारण वे जाति-धर्म से ऊपर उठ गई थीं, या वैचारिक रूप से शुरू से वैसी ही रही होंगी।
बुढ़िया दादी, भइया, मैं, दादी 
मेरी दादी जब बहुत छोटी थीं तब उनके पिता का देहान्त हो गया। मेरी दादी की माँ अक्सर आतीं, जिन्हें हमलोग बुढ़िया दादी कहते थे। उन दिनों विधवा स्त्रियों को सफ़ेद साड़ी पहनना और सिर के बाल मुँड़वाने (अनिवार्य नहीं) की परम्परा थी। बुढ़िया दादी को मैंने सदैव सफ़ेद साड़ी और बिना बाल के सिर में देखा। वे बहुत धार्मिक महिला थीं, कपाल पर चन्दन-टीका और गले में तुलसी का माला पहनती थीं। वे अक्सर अयोध्या में जाकर महीनों रहतीं। जब भी अपने गाँव से आतीं, तो स्वयं का बनाया पेड़ा, मूढ़ी, लाई इत्यादि लाती थीं। हमलोग उनके आने का हमेशा इन्तिज़ार करते थे; क्योंकि उनका बनाया पेड़ा बहुत स्वादिष्ट होता था और वे कहानी सुनाती थीं। वे काफ़ी बूढ़ी थीं, झुककर लाठी लेकर चलतीं, पर अत्यंत फुर्तीली और तेज़ क़दमों से चलती थीं। उनका देहान्त 108 वर्ष की उम्र में 14.1.1979 को दादी के पास हुआ।  
बुढ़िया दादी, दादी, भाई, मैं 
मेरे दादा का देहान्त वर्ष 1963 में हुआ। तब मैं और मेरे भाई का जन्म नहीं हुआ था। जब से हमने होश सँभाला दादी को पाड़ वाली सफ़ेद साड़ी में देखा। अपने लिए साया-ब्लाउज भी वे स्वयं हाथ से सिलकर पहनती थीं। हमारे यहाँ कपास की खेती होती थी, तो दादी कपास से रूई निकालकर तकिया बनाती और उसका खोल भी स्वयं सिलती थीं। वे खाना बहुत स्वादिष्ट बनाती थीं। घर के अधिकतर कार्य वे स्वयं करती थीं। छुट्टियों में जब भी पापा गाँव जाते तो कुछ-न-कुछ काम करवाते, जिसके लिए 10-15 मज़दूर आते थे। इन सभी का पनपिआई (दोपहर का खाना) दादी बनाती थीं। सहयोग के लिए एक स्त्री भी होती थी। गाँव-समाज का कार्य पापा ने इतना कराया, पर अपने जीवन में गाँव का मकान पूरा नहीं बनवा सके। बाद में मैंने और मम्मी ने मुज़फ़्फ़रपुर जाकर मकान बनाने के लिए सभी सामानों की ख़रीददारी की। गाँव की एक स्त्री, जो मम्मी को बहुत सहयोग करती थी, सारा सामान ट्रक से लेकर गाँव आई। दादी अपने सामने पूरा घर बनवाई। जब मकान बन गया तो दादी से कहतीं- ''दुल्हिन तोहरे मेहनत से ई घर बनलई ह। बउआ के सपना तू पूरा कर देलू।'' (तुम्हारे मेहनत से यह मकान बना है। तुमने बउआ (मेरे पापा) का सपना पूरा कर दिया) फिर दादी पापा की याद में रोने लगती थीं। मम्मी कहतीं कि आपका साथ नहीं होता, तो हम यह सब नहीं कर पाते।  
गाँव का हमारा घर 
दादी बहुत कर्मठ और साहसी स्त्री थीं। मेरे पापा-मम्मी के लिए वे हर वक़्त खड़ी रहीं, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो। मेरे पापा का देहान्त 18.7.1978 में हुआ। उसके बाद मेरी मम्मी को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। दादी मेरी मम्मी को हिम्मत और हौसला देती रहीं। इस कारण मम्मी की ज़िन्दगी थोड़ी सुगम रही। दादी को पापा दीदी कहते थे और मम्मी माए कहती थीं। पापा को दादी बउआ कहकर पुकारती थीं और मम्मी को दुल्हिन। पापा के देहान्त के बाद भी मम्मी को दुल्हिन ही कहती रहीं। शाम को मम्मी कार्य करने के बाद घर लौटतीं तो थक जाती थीं। वे बिछावन पर लेटतीं, तो दादी आकर उनके पैर की तरफ़ बैठ जातीं और धीरे-धीरे पाँव दबाने लगतीं। मम्मी को बहुत अटपटा लगता कि सास होकर पाँव दबाए। दादी कहती कि तुम पुतोह न होकर बेटी होती तो पैर दबाते न! फिर मम्मी दिन भर का हाल और घटनाएँ दादी को सुनातीं। सास-बहू का इतना अच्छा सम्बन्ध मैंने आजतक नहीं देखा। 
दादी, मैं, मम्मी 
मैं जब समझदार हुई तो मम्मी को ज़बरदस्ती रंगीन साड़ी पहनाती और मम्मी दादी को। हालाँकि दादी कहती कि आदत है इसलिए रंगीन पहनना अच्छा नहीं लगता है। काफी हलके प्रिंट की साड़ी मम्मी जबरदस्ती पहनाती थीं। लेकिन हाथ में चूड़ी कभी नहीं पहनी। होली में जब मैं रंग लगा देती तो ग़ुस्सा होतीं, पर मैं कहाँ मानने वाली। फिर दादी हँसकर कहती- ''देख न दुल्हिन, जेन्नी हमरा रंग लगा देलई।'' (देखो न, जेन्नी ने मुझे रंग लगा दिया) मम्मी कहतीं- ''की होतई माए। हमरो त लगा देलई ह। रंग लगैला से कथी होतई।'' (क्या होगा माँ। मुझे भी लगा दी है। रंग लगाने से क्या होगा) हालाँकि मम्मी ख़ुद अपने को रंग नहीं लगाने देती थीं। मेरे नाना जब भी आते, तो दादी और नाना अपने-अपने पोते की बड़ाई करते रहते। नाना बहुत पूजा करते थे, पर दादी नहीं करती थीं। वे कहतीं- ''न पाप करीले, न पुन ला मरीले'' (न पाप करना है न पुण्य के लिए मरना है)। वे दोनों आपस में धार्मिक चर्चा करते रहते थे। उनका ख़ूब नोक-झोंक भी होता और हमलोग ख़ूब हँसते थे। 
    
बचपन का एक मज़ेदार क़िस्सा याद आता है। जब मैं छोटी थी तो मुझे अपनी दादी बहुत लम्बी-चौड़ी-विशाल दिखती थीं; वे मोटी थीं, शायद इसलिए। एक बार पापा ने सभी के बाल कटवाने के लिए नाई को बुलाया। वैसे मेरी मम्मी ही मेरा बाल काटती थीं; साधना कट का ख़ूब चलन था उस ज़माने में। पापा ने कहा कि जब नाई आया है, तो मेरा बाल भी काट देगा। नाई से बाल कटवाने के डर से मैं पलंग के नीचे छुप गई। मेरी खोज होने लगी। इतने में दादी गाँव से आईं और उसी पलंग के पास खड़ी हुईं। दादी का मोटा-बड़ा पैर देखकर मैं डर से चिल्लाने लगी और पकड़ी गई। दादी-पापा-मम्मी खूब हँसे। जब मैं बड़ी हुई, तो सोचती कि दादी की लम्बाई तो मुझसे कम है, फिर मुझे दादी इतनी विशाल क्यों लगती थी। अब समझ में आता है कि छोटे बच्चों को उनसे बड़ा कोई भी चीज़ विशाल दिखता है। 

वर्ष 1984 में पहली बार दादी बहुत ज़्यादा बीमार हुईं। उन्हें मधुमेह और गठिया हो गया। परन्तु अपने खानपान पर नियंत्रण कर वे स्वयं को स्वस्थ रखती थीं। आँखों के मोतियाबिन्द के ऑपरेशन के बाद वे छोटे अक्षरों वाली किताबें फिर से पढ़ने लगीं। उनकी देखने-सुनने की क्षमता और याददाश्त ज़रा भी कम नहीं हुई। चलने में थोड़ी परेशानी थी; परन्तु अपने सभी काम स्वयं करती थीं। यदि कुछ ख़ास खाना बनवाना हो, तो रसोईघर में कुर्सी पर बैठकर खाना बनवाती थीं। उस उम्र में उनका पढ़ना, गीत गाना, कहानी सुनाना जारी था। दादी जब भाई के पास रहने चली गईं, तो अधिकतर समय धर्मग्रंथ पढ़ने में बिताती थी। भाई सुबह हड़बड़ी में ऑफिस जाने लगता, तो कहता कि देर हो रही है, नहीं खाएँगे। दादी केला छीलकर कहती- ''बउआ एक कौर खा लो, ज़रा-सा खा लो।'' भइया ग़ुस्साते हुए बोलता- ''रोज़ तुम हमको ऐसे ही केला खिला देती हो।'' जिस तरह दादी मेरे पापा को बउआ और मम्मी को दुल्हिन कहकर सम्बोधित करती थीं, भइया और भाभी को भी बउआ और दुल्हिन ही कहती थीं। भइया में तो जैसे प्राण बसता था दादी का और भइया का प्राण दादी में। मेरा भाई अमेरिका से लौटते ही दादी को अपने साथ मुम्बई फिर बैंगलोर ले गया। जब भी दादी बीमार होतीं, तो मम्मी छुट्टी लेकर महीनों वहाँ रहती थीं।    

जब भी मैं दादी से मिलने जाती, तो उन बूढ़ी हथेलियों से मेरे पाँव दबाने लगतीं। मैं कहती- ''दादी तुम ख़ुद बीमार हो और मेरा पैर दबाती हो।'' दादी हँसती और कहती- ''अब देह में ताक़त कहाँ है, पैर दबता थोड़े होगा।'' मुझे महसूस होता था कि दादी के लिए मैं बच्ची ही थी। मेरा बेटा जब हुआ था, तब दादी मेरे ससुराल आई थीं और दिनभर बेटा के पास रहती थीं। मेरी बेटी का अन्नप्राशन दादी द्वारा खीर खिलाकर हुआ। दादी से मिलने मैं कभी-कभी मुम्बई और बैंगलोर जाती, तो बातों का लम्बा सिलसिला चलता था। सभी परिचितों का हाल समाचार लेतीं और बतातीं। अपनी लम्बी उम्र के लिए रोती- ''जाने हम कब मरेंगे, सब लोग (बेटा दोनों) तो चला गया।'' मैं बोलती- ''दादी, सोचो तुम कितनी भाग्यशाली हो। अपनी पोती (मेरी चचेरी बहन) के पोता को देख ली। ख़ुश होकर रहो, मरना तो सबको है ही एक-न-एक दिन, जब तक हो दोनों पोती (भाई की बेटियाँ) के साथ खेलो, उनको गीत सुनाओ, क़िस्सा सुनाओ जैसे हमलोग को सुनाती थी।'' दादी हँसकर कहती- ''अब उतना याद नहीं रहता है।'' मैं किसी कहानी का कुछ हिस्सा बोलती और कहती कि पूरी कहानी याद नहीं है, तो दादी पूरी कहानी सुना देतीं। वे कभी कुछ नहीं भूलीं। मेरे दोनों बच्चों से जब भी मिलीं, कहानी सुनातीं। मेरे बच्चों को उनकी नरम मुलायम झुर्रियाँ छूने में बड़ा मज़ा आता था। वे कहते- ''बड़ी नानी आपका स्किन कितना सॉफ्ट है।'' दादी हँसती थीं।    

मेरे पापा और मेरे छोटे चाचा का देहान्त हो चुका था। दादी हमेशा कहतीं कि बेटा दोनों मर गए और हम ज़िन्दा हैं, भगवान् हमको क्यों नहीं बुलाते हैं। इससे जुड़ा एक मज़ेदार वाक़या हुआ। शायद वर्ष 2002 की बात है। उन दिनों दादी पटना में रह रही थीं। दीवाली की छुट्टी थी, तो मम्मी भी थीं। भैया के कॉलेज के एक दोस्त अमीरुल हसन आए हुए थे। मेरी मम्मी व दादी को वे मम्मी व दादी ही मानते और बुलाते थे। मैं भी उनको शुरू से भइया बोलती और राखी बाँधती या भेजती थी। मुज़फ़्फ़रपुर के पास एक कॉलेज में वे प्रोफेसर थे; इनका देहान्त हुए लगभग 10 वर्ष हो गए हैं। दादी ने एक दिन सपना देखा कि दादा आए हैं, तो दादी पूछ रही हैं कि वे कब मारेंगी। दादा छह बोले और दादी का सपना टूट गया। दादी ने सभी को सपना बताया। दीवाली या उसके आस-पास छह तारीख़ थी। दादी ने कहा कि छह तारीख़ को हम मरेंगे। उस दिन सुबह उठकर दादी ने नई सफ़ेद साड़ी पहनी। भगवान् का नाम लिया, कुछ भजन गाई, अपने पास मम्मी और अमीरुल भैया को बैठाकर रखी कि आज किसी समय वे मरेंगी। दादी इन्तिज़ार करती रहीं और बार-बार कहती रहीं कि दादा अपने साथ ले जाएँगे। पूरा दिन बीत गया, रात के 12 बज गए। दूसरे दिन दादी ख़ूब हँसी और ख़ूब रोई कि भगवान् उनको क्यों नहीं ले जाते। अंततः दादी का सपना सच हुआ, भले कई सालों बाद। दादी का देहान्त 6.5.2008 में 102 साल की उम्र में हुआ। जाने इस संसार का सत्य क्या है, आख़िर दादी छह तारीख को ही इस संसार से विदा हुई। आज दादी के प्राणान्त के 17 वर्ष हो गए हैं। आज भी दादी के शरीर का अन्तिम स्पर्श याद है, बिल्कुल ठण्डा; उस अनुभव को बताने के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास। दादी-पापा-मम्मी की तस्वीर अपने कमरे में लगाई हूँ, बिल्कुल सामने। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जब इन तीनों को मैं याद न करूँ। 

दादी का अन्तिम संस्कार भाई ने किया; लेकिन मुख में अग्नि देने का साहस उसे नहीं हुआ। मैंने और भइया ने एक साथ मुखाग्नि दी। हालाँकि लोगों ने कहा कि स्त्री मुखाग्नि नहीं देती है; लेकिन भइया अकेले देने को तैयार नहीं था। दादी को मुखाग्नि देना और जलते हुए देखना मेरे जीवन का सबसे कष्टदायक समय था। जिसने बचपन से पाल-पोसकर बड़ा किया उसे ही जला रहे और जलते हुए देख रहे हैं। हालाँकि पापा को भी ऐसे ही जलाया गया था; परन्तु उनकी मृत्यु के बाद या उनका दाह-संस्कार मैंने नहीं देखा। मम्मी का देहान्त हुआ तो मैंने बिजली से जलाने के लिए कहा; क्योंकि दादी को अग्नि में चार-पाँच घंटे तक धीरे-धीरे जलते देखना मेरे लिए असह्य था।  
मम्मी 
दादी अपनी मृत्यु से छह माह पूर्व से अस्वस्थ रहने लगीं और बाद में बहुत ज़्यादा बीमार हो गईं। वे चलने में असमर्थ और दूसरों पर आश्रित हो गईं। अन्तिम तीन माह पहले दादी को अपने पास भागलपुर मम्मी ले आईं; क्योंकि मम्मी के लिए लम्बी छुट्टी लेना सम्भव नहीं था। मृत्यु से एक सप्ताह पूर्व उनकी याददाश्त थोड़ी कमज़ोर हो गई और कुछ देर के लिए किसी को पहचान नहीं पाती थीं। मैं गई तो दादी को लगा कि मेरी छोटी फुआ आई हैं। उन्होंने कहा- ''शशि, तू आ गेले।'' (शशि, तुम आ गई) फिर कुछ मिनट बाद बोलीं- ''ओ जेन्नी हो, हमको लगा की शशि आई है।'' शायद अन्तिम समय में दादी को अपनी बेटी को देखने की चाह रही होगी। गाँव में दादी जब तक रही मेरी छोटी फुआ महीनों-महीनों आकर रहती थीं; सबसे छोटी थीं इसलिए दादी की दुलारी थीं।  
पापा 
आज के समय में जब देखती हूँ कि बच्चों का अपने दादा-दादी या नाना-नानी से औपचारिक सम्बन्ध है, तो मुझे बेहद आश्चर्य होता है। मेरी दादी से मम्मी की तरह ही मेरा अनौपचारिक सम्बन्ध था। वर्ष 1984 में बीमार होने से पहले तक दादी का मेरे सिर में तेल लगाना और बाल धोना जारी था; क्योंकि मेरे बाल लम्बे थे। जब मैं गाँव में थी, तभी मेरा मासिक चक्र शुरू हुआ। उस ज़माने में लड़कियों को यह सब मालूम नहीं होता था। दादी-मम्मी ने मुझे समझाया और बताया। गाँव में साड़ी और अन्य कपड़ों का पैड बनाकर इस्तेमाल करना होता था और बाद में धोकर-सुखाकर दुबारा इस्तेमाल करना होता था। जब तक मैं गाँव में रही, रोज़ मेरा पैड दादी ही धोती रहीं। मेरी दादी ने मेरे लिए जो किया, मालूम नहीं अब की नानी-दादी ये सब करती हैं या नहीं। खाने की थाली में अगर कुछ खाना कभी मुझसे, भइया से या मम्मी से छूट जाए, तो दादी झट से वह खाना ले लेती थी। वे कहतीं कि खाना बर्बाद नहीं करना चाहिए; हालाँकि मम्मी को बहुत संकोच होता रहा; लेकिन दादी के लिए मम्मी बहू नहीं बेटी थी। जब तक पापा थे, तो किसी को किसी का जूठा खाने नहीं देते थे। बचपन से हम सभी को आदत डाली गई थी कि अपने-अपने प्लेट (प्लेट के पीछे हम सभी का नाम लिखा था) में खाना खाकर प्लेट धोकर रखना है।  
दादी 
पापा, दादी और मम्मी चले गए। पापा के हमउम्र सभी रिश्तेदारों (अपने एवं चचेरे सभी चाचा-चाची, फुआ-फूफा) का देहान्त हो गया। अब मेरी पीढ़ी सबसे बड़ी पीढ़ी है, जिनमें कई लोग गुज़र चुके हैं। मेरे गाँव में आज भी दादी को लोग बहुत श्रद्धा से याद करते हैं। पापा को उनके सिद्धांतों के लिए और मम्मी को उनकी सहृदयता और शिक्षा के लिए याद करते हैं। सभी कहते हैं कि दादी बहुत पुण्यात्मा, दयालु और प्रेरक विचारों वाली स्त्री थीं। गाँव वालों की इच्छा से दादा, दादी, पापा और मम्मी की संगमरमर की मूर्ति गाँव के घर में लग रही है।  

दादा 
हम सभी को इसी तरह जीना और मरना है। लेकिन किसी अपने का मरना और उसका जलाया जाना, असहनीय होता है। मैंने अपनी बेटी से कह रखा है कि मेरा पूरा देह दान किया हुआ है, अतः मृत्यु के बाद हॉस्पिटल को सूचना देना। मेरा जो भी अंग काम करेगा, वे ले लेंगे। बचे हुए देह को भागलपुर में बिजली से जलाना, जहाँ मेरे पापा, दादी, मम्मी को जलाया गया। हालाँकि मुझे नहीं मालूम कि मुझे जैसी अनुभूति होती है, वह किसी को होगी या नहीं, फिर भी अपनी बात कह दिया है। सोचती हूँ कि यदि आत्मा जैसी चीज़ हुई, तो शायद उसी जगह पर जलाई जाऊँ तो पापा, दादी, मम्मी की आत्मा से मुलाक़ात होगी, बात होगी। फिर से दादी की कहानी और गीत सुनूँगी। दादी सभी का समाचार पूछेगीं। मेरी मृत्यु होने से रोएँगी; लेकिन मुझे पापा-मम्मी से मिलकर होने वाली ख़ुशी पर मेरे लिए ज़रूर ख़ुश होंगी। दादी! मेरी दादी! प्यारी दादी!
-जेन्नी शबनम (6.5.2025)
दादी की 17वीं पुण्यतिथि)
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Wednesday, January 1, 2025

117. नव वर्ष 2025

चित्र गूगल से साभार

नव वर्ष की प्रतीक्षा पूरे वर्ष रहती है। नव वर्ष एक उत्सव वाला दिन है। हालाँकि समय कितनी तीव्रता से बीत रहा है, यह भी याद दिलाता है। यों लगता है मानो अभी-अभी तो नया साल आया था, इतनी जल्दी बीत गया। 31 दिसम्बर की रात जैसे ही घड़ी की सुई 12 पर पहुँचती है, हम सभी पूरे उल्लास के साथ एक दूसरे को नव वर्ष की शुभकामनाएँ देते हैं। जैसे ही क्रिसमस आता है, नव वर्ष के आगमन का जोश भर जाता है। नव वर्ष के पहले दिन क्या-क्या करना है इसकी योजना बनती है व तैयारी होने लगती है।   

समय के साथ नव वर्ष मनाने का चलन और शुभकामनाएँ देने का प्रचलन दोनों में बहुत तेजी से बदलाव हुआ है। मेरे बचपन में 31 दिसम्बर की रात का कोई महत्व न था। तब न टेलीविज़न था, न मोबाइल, न हर घर में टेलीफ़ोन। 31 दिसम्बर की रात में आजकल के जैसा जश्न नहीं होता था। 1 जनवरी की भोर से नव वर्ष की शुरुआत होती थी। इस दिन कोई सपरिवार पिकनिक पर जाता, तो कोई घर पर मित्रों और परिवार के साथ सुस्वादु भोजन का आनन्द लेता था। अपनी-अपनी इच्छा और क्षमता के अनुसार हर कोई इस दिन को मनाता था। जब से टी.वी. आया तब से नव वर्ष की पूर्व संध्या पर कोई-न-कोई कार्यक्रम अवश्य होता है। अगर कोई योजना न बन सकी तो टी.वी. देखकर मनोरंजन करना भी आदत में शुमार होता गया।    

भारतीय पद्धति में हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नव वर्ष की शुरुआत होती है। नव वर्ष 30 मार्च को तथा वर्ष विक्रम सम्वत 2082 है। हिन्दू और मुस्लिम कैलेण्डर चन्द्रमा के चक्र पर आधारित होता है। ग्रेगोरियन कैलेण्डर सूर्य वर्ष पर आधारित होता है। ग्रेगोरियन कैलेण्डर की शुरुआत वर्ष 1582 में हुई। भारत में अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा वर्ष 1752 में इसे लागू किया गया। भारत के हिन्दू पर्व-त्योहार हिन्दी पञ्चाङ्ग द्वारा निर्देशित होते हैं। मुस्लिम पर्व-त्योहार हिजरी कैलेण्डर द्वारा निर्देशित होते हैं तथा मुहर्रम को वर्ष का पहला दिन माना जाता है। चूँकि भारत में ग्रेगोरियन कैलेण्डर है, इसलिए हम सभी एक जनवरी को वर्ष का प्रथम दिन मानते और मनाते हैं।   
 
संचार माध्यमों के प्रसार, बाज़ारीकरण और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण पर्व, त्योहार और उत्सव मनाने का रूप बदल गया है। पर्व, त्योहार, उत्सव इत्यादि में धूमधाम शोभनीय है; परन्तु अशिष्टता अशोभनीय है। इन दिनों पूजा, पर्व, त्योहार, अनुष्ठान, व्रत, उत्सव इत्यादि में फूहड़पन देखने को मिलता है। चाहे विवाह समारोह हो या कोई आयोजन या मूर्ति विसर्जन, लाउडस्पीकर या डीजे पर अश्लील गाना-नाचना फ़ैशन बन गया है। धार्मिक आयोजन हो, तो समाज के नियम को न मानना और कानून को तोड़ना अधिकार बन गया है। भले इसमें लोगों की जान चली जाए। जश्न मनाने में उत्साह और उमंग होता ही है; परन्तु दूसरे के अधिकार का हनन कर उत्सव मनाना अनुचित है। 

नव वर्ष हो या कोई ख़ास दिन उत्सव मनाना ही चाहिए। मेरी इच्छा होती है कि साल का हर दिन किसी-न-किसी विशेष दिन को समर्पित कर देना चाहिए, ताकि सालों भर हम सभी अपने कार्य के साथ उत्सव भी मनाते रहें। 31 दिसम्बर की रात में पुराने साल को अलविदा कहते हैं और नए वर्ष का स्वागत करते हैं। नव वर्ष के आगमन के उपलक्ष्य में हर जगह कुछ-न-कुछ विशेष आयोजन होता है। बच्चों और युवाओं में तो ख़ास उत्साह रहता है। ठण्ड का मौसम, सजे बाज़ार, जगमग रोशनी, विशेष पकवान से सुगन्धित रेस्तराँ, छुट्टी की धूम, बच्चे-जवान-बूढ़े प्रसन्नचित। उपहार के लेने-देने के चलन के कारण सामान पर विशेष छूट। भीड़-भाड़, शोरगुल, मदिरापान, स्वादिष्ट भोजन, नाच-गान, मस्ती भरा माहौल... घड़ी की सुई 12 पर, ज़ोल से हल्ला, पटाखे की गूँज, तालियों की गड़गड़ाहट। कितनी सुन्दर रात और सुहानी भोर। आनन्दित मन से एक दूसरे के गले मिलकर शुभकामना देते लोग। हर फ़ोन की घण्टी बजती और लोग अपनों से बात करते। इस तकनीक ने जीवन में खुशियाँ भर दी हैं। वीडियो कॉल पर अपनों को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है; दूरी नहीं खलती। पूरी रात मस्ती भरी और भोर में सुखकर नींद। 

मेरे बच्चे जब तक छोटे रहे क्रिसमस, नव वर्ष, वैलेंटाइन डे, बर्थडे, दीवाली इत्यादि ख़ूब मनाया। मेरे पति के संस्थान में नव वर्ष की पूर्व संध्या पर बहुत बड़ी पार्टी होती थी। सारी रात खाना-पीना, गाना-बजाना, नाचना, पटाखे फोड़ना इत्यादि होता था। घर में मैं और मेरी बेटी शुद्ध शाकाहारी हैं। दीवाली मेरा प्रिय त्योहार है; क्योंकि इस दिन दीपों की जगमग और हर घर में शाकाहारी पकवान बनता है। बाहर से शाकाहारी रेस्तराँ से खाना आए तो ही मन से खाती हूँ, केक भी एगलेस खाती हूँ। शुद्ध शाकाहारी भोजन, कर्णप्रिय संगीत, मनचाहे तरीक़े से नाचना-गाना, हँसी-मज़ाक, ठहाके, खेलना, अलाव तापना इत्यादि किसी ख़ास दिन के आयोजन में करना मेरा पसन्दीदा कार्य है, जिसे मैं प्रसन्न मन से करती हूँ। 

मुझे अपने बचपन से बड़े होने तक का अधिकतर नया साल मनाना याद है। मेरी पढ़ाई भागलपुर के क्रिश्चन स्कूल से हुई है। प्राइमरी स्कूल में क्राफ़्ट के क्लास में अन्य चीज़ों के अलावा कागज़ का क्रिसमस ट्री बनाना सीखा। हाई स्कूल में मेरा स्कूल 19 दिसम्बर को क्रिसमस की छुट्टी, जो बड़ा दिन की छुट्टी कहलाता है, के लिए बन्द होता था। क्रिसमस से नव वर्ष के पहले दिन तक छुट्टी वाला माहौल। मुझे साल के पहले दिन का इन्तिज़ार सबसे अधिक इस कारण रहता था कि आज से कॉपी पर नया साल लिखना है। लिखने की आदत बचपन से रही है। पूरे घर को साफ़ करना, पुराना कैलेण्डर फाड़ना और नया टाँगना। जाने कितना आनन्द आता था इन छोटे-छोटे कामों में। हम बच्चों को पता चला था कि साल का पहला दिन जैसा बीतता है वैसा ही पूरा साल बीतेगा। सुबह-सुबह उठकर नहाना, घर साफ़ करना, कुछ अच्छा खाना बनाना, सिनेमा देखना, पढ़ना-लिखना इत्यादि ताकि सालभर ऐसा ही दिन बीते। बच्चा मन कितना सच्चा होता है, बिना तर्क कुछ भी मान लेता है।  
जब तक मेरे पापा जीवित रहे एक जनवरी को घर में पापा-मम्मी के सहकर्मी और मित्र आते, भोज होता, नियत समय पर वे जाते और हम लोग अपने-अपने कार्य में मगन। हाँ! मेरे घर में सुबह से गाना ज़रूर बजता रहता था, चाहे रेडियो या रिकॉर्ड प्लेयर। पापा की मृत्यु के बाद हमारा कुछ वर्ष बिना किसी त्योहार और उत्सव के बीता। जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगी और पापा के गुज़रे काफ़ी वर्ष हो गए थे, तब मुझे सिनेमा देखने का चस्का लग गया। हर एक जनवरी को मम्मी को जबरन सिनेमा देखने के लिए ले जाती। छुट्टी की भीड़ के कारण हॉल में टिकट ख़रीदना जंग जीतने जैसा होता था; मैं जंग भी जीतती और सिनेमा भी देखती। 

मेरे जीवन का कुछ समय शान्तिनिकेतन में बीता है। वर्ष 1991 में पहली जनवरी को मैं अपनी एक मित्र के साथ घर से बाहर निकली नव वर्ष मनाने। कहीं कुछ नहीं, रोज़ की तरह सब कुछ शान्त। मैंने किसी से पूछा कि नव वर्ष के अवसर पर कहीं कुछ क्यों नहीं हो रहा है। तब पता चला कि बंगाल में अंग्रेज़ी तिथि से नहीं; बल्कि हिन्दी तिथि से नव वर्ष मनाते हैं। सुबह खिचड़ी बना-खाकर निकली थी, रात को दही चूड़ा खाकर नव वर्ष मना लिया। 
 
वर्ष 2000 में मेरी बेटी का जन्म हुआ। मेरा मन था कि वह मिलेनियम बेबी हो। इस कारण डॉक्टर से पहली जनवरी तय करने को कहा; परन्तु सिजेरियन सात तारीख़ से पहले सम्भव नहीं था। नव वर्ष के उपलक्ष्य में दिल्ली के वसंत विहार के एक होटल में दलेर मेंहदी का प्रोग्राम था, जिसका टिकट हमलोगों ने लिया। हालाँकि बच्चे के जन्म की सम्भावना किसी भी समय सम्भव थी, इसलिए भीड़ में जाना हितकर नहीं और उस पर ठण्ड बेशुमार। फिर भी मैं गई। मेरे पति के परिवार के लोग और मेरी माँ भी गईं। मैं और मेरी माँ भीड़ में बाक़ी सबसे अलग हो गए। मेरा बेटा अपने चाचा के साथ था, इसलिए मुझे चिन्ता नहीं थी। हमारे पास न फ़ोन, न पैसे। इतनी धक्का-मुक्की थी कि मैं अपने पेट को बचाने के कारण न घुस सकी, न खाना खा सकी, न कार्यक्रम देख सकी। किसी अनजान से मोबाइल माँगकर पति को फ़ोन किया। अंततः लौटी और साल का पहला दिन अपोलो अस्पताल में बीता।  

लन्दन कई बार गई हूँ, पर वर्ष 2014 के क्रिसमस और नव वर्ष पर पहली बार गई थी। पूरा शहर ख़ूबसूरती से सजा हुआ। रंगीन लाइट, जगमग रास्ते, रोड के ऊपर रंगीन लाइट की झालरें। 31 दिसम्बर की रात थेम्स नदी के किनारे आतिशबाजी होती है और बिग बेन की घंटी बजती है। शो का टिकट पहले से लेना होता है, जिसका पता हमें नहीं था। मैं अपने दोनों बच्चों के साथ गई। वहाँ तक पहुँचने के सारे रास्ते बन्द थे। एक पुलिस वाले ने बताया कि सिर्फ़ टिकट वाले जा सकते हैं, जो अब ख़त्म हो चुका है। वहाँ के रास्ते ऐसे हैं कि दूर से भी कुछ नहीं दिख सकता। हमने एक पिज़्ज़ा वाले के दूकान पर खड़े होकर पिज़्ज़ा बनाना सीखा और पिज़्ज़ा खाकर लौट आए। हाँ! 12 बजते ही आतिशबाजी की आवाज़ें सुनाई पड़ीं और आसमान में थोड़ा-सा देख सकी। लन्दन शहर की जगमग ख़ूबसूरती का ख़ूब आनन्द लिया।  

वर्ष 2021 के 31 दिसम्बर को मैं अकेली थी। मेरी माँ का इस वर्ष ही देहान्त हुआ था, तो मैं बहुत दुःखी रहती थी। मेरी एक मित्र की बेटी को पता चला कि मैं अकेली हूँ, तो वह आ गई। बाहर से खाना मँगाकर हमने पार्टी किया। एक जनवरी की सुबह वह चली गई, उसका ऑफ़िस खुला था। मैं सिनेमा हॉल में जाकर सिनेमा देख आई। कई साल ऐसा हुआ है कि मैं अपने जन्मदिन पर अकेली होती हूँ। कई बार मेरी बेटी सिनेमा का टिकट ऑनलाइन बुक कर देती है। मैं ख़ुद को तोहफ़ा देती हूँ, सिनेमा देखती हूँ, कॉफ़ी पीकर आती हूँ। कभी मन किया तो किसी शाकाहारी रेस्तराँ में जाकर कुछ खा लेती हूँ। उत्सव मनाने का यह मेरा अपना तरीक़ा है। 

मेरे बच्चे जब स्कूल पास कर गए, तब से उनकी दुनिया बहुत विस्तृत हो गई। नव वर्ष हो या जन्मदिन, दोस्तों के साथ मनाना उन्हें पसन्द है। एक दिन घर वालों के साथ और एक दिन दोस्तों के साथ। नव वर्ष, जन्मदिन, पर्व-त्योहार बच्चों के साथ मनाना अच्छा लगता है; परन्तु समय के साथ बच्चों से दूरी और बदलाव को मन ने अब स्वीकार कर लिया है। सभी साथ हों तो हर दिन ख़ास हो जाता है। वे दूर रहें तो फ़ोन इस दूरी को मिटा देता है, पर कमी तो महसूस होती है। बेटा अपने परिवार में मस्त और बेटी अपने दोस्तों के साथ। अब 31 दिसम्बर की रात 12 बजे अपने दोनों बच्चों को शुभकामना देकर नए वर्ष का स्वागत करती हूँ। अब न कोई योजना बनाती हूँ, न मन में बहुत उत्साह रह गया है पूर्व की भाँति। धीरे-धीरे उम्र के साथ मन घट रहा है और मैं स्वयं में सिमट रही हूँ। सिनेमा देखने का सिलसिला अब भी जारी है; परन्तु परिवार के कारण अब इसमें अंतराल आ जाता है। शायद समय और उम्र जीवन से उत्साह को धीरे-धीरे मिटाता जाता है, ताकि वृद्ध होने के अकेलेपन की तैयारी शुरू हो जाए।      

हर नया वर्ष ढेरों यादों और उम्मीदों के साथ आता है। साल के पहले दिन मन उल्लास और उमंग से भर जाता है। भविष्य के लिए फिर से सपने सजने लगते हैं। अतीत के दुःख को भूलकर एक नई आशा के साथ नव वर्ष का स्वागत करते हैं। फिर धीरे-धीरे समय के प्रवाह में नव वर्ष का उत्साह खोने लगता है और जीवन सुख-दुःख के साथ बीतने लगता है; पुनः नए वर्ष की प्रतीक्षा में। परन्तु बीच-बीच में पर्व-त्योहार मन में उमंग जगाए रखता है। जीवन ऐसा ही है। सच है, यदि पर्व-त्योहार न हो तो इन्सान कर्त्तव्यों और कामों की भीड़ में राहत का अनुभव कैसे करे। 

नव वर्ष का प्रथम दिन समय और जीवन के बीतने और परिवर्तन को याद दिलाता है। एक नया दिन, नया साल और जीवन से एक और वर्ष सरक जाता है। जीवन पथ पर आनन्दमय सफ़र के लिए नई ऊर्जा के संचार के साथ ऊष्मा, जोश, जुनून, हौसला और जीवन्तता का होना आवश्यक है। नव वर्ष में जीवन्तता और मानवता से पूरा संसार सुन्दर और चहचहाता रहे, यही आशा है। 

नव वर्ष मंगलमय हो! 

-जेन्नी शबनम (1.1.2025)
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Saturday, November 16, 2024

114. साहस और उत्साह से भरी राह

बिहार के भागलपुर में एक शिक्षक परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता भागलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे, जिनका देहान्त वर्ष 1978 में हुआ। मेरे पिता गांधीवादी, साम्यवादी व नास्तिक थे तथा अपने सिद्धान्तों के प्रति अत्यन्त दृढ़ थे। वे अपने सिद्धांतों से तनिक भी समझौता नहीं कर सकते थे, न कार्य में न व्यवहार में। मुझ पर उनके विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा; हालाँकि पिता की मृत्यु के समय मैं 12 वर्ष की थी। मेरी माँ भागलपुर के इण्टर स्कूल में प्राचार्या थीं, जिनका देहान्त वर्ष 2021 में हुआ। मेरी माँ प्राचार्य होने के साथ-साथ सक्रिय समाजसेवी थीं। मेरी माँ राजनीति शास्त्र और शिक्षा में स्नातकोत्तर थीं। उन्हें हिन्दी से विशेष लगाव था। समाचार पत्र व साहित्यिक पत्रिका से अच्छे-अच्छे उद्धरण, भावपूर्ण कविताओं की पंक्तियाँ आदि लिखती थीं। जब मैं समझने लायक हुई तो यह सब पढ़ती थी। शायद इससे मुझमें हिन्दी के लिए प्रेम ने जन्म लिया। माता-पिता से विरासत में मुझे सोचने-समझने व लिखने-पढ़ने का गुण मिला है।  
 
मेरी भाषा और पढ़ाई का माधयम हिन्दी है। बी.ए. तक अँगरेज़ी पढ़ी जो मात्र एक विषय था। मैंने वर्ष 1983 में बी.ए. में नामांकन लिया, जिसमें हिन्दी विषय नहीं ली; क्योंकि हिन्दी व्याकरण मुझे बड़ा कठिन लगता था। यों हिन्दी की कविता, कहानी, उपन्यास एवं आचार्य रजनीश के प्रवचनों को पढ़ना व सुनना मुझे अत्यन्त प्रिय है। जब जहाँ पुस्तकें मिल जातीं, पढ़ती रहती। पढ़ना-लिखना, गाना सुनना और सिनेमा देखना मुझे अत्यन्त रुचिकर लगता है। 

वर्ष 1986 में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में भारतीय महिला राष्ट्रीय महासंघ (NFIW) का सम्मेलन था, जिसमें अपनी माँ के साथ मैं आई। यहाँ अमृता प्रीतम जी आईं। अमृता प्रीतम जी की एक पुस्तक पढ़ी, तब से वे मेरी प्रिय लेखिका बन गईं। सम्मेलन में उनके भाषण हुए। महिलाओं ने उनके साथ तस्वीरें लीं। मेरी प्रिय लेखिका मेरे सामने हैं और मैं झिझक के कारण तस्वीर न ले सकी, जिसका दुःख मुझे आजीवन रहेगा। छात्र जीवन से मैं अनेक सामाजिक संगठनों में सक्रिय रूप से हिस्सा लेती रही हूँ, फिर भी बहुत कम बोलती और बहुत संकोची स्वभाव की थी। जब मैं एम.ए. में गई तब से मैं थोड़ी मुखर हुई और अपनी बात कहने लगी। 

विवाहोपरान्त दिल्ली आ गई। घर के सारे काम करने के साथ-साथ कुछ दिन नौकरी की। फिर नौकरी छोड़ कई तरह के काम किए; लेकिन सक्रिय होकर कोई काम न कर सकी। बच्चे छोटे थे, तो हर काम छूटता गया। पर जब भी अवसर मिलता अपने रूचि के कार्य अवश्य करती।  लिखना-पढ़ना जारी रहा। जब जो मन में आया लिख लिया। यह नहीं मालूम कि मैं जो लिख रही हूँ, किस विधा में है। लिखकर अलमारी के ताखे में कपड़ों के बीच छुपाकर रखती रही। तब कहाँ मालूम था कि भविष्य में हिन्दी और मेरी लेखनी एकमात्र मेरी साथी बन जाएगी। 

हमारे समाज में घरेलू कार्य को कार्य की श्रेणी में नहीं माना जाता है; क्योंकि इससे धन-उपार्जन नहीं होता, जबकि स्त्रियाँ घरेलू काम करके बहुत बचत करती हैं। स्त्री सारा दिन घर का कार्य करे, पर उसे कोई सम्मान नहीं मिलता; भले वह कितनी भी शिक्षित हो। वर्ष 2005 में मैंने पी-एच.डी. किया, लेकिन कोई नियमित कार्य न कर सकी। दोष मेरा था कि मैंने धन-उपार्जन से अधिक बच्चों को महत्व दिया। मैं पूर्णतः घरेलू स्त्री बन गई। घर व बच्चे बस यही मेरी ज़िन्दगी। मुझमें धन-उपार्जन का कार्य न कर पाने का मलाल बढ़ता रहा। हाथ में आई नौकरी को छोड़ने का दुःख सदैव सालता रहता। आत्मनिर्भर होना कितना आवश्यक है यह समझ में आ गया, पर तब तक मैंने बहुत देर कर दी। धीरे-धीरे मेरा आत्मविश्वास ख़त्म होने लगा। मैं मानसिक रूप से टूट चुकी थी। मन में जब जो आता लिखकर छुपा देती, जिससे मन को थोड़ा चैन मिलता था।    

वर्ष 1998 में पता चला कि अमृता प्रीतम हौज़ खास में रहती हैं। फ़ोन पर इमरोज़ जी से बात हुई। उन्होंने कहा कि अमृता बीमार हैं इसलिए बाद में आऊँ। घर-बच्चों में व्यस्त हो गई और अमृता जी से मिलने जाना टलता रहा। एक दिन अचानक अमृता जी से मिलने की तीव्र इच्छा हुई। वर्ष 2005 में फ़ोन कर समय लिया और अपने दोनों बच्चों के साथ मिलने पहुँच गई। मेरे लिए अमृता प्रीतम से मिलना ऐसा था जैसे किसी सपने का साकार होना। अमृता जी से मिलने का सोचकर मैं अत्यंत रोमांचित थी। इमरोज़ जी ने अमृता जी को दिखाया। उन्हें देख मैं भावुक हो गई और मेरी आँखों में आँसू भर आए। मेरी प्रिय लेखिका, जो अत्यन्त आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं, आज सिमटी-सिकुड़ी असहाय अवस्था में पड़ी थीं। अमृता जी से मैं न मिल सकी, न बातें कर सकी, बस क्षीण आवाज़ सुन सकी, जब वे इमरोज़ जी को पुकार रही थीं।  

अमृता जी के घर दुबारा गई, तब तक वे चल बसीं। मैं हमेशा इमरोज़ जी से मिलने जाती रही। जब भी उनसे मिलती तो यों लगता मैंने अमृता जी से मिल लिया। इमरोज़ जी को मैंने बताया कि मैं लिखती हूँ, तो उन्होंने मेरी कविताएँ सुनीं। मैंने उनसे अपनी झिझक बताई तथा यह भी कहा कि मैं लिखती हूँ यह कभी किसी को नहीं बताया कि कोई क्या सोचगा। उन्होंने कहा- ''तुम जो भी लिखती हो, जैसा भी लिखती हो, सोचो कि बहुत अच्छा लिखती हो। जिसे जो सोचना है सोचने दो। तुम अपनी किताबें छपवाओ।'' इमरोज़ जी से मिली प्रेरणा ने जैसे मुझमें आत्मविश्वास भर दिया। वर्ष 2006 में एक कार्यक्रम में पहली बार मैं अपनी एक कविता पढ़ी। जब यह इमरोज़ जी को बताया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद मेरे क़दम इस दिशा में बढ़ गए। मैं अंतरजाल पर बहुत अधिक लिखने लगी और ब्लॉग पर भी लिखने लगी। 

वर्ष 2010 में केन्द्रीय विद्यालय से अवकाश प्राप्त प्राचार्य श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी से मेरा परिचय मेरे ब्लॉग के माध्यम से हुआ। वे हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। वे मुझे अपनी छोटी बहन मानते हैं। उन्होंने मुझमें लेखन के प्रति विश्वास पैदा किया, जिससे मेरा आत्मबल बहुत बढ़ गया। उनके स्नेह, सहायता और शिक्षण से मैं हाइकु, हाइगा, सेदोका, ताँका, चोका, माहिया लिखना सीख गई।

धीरे-धीरे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में मेरी लेखनी छपने लगी। सर्वप्रथम वर्ष 2011 में एक साझा संकलन में मेरी रचनाएँ छपीं। मेरी एकल 5 पुस्तकें और साझा संकलन की 45 पुस्तकें छप चुकी हैं। कई समाचार पत्र में लघुकथा और लेख छप चुके हैं। कई पुस्तकों की प्रूफरीडिंग कर चुकी हूँ। इमरोज़ जी एवं काम्बोज जी ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी और मुझमें आत्मविश्वास और स्वयं के लिए सम्मान पैदा किया, जिसके लिए मैं आजीवन कृतज्ञ रहूँगी। अब मैं बेझिझक गर्व से स्वयं को कवयित्री, लेखिका, ब्लॉगर कहती हूँ। 

निःसन्देह जीवन में मैं बहुत पिछड़ गई। जब मेरी हर राह बन्द हुई, तब इमरोज़ जी और काम्बोज जी ने मुझमें साहस और उत्साह भरकर मुझे राह दिखाई जिस पर चलकर आज यहाँ तक पहुँच सकी हूँ। सदैव मेरे मन में यह बेचैनी रहती थी कि इतनी शिक्षा प्राप्त कर भी कोई कार्य न किया जिससे सम्मान मिले, घर में ही सही। जिस हिन्दी को कठिन मानकर मैंने बी.ए. में नहीं लिया, वही हिन्दी आज मेरी पहचान है। एक कवयित्री और लेखिका के रूप में जब कोई मुझे पहचानता है, तो अत्यन्त हर्ष होता है। सच है, कई रास्ते बन्द हुए तो एक रास्ता ऐसा मिला जिस पर चलकर मुझे सुख भी मिलता है और आनन्द भी। धन उपार्जन भले न कर सकी, लेकिन लेखनी के रूप में मेरी पुस्तकें मेरी अमूल्य सम्पदा है। जिनके लिए मैं व्यर्थ हूँ और जिनसे मैं तिरस्कृत होती रही, उनके लिए मेरा जवाब मेरी लेखनी है। 
 
- जेन्नी शबनम (20.3.24)
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Monday, January 30, 2023

101. वे जो मेरी मम्मी थीं

मम्मी को गुज़रे हुए आज 2 वर्ष हो गए। मम्मी अब यादें बन गईं, पर अब भी लगता है जैसे कहीं गई हैं और लौटकर आ जाएँगी। जानती हूँ वे अब कभी नहीं आएँगी। मेरा मानना है कि मृत्यु के बाद सब ख़त्म। न कोई ऐसी दुनिया होती है जहाँ मृतक रहते हैं, न कोई मरकर तारा बनता है, न पुनर्जन्म होता है, न ही कोई आत्मा-परमात्मा हमें देखता है। हाँ, यह सच है कि अगर पुनर्जन्म या आत्मा-परमात्मा पर विश्वास किया जाए तो ख़ुद को सन्तोष और ढाढस मिलता है कि हमारा अपना और हमारा भगवान् हमारे साथ है। पर कमबख़्त मेरा दिमाग वैसा बना ही नहीं, जो इन विश्वासों और आस्थाओं पर यक़ीन करे। 
 
मम्मी जब तक जीवित रहीं, तब तक ही वे हमारे लिए थीं। अब उनका काम, सोच और निशानियाँ शेष हैं जो हमारे साथ है। मम्मी के कपड़े, बैग, चश्मा, चप्पल, छड़ी इत्यादि भागलपुर में मम्मी के अपने मेहनत के पैसे से बनवाए घर में रखा है। घर आज भी वैसे ही फूलों से खिला हुआ है, जैसा मम्मी छोड़ गई। मम्मी का अन्तिम फ़ोन अब मेरे पास है, जिसे छूकर मम्मी के छुअन का एहसास कर लेती हूँ। मम्मी का फ़ोन नम्बर, जिसे अब मैं इस्तेमाल करती हूँ, को अब भी मम्मी के नाम से ही रखा है। मम्मी के उस फ़ोन से अपने दूसरे नम्बर पर कॉल करती हूँ या कोई सन्देश भेजती हूँ, तो लगता है जैसे मम्मी ने किया है। क्षणिक ही सही, पर मेरे लिए जीवित हो जाती हैं मम्मी। 

मैं जानती हूँ मम्मी के कार्य के कारण उनका बहुत विस्तृत सम्पर्क और समाज था। सभी लोग अब भी उन्हें याद करते हैं। परन्तु यह भी सच है समय के साथ सभी लोग धीरे-धीरे उन्हें भूलने लगेंगे। शायद मुझे और मेरे भाई को ही सिर्फ़ याद रह जाएँगी। जिस तरह मेरे पापा का मम्मी से भी बड़ा विस्तृत समाज था, परन्तु अब लोग भूल गए हैं। पापा के कुछ बहुत नज़दीकी मित्र व छात्र ही उन्हें अब भी यादों में रखे हुए हैं। उसी तरह मम्मी भी भुला दी जाएँगी। बस कुछ ही लोगों की यादों में जीवित रहेंगी। 

मम्मी की मृत्यु के बाद सारे संस्कार किये गए। पिछले वर्ष वार्षिक श्राद्ध हुआ। इस साल जब श्राद्ध होना था, तो कुछ लोगों ने कहा कि 'गया' में जाकर मम्मी-पापा के लिए पिण्डदान कर दिया जाए। एक बार बरखी (वार्षिक श्राद्ध) हो गया है, तो अब ज़रूरी नहीं है। गया में भी हो जाए पिण्डदान, क्या फ़र्क पड़ता है। पर मेरे लिए मम्मी का वार्षिक श्राद्ध करना न मज़बूरी है, न धार्मिक भावना। हर वर्ष वार्षिक श्राद्ध होगा, जिसमें पूजा नहीं भोज होगा। साल में एक बार अपने लोग एकत्रित होंगे, मम्मी-पापा और दादी की यादों को जिएँगे। मम्मी के पसन्द का भोजन करेंगे।    

एक दिन मैं सोच रही थी कि सच में ऐसी कोई दुनिया होती, जहाँ मृत्यु के बाद लोग रहने चले जाते; तब तो सच में बहुत अच्छा होता। मम्मी को वहाँ पूरा परिवार मिल जाता। मेरे दादा-दादी, नाना-नानी, मौसा-मौसी, फुआ-फूफा, बड़का बाबूजी-मइया, चाचा-चाची, मामा, पापा और अन्य ढेरों अपने जो छोड़ गए; मम्मी सबसे मिलतीं। क्या मस्ती भरा समय होता। महात्मा गांधी भी वहाँ मिलते, जिनके आदर्श पर पापा-मम्मी चलते रहे। जब गांधी जो को मम्मी बताएँगी कि भागलपुर में 'गांधी पीस फाउण्डेशन' की स्थापना पापा ने की और मम्मी ने उसे चलाया, तो बापू कितने खुश होंगे। यों बापू की पुण्यतिथि पर मम्मी भी इस संसार से विदा हुईं। काश! ऐसी कोई दुनिया होती, जहाँ मृत्यु के बाद सभी अपने मिल जाते

जानती हूँ, ज़िन्दगी उस तरह नहीं मिलती जैसी चाहत होती है। एक दिन किसी ने कहा ''अकेली तुम ही नहीं हो जिसका बाप मरा है।'' हालाँकि मम्मी उस समय जीवित थीं, पर उनको यह नहीं बताया कि किसने ऐसा कहा है; क्योंकि वे मेरी सारी तकलीफ़ बिना मेरे कहे समझती थीं। हाँ, जानती हूँ कि इस संसार में मुझसे ज़्यादा बहुत लोग दुःखी हैं, पर मेरा दुःख इससे कम नहीं होता बल्कि उनका दुःख भी मुझे पीड़ा पहुँचाता है। क्या करूँ, अपने स्वभाव से लाचार हूँ। 
दादी, पापा, मम्मी
कई बार सोचती हूँ कि शायद मैं ज़रूरत से ज़्यादा भावुक या संवेदनशील हूँ। छोटी-छोटी बातें चुभ जाती हैं, तो माता-पिता का गुज़र जाना कितनी पीड़ा देगी। पिता बचपन में चले गए, 14 वर्ष पूर्व दादी चली गईं, माँ दो साल पहले चली गईं; दुःखी होना लाज़िमी है, पर इतना भी नहीं जितना मुझे होता है। पर क्या करूँ? एक मम्मी थीं, जो अपना कष्ट भूलकर मेरे लिए चिन्तित रहती थीं। वे जब भी मुझसे मेरी तबीयत या समस्या पूछतीं, तो मैं नहीं बताती थी। मैं सोचती थी कि वे शारीरिक रूप से बहुत ज़्यादा अस्वस्थ हैं, ऐसे में अपनी समस्या क्यों बताना; भले वे सब समझ जाती थीं। अब मम्मी न रहीं, तो सोचती हूँ कि अब कोई नहीं जो मुझसे पूछेगा- ''तुम कैसी हो, शूगर कितना है, यह मत खाओ, वह मत खाओ...।'' अब कोई नहीं जो मेरा सम्बल बने और कहे कि ''मैं हूँ न, तुम चिन्ता न करो।''  

मम्मी 
*** 
जीवन का दस्तूर   
सबको निभाना होता है   
मरने तक जीना होता है।   
तुम जीवन जीती रही   
संघर्षों से विचलित होती रही   
बच्चों के भविष्य के सपने   
तुम्हारे हर दर्द पर विजयी होते रहे   
पाई-पाई जोड़कर   
हर सपनों को पालती रही   
व्यंग्यबाण से खुदे हर ज़ख़्म पर   
बच्चों की ख़ुशियों के मलहम लगाती रही। 
  
जब आराम का समय आया   
संघर्षों से विराम का समय आया   
तुम्हारे सपनों को किसी की नज़र लग गई   
तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार फिर बिखर गई   
तुम रोती रही, सिसकती रही   
अपनी क़िस्मत को कोसती रही।
   
अपनी संतान की वेदना से   
तुम्हारा मन छिलता रहा   
उन ज़ख़्मों से तुम्हारा तन-मन भरता रहा   
अशक्त तन पर हज़ारों टन की पीड़ा   
घायल मन पर लाखों टन की व्यथा   
सह न सकी यह बोझ   
अंततः तुम हार गई   
संसार से विदा हो गई   
सभी दुःख से मुक्त हो गई।
   
पापा तो बचपन में गुज़र चुके थे   
अब मम्मी भी चली गई   
मुझे अनाथ कर गई   
अब किससे कहूँ कुछ भी   
कहाँ जाऊँ मैं? 
  
तुम थी तो एक कोई घर था   
जिसे कह सकती थी अपना   
जब चाहे आ सकती थी   
चाहे तो जीवन बिता सकती थी   
कोई न कहता-   
निकल जाओ   
इस घर से बाहर जाओ   
तुम्हारी कमाई का नहीं है   
यह घर तुम्हारा नहीं है।
   
मेरी हारी ज़िन्दगी को एक भरोसा था   
मेरी मम्मी है न!  
पर अब?   
तुमसे यह तन, तुम-सा यह तन   
अब तुम्हारी तरह हार रहा है   
मेरा जीवन अब मुझसे भाग रहा है।
   
तुम्हारा घर अब भी मेरा है   
तुम्हारा दिया अब भी एक ओसारा है   
पर तुम नहीं हो, कहीं कोई नहीं है   
तुम्हारी बेटी का अब कुछ नहीं है   
वह सदा के लिए कंगाल हो गई है।
-0-

मम्मी-पापा
महात्मा गांधी की 75वीं पुण्यतिथि और मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि पर मेरा प्रणाम!

-जेन्नी शबनम (30.1.2023)
(मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि)
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Wednesday, November 16, 2022

100. भागलपुर की जेन्नी (पार्ट- 2)

पहला भाग- 
 
सुनसान राहों पर चलते हुए कोई चीख कानों में पड़े, तो जैसे आशंका से मन डर जाता है, ठीक वैसे ही उम्र के इस मोड़ पर सुनसान यादों में कोई चीख-चीखकर मुझे झकझोर रहा है। अब क्या? अब क्या शेष बचा? अब क्या करना है? अब? कितना विकराल-सा लग रहा है यह प्रश्न- ''अब क्या?'' 

सोचती हूँ 56 वर्ष कितने अधिक होते हैं, लेकिन इतनी जल्दी मानो पलक झपकते ही ख़र्च हो गए और अब जीवन के हिस्से में साँसों का कर्ज़ बढ़ रहा है। ख़ुश हूँ या निरुद्देश्य जीवन पर नाराज़ हूँ, यह सवाल अक्सर मुझे परेशान करता है। उम्र के इस मोड़ पर पहुँचकर प्रौढ़ होने का गर्व है, तो कहीं-न-कहीं बेहिसाब सपनों के अपूर्ण रह जाने का मलाल भी है। अफ़सोस अब वक़्त ही न बचा। या यों कि मुमकिन है वक़्त बचा हो, मगर मन न बचा। जीते-जीते इतनी ऊबन हो गई है कि जी करता है कि अगर मुझमें साहस होता तो हिमालय पर चली जाती; तपस्या तो न कर सकूँगी, हाँ ख़ुद के साथ नितान्त अकेले जीवन ख़त्म करती या विलीन हो जाती। 

पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है मेरी ज़िन्दगी कई अध्यायों में बँटी है और मैंने क़िस्त-दर-क़िस्त हर उम्र का मूल्य चुकाया है। मेरे जीवन के पहले अध्याय में सुहाना बचपन है जिसमें मम्मी-पापा, दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, चाचा-चाची, फुआ-फूफा, मौसा-मौसी, भाई, ढेरों चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई-बहन, रिश्ते-नाते, मेरा कोठियाँ, मेरा यमुना कोठी, मेरा स्कूल, पापा की मृत्यु से पहले का स्वछंद सरल जीवन है। फिर पापा की लम्बी बीमारी और अंततः मृत्यु जैसी स्तब्ध कर देने वाली पीड़ा है। दूसरे अध्याय में 25 वर्ष तक पढ़ाई के साथ दुनिया का दस्तूर समझना और पूरी दुनियादारी सीखना है। भागलपुर दंगा और दंगा के बाद का जीवन और समाज का परिवर्तन तथा अमानवीय मानसिकता व सम्बन्ध है। तीसरे अध्याय में 25 वर्ष की उम्र में मेरा हठात् प्रौढ़ हो जाना, जब न बचपना जीने की छूट न जवानों-सी अल्हड़ता है; वह है विवाह और विवाहोपरान्त कुछ साल है। जिसमें जीवन से समझौते और जीवन को निबाहने की जद्दोजहद है। दुःख के अम्बारों में सुख के कुछ पल भी हैं, जो अब बस यादों तक ही सीमित रह गए हैं। दुःख की काली छाया में सुख के सुर्ख़ बूटों को तराशने और तलाशने की नाकाम कोशिश है। चौथे अध्याय में मेरे बच्चों के वयस्क होने तक का मेरा जीवन है, जिसे शायद मैं कभी किसी से कह न सकूँ, या कह पाने की हिम्मत न जुटा सकूँ। यों कहूँ की प्रौढ़ जीवन से वृद्धावस्था में प्रवेश की कहानी है, जो मेरी आँखों के परदे पर वृत्तचित्र-सा चल रहा है, जिसमें पात्र भी मैं और दर्शक भी मैं। जाने कौन जी गया मेरा जीवन, अब भी समझ नहीं आता। अगर कभी हिम्मत जुटा सकी तो अपने जीवन के सभी अध्यायों को भी लिख डालूँगी।  

ज़िन्दगी तेज़ रफ़्तार आँधी-सी गुज़र गई और उन अन-जिए पलों के ग़ुबार में ढेरों फ़रियाद लिए मैं हाथ मलते हुए अपनी भावनाओं को काग़ज़ पर उकेरती रही; कोई समझे या न समझे। ऐसा लगता है जैसे मेरी उम्र साल-दर-साल नहीं बढ़ती है; बल्कि हर जन्मतिथि पर 10 साल बड़ी हो जाती हूँ। मेरा जीवन जीने के लिए नहीं, अपितु तमाम उम्र अभिनय करते जाने के लिए बना है। कितने पात्रों का अभिनय किया, पर किसी भी पात्र का चयन मेरे मन के अनुसार नहीं है। जाने कौन है जो पटकथा लिखता है और मुझे वह चरित्र जीने के लिए मज़बूर करता है मेरा वास्तविक जीवन कहाँ है? क्या हूँ मैं? संत-महात्मा ठीक ही कहते हैं कि जीवन भ्रम है और मृत्यु एकमात्र सत्य। जिस दिन सत्य का दर्शन हुआ; अभिनय से मुक्ति होगी। मेरा अनुभव है कि जिसकी तक़दीर ख़राब होती है बचपन से ही होती है और कभी ठीक नहीं होती; भले बीच-बीच में छोटी-छोटी खुशियाँ, मानों साँसों को रोके रखने के लिए आती हैं। 

मेरे जन्म के बाद के कुछ साल बहुत सुखद बीते। पापा-मम्मी-दादी के साथ पलते बढ़ते हुए हम दोनों भाई-बहन बड़े हो रहे थे। कुछ साल गाँव में दादी के पास रहकर पढ़ाई की। इससे यह अच्छा हुआ कि मैं ग्रामीण परिवेश को बहुत अच्छी तरह समझ सकी। मैं उस समाज का हिस्सा बन सकी, जहाँ बच्चे गाँव के वातावरण में रहकर पढ़ते भी है और मस्ती भी करते हैं। जहाँ लड़का-लड़की में कोई भेद नहीं होता है; हाँ स्वभावतः उनके कार्य का बँटवारा हो जाता है और कोई किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है। ज़िन्दगी बहुत सहज, सरल और उत्पादक होती है। 

2 साल गाँव में रहकर मैं भागलपुर मम्मी-पापा के पास आ गई। परन्तु भाई गाँव में रहकर ही मैट्रिक पास किया। मेरा भाई पढ़ने में बहुत अच्छा था, तो आई.आई.टी. कानपुर और उसके बाद स्कॉलरशिप पर अमेरिका चला गया। वर्ष 1984 में महिला समाज की तरफ़ से मुझे मेडिकल की पढ़ाई के लिए रूस जाना था। सब कुछ हो गया, लेकिन बाद में पता चला कि मैंने आर्ट्स से आई.ए. किया है तो नामांकन न हो सकेगा। फिर 1988 मेरा भाई मुझे पढ़ने के लिए अमेरिका ले जाना चाहा, लेकिन मुझे वीजा नहीं मिला; क्योंकि मैं वयस्क हो गई थी और लॉ की पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। क़िस्मत ने मुझे फिर से मात दी।  

जुलाई 1978 में मेरे पापा का देहान्त  हो गया। पापा की मृत्यु के पश्चात जीवन जैसे अचानक बदला और 12 वर्ष की उम्र में मैं वयस्क हो गई। मम्मी की सभी समस्याएँ बहुत अच्छी तरह समझने लगी। यहाँ तक कि गाँव के हमारे कुछ रिश्तेदार चाहते थे कि मेरी माँ को मेरी दादी घर से निकाल दे और हम भाई-बहन को अपने पास गाँव में रख ले। पर मेरी दादी बहुत अच्छी थीं, जिसने ऐसा कहा था उसे बहुत सटीक जवाब दिया उन्होंने। मम्मी को दादी ने बहुत प्यार दिया, मम्मी ने भी उन्हें माँ की तरह माना। मेरी मम्मी अपना सुख-दुःख दादी से साझा करती थीं। दादी का सम्बल मम्मी के लिए बहुत बड़ा सहारा था। 6 मई, 2008 को 102 साल की उम्र में दादी का देहान्त हुआ, मम्मी उसके बाद बहुत अकेली हो गईं।  

मेरे स्कूल में तब 9वीं और 10वीं का स्कूल-ड्रेस नीले पाड़ की साड़ी और सफ़ेद ब्लाउज था। ब्लाउज की लम्बाई इतनी हो कि ज़रा-सा भी पेट दिखना नहीं चाहिए। साड़ी पहनकर अपने घर नया बाज़ार से अपने स्कूल घंटाघर चौक तक पैदल जाना बाद में सहज हो गया। साड़ी पहनने से मन में बड़े होने का एहसास भी होने लगा। हाँ यह अलग बात कि कॉलेज जाते ही टी-शर्ट पैंट, सलवार कुर्ता पहनने लगी, साड़ी सिर्फ़ सरस्वती पूजा में। मेरे समय में 11वीं-12वीं की पढ़ाई कॉलेज में होती थी, जिसे आई.ए. यानी इंटरमीडियट ऑफ़ आर्ट्स कहते हैं। मैंने बी.ए. ऑनर्स सुन्दरवती कॉलेज से तथा टी.एन.बी. लॉ कॉलेज से एलएल.बी. किया। भागलपुर विश्वविद्यालय से गृह विज्ञान में एम.ए. किया। वर्ष 2005 में भागलपुर विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. किया।     
 
मैं 1986 में समाज कार्य और नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इण्डियन वुमेन से जुड़ने के अलावा राजनीति से भी जुड़ गई। ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के भागलपुर इकाई की वाइस प्रेजिडेंट बनी। मीटिंग, धरना, प्रदर्शन ख़ूब किया। वर्ष 1989 के दंगा के बाद वह सब भी ख़त्म हो गया। हाँ, बिहार महिला समाज की सदस्य मम्मी के जीवित रहने तक रही। अब अपना वह जीवन सपना-सा लगता है। मैं पापा के चले हुए राह पर अंशतः चलती हूँ उनकी तरह विचार से कम्युनिस्ट, मन से थोड़ी गांधीवादीवादी और पूर्णतः नास्तिक हूँ। पूजा-पाठ या ईश्वर की किसी भी सत्ता में मेरा विश्वास नहीं है। परन्तु त्योहार ख़ूब मज़े से मनाती हूँ। छठ में मोतिहारी अपने मामा-मामी और मम्मी के मामा-मामी के पास हर साल जाती रही। दीवाली, जगमग करता दीपों का त्योहार मेरे मन के संसार को उजियारा से भर देता है। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और नया साल मेरे लिए प्रफुल्लित करने वाला दिन होता है।  

10वीं से लेकर एम.ए. और लॉ की पढ़ाई फिर पी-एच.डी. मैंने ऐसे की जैसे कोई नर्सरी से लेकर 10वीं तक पढ़ता है। नर्सरी के बाद पहली कक्षा फिर दूसरी कक्षा फिर तीसरी...। बिना यह सोचे कि आगे क्या करना है। बस पढ़ते जाओ, पास करते जाओ। अब यों महसूस होता है जैसे कितनी कम-अक़्ल थी मैं, भविष्य में क्या करना है, सोच ही नहीं पाई। लॉ करने के बाद बिहार बार काउन्सिल की सदस्यता ली, काम नहीं कर सकी। क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में तूफ़ान आना बाक़ी था, तो रास्ता और मंज़िल दोनों मेरे हाथ की लकीरों से खिसक गया। 
 
वर्ष 1989 के भागलपुर दंगा में मेरा घर प्रभावित हुआ और 22 लोगों की हत्या हुई उस घर में रह पाना मुमकिन न था। एक तरह से यायावर की स्थिति में छह माह गुज़रे। दंगा के कारण एम.ए. की परीक्षा देर से हुई। दंगा के उस माहौल में और जिस घर में 22 लोग मारे गए हों, वहाँ रहना और पढ़ाई पर ध्यान लगाना बहुत कठिन हो रहा था। लेकिन समय को इन सभी से मतलब नहीं होता है, ज़िन्दगी को तो वक़्त के साथ चलना होता है। कुछ व्यक्तिगत समस्या के कारण भी मेरी मानसिक स्थिति ठीक न थी। फिर भी एम.ए. में यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ, टॉपर से 1 नम्बर कम आया। बाद में 1995 में BET (बिहार एलिजिबिलिटी टेस्ट फॉर लेक्चरशिप) भी किया लेकिन बिहार छोड़कर पुनः दिल्ली आ गई और एक बार फिर से मेरा मुट्ठी से धरती फिसल गई थी।  

कोलकाता के आनन्द बाज़ार पत्रिका के विख्यात पत्रकार गौर किशोर घोष, जिन्हें पत्रकारिता के लिए मैग्सेसे अवार्ड मिला, वे प्रसिद्ध कहानीकार-उपन्यासकार थे और जिनकी कहानी पर 'सगीना महतो' फिल्म बनी है; मुझे मेरे हालात से बाहर निकालकर अपने साथ शान्तिनिकेतन ले गए। शान्तिनिकेतन की अद्धभुत दुनिया ने मुझे सर-आँखों पर बिठाया। शान्तिनिकेतन की स्मृतियों पर मैंने कई संस्मरण भी लिखे हैं। गौर दा ने मुझे बहुत प्यार दिया और मेरे लिए बहुत फ़िक्रमन्द रहे। शान्तिनिकेतन में बहुत से मित्र बने जिनसे आज भी जुड़ी हुई हूँ। हाँ, यह ज़रूर है कि शान्तिनिकेतन छोड़ने के बाद उसने मुझे मेरे हालात पर छोड़ दिया। मेरी तक़दीर को अभी बहुत खेल दिखाना जो था। शान्तिनिकेतन मुझसे छूट गया और फिर एक बार मैं मझधार में आ गई। 

यों लगता है जैसे किसी ने मेरे लिए ही कहा था- ''तक़दीर बनाने वाले, तूने कमी न की, अब किसको क्या मिला, ये मुक़द्दर की बात है'' यों तो तक़दीर से बहुत मिला, पर इस तरह जैसे यह सब मेरे हिस्से का नहीं किसी और के हिस्से का था, जो रात के अँधियारे में तक़दीर के राह भटक जाने से मुझ तक आ गया था। शेष फिर कभी...। 

- जेन्नी शबनम (16.11.2022)
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Sunday, January 30, 2022

92. मम्मी को याद करते हुए

वक्ता के रूप में 

मम्मी ने एक दिन मुझसे कहा- "मेरे जीवन को तुमसे ज़्यादा कोई नहीं जानता-समझता है, मेरे जीवन के बारे में भी कुछ लिखो।" मैंने हँसकर कहा- "तुम्हारी ज़िन्दगी पर तो फ़िल्म बन सकती है मम्मी। काश! किसी को हम जानते, तो कहते कि कहानी लिखे और सिनेमा बनाए। कम-से-कम उस एक दृश्य में तो तुमको ज़रूर दिखाए, जिस दिन तुम्हारा रिटायरमेंट हुआ, तो तुम्हारे सहकर्मी और छात्राएँ रो रही थीं। तुम्हारे अधेड़ावस्था का चरित्र हम और युवावस्था का चरित्र ख़ुशी (मेरी बेटी) निभाए।" मम्मी मेरी बातों पर ख़ूब हँसने लगी और बोली "वाह! यह तो बहुत अच्छा आइडिया है; लेकिन मेरे जैसे पर कोई क्यों सिनेमा बनाएगा? जो सम्भव है वह सोचो न! तुम इतना अच्छा लिखती हो, मेरे बारे में तुम जो भी सोचती हो, वह सब लिखो।" मैंने कहा- "मम्मी! तुम मानसिक पीड़ा में जीती रही हो। हम लिखेंगे तो सारा सच ही लिखेंगे, तुम पढ़ोगी और बीते कष्टप्रद दिनों को याद करोगी और रोज़ रोती रहोगी।" मम्मी के जीवन के हर पहलू, उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख, अच्छे-बुरे वक़्त से मैं पूर्णतः वाक़िफ़ रही हूँ। 

प्राचार्य पद से रिटायर होने के दिन

तीन-चार वर्ष की उम्र से ही मुझमें उम्र से ज़्यादा समझ थी। मैं बहुत गम्भीर और संकोची स्वभाव की थी। उस उम्र से हर कार्य को मैं अपने तरीक़े से सोचकर, बहुत स्थिर और तल्लीनता से करती थी, भले ही समय ज़्यादा लग जाए। हड़बड़ी में किसी तरह कार्य को पूरा करना मेरे स्वभाव में नहीं है। जो भी कार्य करूँ, मेरे मुताबिक़ परफ़ेक्ट होना चाहिए, अन्यथा मैं करती ही नहीं हूँ। इस आदत के कारण मैंने पाया कम, गँवाया ज़्यादा है। 

पापा की मृत्यु के बाद जैसे अचानक मैं वयस्क हो गई और हर परिस्थिति को समझकर विश्लेषण करने लगी। यही वज़ह है कि सही समय पर मम्मी पर मैं कुछ भी लिख न सकी। जब भी थोड़ा लिखती, भावुक हो जाती और डिलीट कर देती थी। मैं नहीं चाहती थी कि मम्मी अपने दुःखद पलों को बार-बार याद करें। मम्मी को मानसिक और भावनात्मक पीड़ा इतनी ज़्यादा मिली कि मैं लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। मेरी कुछ कविताएँ जो मम्मी को अपने जीवन से जुड़ी हुई लगतीं, बार-बार पढ़कर ख़ूब रोती थीं, विशेषकर वृद्धावस्था और अकेलेपन की रचनाएँ। मम्मी हमेशा कहतीं- "तुम तब से लिखती हो, हमको पता कैसे नहीं चला? मेरी जैसी स्थिति और परिस्थिति में लोग क्या महसूस करते हैं, तुम कैसे इतना सोचकर लिख लेती हो?" मैं मुस्कुराकर कहती- "पता नहीं मम्मी, कैसे लिख लेते हैं हम। पर सोचो, माँ को नहीं पता कि बेटी लिखती है; लेकिन बेटी को माँ का सब कुछ पता है।" मैं जब भी भागलपुर जाती और मम्मी से मिलती थी, तो हँसना, बोलना, गाना, खाना जारी रहता था। कोई भी दुःखद बात हो जाती, तो मम्मी अपने असहाय होने पर बहुत रोती थीं। जीवन का बीता हर एक पल मम्मी को हमेशा याद रहा। 

सुलह केन्द्र में सलाहकार

प्रतिभा सिन्हा, महज़ मेरी माँ का नाम नहीं; बल्कि ऐसी शख़्सियत का नाम है, जिनकी पहचान आदर्श शिक्षक, कर्मठ प्राचार्य और सामाजिक सरोकारों से जुड़े संगठनों में एक कर्मठ नेत्री के रूप में है। जब से मैंने होश सँभाला उन्हें घर, बच्चे, परिवार, विद्यालय और सामजिक कार्यों में व्यस्त देखा है। मम्मी के जीवन के उतार-चढ़ाव में सुख-दुःख, संघर्ष, सम्मान, अपमान, हिम्मत सब शामिल रहा है। नौकरी के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों से सम्बन्धित संगठनों से सम्बद्धता, हर सम्भव लोगों की सहायता करना, चाहे वह आर्थिक हो या पारिवारिक, भागलपुर के सुलह केन्द्र में सलाहकार, इत्यादि न जाने कितने कार्य हैं जो मम्मी लगातार करती रहीं। 

वर्ष 2010 से उनके पैरों में बहुत तक़लीफ़ रहने लगी और धीरे-धीरे चलने में असमर्थ होती गईं। इसके बावजूद 2017 तक उनके किसी भी कार्य में अवरोध नहीं आया, वे सक्रिय रहीं। वर्ष 2018 में मम्मी दिल्ली आईंं। यहाँ दो बार हार्ट अटैक आया। इसके बाद वे धीरे-धीरे कमज़ोर होती चली गईं। देहान्त के दो साल पहले से चलने में असमर्थ और अपनी हर दिनचर्या के लिए दूसरों पर निर्भर हो गई थीं। हर दूसरे-तीसरे महीने उनका शुगर और सोडियम कम हो जाता था। अस्पताल में भर्ती होना फिर 10-12 दिन में ठीक होकर घर आना, मानो यह उनके जीवन का हिस्सा बन गया। एक बार लगातार दो महीना तक अस्पताल में रहना पड़ा, जब उनके कमर में बहुत दर्द हुआ और चलने में असमर्थ हो गईं। ऐसे में मम्मी जीवन से निराश हो चुकी थीं। मैं, मेरा भाई, मम्मी के मित्र, सहकर्मी, छात्र-छात्राएँ, रिश्तेदारों आदि से मिलने पर मम्मी जैसे खिल जाती और अपनी सारी पीड़ा भूल जाती थीं। 

भारत भ्रमण के दौरान

मम्मी अपने जीवन-संघर्ष से हारने लगतीं या किसी घटना के कारण अवसाद में होतीं, तो मैं अक्सर कहती थी "मम्मी! तुम अपनी मालिक हो, कोई तुमसे न सवाल करेगा न किसी को जवाब देने के लिए बाध्य हो। कभी किसी से कुछ नहीं लिया, जीवन भर लोगों की सहायता ही करती रही हो। तुम्हारे बच्चे स्थापित हैं, सबकी फ़िक्र छोड़ो, सिर्फ़ अपनी फ़िक्र करो। तुम्हारा अपना पैसा है मेहनत से कमाया हुआ, भरपूर जियो, खूब घूमो, ख़ूब आराम से जीवन जियो, जो मन में आए करो।" परन्तु मम्मी ने कभी भी बेफ़िक्र होकर जीवन नहीं जिया। उस समय की मध्यमवर्गीय परिवेश की माँ, विशेषकर एकल और विधवा स्त्री अपने से ज़्यादा अपने बच्चों के लिए फ़िक्रमन्द रहती थीं। मेरी फ़िक्र ने मम्मी के स्वास्थ्य को और भी ज़्यादा प्रभावित किया। उच्च शिक्षा लेकर भी मैं आर्थिक रूप से निर्भर हूँ, इस बात का अफ़सोस मुझे रहता है और मम्मी करती रहती थीं। सच है कि परिस्थितियाँ कब बदल जाए कोई नहीं जानता। मम्मी बहुत ख़ुश थीं कि मैं लेखिका और कवयित्री बन गई हूँ। मम्मी के सामने मेरी एक पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' प्रकाशित हुई, जो मम्मी के पास थी। दूसरी किताब 'प्रवासी मन' प्रकाशित हुई; लेकिन मम्मी को मैं दे नहीं सकी। मेरी तीसरी किताब 'मरजीना' प्रकाशित हुई, जिसे मैंने मम्मी को समर्पित किया है 

मम्मी की तस्वीर के साथ मेरी पुस्तकें
मैं कॉलेज में पढ़ती थी। एक दिन मैंने मम्मी से कहा- "तुम दूसरी शादी क्यों नहीं की? कोई तो रहता तुम्हारे साथ, जब तुम बहुत बूढ़ी हो जाती। दादी उम्रदराज़ हो गई है, शादी के बाद हम भी चले जाएँगे, तब तुम अकेली पड़ जाओगी।" दादी यह सुनकर हँसने लगी। मम्मी ने कहा- "क्या बोलती हो, कुछ भी अनाप-शनाप सोचती और बोलती हो। दूसरी शादी क्यों करते भला? अगर मेरी दूसरी शादी होती, तो क्या तुम्हारी शादी हो पाएगी? तुम्हारी शादी के लिए अभी कितने ऑफर आते हैं, पर कोई नहीं चाहेगा कि ऐसी लड़की से शादी हो, जिसकी विधवा माँ ने दूसरी शादी की हो। मेरे पास नौकरी है, ढेरों काम है, तुम्हारी दादी है, तुम दोनों बच्चे हो, शादी का औचित्य क्या था?" मम्मी के जवाब से मैं संतुष्ट नहीं थी। मैं सचमुच चाहती थी कि मम्मी के जीवन में रंग हो। मम्मी का रंगहीन साड़ी पहनना, बिन्दी-चूड़ी नहीं पहनना मुझे बहुत अखरता था। पहले वे काजल लगाती थीं और कान में बड़ी-सी बाली पहनती थीं, पापा के देहान्त के बाद बन्द कर दीं। मम्मी ने दीवाली-होली सब कुछ रस्म के तौर पर निभाना शुरू कर दिया; हालाँकि पापा कोई भी त्योहार नहीं मनाते थे, पर हमें रोकते नहीं थे।
 
मेरी शादी में मम्मी 
मैं कम बोलती और शांत रहती थी; लेकिन मुझे ख़ुश रहना पसन्द था। मैं होली, दीवाली, ईद, नया साल, क्रिसमस, जन्मदिन, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या अन्य कोई ख़ास दिन ख़ूब शौक से मनाती थी। मम्मी को लेकर ज़बरदस्ती सिनेमा देखने जाती। होली में दादी-मम्मी और नाना को रँग देती थी। दादी-मम्मी ग़ुस्सा होतीं, पर मैं कहाँ सुनती थी किसी की। मम्मी को ज़बरदस्ती रंगीन साड़ी पहनाती थी। मेरे अनुसार चूड़ी, बिन्दी, बिछिया आदि सुहाग की निशानी नहीं; बल्कि सौंदर्य प्रसाधन है, पर मम्मी कभी नहीं पहनीं। 
 
मुझे वह पल याद है जब पापा की मृत्यु हुई मम्मी की स्थिति बहुत ख़राब हो गई, उनको नींद की सूई दी जा रही थी उसी अर्ध-बेहोशी में किसी स्त्री ने मम्मी के हाथ में ही काँच की सभी चूड़ियाँ तोड़ दीं और नहलाकर सफ़ेद साड़ी पहना दी। मुझे बेहद ग़ुस्सा आया, पर उस समय मेरी कौन सुनता। हमारे समाज और संस्कृति ने मम्मी को विधवापन झेलने को मज़बूर किया। हालाँकि मम्मी मेरी बातों को समझती थीं; लेकिन उनके मन में सदियों का बैठा मानसिक अवरोध था कि 'लोग क्या कहेंगे'। मैं कहती थी कि जिसे जो कहना है कहने दो, अपने मन का करो; परन्तु मम्मी न कभी बिन्दी लगाई न रंगीन काँच की चूड़ियाँ पहनीं। वर्ष 1963 में मेरे दादा के देहान्त के बाद से दादी ने भी कभी सफ़ेद के अलावा किसी और रंग को नहीं अपनाया। मुझे यह सब बेहद क्रूर लगता है। 

भैया के जन्म के बाद मम्मी
भारत भ्रमण पर पापा-मम्मी
मम्मी का पूरा नाम प्रतिभा सिन्हा और घर का नाम सुशीला है। विवाहोपरान्त प्रतिभा सिन्हा ही नाम रहा; क्योंकि मेरे पापा इस बात के विरुद्ध थे कि शादी के बाद स्त्री का नाम बदला जाए या पति का उपनाम जोड़ा जाए। मम्मी का जन्म बिहार के सीतामढ़ी ज़िला के सुप्पी ब्लॉक के सोनौल सुब्बा गाँव में 21 दिसम्बर 1944 को हुआ। उनके पिता बैकुण्ठ नारायण सिन्हा, सोनौल के एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे और माँ रामधारी देवी गृहिणी थीं। बड़ी बहन उर्मिला देवी गृहिणी और बहनोई भूपनारायण प्रसाद रेलवे में कार्यरत थे, अवकाश प्राप्ति के बाद मोतिहारी में रहने लगे; अब वे दोनों इस संसार में नहीं हैं। बड़े भाई श्री कृष्णदेव नारायण सिन्हा बिहार सरकार में ऑडिटर थे और भाभी श्रीमती राममणि सिन्हा स्कूल में शिक्षक थीं; वे मोतिहारी में रहते हैं। मम्मी के दो मामा हैं, जो मोतिहारी में रहते थे। बड़े मामा धर्मदेव नारायण सिन्हा जज थे तथा छोटे मामा विष्णुदेव नारायण सिन्हा वकील और स्वतंत्रता सेनानी थे। मम्मी की सातवीं कक्षा तक की शिक्षा गाँव से हुई। आगे की पढ़ाई के लिए मम्मी अपने बड़े  मामा जो उन दिनों बेगूसराय में ज़िला जज थे, के घर रहने आ गईं और वहीं से 1961 में मैट्रिक किया। मेरे मामा की पोस्टिंग 1959 में दरभंगा में हुई और  उनकी शादी 1960 में हुई। मम्मी अपने भाई-भाभी के पास रहने आ गईं और दरभंगा विश्वविद्यालय से 1962 में प्री यूनिवर्सिटी (मेरे समय का इंटरमीडिएट) किया।

3 जून 1962 को दरभंगा में मम्मी की शादी हुई, तब वे दरभंगा विश्वविद्यालय में बी.ए. पार्ट-1 में पढ़ती थीं हम दोनों भाई-बहन के जन्म के कारण उनकी पढ़ाई में एक साल का व्यवधान आया और 1967 में टी.एन.बी.कॉलेज, भागलपुर से बी.ए.ऑनर्स किया। मेरे पापा डॉ. कृष्ण मोहन प्रसाद अपने पढ़ाई के दिनों में अपने गाँव कोठियाँ (अब शिवहर ज़िला) के नज़दीक अदौरी स्कूल में क़रीब एक साल शिक्षक रहे। 1961 में गिरिडीह कॉलेज, राँची विश्वविद्यालय में फिर 1963 में भागलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में प्रोफ़ेसर बने। मम्मी ने भागलपुर विश्वविद्यालय से 1969 में राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया। पापा उसी विभाग में शिक्षक और मम्मी उनकी छात्रा। मैं मम्मी को छोड़ती नहीं थी, चाहे मम्मी को पढ़ने जाना हो या मीटिंग; हालाँकि हम दोनों भाई-बहन के देख-रेख के लिए दो लोग रहते थे। मैं मम्मी को बहुत ज़्यादा दिक्क़त देती थी; परन्तु मेरे सिद्धांतवादी पापा ने मम्मी को सहूलियत नहीं दी। पापा के विभागाध्यक्ष ने पापा से कहा कि मम्मी क्लास न करें और पापा घर में नोट्स दे दें। परन्तु पापा के लिए सभी छात्र एक बराबर हैं, किसी एक को सुविधा क्यों? मम्मी पढ़ने के लिए अक्सर अपनी मित्र श्रीमती लक्ष्मी गुप्ता, जिनका घर (मायका) कोतवाली चौक पर है, के घर चली जाती थीं। मम्मी ने 1971 में टी.एन.बी.लॉ.कॉलेज से बी.एल. किया। 1974 में राजकीय शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय, भागलपुर से बी.एड. और 1982 में एम.एड. किया। 

 
पापा के सहयोग से मम्मी ने मार्च 1967 में भागलपुर में गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र की स्थापना की और उसकी फाउण्डर सेक्रेटरी जिसे चीफ़ वर्कर कहते हैं, बनी। फिर 1972 में गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र के सचिव-पद से इस्तीफ़ा दे दिया। 1972 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (C P I) में शामिल हो गईं। 22 नवम्बर 1972 को बिहार महिला समाज से जुड़ी और भागलपुर शाखा की सचिव बनीं। वे बिहार महिला समाज की राज्य सचिव रहीं और छह बार भारतीय महिला फेडरेशन की राष्ट्रीय परिषद् की सदस्य रहीं। 
 
आनन्द मोहन सहाय, जो आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के सेक्रेटरी जनरल थे और शारदा देवी वेदालंकार, जो सुन्दरवती कॉलेज की संस्थापक प्राचार्य थीं, के सहयोग से 23 दिसंबर 1975 को टी.एन.बी. कॉलेजिएट स्कूल में शिक्षक के रूप में मम्मी की बहाली हुई। उसके बाद 1988 में बिहार सेवा आयोग द्वारा प्राचार्य के पद पर नियुक्ति हुई और प्रोजेक्ट गर्ल्स हाई स्कूल धौनी, बाँका में पदस्थापित हुईं। बीच में एक साल के लिए नाथनगर गर्ल्स हाई स्कूल में पोस्टिंग हुई थी। फिर मोक्षदा बालिका इन्टर स्कूल, भागलपुर में 12.1.2004 से 31.12.2008 तक प्राचार्य रहीं और वहीं से रिटायर हुईं। मोक्षदा स्कूल के सहकर्मी श्री दयानन्द जायसवाल, जो बाद में मोक्षदा के प्राचार्य बने, के सम्पादन में 2013 में संभाव्य नाम से हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसका अनुमोदन मम्मी ने किया। 2015 में पत्रिका का नाम बदलकर 'सुसंभाव्य' किया गया ताथा मम्मी मृत्युपर्यन्त पत्रिका की संरक्षिका रहीं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, महिला समाज, गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र, भारतीय जननाट्य संघ, राष्ट्र सेवा दल, परिधि, शिक्षक संघ, पेंशनर समाज, कानूनी सहायता-सुलह केन्द्र आदि ढेरों संगठनों से मम्मी आजीवन जुड़ी रहीं और 2017 तक पूर्ण सक्रिय रहीं। 

 

मम्मी को याद करने में मम्मी-पापा के विवाह की चर्चा न हो यह कैसे मुमकिन है। मम्मी-पापा की शादी बहुत अनोखी थी। पापा का घर कोठियाँ धर्मपुर  धर्मागत गाँव, जो शिवहर ज़िला (पहले मुज़फ्फ़रपुर फिर सीतामढ़ी ज़िला) मुख्यालय से लगभग 2 किलोमीटर दूर है। समीप के गाँव पुरनहिया के डुमर गाँव के किसी समृद्ध परिवार से शादी के लिए पापा पर बहुत दबाव था। यहाँ तक कि वे लोग पी-एच.डी. का ख़र्च देने को तैयार थे। सोनौल सुब्बा से सटा हुआ एक गाँव है घरबारा, जहाँ मम्मी के रिश्ते के मुनि चाचा रहते थे, जो पापा के रिश्ते में भी कुछ थे। उन्होंने मेरे मामा को शादी की बात करने भेजा। पापा ने अपने पिता और घर के किसी भी सदस्य को मामा से बात करने नहीं दिया। वे सारा दिन मामा के साथ बिताए और अपने सिद्धांत और शर्तों के बारे में स्पष्टतः बताया। पापा का परिवार परम्परावादी है, तो उन्हें आशंका थी कि घरवाले कुंडली मिलाएँगे, मुहूरत देखेंगे, पारम्परिक शादी चाहेंगे। पापा के रिश्ते में भतीजा और मम्मी के रिश्ते में भाई श्री राजकमल शिरोमणि, जो बाद में अँगरेज़ी के प्रोफ़ेसर बने, के साथ मम्मी को दरभंगा के सिनेमा हॉल में भेजा गया पापा ने मम्मी को दूर से देखा, पर मम्मी को इस बात की जानकारी नहीं दी गई। एक महीने के बाद पापा ने रजिस्ट्री चिट्ठी भेजकर मामा को बुलाकर कहा कि अगर मम्मी में मेरिट हो और वे आगे पढ़ेंगी, तो वे शादी के लिए तैयार हैं; लेकिन शादी उनके शर्त के मुताबिक़ होगी। पापा द्वारा चयनित राजनीति शास्त्र, गृहविज्ञान और अंग्रेज़ी के पाँच प्रश्नों के साथ मम्मी की परीक्षा लेने पापा की बड़ी भाभी और भाई हरिमोहन प्रसाद दरभंगा आए। मम्मी ने प्रश्नों के उत्तर उनके सामने लिखे और लिफ़ाफ़े में चिपकाकर दे दिया। मम्मी मेरिट-टेस्ट में पास हो गईं। मम्मी ख़ुश थीं कि शादी से पढ़ाई में बाधा नहीं होगी। नाना-मामा ने शादी की सभी शर्तों को मान लिया। मामा ने चुपचाप पापा की कुंडली बनवाई और कुंडली-मिलान कराया, जिसके अनुसार 36 में से 32 गुण मिल गए थे। 

विवाह के बाद की तस्वीर की पेन्टिंग
शादी की शर्तें मुख्यतः ये थीं कि मेरे दादा शादी में नहीं जाएँगे, खादी की एक साड़ी और सिन्दूर की पुड़िया पापा लेकर जाएँगे, दहेज या लेन-देन की कोई बात नहीं होगी, मायके से एक या दो से ज़्यादा गहना नहीं देना है, कपड़ा सिर्फ़ मम्मी को देना है जो खादी का हो, मम्मी को बैग भी दें तो खादी भण्डार का ही। लहेरियासराय में मम्मी की बड़ी मामी की बड़ी बहन रहती थीं। उनके घर से शादी हुई। पापा खादी का सफ़ेद धोती-कुरता-बंडी पहनकर चार दोस्तों के साथ रिक्शे पर आए। विधि के तौर पर भी उन्होंने न एक रूपया लिया, न एक कपड़ा। वहाँ के लोगों को बहुत अजीब लगा कि यह कैसा लड़का है, पर सभी संतुष्ट थे कि लड़का प्रोफ़ेसर है। विदा होते समय पापा ने घूँघट लेने से मना कर दिया। जब गाँव पहुँचने वाले थे, तो गाँव का एक लड़का सुरजिया जो बारात में गया था, मम्मी को बोला कि घूँघट कर लीजिए। घर के ठीक सामने पापा ने पुस्तकालय बनवाया था, मम्मी को लेकर सबसे पहले वे वहीं गए। फिर घर लेकर गए जहाँ दुल्हन के आने पर कोई ख़ास विधि नहीं हुई, न ही कोई ख़ास भोज। पापा की हिदायत थी कि ऐसा कुछ नहीं करना है।
सुबह मेरी दादी किशोरी देवी आईं, तो पाँव में मिट्टी सना था, मम्मी ने पैर छुए। उसी समय पापा के चचेरे बड़े भाई रामेश्वर प्रसाद आए, तो पापा के कहने पर मम्मी ने उनके भी पैर छूए। फिर तो ख़ूब हंगामा हुआ कि दुल्हिन ने भसुर (जेठ) का पैर छू लिया, जिसे पाप माना जाता है। मम्मी को यह सब बहुत अजीब लग रहा था कि पापा ऐसे क्यों कर रहे हैं। सुबह-सुबह ख़ाली पाँव, खादी का हाफ़ पैंट, खादी की गंजी पहनकर मम्मी को लेकर पापा गाँव में घूमने चल दिए। पूरे गाँव में हंगामा मच गया कि कन्हैया जी (पापा का घर का नाम) नई दुल्हिन को लेकर सरेहे-सरेहे पूरे गाँव में घूमा रहे हैं, और वह भी बिना घूँघट। मेरे दादा सूरज प्रसाद ने मम्मी से कहा कि वे सर पर आँचल रख ले, तो पापा ने मम्मी से कहा कि अगर मेरे साथ रहना है, तो मेरे साथ चलना होगा। दादा और पापा में वैचारिक मतभेद हमेशा से रहा है। पापा के अनुसार मम्मी रहने लगीं। शादी के 10 दिन बाद मम्मी के बड़े मामा की बड़ी बेटी की शादी बेगूसराय से हुई, जहाँ वे दोनों शादी के बाद पहली बार कहीं अकेले गए। फिर पापा ने मम्मी को दरभंगा पहुँचा दिया; क्योंकि पढ़ाई करनी थी।
पापा का परिवार भले ही धार्मिक और परम्परावादी था, पर पापा बचपन से ही अलग विचारधारा के थे। वे बहुत छोटी उम्र से सोच से नास्तिक, परम्पराओं के विरोधी और स्वभाव से गांधीवादी थे। हालाँकि उस उम्र में उन्हें गांधी या गांधीवाद पता भी नहीं था। पापा 11 वर्ष की उम्र में वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सोशलिस्ट पार्टी में सक्रिय होकर हिस्सा लिए और अपने चचेरे बड़े भाई लक्ष्मेश्वर प्रसाद के साथ ट्रेन की पटरी उखाड़कर बच निकले थे। छात्र जीवन में ही वे गांधीवाद के प्रबल समर्थक बने और समाजवाद से जुड़ गए। मम्मी का परिवार पूरी तरह धार्मिक और परम्परावादी था, तो मम्मी की सोच उसी अनुसार थी। मम्मी को तब न गांधीवाद पता था न नास्तिकता, पर इतना जानती थी कि पापा विद्वान हैं, जो कहते हैं वह सही होगा। शादी के बाद पहली तीज पर पापा ने स्पष्ट कह दिया कि आपको तीज नहीं करनी है। लेकिन मम्मी को ईश्वर में आस्था थी, उन्होंने छुपकर तीज किया, जिसका पता पापा को कभी नहीं चला। वर्ष 1963 में मम्मी दरभंगा से भागलपुर आईं और पूरे रास्ते पापा की हिदायतें, नियम, विचार सुनती-समझती रहीं। तब नाथनगर के कर्णगढ़ में पापा रहते थे। नाथनगर के पुरानी सराय मोहल्ले में मम्मी की चाची सुमित्रा देवी रहती थीं, जो शिक्षक थीं। वे दोनों अक्सर उनके घर चले जाते थे। 
बाएँ से मम्मी, मैं, भैया, फूफेरा भाई, दादी
वर्ष 1975 में हम सभी गाँव गए। बहुत ज़्यादा बाढ़ आ गई थी, तो मुझे और मेरे भाई को गाँव में छोड़कर पापा-मम्मी भागलपुर लौट आए। उन्हीं दिनों मम्मी बहुत बीमार हो गईं। पटना में मम्मी की चचेरी बहन प्रेमा प्रसाद (चाची सुमित्रा देवी की बेटी) जो स्कूल में शिक्षक थीं तथा उनके पति गोपाल प्रसाद सी.आई.डी. में कार्यरत थे, रहते थे। मम्मी के बीमार होने की सूचना पाकर मौसा उनको पटना ले गए। थोड़ी स्वस्थ होने के बाद मम्मी भागलपुर आईं और अपने बड़े मामा की बड़ी बेटी श्रीमती रेणुका सिन्हा, जिनके पति गौर किशोर प्रसाद उस समय रेलवे मजिस्ट्रेट थे और स्टेशन परिसर में रहते थे, के पास रहने चली गईं। हमलोग बाढ़ के कारण भागलपुर लौट नहीं सके, तो हम दोनों भाई-बहन दादी के पास रहकर गाँव में पढ़ने लगे।
 
जून 1976 में मम्मी फिर से बीमार हुईं। पापा उन दिनों गाँव आए हुए थे। मौसी सपरिवार बाहर गई थीं। डॉ. क्वाड्रेस जो उस समय की मशहूर डॉक्टर थीं, ने एक दिन भी देर करने से मना कर दिया और यूट्रेस रिमूवल के ऑपरेशन का टाइम दे दिया। मम्मी अस्पताल में भर्ती हुईं। वे उस समय अकेली थीं, तो उन्होंने छुपकर बाहर जाकर ऑपरेशन के सामान ख़रीदे, सबको टेलीग्राम किया। पापा किसी काम से शिवहर गए, तो टेलीग्राम मिला। पापा वहीं से चले गए, किसी के द्वारा हमलोग को ख़बर भेज दिया कि वे भागलपुर जा रहे हैं। मम्मी तब तक अस्पताल से मौसी के घर आ चुकी थीं। हमारी वार्षिक परीक्षा के बाद मम्मी गाँव आईं और मुझे लेकर भागलपुर आ गईं, भैया को गाँव में ही रहकर पढ़ने को पापा ने कहा था। 
 
वर्ष 1977 की गर्मी के दिनों में पापा बीमार हो गए। उन्हें जॉन्डिस हुआ, जो बाद में लिवर सिरोसिस हो गया। स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता किशोरी प्रसन्न सिंह, जिन्हें हम सभी किशोरी भाई कहते हैं, पापा-मम्मी को बहुत मानते थे। किशोरी भाई ने अपनी पत्नी के नाम पर हाजीपुर में सुनीति आश्रम बनाया था, वहाँ उन्होंने पापा-मम्मी को आकर रहने के लिए कहा। मैं भी साथ गई। एक महीना हमलोग आश्रम में किशोरी भाई के साथ रहे। पापा की तबीयत में कोई सुधार न हुआ। फिर वे दिल्ली के एम्स में एक माह भर्ती रहे। अंततः 18 जुलाई 1978 को पापा सदा के लिए चले गए। मम्मी पूरी तरह से टूट गईं। उनकी उम्र उस समय 33 वर्ष की थीं। मानसिक, आर्थिक, सामाजिक परेशानियों से एक साथ घिर गईं। संघर्ष का दौर शुरू हो चुका था। मेरा भाई अमिताभ सत्यम् चूँकि पढ़ाई में तीक्ष्ण था, अतः गाँव के उसके विद्यालय के शिक्षकों के आग्रह पर वह गाँव में रहकर मैट्रिक किया। फिर वह आई.आई.टी. कानपुर और स्कालरशिप पर अमेरिका चला गया। धीरे-धीरे हम सभी की ज़िन्दगी समय के साथ अपनी-अपनी पटरी पर चल पड़ी। 
समय ने मम्मी को बहुत छला है। अपनी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व से पापा काफ़ी बदल गए थे। मेरी शादी और भाई की पढ़ाई की बात मम्मी-पापा अक्सर करते थे। एक दिन पापा मुझे और मम्मी को लेकर बाज़ार गए और मम्मी के लिए बहुत ख़ूबसूरत शिफॉन की दो साड़ी ख़रीदे। फिर हमलोग कचौड़ी गली गए और वहाँ नाश्ता किए। वे घर के काम की सहूलियत के लिए कैरो गैस, प्रेशर कूकर, लोहे का आलमीरा ख़रीदे। मैं सोचती थी कि आज दलिया की जगह रोटी-तरकारी या चूड़ा-घुघनी हम खा रहे हैं और पापा कुछ नहीं बोले। शुरू से ही हमारे यहाँ हर महीने भोज ज़रूर होता था जिसमें पूरी, तरकारी, भुजिया, पुलाव, खीर इत्यादि बनता था। लेकिन सामान्य दिनों में हमलोग दलिया-दही या घी और भात-दाल तरकारी खाते थे। सूती, ऊनी या सिल्क हो, पर खादी के अलावा और कोई कपड़ा हमारे यहाँ नहीं आता था, सिवा हमलोगों के स्कूल यूनिफॉर्म को छोड़कर। मम्मी को भी अब खादी बहुत पसन्द आ गया था। 

मम्मी के मेहनत से बने मकान में फूल और मम्मी 
पापा को घूमने का बहुत शौक था और वे अलग-अलग ट्रिप में सबको घूमाते थे। कभी सिर्फ़ मम्मी को लेकर गए, कभी नाना, नानी, मम्मी को लेकर गए, कभी दादी, दादी की माँ और हम भाई-बहन को लेकर गए, तो कभी सिर्फ़ भैया को लेकर गए। सबसे कम मैं ही घूमी हूँ पापा के साथ। परन्तु मम्मी के साथ मैं शुरू से लगभग हर जगह जाती थी। चाहे कोई मीटिंग हो या कॉन्फ्रेंस या धरना-प्रदर्शन। पापा को फोटो खींचने और ख़ुद साफ़ करने का शौक था। वर्ष 1967 में हमलोग नया बाज़ार के यमुना कोठी में किराए पर आ गए, जहाँ 2009 तक मम्मी रहीं। वह घर बहुत बड़ा और बरामदा भी बहुत लम्बा-चौड़ा था। पापा ने मम्मी की तस्वीरें, जो वे ख़ुद खींचकर साफ़ करते थे, को बड़ा कराके फ़्रेम कराया और सभी कमरे और बरामदा में टाँग दिया। चारों तरफ़ सिर्फ़ मम्मी-ही-मम्मी। कुछ तस्वीरें गांधी जी और स्वतंत्रता सेनानियों की भी थीं
पापा की अपनी एक भी तस्वीर नहीं थी। मम्मी को लगभग पूरा भारत पापा ने घुमाया। भैया ने मम्मी को दो बार अमेरिका घुमाया। मम्मी के जितने भी शौक थे सभी पूरे हुए, सिर्फ़ लंदन जाना रह गया, जो बीमारी के कारण न हो सका। भागलपुर में अपना मकान जिसमें सामने गार्डन हो, जिसमें ख़ूब सारे फूल हों, मम्मी की यह कामना भी पूरी हुई। बहुत कम समय तक मम्मी स्वस्थ होकर अपने घर का आनन्द उठा सकी, इस बात का बहुत दुःख है मुझे। पर ख़ुशी है कि जितना भी समय स्वस्थ होकर वहाँ रही, बहुत ख़ुश रही। 
2004

मम्मी पूरी तरह गांधीवादी, साम्यवादी, समाज सेविका, शिक्षिका, प्राचार्या बन गई थीं। उन्होंने यह सब अपने विचार, मेहनत और हिम्मत से किया। पापा भी यही चाहते थे कि कोई भी विचार मम्मी ख़ुद समझें और मन से अपनाएँ। मम्मी अपने आगे बढ़ने और शिक्षित होने का सारा श्रेय पापा को देती हैं, अन्यथा इस मुक़ाम तक नहीं पहुँचती। मम्मी बताती थीं कि गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र में पहली बार जब भाषण देना था, मम्मी डर से थर-थर काँप रही थी। पापा ने भाषण लिखा और मम्मी के पीछे खड़े होकर बोलते गए, मम्मी दुहराती गई। धीरे-धीरे मम्मी इतनी सक्षम हो गई कि एक बार मंच पर गई तो किसी भी मुद्दे पर बिना रुके घंटो बोल सकती थीं। 

अन्तिम छह माह पापा का बहुत ख़राब बीता था। मम्मी या अन्य कोई नहीं समझ सका कि पापा को लिवर सिरोसिस है, जो ठीक नहीं होगा। डॉक्टर को भी आश्चर्य होता था कि जो चाय तक नहीं पीता है उसका लिवर कैसे इतना ख़राब हुआ। पापा और हम सभी पूर्ण रूप से शाकाहारी थे और प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार स्वास्थप्रद खाना खाते थे। अन्तिम दिनों में मम्मी से वह सब खाना बनवाने लगे जो पापा कभी नहीं खाते थे। जब उनकी तबीयत बहुत ख़राब रहने लगी, तो मम्मी की ज़िद पर एलोपैथ के डॉ. पवन कुमार अग्रवाल, जो नया बाज़ार में रहते थे और मौसा के घनिष्ट मित्र थे, को दिखाने लगे। लेकिन पापा की बीमारी इतनी बढ़ गई थी कि किसी भी पैथी से ठीक होना नामुमकिन हो गया। मम्मी में सभी बदलाव आए लेकिन पूर्णतः नास्तिक नहीं बन पाई। वह शिव की पूजा करती रहीं। लेकिन न भगवान् शिव न कोई डॉक्टर पापा को बचा सके। अब मम्मी का सामजिक प्रताड़ना के साथ आर्थिक और मानसिक कष्ट का समय आ गया था। 
जवान विधवा के साथ समाज का रवैया बहुत ग़लत होता है, मम्मी को आजीवन इसका सामना करना पड़ा। हाँ! यह ज़रूर है कि कुछ रिश्तेदारों, मित्रों, सहकर्मियों ने मम्मी की बहुत मदद की। मेरी दादी तो मम्मी की सास से माँ बन गईं और 102 साल की आयु में अपनी मृत्यु तक मम्मी को हर तरह से सहारा देती रहीं। समाज का घिनौना चरित्र समय के साथ मम्मी भले भूल गईं और लोगों को माफ़ किया; लेकिन मुझे सब याद है कि किसने मम्मी को क्या कहा, किसने अपमान किया, किसने रुलाया। मुझे हर एक घटना याद है, जिसने मेरे या मम्मी के जीवन को बहुत प्रभावित किया है। पापा का न होना शुरू के एक-दो साल बहुत अखरा था; लेकिन मम्मी साथ थीं, तो सब सामान्य हो गया। विवाहोपरान्त पापा का न होना मेरे लिए बहुत कष्टदायक रहा। मम्मी का जीवन जिन लोगों ने कष्टप्रद बनाया है, मैं आश्वस्त हूँ कि अपने इसी जन्म में उनके कर्म का फल देखूँगी। कर्म का फल मिलना किसी भगवान का नियम नहीं बल्कि प्रकृति का नियम है और यह तय है। 
मम्मी के लिए मैं कुछ नहीं कर सकी, यह टीस मुझे झकझोरती है। मेरे कारण मम्मी ने बहुत अपमान सहा है, यह बात मैं भूल नहीं सकती। मम्मी चुप होकर, दबकर सब कुछ सहन करती रहीं। जब भी मैं दुःखी होती तो मम्मी मुझसे कहतीं- "चिन्ता नहीं करो, हम हैं न!" देह से लाचार थीं; लेकिन मुझमें जीने की हिम्मत बढ़ाती रहती थीं। अब मैं क्या करूँ? अपनी पीड़ा किससे साझा करूँ? मम्मी की मृत्यु के बाद से मैं निडर हो गई हूँ। मेरे पास अब खोने को कुछ नहीं रहा। सभी रिश्ते-नाते अपने-अपने जीवन में व्यस्त हैं, मेरी परवाह करने वाली सिर्फ़ मम्मी थीं, जो अब नहीं हैं। मुझे महसूस होता है मानो मरकर मम्मी मुझमें समा गईं और मुझे बेख़ौफ़ बना गईं हैं। 

आज मम्मी को पंचतत्व में विलीन हुए एक साल हो गए हैं। आज बहुत दुःखी हूँ, मम्मी नहीं हैं और मैं उन पर लिख रही हूँ। वे अब न पढ़ सकेंगी न उनके प्रति मेरे विचार को शब्द रूप में देख पाएँगी। यह जगत् और वह जगत् बहुत रहस्यमय है दार्शनिकों को पढ़ती हूँ, समझने का प्रयास करती हूँ; लेकिन मेरी समझ से परे है। मम्मी! अगर तुम मुझे देख सकती हो, सुन सकती हो, समझ सकती हो, तो मेरे मन की अवस्था समझना। अब चारों तरफ़ एक सन्नाटा है, जिसमें तुम्हारी बेटी हँसते-हँसते धीरे-धीरे गुम हो रही है। 
 
मैं तुमसे सदैव कहती थी- "हमसे पहले तुम इस संसार से नहीं जाना, तुम्हारे सिवा कोई नहीं, जो हमको समझता हो।" तुम मेरी इस बात पर कितना ग़ुस्सा होती थी "तुम मर जाओगी और हम ज़िन्दा रहेंगे!" हमको छोड़कर तुम चली ही गई मम्मी, मैं अनाथ हो गई। कहने को तो हज़ारों रिश्ते हैं, जिन्हें मैं जी रही हूँ, निभा रही हूँ, लेकिन मेरा वजूद किसी के लिए ज़रूरी नहीं; यह तुमसे ज़्यादा कोई नहीं जानता है। जानती हूँ मृत्यु के बाद सारे बन्धन मिट जाते हैं, फिर भी चाहती हूँ कि जिस संसार में अब तुम हो वहाँ बहुत ख़ुश रहना और अगर दूसरा जन्म हो, तो ऐसे परिवेश में हो जहाँ सबको बराबर का अधिकार हो।
 

एक अच्छे दिन में मम्मी इस संसार से विदा हुई, जिस दिन महात्मा गांधी ने शहादत दी। आज महात्मा गांधी की 74वीं पुण्यतिथि है और मम्मी की पहली पुण्यतिथि। महात्मा गांधी को हार्दिक नमन! इस आलेख के द्वारा मम्मी को श्रद्धांजलि! 
अंतिम स्पर्श / दाह-संस्कार से पूर्व 
-जेन्नी शबनम (30.1.2022)
(मम्मी की प्रथम पुण्यतिथि)
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