Sunday, December 11, 2011

32. दिल्ली के 100 साल



दिल्ली के 100 साल...! नहीं नहीं दिल्ली तो तब से है जब से पृथ्वी है I जाने कितने युग- काल की साक्षी यहाँ की ज़मीन और आबो-हवा का अपना वज़ूद रहा है I भले हीं पहले यहाँ जंगल, पहाड़, खेत-खलिहान रहा हो या फिर कोई अनजान बेनाम बस्ती रही हो I नदी के किनारे ही आबादी बसती है, तो निःसंदेह यहाँ भी यमुना के किनारे आबादी रही होगी I कितनी संस्कृति बदली और नाम बदला I महाभारत काल का इन्द्रप्रस्थ धीरे- धीरे बदलते- बदलते अंत में देहली और फिर दिल्ली में परिणत हुआ I न जाने कितने बदलाव और बिखराव को देखा है दिल्ली ने I धीरे धीरे बसी दिल्ली ने हम सभी को ख़ुद में समाहित कर लिया I भले ही हम किसी भी प्रदेश या भाषा के हों, सभी का स्वागत किया है दिल्ली ने I पुरानी दिल्ली तो सदियों से वही है I बाज़ार, मकान, इमारत, मन्दिर, मस्ज़िद, पीढ़ियों को हस्तांतरित नाम और पहचान के साथ बदलती हुई सुदृढ पुरानी दिल्ली I किसी एक या किसी ख़ास की नहीं रही है दिल्ली, विशेषकर नयी दिल्ली I वक़्त वक़्त पर कितने नाम बदले होंगे इसके, कितने राज घराने, कितने राजशाही और सत्ताधारी को देखा इसने I घने जंगल कटे होंगे, कच्ची सड़कें पक्की हुई होंगी, राजमार्ग बने होंगे, यातायात के साधन बढ़े होंगे, ऐतिहासिक धरोहरें विकसित हुई होंगी I लोग बदलते गए और बढ़ते गए I दिल्ली भी अपनी निशानियों के साथ बदलती रही बढ़ती रही I पर दिल्ली की मिट्टी जो अब ईंट- कंक्रीट में पूरी तरह बदल चुकी है, आज भी सभी के दिलों पर राज करती है और सभी को पनाह देती है I आज भी दिल्ली में सुकून देने वाले उद्यान हैं, हरियाली है तो प्रकृति की समस्त ऊर्जा भी है I
दिल्ली दिल वालो का शहर है, दिल्ली सभी को अपना लेती है, अमीर हो या ग़रीब दिल्ली सभी की है, दिल्ली किसी की अपनी नहीं, दिल्ली की बेरुखी के चर्चे, लोगों की संगदिली के चर्चे, दिल्ली के ठग भी मशहूर हुए, दिल्ली की चकाचौंध, दिल्ली की रातें, दिल्ली की गर्मी, दिल्ली की ठण्ड आदि आदि कितनी शोहरत और बदनामी का दाग लिए दिल्ली अपनी जगह कायम है I जितने लोग सभी का अपना नज़रिया I कभी कोई यहाँ से हार कर गया तो किसी ने दुनिया जीत ली I अब ये दिल्ली की किस्मत नहीं दिल्लीवालों की तकदीर है कि किसको क्या मिला I

मेरे लिए दिल्ली आज भी उतनी हीं प्रिय है जितनी बचपन में थी I 21 साल से दिल्ली में हूँ लेकिन आज भी मन में दिल्ली के लिए एक अनोखा एहसास रहता है I ऐसा लगता है मानो दिल्ली कोई सुदूर देश का स्थान हो और जहाँ की दुनिया हमसे बहुत अलग और निराली है I वो जगह जहाँ आज़ादी के बाद स्वतंत्र भारत का तिरंगा फहराया गया होगा, वो जगह जहाँ देश के प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति रहते हैं, वो जगह जहाँ नागरिकों द्वारा चुने गए देश को चलाने वाले प्रतिनिधि रहते हैं, वो जगह जहाँ देश की राजधानी है, वो जगह जहाँ...
जब छोटी थी तो क्या क्या नहीं सोचती थी इस शहर के बारे में I मेरे पिता को घूमने और तस्वीर लेने का बहुत शौक था I जब हम दोनों भाई बहन छोटे थे तो हमें दादी के पास छोड़ मेरी माँ को साथ लेकर वो देश के अधिकतर शहर घूम आये I जहाँ भी जाते खूब सारी तस्वीरें लेते I मेरे पिता को तस्वीर लेने के साथ हीं उसे साफ़ करने का भी शौक था I जब भी घूम कर आते तो अपनी ली गई तस्वीरों को साफ़ करते I हम दोनों भाई बहन बैठ कर कौतूहल से रील को निगेटिव और फिर पॉजेटिव बनते हुए देखते I सारी तस्वीरों पर वो जगह का नाम और तिथि लिखते थे I हमलोग दिल्ली का लाल किला, कुतुबमीनार, जंतर-मंतर, इंडिया गेट, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, गांधी समाधि इत्यादि की तस्वीर देखते और तरह तरह के सवाल पूछते I दिल्ली गेट, दरियागंज, गोलचा सिनेमा हॉल का नाम खूब सुना था I
बचपन में दिल्ली कब आई ये तो याद नहीं लेकिन शायद 1986 का साल था जब पहली बार अपने होश में अपनी माँ के साथ मैं एन.ऍफ़.आई.डब्लू (NFIW) के राष्ट्रीय कांफ्रेंस में दिल्ली आयी, जिसमें कई महान हस्तियों के साथ हीं अमृता प्रीतम को भी देखी I अमृता की फैन मैं उनके साथ तस्वीर खिंचवाने में भी हिचकती रही और वो अपना भाषण देकर चली गई I भले मारग्रेट अल्वा के साथ फोटो खिंचवा ली क्योंकि लडकियाँ उनके साथ तस्वीर लेने में दिलचस्पी ले रही थी I कालान्तर में अमृता प्रीतम से मिली भी तो उनकी अवस्था ऐसी अशक्त थी कि तस्वीर और बात करना तो दूर उनको देख कर हीं आँखें भर आई I दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कांफ्रेंस था और इसके साथ हीं हमलोग कुछ ख़ास जगह घूमने भी गए I ऐसा लगा जैसे कि किसी अनोखे शहर में आ गए हों I भाषा वही हिंदी, परन्तु उच्चारण अलग, पहनावा वही जैसा हमलोग पहनते थे, खान पान भी वही I मैं इस अलग दुनिया को जीभर कर देख रही थी कि क्या क्या है यहाँ जो मेरी सोच से अलग है I 

1987 में हम लोग फिर से दिल्ली आये, मेरा भाई छात्रवृति पर आगे की पढ़ाई करने अमेरिका जा रहा था I मेरे पिता के मित्र श्री रामाचार्य गांधी समाधि के इंचार्ज थे I उन के घर पर हीं हमलोग रुकते थे I भाई को विदा करने के बाद दूसरे दिन हम लोग एन.ई.एक्सप्रेस जो सुबह 6 बजे चलती थी से पटना के लिए चले I दिल्ली स्टेशन पर हीं गाड़ी खड़ी थी और हमारे दो सूटकेस चोरी हो गए I हमारा सारा सामान जिसमें मेरी माँ के और मेरे कपड़े थे चोरी चले गए I ट्रेन छोड़नी पड़ी I घंटो बाद रेल थाना में एफ.आई.आर दर्ज हो पाया I फिर रामाचार्य चाचा ने कनाट प्लेस के खादी भण्डार से मेरे लिए कपडे खरीदे, क्योंकि पहनने को भी कपडे नहीं रह गए थे I दूसरे दिन हम लौट आये, पूरी ज़िन्दगी के लिए एक टीस साथ लिये I चोरी गए सामान में मेरे पसंदीदा कैसेट, सभी अच्छे कपड़े, कुछ किताबें भी थी I पैसे की तंगी थी तो दोबारा ये सब खरीदना मुश्किल था I उसके बाद से जब भी पहाडगंज जाती तो ढूँढ़ती कि शायद हमारा वो टूरिस्टर सूटकेस मिल जाए I 

1988 में फिर दिल्ली आई I मेरे भाई ने मुझे ओहियो पढ़ने के लिए बुलाया था I लेकिन वीजा रिजेक्ट हो गया क्योंकि मैं बालिग़ थी और मेरे नाम अपने देश में कोई संपत्ति नहीं थी I फिर 1989 में मेरी शादी तय हो गई उसके बाद अक्सर दिल्ली आना लगा रहा I जब भी आती खूब घूमती 

1991 में शादी के बाद दिल्ली के बेर सराय में हम रहे फिर मुनिरका फिर सावित्री नगर (मालवीय नगर) के मकान नंबर 1 में किराए पर हम रहने लगे I शुरू में मकान- मालकिन को यकीन हीं नहीं होता था कि हम शादी शुदा हैं जबकि मेरे ससुराल के लोग वहाँ आ चुके थे I 1992 में मेरी नौकरी यूनिटेक लिमिटेड में हो गई जिसका कार्यालय साकेत में था I बस से आना जाना करती थी क्योंकि ऑटो के लिए पैसे नहीं होते थे I बस में इतनी भीड़ कि खड़ा होना भी आफत I काम से तीस हजारी कोर्ट जाना होता था I ऑफिस के चपरासी से मैं बस नंबर और रूट पूछ कर बस से जाती थी I वो अक्सर कहता कि जब आपको ऑटो का किराया मिलता है तो बस से क्यों जाती हैं? एक घटना के बाद मुझे ऑटो से अकेले जाने में बहुत डर लगता था I एक बार मैं अपने पति के साथ परिक्रमा होटल में रात का खाना खाने गई I वापसी में काफ़ी रात हो गई I बस मिली नहीं, एक ऑटो मिला, जाने के लिए तुरत तैयार हो गया I जैसे हीं मैं बैठी कि उसने ऑटो चला दिया, मैं चिल्लाने लगी और मेरे पति एक हाथ से ऑटो पकड़ कर दौड़ते रहे I कुछ दूर जाकर उसने रोका, जहाँ करीब 20-25 की संख्या में ऑटो चालाक खड़े थे I वो सभी ऑटो के पास आ गए I संयोग से सामने से एक पुलिस वैन आ रही थी जो भीड़ देखकर रुक गई I फिर हम पुलिस की गाड़ी से उस ऑटो वाले को लेकर पार्लियामेंट स्ट्रीट थाना गए I बाद में पुलिस वालों ने दूसरा ऑटो किया और रात को एक बजे घर पहुँचे I उस दिन से हीं ऑटो पर जाने से डर लगने लगा I कहीं जाना हो बस में चली जाती लेकिन ऑटो में नहीं I
जिन दिनों मेट्रो और फ़्लाइओवर के लिए सड़कें खोदी जा रही थीं, लोग कहते कि सरकार दिल्ली में हर तरफ गड्ढ़े करवा रही है, दिल्ली कि सड़कें गड्ढ़े में तब्दील I जब मेट्रो और फ़्लाइओवर बन गया तब मैं उन सबसे कहती कि अब किसे फ़ायदा हो रहा? क्या सरकार के मंत्री आ रहे इस मेट्रो में? या फिर फ़्लाइओवर पर सिर्फ नेता- मंत्री चलेंगे? आम जनता को बहुत सुविधा हुई मेट्रो से I कहीं भी जाना अब आसान लगता है I मेट्रो, फ़्लाइओवर, सुन्दर बसें, माल, सिनेमा हॉल देखकर अच्छा लगता है I सड़कें साफ़ सुथरी हैं I माल में सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक है I अब तो इतने सारे माल बन गए हैं I सिनेमा देखने लक्ष्मी नगर और गुड़गाँव तक चली जाती हूँ I क्या करूँ दिल है कि मानता नहीं I घर में ऊब जाओ तो अकेले भी माल में जाकर सिनेमा देख कर कुछ वक़्त बीता कर लौटने पर मन को अच्छा लगता है I सरोजनी नगर, मालवीय नगर, ग्रीन पार्क आज भी मेरा पसंदीदा बाज़ार है I गौतम नगर का वीर बाज़ार और साकेत का सोम बाज़ार अब भी लगता है और अभी भी सब्जी वहाँ से मँगाती हूँ I आदत है कि जाती नहीं I   
दिल्ली की भीड़ देखकर मन घबड़ाता है I दिन ब दिन भीड़ बढ़ती जा रही है I आये दिन ट्रैफिक जाम I कहीं जाना हो तो जाम के लिए अलग से समय लेकर जाना होता है I कभी कभी लगता है कि यहाँ किसी को दूसरे की फ़िक्र नहीं I अगर अकेले भी हैं तो यहाँ कोई नहीं पूछता कि अकेले क्यों? अगर उदास हैं तो कोई नहीं पूछता कि उदास क्यों? कोई दुर्घटना हो जाए तो भी शायद कोई नहीं देखे कि क्या हुआ I सभी अपने आप में व्यस्त, ख़ुद के लिए समय नहीं, दूसरे की परवाह कौन करे? कभी ये भी अच्छा लगता है जैसे चाहो रहो कोई टोकता नहीं I हर पहलू का अपना अपना रंग I
अब तो 21 साल हो गए दिल्ली को देखते- जानते- समझते I कई बार अपनी सी लगती है तो कई बार बेगानी I दिल्ली ने बहुत कुछ दिया है मुझे I सपने देखना भी सिखाया दिल्ली ने और जीना भी I आधी से ज्यादा ज़िन्दगी तो यहीं बीत गई I हर सुख़- दुःख की साथी रही है दिल्ली I उन दिनों भी दिल्ली ने हमारा साथ दिया जब एक वक़्त का खाना भी मुश्किल था, और अब भी जब सब कुछ है I ये सब दिल्ली का हीं दिया हुआ है I दिल्ली दिल्ली है, सच है दिल्ली देश का दिल है I 

- जेन्नी शबनम ( 11. 12. 2011)

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