यह जाना पहचाना रास्ता अब अनजान था; शायद वक़्त पहचान को अजनबियत में बदल देता है। सड़क के दोनों ओर हरे-हरे पेड़, बीच में कुछ दूर छोटे-बड़े शांत पहाड़, तेज़ भागती गाड़ी और किसी बॉलीवुड की फ़िल्म की तरह तेज़ी से आँखों से गुज़रता फ्लैश बैक! मन में उमंग, उत्सुकता और उल्लास! बीच-बीच में मनीषा (मनीषा बनर्जी मेरी मित्र, सरकारी इंटर स्कूल में शिक्षिका) का फ़ोन आता रहता कि हमलोग कहाँ तक पहुँचे। यों भागलपुर से शान्तिनिकेतन 210 किलोमीटर है, पर सड़क की बदहाल स्थिति के कारण हमें छह घंटे लग गए। भागलपुर से बाँका, मंदारहिल, दुमका, सिउरी होते हुए हम शान्तिनिकेतन पहुँचे।
शान्तिनिकेतन का रतनपल्ली, जहाँ आज से 20 वर्ष पूर्व मैं कई महीने रह चुकी हूँ, बिल्कुल पहचान न सकी। सबकुछ बदला-बदला लग रहा था, अपरिचित-सा। अचानक एक दुकान पर नज़र पड़ी 'रंजना', मैंने चौंककर कहा ''अरे ये तो हाशिम भाई की दुकान है (लुत्फा दी के शौहर), जिनके मकान में मैं रहती थी। पर कालो की दूकान कहाँ है, जहाँ गौर दा के साथ अक्सर खाने के लिए जाती थी।'' गौर किशोर घोष, जिन्हें हम सभी गौर दा कहते हैं, आनन्द
बाज़ार पत्रिका के सिनियर एडिटर, कहानीकार, उपन्यासकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता थे। वर्ष 1981 में
उन्हें पत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक सम्प्रेषण कला के लिए मैग्सेसे
सम्मान मिला था। मैं चारों तरफ़ देख रही थी, कितना कुछ बदल गया है यहाँ। मैं भी तो पूर्णतः बदल गई हूँ। जब यहाँ से गई थी तो अविवाहित थी, दोबारा यहाँ आई हूँ अपने 18 साल के बेटे के साथ। मन में सोचकर हँसी आई और ख़ुद पर दुःख भी हुआ। सच है, वक़्त और दूरी सब कुछ बदल देता है, शायद अपनापन भी।
मनीषा अपनी 9 वर्षीय बेटी मेघना के साथ रतनपल्ली में वहाँ पहुँच चुकी थी जहाँ उसने मुझे रुकने के लिए कहा था। उसके साथ हमलोग उसके घर गए। मनीषा से मेरा परिचय भागलपुर में हुआ था, जब भागलपुर दंगा (अक्टूबर 1989) के बाद गौर दा एक टीम बनाकर हमारे घर आए थे। भागलपुर दंगा के कारण मैं बहुत परेशान और उदास रहती थी, इसलिए 1990 में गौर दा मुझे शान्तिनिकेतन लेकर आए, जहाँ बानी दी और मनीषा के साथ मैं रही थी। उन दिनों मनीषा अँगरेज़ी में एम.ए. कर रही थी और मृणालिनी छात्रावास में रहती थी। अब उसने रतनपल्ली में अपना मकान ख़रीद लिया है, जहाँ पति से अलग होने के बाद अपनी एकमात्र बेटी के साथ रहती है।
मैं और मनीषा |
मनीषा ने मेरे लिए शुद्ध शाकाहारी खाना बनवा रखा था और मेरे बेटे के लिए मछली; यों मनीषा भी शाकाहारी है। मैंने कहा कि सिद्धांत (मेरा बेटा अभिज्ञान सिद्धांत) के लिए मछली क्यों बनवाई, तो वह बोली कि बंगाल आए और मछली न खाए, ऐसा कैसे होगा। मनीषा का घर बड़ा प्यारा है। उसने हमारे रहने का प्रबन्ध ऊपर के कमरे किया था। खाना खाकर हम बात कर रहे थे कि लुत्फा दी (लुत्फा मुंशी) आ गईं। वे हिन्दी नहीं बोल पातीं हैं और मैं अब ठीक से बांग्ला नहीं बोल पाती हूँ। मुझे देखकर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ कि एक लड़की दुबली-पतली चुप-चुप-सी रहने वाली, अब एक औरत है, जिसका छेले (बेटा) 18 साल का, थोड़ी मोटी-मोटी-सी हँसती खिलखिलाती हुई। थोड़ी देर बातें हुईं फिर घर आने का कहकर वे चली गईं।
शाम को हमलोग प्रकृति गए, जहाँ क्राफ्ट मेला लगता है; छोटे पौष मेला जैसा ही मनमोहक। मिट्टी, लकड़ी, पत्थर आदि से बना कान-गले का आभूषण, हाथ से बना पेपर, बाटिक प्रिंट के कपड़े, बाऊल के गीत सब कुछ थे वहाँ। फिर वहाँ से श्यामली दी (श्यामली खस्तगीर जो एक सामजिक कार्यकर्ता, लेखिका, चित्रकार, हस्तकला और लोककला की मर्मज्ञ हैं) से मिलने मनीषा के साथ हमलोग पास के एक कॉफ़ी हाउस गए। यहाँ से श्यामली दी के साथ एक मित्र के घर जाना था, जहाँ रात्रि भोजन और बाऊल गान होना था। मैं, मनीषा, मेघना और सिद्धांत कुछ खाने का ऑर्डर कर श्यामली दी के आने का इन्तिज़ार करने लगे। थोड़ी देर में श्यामली दी उसी पुराने अंदाज़ में आईं। सूती साड़ी, दोनों कंधे पर दो झोला, पर इस बार उनको चप्पल भी पहने देखा। मुझे याद है उन दिनों वे शान्तिनिकेतन में बिना चप्पल पहने रहती थीं। मैंने पाँव छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया, फिर मेरी मम्मी का हाल पूछने लगीं। वहाँ से वे एक किताब की दुकान में ले गईं, जहाँ से उन्होंने 5 किताबें ख़रीदीं और अपनी लिखी हुई एक किताब जो वे साथ लाई थीं, मुझे तोहफ़े में दिया। साथ ही सेरेमिक की एक छोटी-सी प्याली और एक सुराही भी दीं, जो सजावट के लिए है और शान्तिनिकेतन के पॉटरी में बनता है।
बाएँ से मनीषा, मेघना, मैं, श्यामली दी, सत्य शिवरमन, एक सज्जन |
हम लोग सत्य शिवरमन के घर गए, जो अभी हाल में शान्तिनिकेतन रहने आए हैं और पेशे से पत्रकार हैं। वहाँ 5-6 बाऊल (गेरुआ वस्त्र पहनते हैं, एकतारा से धुन बजाते हैं, भक्ति गीत गाते हैं, जो सूफी संगीत की तरह होता है) पहले से आ चुके थे, बस हमलोग के आने का इन्तिज़ार हो रहा था। सबसे नमस्कार के बाद उनका गाना शुरू हुआ। हम सभी उनके गाने में डूबने लगे। गाने के बाद खाना लगाया गया। सत्य और उनकी मित्र मधुमिता ने स्वयं सारा खाना बनाया था और श्यामली दी की बनाई हुई एक ख़ास सब्ज़ी चरचरी भी थी। खाने के बाद श्यामली दी को उनके घर पर पहुँचाकर हम मनीषा के साथ उसके घर आ गए।
बाएँ से मेरा पुत्र अभिज्ञान, मनीषा, मैं, मंजु दी, सुभाष चन्द्र राय |
दूसरे दिन विश्वभारती विश्वविद्यालय घूमने जाना था और एक-दो पुराने मित्रों से मिलना था। नाश्ते के बाद मनीषा के साथ हमलोग हिन्दी भवन गए। हिन्दी भवन की विभागाध्यक्ष मंजु दी (मंजु रानी सिंह) से मिले, वे भागलपुर की रहने वाली हैं और उनकी शिक्षा विश्वभारती में हुई है। जब मैं यहाँ रहती थी तो अक्सर उनसे मिलती थी। सुभाष (सुभाष चन्द्र राय) जो अब हिन्दी भवन में व्याख्याता हैं (बेगूसराय के रहने वाले हैं, उन दिनों यहाँ के छात्र थे और वी.पी.सिंह का गहरा प्रभाव होने के कारण उनकी तरह कुर्ता-पायजामा और टोपी पहनते थे) को भी मंजु दी ने बुला लिया। सुभाष अब भी वैसे ही हैं, पर अब टोपी उतार दिया है। बानी दी (इनके घर पर लगभग मैं एक महीना रही थी) के घर अक्सर छात्रों का जमावड़ा होता था, जिनमें सुभाष भी होते थे। रात को मंजु दी ने खाने पर बुलाया और फिर रात में मिलने का कहकर मैं सिद्धांत को टैगोर का घर दिखाने ले गई।
टैगोर का पाँचो घर- उदयना, कोणार्क, श्यामली, पुनश्च और उदीची हमने देखा। 'बिचित्र' जिसे रबीन्द्र भवन कहते हैं टैगोर का म्यूजियम है, जो इन दिनों बन्द हैं, सुरक्षा के कड़े प्रबन्ध के लिए कुछ निर्माण कार्य चल रहा है।संगीत भवन और कला भवन भी हम घूम आए। फिर मृणालिनी छात्रावास (मनीषा के साथ कुछ दिन रही थी) देखते हुए हम मनीषा के घर वापस आए। मनीषा ने साड़ी, कुर्ता, बैग, फ़ाइल होल्डर, मिट्टी का गले-कान का सेट आदि मेरे और मेरे परिवार के लिए तोहफ़े में दिया, जो उसने वहीं के कॉपरेटिव स्टोर से लिया था। खाना खाकर मैं और मनीषा बातें करने बैठ गए। बीती ज़िन्दगी की बातें, जिनमें मनीषा की मुश्किलों भरी ज़िन्दगी और गौर दा की बातें प्रमुख थीं। फिर मनीषा का एक मित्र रेहान आया, जो मनीषा का सहकर्मी है, जिससे बातें कर हमलोग लुत्फा दी के घर गए।
लुत्फा दी और मैं |
लुत्फा दी के घर में किराया लेकर मैं कई माह रही थी। प्रथम तल पर बड़ी सी छत पर 'एल' आकार का एक कमरा, उससे लगा एक बड़ा-सा रसोईघर, बाहर दरवाज़े से लगा शौचालय। मेरे पास सामान के नाम पर एक चटाई, पतला तोसक (गद्दा), एक तकिया, रजाई, कुछ कपड़े, एक छोटा सूटकेस, एक स्टोव, एक कूकर, कुछ बर्तन, एक वॉकमैन और ढेर सारे कैसेट थे। मैं अपने घर पर बहुत डरती थी अकेले सो नहीं सकती थी, पर यहाँ बिल्कुल अकेले रह रही थी। बड़े प्यारे दिन थे वे भी। कुछ जल्दी-जल्दी बना-खा लिया और चल पड़े। किसी तरह का कोई डर नहीं। उन्हीं दिनों सुनीता गुप्ता नाम की एक छात्रा जो हॉस्टल में रहती थी, से मेरी दोस्ती हुई।उसके बाल बहुत लम्बे, घुटने से भी ज़्यादा बड़े थे। जब भी कोई पर्यटक उसे देखता तो कहता कि देखो बंगाली लड़की का बाल और हम दोनों हँस देते; क्योंकि वह बंगाली नहीं गोरखपुर की रहने वाली थी। पूरे पौष मेला में हम दोनों मेरे घर पर खिचड़ी बनाकर खा लेते और निकल जाते, दिन भर मेला देखते रहते। पता नहीं वह कहाँ है आजकल। उसका पता नहीं मिल पाया मुझे।
लुत्फा दी ने खाने की ढेर सारी तैयारी कर रखी थी। पहले मुझे वह कमरा देखना था, जहाँ मैं रहती थी। बहुत उत्साह से पूरा घर दिखाया उन्होंने। जहाँ मैं रहती थी वहाँ एक और कमरा बन गया है, जिसमें उनकी एकमात्र बेटी जब ससुराल से आती है तब रहती है। मेरे बाद कोई और नहीं रहा वहाँ।फिर हमलोगों ने नाश्ता किया। बहुत अच्छा खाना बनाती हैं लुत्फा दी। उन दिनों भी अक्सर कुछ-न-कुछ खिलाती थीं मुझे। मेरे लिए शान्तिनिकेतन का एक बैग और सिद्धांत के लिए एक वॉलेट तोहफ़ा में दिया उन्होंने। अपनी लिखी पुस्तक (बांग्ला लिपि में) जो उनकी आत्मकथा है मुझे दिया। दोबारा आने का कहकर हमलोग वहाँ से विदा हुए। ठीक उनके मकान से लगा हुआ बानी दी (बानी सिन्हा, 92 वर्षीया, गौर दा की मित्र, जिनके घर मैं लगभग एक महीना रही) का घर था। अब वे दूसरे मकान में रहती हैं और अस्वस्थ होने के कारण इन दिनों कोलकाता में अपनी बहन के पास रह रही हैं। ठहरकर बाहर से उस मकान को देख लिया। फिर हम बोलपुर बाज़ार चल पड़े, यहाँ का कुछ ख़ास सामान यादगार स्वरूप लेने के लिए।
रात्रि भोजन के लिए हमलोग मंजु दी के घर के लिए निकले। रास्ते में अमर्त्य सेन का घर आया, गाड़ी थोड़ी धीमी कर हमने उस घर को ठीक से देख लिया। मंजु दी के घर कविताओं पर चर्चा हुई। मंजु दी और मनीषा ने अपनी स्वरचित कविता सुनाई। मैं अपनी उसी दिन की लिखी हुई कविता सुनाई, जो शान्तिनिकेतन आने पर की अनुभूति थी। कविता के भाव इस तरह हैं जैसे शान्तिनिकेतन और मेरे बीच वार्ता हो रही है। वह नाराज़ है मुझसे कि मैं क्यों छोड़ गई थी शान्तिनिकेतन, फिर से दोबारा आऊँ वक़्त निकालकर कुछ दिनों के लिए, साथ-साथ यादों को जीने के लिए।
मंजु दी से दुर्गा दा का पता करने को कहा था। मैं जब यहाँ रह रही थी तब एक महीने तक रोज़ एक घंटा दुर्गा दा से गाना सीखती थी। जिस दिन यहाँ से वापस गई किसी से मिल न पाई, दुर्गा दा को धन्यवाद भी न दे सकी। मुझे उनका पूरा नाम भी मालूम न था, सिर्फ़ दुर्गा दा ही जानती थी। मंजु दी ने उनके घर का पता लगा लिया। सुबह 8 बजे मिलने का वक़्त दिया उन्होंने।एक उलझन थी कि क्या ये वही दुर्गा दा हैं या कोई और, और इसका समाधान उनसे मिलने के बाद ही होना था। तय हुआ कि सुबह मंजु दी के साथ जाऊँगी और अगर वे वही दुर्गा दा न हुए तो फिर उनसे पता करूँगी।ख़ैर पता भी सही था और दुर्गा दा भी वही थे। बहुत ख़ुश हुए मुझसे मिलकर, पर पहचानने में थोड़ा वक़्त लगा उन्हें। बानी दी का नाम कहने पर तब याद कर सके वे मुझे; क्योंकि बानी दी ने ही मेरे संगीत शिक्षा के लिए उनसे बात की थी।
आज हमें वापस लौटना था। श्यामली दी ने सुबह अपने घर नाश्ते पर बुलाया था। नाश्ते के बाद वहीं से भागलपुर लौट जाना था। दुर्गा दा से मिलने के बाद मंजु दी मेरे साथ मनीषा के घर आ गईं; काफ़ी दिनों से वे श्यामली दी से मिली नहीं थीं, तो मेरे साथ उनके घर चलेंगी। मनीषा बाद में आने का बोली; क्योंकि उस दिन उसे 3-4 सेमीनार में जाना था, जहाँ उसका भाषण था। हमलोग श्यामली दी के घर चल दिए।
उन्हीं दिनों की तरह
***
चौंककर उसने कहा-
''जाओ लौट जाओ
क्यों आई हो यहाँ
क्या सिर्फ़ वक़्त बिताना चाहती हो यहाँ?
हमने तो सर्वस्व अपनाया था तुम्हें
क्यों छोड़ गई थी हमें?''
मैं अवाक्! निरुत्तर!
फिर भी कह उठी-
उस समय भी कहाँ मेरी मर्ज़ी चली थी
गवाह तो थे न तुम
जीवन की दशा और दिशा को तुमने ही तो बदला था
सब जानते तो थे तुम, तब भी और अब भी।
सच है, तुम भी बदल गए हो
वह न रहे, जैसा उन दिनों छोड़ गई थी मैं
एक भूलभुलैया या फिर अपरिचित-सी फ़िज़ा
जाने क्यों लग रही है मुझे?
तुम न समझो, पर अपना-सा लग रहा है मुझे
थोड़ा-थोड़ा ही सही
आस है, शायद तुम वापस अपना लो मुझे
उसी चिर-परिचित अपनेपन के साथ
जब मैं पहली बार मिली थी तुमसे
और तुमने बेझिझक सहारा दिया था मुझे
यह जानते हुए कि मैं असमर्थ और निर्भर हूँ
और हमेशा रहूँगी,
तुमने मेरी समस्त दुश्वारियाँ समेट ली थीं
और मैं बेफ़िक्र, ज़िन्दगी के नए रूप देख रही थी
सही मायने में ज़िन्दगी जी रही थी।
सब कुछ बदल गया है वक़्त के साथ
जानती हूँ, पर उन यादों को जी तो सकती हूँ
ज़रा-ज़रा पहचानो मुझे
एक बार फिर उसी दौर से गुज़र रही हूँ
फ़र्क़ सिर्फ़ वज़ह का है
एक बार फिर मेरी ज़िन्दगी तटस्थ हो चली है
मैं असमर्थ और निर्भर हो चली हूँ।
तनिक सुकून दे दो
फिर लौट जाना है मुझे
उसी तरह उस गुमनाम दुनिया में
जिस तरह एक बार ले जाई गई थी तुमसे दूर
जहाँ अपनी समस्त पहचान खोकर भी
अब तक जीवित हूँ।
मत कहो-
''जाओ, लौट जाओ'',
एक बार कह दो-
''शब, तुम वही हो मैं भी वही
फिर आना कुछ वक़्त निकालकर
एक बार साथ-साथ जिएँगे
फिर से उन्हीं दिनों की तरह कुछ पल!''
जब मैं पहली बार मिली थी तुमसे
और तुमने बेझिझक सहारा दिया था मुझे
यह जानते हुए कि मैं असमर्थ और निर्भर हूँ
और हमेशा रहूँगी,
तुमने मेरी समस्त दुश्वारियाँ समेट ली थीं
और मैं बेफ़िक्र, ज़िन्दगी के नए रूप देख रही थी
सही मायने में ज़िन्दगी जी रही थी।
सब कुछ बदल गया है वक़्त के साथ
जानती हूँ, पर उन यादों को जी तो सकती हूँ
ज़रा-ज़रा पहचानो मुझे
एक बार फिर उसी दौर से गुज़र रही हूँ
फ़र्क़ सिर्फ़ वज़ह का है
एक बार फिर मेरी ज़िन्दगी तटस्थ हो चली है
मैं असमर्थ और निर्भर हो चली हूँ।
तनिक सुकून दे दो
फिर लौट जाना है मुझे
उसी तरह उस गुमनाम दुनिया में
जिस तरह एक बार ले जाई गई थी तुमसे दूर
जहाँ अपनी समस्त पहचान खोकर भी
अब तक जीवित हूँ।
मत कहो-
''जाओ, लौट जाओ'',
एक बार कह दो-
''शब, तुम वही हो मैं भी वही
फिर आना कुछ वक़्त निकालकर
एक बार साथ-साथ जिएँगे
फिर से उन्हीं दिनों की तरह कुछ पल!''
-0-
मंजु दी से दुर्गा दा का पता करने को कहा था। मैं जब यहाँ रह रही थी तब एक महीने तक रोज़ एक घंटा दुर्गा दा से गाना सीखती थी। जिस दिन यहाँ से वापस गई किसी से मिल न पाई, दुर्गा दा को धन्यवाद भी न दे सकी। मुझे उनका पूरा नाम भी मालूम न था, सिर्फ़ दुर्गा दा ही जानती थी। मंजु दी ने उनके घर का पता लगा लिया। सुबह 8 बजे मिलने का वक़्त दिया उन्होंने।एक उलझन थी कि क्या ये वही दुर्गा दा हैं या कोई और, और इसका समाधान उनसे मिलने के बाद ही होना था। तय हुआ कि सुबह मंजु दी के साथ जाऊँगी और अगर वे वही दुर्गा दा न हुए तो फिर उनसे पता करूँगी।ख़ैर पता भी सही था और दुर्गा दा भी वही थे। बहुत ख़ुश हुए मुझसे मिलकर, पर पहचानने में थोड़ा वक़्त लगा उन्हें। बानी दी का नाम कहने पर तब याद कर सके वे मुझे; क्योंकि बानी दी ने ही मेरे संगीत शिक्षा के लिए उनसे बात की थी।
आज हमें वापस लौटना था। श्यामली दी ने सुबह अपने घर नाश्ते पर बुलाया था। नाश्ते के बाद वहीं से भागलपुर लौट जाना था। दुर्गा दा से मिलने के बाद मंजु दी मेरे साथ मनीषा के घर आ गईं; काफ़ी दिनों से वे श्यामली दी से मिली नहीं थीं, तो मेरे साथ उनके घर चलेंगी। मनीषा बाद में आने का बोली; क्योंकि उस दिन उसे 3-4 सेमीनार में जाना था, जहाँ उसका भाषण था। हमलोग श्यामली दी के घर चल दिए।
श्यामली दी का घर 'पलाश' जहाँ मैं बहुत आती थी, उनसे लाल चन्दन के बीज से गहना बनाना सीखा था। गेट के भीतर घुसते ही चन्दन के बीज गिरे हुए दिखे। बेटे से मैंने कहा कि कुछ बीज उठा ले, गहना बनाना याद करूँगी। जैसे ही हम लोग उनके घर के बरामदे में पहुँचे, उनका एक अफ्रिकन मित्र घबराया हुआ बाहर आया और बताया कि श्यामली दी को अटैक आया है। हम दौड़ते हुए अन्दर पहुँचे। एक कुर्सी पर वे निढाल बैठी थीं। उनकी गोद में एक प्लेट, हाथ में कटे प्याज और चाकू थे। उनके एक पाँव और एक हाथ में लकवा (paralysis) का अटैक हो चुका था। चेहरे पर उस समय तक नहीं हुआ था और बोल पा रही थीं। हमारे पहुँचने से पहले ही उन्होंने मनीषा को फ़ोन कर दिया था कि उन्हें अटैक आया है। हॉस्पिटल जाने को वे राज़ी नहीं थीं, पर बहुत कहने पर राज़ी हुईं कि शान्तिनिकेतन के हॉस्पिटल में जाएँगी बाहर नहीं। एक कमरे की तरफ़ इशारा कर उन्होंने एक झोला मँगवाया और उसमें से पैसे निकालकर मंजु दी को दिया कि मनीषा को दे देना। मंजु दी से वे बार-बार कह रही थीं कि जेन्नी को खाना खिला देना। धीरे-धीरे उनके चेहरे पर भी असर होने लगा। तब तक मनीषा आ गई, मनीषा की गाड़ी से उनको अस्पताल भेजा गया। फिर सत्य शिवरमन को सूचना दी गई, वे आए और उन्हें लेकर हम अस्पताल पहुँचे।
अस्पताल में उनके मित्रों की भीड़ लग गई। चूँकि कोई भी उनका रक्त-सम्बन्धी नहीं था, तो अस्पताल की कार्रवाई में दिक्कत आ रही थी; परन्तु डॉक्टर अपना काम कर रहे थे। डॉक्टर ने उनको दुर्गापुर या कोलकाता ले जाने के लिए कहा; क्योंकि स्थिति बहुत नाज़ुक थी। शरीर का पूरा दाहिना हिस्सा और चेहरा लकवाग्रस्त हो चुका था। वहाँ जब हम लोग मिलने गए तो उन्होंने इशारे से कहा कि खाना खा लेना और मंजु दी को कहा कि जेन्नी को खाना खिला देना। हम लोगों ने कहा कि दुर्गापुर जाना है, तो इस स्थिति में भी इंकार करने लगीं कि शान्तिनिकेतन छोड़कर नहीं जाना है। तब तक दुर्गापुर से एम्बुलेंस लाने की व्यवस्था हो गई। सत्य ने स्वयं उनके साथ एम्बुलेंस में जाने का निर्णय लिया। तत्पश्चात श्यामली दी का झोला जिसमें पैसा थे, सत्य को दे दिया गया ।
मनीषा ने मुझसे कहा कि एम्बुलेंस आने में 2 घंटा लगेगा, तब तक घर जाकर खा लो, नहीं तो श्यामली दी को बहुत दुःख होगा। वह भी तब तक अपने सेमीनार से होकर आ जाएगी। मंजु दी के साथ मैं और मेरा बेटा श्यामली दी के घर आए। एक रिक्शावाला वहीं रहता है, उसने बताया कि श्यामली दी रात में बहुत देर तक जागी थीं और सुबह से हमारे लिए खाने की तैयारी कर रही थीं। खाना बनाने और खिलाने की शौक़ीन रही हैं श्यामली दी। मिक्स पराठा बना चुकी थीं, दूध फाड़कर पनीर बनाकर रखी थीं, आलू उबला हुआ, प्याज आधा कटा हुआ, फ्रिज़ में कई तरह की सामग्री। इस परिस्थिति में खाने का मन नहीं हो रहा था पर इंसुलिन लिए काफ़ी देर हो चुका था, तो खाना भी आवश्यक था। पनीर आलू को भूनकर पराठा और अचार के साथ हम तीनों ने खाया। इस बीच मंजु दी ने सिद्धांत से कहा कि घर की तस्वीर ले लो, क्योंकि श्यामली दी के पिता सुधीर खस्तगीर एक बहुत बड़े शिल्पकार और चित्रकार थे, श्यामली दी भी थीं।उनकी कीमती कलाकृति सब वैसे ही पड़ी हुई थी।
श्यामली दी के पुत्र 'आनन्दो तान ली' कनाडा में रहते हैं, जब तक वे आ न जाएँ, तब तक पता नहीं किसके पास घर की चाबी हो। मैंने मनीषा से कहा कि उनके घर की चाबी वह ख़ुद रखे किसी और को न दे, क्योंकि मनीषा को श्यामली दी बहुत मानती थीं। फिर वापस आकर मैंने श्यामली दी को बताया कि हम लोगों ने उनका बनाया खाना खा लिया है, तो वे मुस्कुरा दीं और भर्राई हुई आवाज़ में कुछ कहा। शब्द गले में अटके जा रहे थे, बहुत चेष्टा कर भी स्पष्ट नहीं बोल पा रही थीं। उनकी आँखें भींग गईं थीं। उस मुस्कराहट में लग रहा था जैसे कि उनके बनाए हुए खाने को मेरे खा लेने से उनको तसल्ली मिली हो। इस अवस्था में भी उन्हें अपने से ज़्यादा दूसरों की फ़िक्र थी। अपना इलाज अपने पैसे से कराने की उनकी ज़िद जारी थी।
श्यामली दी का घर |
क़रीब 3 बजे हम लोग भागलपुर के लिए चले। दुर्गा दा का फ़ोन आया कि रास्ते में उनका विद्यालय है, मिलते हुए जाना। श्रीनिकेतन में रास्ते में उनसे मिलते हुए हम भागलपुर के लिए रवाना हो गए, कुछ अच्छी और कुछ दुःख भरी यादें साथ लिए। गौर दा से तो मिल न सकी थी। वर्ष 2000 में उनकी मृत्यु हो चुकी थी, पर मुझे वर्ष 2003 में पता चला। ज़िन्दगी में मैं ऐसी उलझी कि विवाह पूर्व के सारे रिश्ते खोते चले गए। बानी दी भी अब बहुत ज़्यादा अस्वस्थ हो चली हैं, शान्तिनिकेतन कम ही रहती हैं। बाद में कोलकाता जाना हुआ तो टॉम दा (इन्द्रजीत रॉय चौधरी, चित्रकार व पुराने वस्तु के संग्राहक, बानी दी के भाई) से मुलाक़ात हुई। उन दिनों टॉम दा जब भी शान्तिनिकेतन आते, तो मुझसे ज़रूर मिलते थे। जब मैं वहाँ रह रही थी तब अपने हाथों से बनाई हुई दो अँगूठी और बंगाल की एक साड़ी उपहारस्वरूप उन्होंने मुझे दी थी। दोबारा एक बार और कोलकाता जाना हुआ तो उनकी माँ रेणुका रॉय चौधरी से मुलाक़ात हुई जो अपने समय की विख्यात उपन्यासकार थीं।
श्यामली दी का ऑपरेशन हो चुका है और लोगों को थोड़ा-थोड़ा पहचान रही हैं, लेकिन स्थिति नाज़ुक बनी हुई है। उनका बेटा आ चुका है और माँ का पूरा ख़याल रख रहा है। श्यामली दी को कोलाकाता ले जाया गया है, लेकिन स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता जा रहा है। वे अब भी वेंटीलेटर पर हैं। जब तक वे थोड़ा भी बोल सकीं या इशारे से बता सकीं, शान्तिनिकेतन जाने की बात कहती हैं। आगे क्या होगा नहीं पता; लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि उन्हें शान्तिनिकेतन ले आना चाहिए, कम-से-कम मानसिक रूप से तो वे मज़बूत महसूस करेंगी। यों भी उनके प्राण शान्तिनिकेतन में बसते हैं, भले कुछ कहने में अब असमर्थ हो गई हैं। उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना सभी जानने और चाहने वाले कर रहे हैं। स्वस्थ हो जाने के बाद एक बार फिर से शान्तिनिकेतन जाऊँगी श्यामली दी से मिलने।
जारी...
- जेन्नी शबनम (11.8.2011)
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7 comments:
मैं आपका यह सस्मरण पढ़कर विगत की स्म्ड़रितियों में खो गया ।मैं भी 7 अक्तुबर 1976 से 23 जुलाई 1977 तक बैरकपुर मे रहा हूँ । कलकत्ता आना -जना होता ही था आज भी यह कसक है कि जीवन की आपाधापी में फिर उस आत्मीय स्थान पर लौटना नहीं हुआ ।
आपने बीती हुई घटनाओं को वर्त्तमान से जोड़कर संस्मरण को बहुत मार्मिक बना दिया है । बहुत साधुवाद इतना सजीव लिखने के लिए ! दिया है
श्यामली जी के स्वास्थ्य के लिए मंगल कामनाएं. जेन्नी जी ! आपने तो भाव विभोर कर दिया आज . भूत को वर्त्तमान में क्षण भर के लिए कैसे जिया जाता है , आपसे सीखे कोई. शान्तिनिकेतन भारत का एक कोमलता , कलात्मकता, विद्वता और संस्कृति का केंद्र है. भाग्यशाली हैं वे जिन्हें शान्तिनिकेतन का प्यार और आशीर्वाद मिला है. सिद्धांत को भी शान्तिनिकेतन ही भेजना था न !
शान्तिनिकेतन की तीर्थ यात्रा कराने और अपने इतने अच्छे परिचितों- आत्मीयजनों से भावपूर्ण भेंट करवाने के लिए साधुवाद.
काम्बोज भाई,
अभी भी वक़्त है अपनी इच्छाओं को पूरा करने केलिए, आप एक बार ज़रूर बैरकपुर हो आइये. जितना भी वक़्त होता है उसी में हर मुमकिन काम और ख़ुशी केलिए वक़्त निकाल लेना चाहिए अन्यथा बाद में सिर्फ पछतावा होता है और वक़्त इंतज़ार नहीं करता हमारा. मेरे आलेख के द्वारा आपको भी पुराने दिन याद आये ये मेरे लिए ख़ुशी की बात है. आपका बहुत बहुत धन्यवाद.
कौशलेन्द्र जी,
नमस्कार! वक़्त हाथ नहीं आता इसलिए जो भी करना है इंतज़ार नहीं करना चाहिए, वक़्त कभी भी आपको इतनी फुर्सत नहीं देता कि आप अपने हिसाब से सब कुछ तय करें. मुझे शान्तिनिकेतन जाने में २० साल लग गए और गौर दा से नहीं मिल पायी, जीवन भर इस बात का दुःख रहेगा. एक दुखद समाचार है कि श्यामली दी कल सदा के लिए चली गई. नहीं समझ आ रहा कि इसको किस रूप में लूँ. मेरा सौभाग्य या दुर्भाग्य? श्यामली दी के साथ हीं टैगोर की सोच के एक विरासत का भी अंत हो गया.
अपने बच्चों पर अपनी इच्छा मैं कभी थोपी नहीं, उसे दिल्ली में हीं रहना पसंद है और यहीं पढ़ना भी. बस उसे दिखा दी कि देखो एक खूबसूरत दुनिया यहाँ है.
मेरे ब्लॉग पर आप आये उसके लिए दिल से शुक्रिया.
जेन्नी जी, शांति निकेतन का अपना एक स्थान है और मुझे लगता है कि हर वो इंसान जिसने इसके बारे में सुना है, रवीन्द्रनाथ को जानता है, कुछ समय के लिए ही सही पर यहाँ जीना ज़रूर चाहेगा...मेरी भी ख़्वाहिश है, अभी तक तो पूरी हुई नहीं..उम्मीद है कि एक दिन ज़रूर पूरी होगी...
प्रज्ञा जी,
शान्तिनिकेतन एक बार ज़रूर घूम आइये, अपनी नज़रों से महसूस करना अनोखा अनुभव होता है. ब्लॉग ताक आने के लिए दिल से आभार.
di badi pyari se yaad thi aapki...tabi to itna vistaar se aapne likha...achchha lagta hai na...jahan aapne samay kata ho...wahan pe fir se jao:)
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