Monday, November 24, 2025

130. हैंडसम ही-मैन हीरो धर्मेंद्र

धर्मेंद्र मेरे बचपन के समय के सबसे हैंडसम, ही-मैन, हीरो थे। ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म से रंगीन फ़िल्म तक के सफ़र में मुझे सबसे आकर्षक अभिनेता धर्मेंद्र ही लगते थे। हालाँकि उस ज़माने में भी बहुत अच्छे-अच्छे अभिनेता हुए; लेकिन मेरे लिए ख़ूबसूरती में नंबर वन धर्मेंद्र ही रहे। मेरे अनुसार धर्मेंद्र के बाद मेरी पीढ़ी के सलमान खान ने आकर्षण में उनका स्थान लिया है। 


धर्मेंद्र का जन्म 8 दिसम्बर 1935 को पंजाब के लुधियाना ज़िले में साहनेवाल गाँव में हुआ। धर्मेंद्र फ़िल्मफेयर पत्रिका के राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित नए प्रतिभा पुरस्कार के विजेता थे। पुरस्कार विजेता होने के कारण फ़िल्म में काम करने के लिए वे पंजाब से मुंबई गए; लेकिन फ़िल्म नहीं बनी। वर्ष 1960 में 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' फ़िल्म से धर्मेंद्र ने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की थी। उन्होंने हर प्रकार की फ़िल्मों में काम किया है। कुछ फ़िल्में तो सुपर हिट भी हुईं। नायक, खलनायक, जाँबाज़ सिपाही, भावुक इंसान, कॉमेडियन इत्यादि सभी रोल में धर्मेंद्र ने शानदार अभिनय किया है।


धर्मेंद्र की जोड़ी सभी साथी कलाकारों के साथ बहुत अच्छी लगती है। रफ़ी के गाए गीत के साथ धर्मेंद्र का अभिनय बहुत कमाल का कॉम्बिनेशन लगता है। धर्मेंद्र और मीना कुमारी के प्रेम के रिश्ते काफ़ी गहरे थे। मीना कुमारी ने धर्मेंद्र को बेइन्तहाँ प्यार किया, उनके करियर को ऊँचाई दिलाई; लेकिन धर्मेंद्र ने रिश्ता नहीं निभाया। जाने किसकी नज़र लग गई और यह रिश्ता टूट गया। धर्मेंद्र का हेमा मालिनी के साथ प्रेम सम्बन्ध शुरू हुआ और 1980 में उन्होंने शादी की। मीडिया के अनुसार पहले से विवाहित धर्मेंद्र ने हेमा मालिनी से शादी के लिए अपना धर्म बदला; क्योंकि पहली पत्नी प्रकाश कौर ने तलाक़ नहीं लिया। 

धर्मेंद्र ने लगभग 300 फिल्में की हैं। उन्होंने फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में क़दम रकह और कई सारी फ़िल्में बनाईं। वे राजनीति में भी सक्रिय रहे। वे भारतीय जनता पार्टी से बीकानेर निर्वाचन क्षेत्र के सांसद थे। वर्ष 1997 में उन्हें हिन्दी सिनेमा में योगदान के लिए फ़िल्मफेयर लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला। वर्ष 2012 में उन्हें भारत सरकार द्वारा भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया। इसके अलावा अलग-अलग बहुत सारे सम्मान उन्हें मिले थे। 

मुझे धर्मेंद्र की सीरियस फ़िल्में ज़्यादा पसन्द आती हैं। बंदिनी, दिल ने फिर याद किया, फूल और पत्थर, मझली दीदी, जीवन मृत्यु, ड्रीम गर्ल, हक़ीक़त, अनपढ़ इत्यादि फ़िल्में मुझे पसन्द हैं। लाइफ़ इन ए मेट्रो उनकी दूसरी पारी की फ़िल्म थी, जो मुझे बेहद पसन्द आई थी। शोले हर समय की सुपरहिट फ़िल्म है; लेकिन मुझे कभी भी पसन्द नहीं आई। 

भोपाल में मेरे एक मित्र थे सुनील मिश्र, जो लेखक, कवि, संस्कृतिकर्मी, फ़िल्म क्रिटिक थे, जिनका देहान्त 2021 में हुआ। उन्हें धर्मेंद्र इतने पसन्द थे कि उन्होंने धर्मेंद्र के लिए फेसबुक पर धर्म-छवि के नाम से एक पेज बनाया था। धर्मेंद्र के हर जन्मदिन पर वे उनसे मिलने जाते थे। धर्मेंद्र को वे पापाजी कहते थे। मैंने एक बार उनसे कहा कि धर्मेंद्र को तो पापाजी कह सकते; लेकिन हेमा मालिनी इतनी सुन्दर हैं, उन्हें कोई मम्मी जी कैसे कह सकता है। उन्होंने हँसकर कहा कि वे हेमा को मम्मी नहीं बोलते हैं। सुनील जी को शोले बहुत पसन्द थी और मुझे नापसन्द। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं दोबारा शोले देखूँ। मैं दोबारा शोले देखी; लेकिन अब भी अच्छी नहीं लगी। जाया भादुड़ी इस फ़िल्म में मुझे बहुत अच्छी लगीं। सुनील जी ने शोले के अच्छे लगने के ढेरों कारण बताए, फिर भी मुझे शोले पसन्द नहीं आई। मैंने मान लिया की फ़िल्म की समझ मुझमें नहीं, जो देखने में मन को सुहाए मेरे लिए वही अच्छी फ़िल्म है।  हेमा की ख़ूबसूरती के अलावा उनकी एक्टिंग मुझे कभी भी अच्छी नहीं लगी।

कुछ दिन पहले जब धर्मेंद्र बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हुए, तो मीडिया ने उनकी मृत्यु की ख़बर प्रसारित कर दी। संवेदनहीन मीडिया पर किसी भी ख़बर के लिए भरोसा करना मुश्किल है। सत्य की पड़ताल किए बिना ख़बरों का प्रसारण मीडिया के लिए आम बात है। एक बात है कि जीवित रहते हुए मृत्यु की ख़बर से पूरा देश कितना ग़मगीन हुआ यह धर्मेंद्र ने देखा। उन्होंने यह भी देखा कि ग़लत ख़बर फैलाने वालों पर लोगों का आक्रोश किस तरह फूटा। उनके लिए सभी का प्यार और फ़िक्र देखकर उन्हें अपने लोगों और अपने चाहने वालों पर गर्व हुआ होगा। 

तीन पीढ़ियों का ही-मैन और फिल्म इंडस्ट्री में अपने ज़माने का सबसे आकर्षक हीरो आज इस संसार से विदा हो गया। मेरे पहले पसन्दीदा हीरो को हार्दिक श्रद्धांजलि!

-जेन्नी शबनम (24.11.2025)
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Sunday, November 16, 2025

129. उम्र का 60वाँ पड़ाव

आज मेरा 60वाँ जन्मदिन है। शून्य से 60 का सफ़र यूँ गुज़रा कि कभी तीव्र, तो कभी पलक झपकते समय के बीतने का अनुभव हुआ। जब तक पापा जीवित रहे, ख़ूब धूम-धाम से जन्मदिन मनाया जाता था। जन्मदिन में बड़ा भोज होता, जिसमें पापा-मम्मी के मित्र, सहकर्मी और रिश्तेदार आते थे। खाना-पीना, खेलना, लोगों का आना-जाना इसमें ही सारा दिन व्यतीत होता था। बचपन का कुछ जन्मदिन मनाना मुझे अब तक याद है।  

पापा के देहान्त के बाद जन्मदिन रस्म की तरह निभता रहा, न उत्साह न कोई भोज-भात। कुछ सालों बाद मम्मी ने मेरा जन्मदिन मनाना शुरू किया। फिर से मुझमें भी उत्साह आया और मम्मी के साथ सिनेमा जाना, बाहर जाकर गुलाब जामुन खाना या लस्सी पीना और मम्मी के कुछ मित्रों का मेरे घर पर आना होता रहा। उन दिनों केक काटने का चलन नहीं था; परन्तु सामान्य दिनों से अलग विशेष भोजन की व्यवस्था होती थी। दादी कुछ ख़ास बनाती थीं। मेरे घर में खीर और दलपुरी (चना-दाल भरी हुई पूरी) बनाने का चलन था; अब मैं अपने बच्चों के जन्मदिन पर बनवाती हूँ, भले वे न खाएँ या साथ न हों। अपने कई जन्मदिन पर अकेली रही हूँ। सिनेमा देखती हूँ, साकेत या ग्रीन पार्क में कॉफ़ी पीती हूँ, ख़ुद के लिए छोटा-सा गिफ्ट खरीदती हूँ और इस तरह अपना जन्मदिन मनाती हूँ। 

जब कभी अपने जन्मदिन पर भागलपुर में रही तो बड़ी पार्टी होती थी, पति के संस्था के लोग आते, मेरी मम्मी और मेरे बच्चे भी रहते थे। जब बच्चे बड़े हो गए तब उन्हें कभी वक़्त मिला, कभी नहीं मिला। वर्ष 2017 में मेरा बेटा लन्दन में पढ़ रहा था। मेरे जन्मदिन के दिन आकर मुझे सरप्राइज़ दिया था। वर्ष 2019 में मेरे जन्मदिन पर अशोका होटल, दिल्ली में बहुत बड़ी पार्टी हुई थी। वर्ष 2020 में मेरी बेटी और उसके मित्रों के साथ मैंने जन्मदिन मनाया। वर्ष 2022 में बेटी बैंगलोर में पढ़ती थी। इस वर्ष जन्मदिन पर मैं अकेली थी, तो बेटी ने सिनेमा का टिकट कराया और केक भेजवाया। पिछले वर्ष मैं जन्मदिन के दिन अपनी एक साहित्यकार मित्र डॉ. आरती स्मित के साथ एक वृद्धाश्रम गई थी। इस बार मेरे पति, बेटी और भतीजी भी जन्मदिन में साथ थे। 

आज यों महसूस हो रहा ज्यों मेरी उम्र धीरे-धीरे बढ़ी; लेकिन मेरा वक़्त मुझे छोड़ बहुत तेज़ी से भागा। अब तक जीवन में ढेरों उतार-चढ़ाव आए। इस बीच सदी बदली, धरती बदली, आसमान बदला, ज़माना बदला। पापा गुज़र गए, दादी गुज़र गईं और मम्मी भी गुज़र गईं। बचपन बीता, पढ़ाई ख़त्म हुई, शादी हुई, बच्चे हुए, बच्चे बड़े हुए, बेटे की शादी को छह साल हुए। मन में ढेरों फूल खिले और खूब काँटे भी चुभे। समय बदला, जीवन बदला, भावनाएँ बदलीं, धरती-आकाश पहुँच से दूर हुए, मुट्ठी ख़ाली की ख़ाली रही, पाना-खोना चलता रहा, समय से जंग जारी रहा, कभी मैं जीतती तो कभी समय जीतता रहा। हार-जीत से बेपरवाह ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से चलते हुए अंततः जीवन के 60वें वसन्त को पार कर गई। यह सब कब और कैसे हुआ, कुछ पता न चला। यूँ जैसे पलक झपकते ही एक बड़ा पड़ाव गुज़रता चला गया। फ़ैज़ अनवर साहब ने ये शेर जैसे मुझ पर ही कही हो-
एक लम्हे में सिमट आया है सदियों का सफ़र 
ज़िन्दगी तेज़ बहुत तेज़ चली हो जैसे 
कोई फ़रियाद तिरे दिल में दबी हो जैसे 
तूने आँखों से कोई बात कही हो जैसे  
जागते-जागते इक उम्र कटी हो जैसे 
जान बाक़ी है मगर साँस रुकी हो जैसे 

पीछे मुड़कर देखने से यों लगता है ज्यों मेरी जीवनी (Biography) 3 घंटे की जगह 60 वर्ष की फ़िल्म थी, जिसमें मैं और मुझसे जुड़े हर लोग इसके पात्र हैं। कोई निर्देशक नहीं, कोई पटकथा नहीं, कोई कैमरा नहीं।  हम सभी अपने-अपने पात्रों के अनुसार अभिनय कर रहे हैं। मेरा जीवन लाइव शो की तरह है, जिसका अदृश्य कैमरा चित्रांकन करता रहता है। मेरा हर जन्मदिन अब तक हुई घटनाओं की फ़िल्म का प्रीमियर शो है। जब याद करूँ तो सिनेमा के फ़्लैश बैक की तरह हर पल घूमने लगता है। सोचती हूँ काश! पात्र का चुनाव मैं कर सकती, मुझे किसी और पात्र का अभिनय करने को मिला होता, जिसके जीवन में ढेरों खुशियाँ होतीं, उत्साह होता, आनन्द होता, भरा-पूरा घर होता। काश! जीवन काटना नहीं होता। सिर्फ़ दुनियादारी निभाने के लिए नहीं; अपने लिए भी जीने का अवसर मिला होता। अब तो जो जीवन है, उस अनुसार जीते रहना है हँसकर या रोकर। उम्र 60 वर्ष हुई; परन्तु मन चाहता है कि अब अभिनय से मुक्ति मिले, जीवन से मुक्ति मिले। 

अब मैं अन्तिम दूसरी पीढ़ी हूँ। सामाजिक संरचना के अनुसार दो पीढ़ियों में कितने वर्ष का अंतर होना चाहिए, नहीं मालूम। मुझे हर 20 वर्ष का अंतर नई पीढ़ी की पौध लगती है। मेरे माता-पिता न रहे, अतः मैं स्वयं को अन्तिम पीढ़ी मानने लगी हूँ। हालाँकि अपनी अनेक समस्याओं के बीच अभी भी ख़ुश रहना मुझे पसन्द है। मेरा जीवन बचपन से कभी भी सहज नहीं बीता, जैसा आम बच्चों का बीतता है। मानसिक तनाव से कभी मुक्ति नहीं मिली। भविष्य की आशंकाएँ अब डराने लगी हैं, अस्वस्थ होने का भय सताने लगा है, अकेलापन अब अखरता है। ढेरों आशंकाएँ हैं जिससे मन सहज नहीं रहता। फिर भी कुछ जन्मदिन हमेशा याद रहता है, चाहे अच्छा बीता हो या बुरा। 

मेरी ज़िन्दगी सचमुच इतनी तेज़ चली कि कितने हाथ मुझसे छूटते चले गए। चारों तरफ़ देखती हूँ तो कई सारे क़रीब के नाते दूर हो गए। मम्मी-पापा इस जहाँ से दूर चले गए। एक समय के बाद रिश्ते-नाते यूँ ही दूर हो जाते हैं। पर मैं मन में सारे रिश्ते जीती हूँ, जो मुझे छोड़ गए उनसे भी और जिसे मैंने छोड़ दिया उनसे भी। गुलज़ार साहब ने सही कहा है-
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते 
वक़्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते  

मेरी बेटी 'ख़ुशी' मुझे बार-बार याद दिलाती रही कि आज मेरा 60वाँ जन्मदिन है। मेरी 7 वीं पुस्तक प्रकाशित हो रही है। विचार था कि इस बार मैं अपने जन्मदिन पर लोकार्पण करूँ; लेकिन नहीं हो सका। ऐसा संयोग रहा कि मेरी छह पुस्तकों में से पाँच पुस्तकें मेरी बेटी के जन्मदिन पर लोकार्पित हुई हैं। आज अपनी 7वीं पुस्तक का आवरण पृष्ठ को सार्वजनिक कर रही हूँ। जीवन के हर क्षेत्र में मैं असफल रही; लेकिन दो बच्चे और सात पुस्तकें मेरी उपलब्धि है, जिस पर मुझे गर्व है। मेरा जीवन बिल्कुल निरर्थक है, अब ऐसा नहीं सोचती। 

ख़ुशी के साथ सेलेक्ट सिटी वॉक, साकेत में फ़िल्म 'दे दे प्यार दे-2' देखने गई, जो बहुत बेकार लगी। फिर हमने खाना खाया और ख़ूब सारी तस्वीरें लीं। घर पर केक आया; परन्तु उम्र के अनुसार कैंडिल नहीं आया था, तो बेटी ने नंबर बैलून मँगाया फिर मैंने केक काटा; क्योंकि यह जन्मदिन ख़ास है। इस प्रकार मेरे जन्मदिन का समापन हुआ। 

आज मम्मी-पापा बहुत याद आ रहे हैं। मम्मी मेरे हर जन्मदिन पर कहतीं कि तुम इतनी बड़ी हो गई, पता ही नहीं चला। मम्मी होतीं, तो सुबह-सुबह फ़ोन कर मुझे शुभकामना देतीं, पापा को याद करके रोतीं, फिर ख़ूब सारी बातें होतीं, अंत में फिर से जन्मदिन की शुभकामना देतीं। अपना जन्मदिन जब-जब मुझे याद रहा, मम्मी-पापा की तरफ़ से स्वयं को शुभकामना देती हूँ- ''हैप्पी बर्थडे जेन्नी!''  

-जेन्नी शबनम (16.11.2025)
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Saturday, September 27, 2025

128. ख़ुश रहें कि हम ज़िन्दा हैं


चित्र: गूगल से साभार 
पूरी दुनिया में कोरोना के संक्रमण का क़हर अब भी जारी है। कोरोना ने न धर्म पूछान जाति देखीन व्यवसाय जानान घर देखान धन देखान उम्र देखीन प्रांत पूछान देश देखान सरोकार जानाएक सिरे से सभी को अपनी चपेट में लेने लगा। कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर आने वाली हैजिसके लिए स्वास्थ्य संगठनों ने कहा है कि इसका असर बच्चों पर ज़्यादा होगा। कोरोना की पहली और दूसरी लहर की मार से उबर भी न पाए हैं कि तीसरी लहर की चेतावनी ने बेहद डरा दिया है हमें। लेकिन समय के आगे नतमस्तक हैं, अब जो होगा देखा जाएगा। हज़ार कोशिशों के बावजूद कोरोना संक्रमण के प्रसार पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। अतः इस न्यू नार्मल के अनुसार हमें अपनी जीवन पद्धति को बदलकर जीवन को ख़ुशनुमा बनना होगा; ताकि जो वक़्त हमारे पास है, ख़ुशियों से भरा हो। अभी ज़िन्दा हैकल हम हों, न हों। एक पुराने गीत के अर्थपूर्ण बोल को सदा ेंहमें याद रखना चाहिए- ''आगे भी जाने न तूपीछे भी जाने न तू / जो भी हैबस यही एक पल हैजीनेवाले सोच लेयही वक़्त है कर ले पूरी आरज़ू।''

विगत वर्ष 2020 के फरवरी माह में इस कोरोना विषाणु के संक्रमण से महामारी की चेतावनी आई थीपरन्तु इसकी भयावहता से हम लोग अनभिज्ञ थेअतः लापरवाही हुई। कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ाने के लिए ताली-थाली-घंटी बजाने तथा दीप या मोमबत्ती जलाने का आह्वान हुआ। लोगों ने इसे भी काफ़ी मनोरंजक बनाया और पटाखे भी फोड़े लेकिन कोरोना इतना भी कमज़ोर नहीं है। वह और ज़ोर से मृत्यु का तांडव करने लगा। किसके साथ क्या हो रहा है, इससे हम सभी अनभिज्ञ रहे और अपने-अपने घरों में सिमटकर रह गए। न जाने कब तक ऐसा चलता रहेगा। मन में ढेरों सवाल हैजिनका जवाब किसी के पास नहीं। हाँयह ख़ुशी की बात है कि इतनी जल्दी कोरोना का टीका आ गया और करोड़ों लोगों ने लगवा भी लियायद्यपि लोग लगातार संक्रमित हो रहे हैं। इस ख़बर के इन्तिज़ार में हम सभी हैं- जब यह सूचना आए कि हमारे जीवन से कोरोना सदा के लिए विदा हो गया और हम निर्भीक होकर अपने पुराने समय की तरह जी सकते हैं। 

कोरोना काल में यों तो ढेरों समस्याअसुविधादुःख हमारे जीवन का हिस्सा बनेपरन्तु इन प्रतिकूल और भयावह परिस्थितियों में भी हम खुशियाँ बटोरना सीख गए। कोरोना काल में अंतर्जाल ने पूरे समय हम सभी का साथ दिया और मन बहलाए रखा। ख़ूब सारे सृजन कार्य हुएचाहे वह लेखन हो या अन्य माध्यम। फेसबुक लाइव, इंस्टाग्राम लाइव, यूट्यूब  लाइवज़ूम मीटिंग इत्यादि होता रहा। ख़ूब सारी लाइव कवि-गोष्ठी हुई। मेरे एक मित्र ने प्रतिदिन इंस्टाग्राम पर लाइव कार्यक्रम किया, जिसमें देश के बड़े-बड़े हस्ताक्षर जिनमें लेखककविसंगीतज्ञनर्तकलोक कलाकारफ़िल्मी कलाकारफ़िल्मी कार्य से संबद्ध मशहूर लोगसामजिक कार्यकर्ताकला मर्मज्ञ इत्यादि शामिल हुए। ओ.टी.टी पर ख़ूब फ़िल्में प्रसारित हुईं। हर दिन एक नए कार्यक्रम में हम सभी उपस्थित होकर जीवन की कठिनाइयों को पीछे छोड़कर जो है जितना हैउसमें मनोरंजन करने लगे।

 

कोरोना शुरू होने के बाद स्कूल-कॉलेज जो बंद हुए तो अब तक लगभग बंद हैं। यूँ ऑनलाइन पढ़ाई चल रही है अब तो बिना परीक्षा दिए ही बोर्ड का रिजल्ट भी निकालना पड़ा। बच्चों के लिए यह सब बहुत सुखद है। सुबह-सुबह स्कूल जाने से छुट्टी मिली। मनचाहा खाना खाने को मिला। पढ़ने के लिए कोई पूर्व निर्धारित समय नहीं। बस मस्ती-ही-मस्ती। कुछ बच्चों ने खाना पकाना सीखाकिसी ने बागवानीकोई चित्रकारी कर रहा है, तो कोई अपने किसी अधूरी चाहत को पूरी कर रहा है। घर के काम में बच्चे भी हिस्सा ले रहे हैक्योंकि बाहर से कार्य करने कोई नहीं आ सकता है। घर में सभी लोग आपस में गप्पे लड़ा रहे हैं या कोई खेल खेल रहे हैं। सभी साथ बैठकर सामयिक घटनाओं पर चर्चापरिचर्चा और विचारों का आदान- प्रदान कर रहे हैं। अब बच्चे-बड़े सभी ने इस न्यू नार्मल को आत्मसात् कर जीवन को एक नई दिशा देकर जीने की कोशिश शुरु कर दी है 

 

कोरोना के इस गम्भीर और अतार्किक समय में उचित और सटीक क्या हो, यह कोई नहीं बता सकता है। अनुमान, आकलन, अफ़वाहअसत्यअसंवेदनशीलताआरोप-प्रत्यारोप इत्यादि का चारों तरफ़ शोर है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कुछ ऐसा है, जो मन को ख़ुशी दे जाता है। जब से कोरोना शुरू हुआ है, तभी से स्कूल, कॉलेज, ऑफ़िस, दुकानबाज़ार इत्यादि सभी कुछ बंद है। पूरा परिवार जो कभी एक साथ बैठने को तरसते थाआज सब एकत्र होकर न सिर्फ़ खाना खाते है; बल्कि एक दूसरे के साथ मिल-बाँटकर घर का काम भी निपटा रहे हैं। समय के इस काल ने जैसे सम्बन्धों की डोर को मज़बूती से बाँध दिया हो। जिनसे दूरी हो गई थी, वे भी अभी एक दूसरे का हाल-समाचार फ़ोन से ले रहे हैं। बच्चे हों या बुज़ुर्ग तकनीक का प्रयोग करना सीख गए हैं। घर से ही कार्यालय का कार्य हो रहा है जिससे काफ़ी पैसे बच रहे हैं। कम में जीने की आदत अब लोगों में पड़नी शुरू हो गई है। लोग जीवन की सच्चाई से वाक़िफ हो चुके हैं कि जीवन का भरोसा नहींकब बिना बुलाए कोरोना आ टपके और अपनों से सदा के लिए जुदा कर दे।

 

कोरोना के कारण लॉकडाउन होने से पर्यावरण पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। आसमान इतना साफ़ और सुन्दर हो गया है कि सहज ही नज़रें आसमान को ताकने लगती हैं। आम दिनों में प्रदूषण के कारण साँस लेना मुश्किल होता जा रहा है। पशुओं का विचरनापक्षियों का कलरव सभी कुछ ओझल-सा होता जा रहा है। शहरीकरण के कारण पशु-पक्षी जो पालतू नहीं हैउनका जीवन ख़तरे में रहता हैक्योंकि उनके लिए कोई समुचित स्थान नहीं है, जहाँ वे रह सकें। कचरे में पड़े हानिकारक प्लास्टिक में बचा भोजन गाय-भैंस खाते हैऔर वही दूध घरों में इस्तेमाल होता है। कोरोना में जानवरों के खाने का भी प्रबंध किया गयाजो अपने आप में बहुत उचित और सराहनीय क़दम है। पक्षी पेड़ों पर बेहिचक ऊधम मचाये हुए है, क्योंकि उन्हें मानव का डर जो नहीं रहा। पेड़-पौधे जो प्रकृति की धरोहर हैं, ख़ूब चहक रहे हैं; क्योंकि न तो उन्हें कोई काट रहा है न फूलों को तोड़ रहा है। बाग़-बगीचे अपनी हरियाली के साथ लहलहा रहे हैं। चारों तरफ़ इतनी सुन्दर और स्वच्छ हवा है कि मन खिल गया है, जब तक कोरोना का भय याद न रहे। जंगलज़मीनआसमाननदीखेतबाग़-बगीचा सभी जैसे खुलकर साँसें ले पा रहे हों। कंक्रीट के जंगल में अब ताज़ी बयार बह रही हैप्रदूषण चिड़िया की भाँति फुर्र हो गया है। नदियाँ गीत गाती हैं और उसकी लहरें अठखेलियाँ करती हुईं अपने गंतव्य की तरफ़ बेरोक-टोक भागी जा रही हैं। किसी तरह का कोई प्रदूषण नहीं। चारों तरफ़ शान्ति व्याप्त है। आश्चर्यजनक यह भी है कि आम दिनों में लोग जितने बीमार होते हैं, उससे बहुत कम अब लोग बीमार हो रहे हैं। 

 

सूरज-चाँद ख़ूब खिल रहे हैं। यूँ वे पहले भी दमकते रहे हैपरन्तु अब साफ़ आसमान होने के कारण यों महसूस होता है, मानों वे बहुत नज़दीक हमारी मुट्ठी की पकड़ में आ गए हैं। हवा में ख़ूब ताज़गी है। बारिश में बहुत मस्ती है। नदियाँ इतनी साफ़ हो गईं हैं कि आसमान का नीलापन पानी में घुल गया सा प्रतीत हो रहा है। भोर में चिड़ियों की चहचहाहट, जो खोती चली जा रही थीअब गूँजने लगी है। न बाहर गाड़ियों का शोर हैन आदमी की भीड़ में अफरा-तफरी। न भागमभाग है, न चिल्ल-पों। बच्चे अब शिशु घर में नहीं जा रहेअपने माता-पिताभाई-बहन के साथ घर में हैं और घर के कामों को करना सीख रहे हैं। अपने-अपने स्तर पर सभी एक दूसरे की मदद कर रहे हैं और नया कुछ सीख रहे हैं। बुज़ुर्ग अब सोशल मीडिया का प्रयोग करने लगे हैं। अभी के इस कोरोना काल में एक तरफ़ जीवन आशंकाओं से त्रस्त है, तो दूसरी तरफ़ समय और जीवन के प्रति सोच का नज़रिया बदल गया है। जीवन को सकारात्मक होकर लोग देख रहे हैं। सच ही है, ''हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िन्दगीहर पल यहाँ जीभर जियोजो है समाँ कल हो न हो।''

 

एक मज़ेदार बात यह है कि लॉकडाउन खुलने के बाद लोग बाहर किसी बहुत परिचित को देखकर भी नहीं पहचान पाते हैं; क्योंकि मास्क है। अब आज का न्यू नार्मल यही है कि हम अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिए मास्क पहने रहें। मास्क की उपलब्धता के लिए इसका व्यवसाय बहुत तेज़ी से फ़ैल रहा है। एक-से-एक ख़ूबसूरत मास्करंग बिरंगे मास्कपरिधान से मैचिंग मास्कचित्रकारी और फूलकारी किये हुए मास्करबड़ व फीते वाले मास्कअलग-अलग आकार और आकृति वाले मास्क। आजकल परिधान से ज़्यादा नज़र मास्क पर ही है। बच्चे भी बिना ना-नुकुर किये मास्क पहन रहे हैं। बहुत से लोग सुरक्षा के ख़याल से मास्क के ऊपर से फेस शील्ड भी लगाते हैं। शुरू में तो यह सब बड़ा अटपटा लग रहा था; परन्तु अब इसकी आदत हो गई है, देखने की भी और लगाने की भी। परन्तु मास्क के अन्दर होंठों पर हँसी टिकी रहनी चाहिए। हमें ख़ुश रहना है कि हम ज़िन्दा हैं।  

 

हवाई यात्रा में बीच की सीट पर जिन्हें सीट मिलती है उन्हें मास्कफेस शील्ड के अलावे पी.पी.इ. किट पहनना होता है। यों लगता है जैसे अंतरिक्ष की उड़ान के लिए वे तैयार हुए हैं। लेकिन हवाई-यात्रा में जब भोजन का समय होता है, तो मास्क और फेस शील्ड हटाकर भोजन करते हैं और फिर वापस पहन लिए जातें हैं। मैं सोचती हूँ कि जितनी देर यात्री भोजन करते हैंक्या कोरोना बैठकर सोचता होगा कि भोजन करते समय संक्रमण नहीं फैलाना चाहिएइसलिए वह रुक जाता होगा! अन्यथा कोरोना को आने में देर ही कितनी लगती है और दो गज़ की दूरी पर तो कोई भी नहीं रहता है

 

एक बात जो मुझे शुरू से अचम्भित कर रही है कि कोरोना की पहली लहर में ग्रामीण क्षेत्र इससे प्रभावित नहीं हुआ। मुमकिन है उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक हो। इस बात पर सभी को विचार करना चाहिए कि पहली लहर में आख़िर इस संक्रमण से गाँव अछूता क्यों रहानगर और महानगर इससे ज़्यादा प्रभावित हुए। आश्चर्यजनक यह भी है कि एक ही घर में किसी को कोरोना हुआकिसी को नहीं। अब यह कोरोना ऐसा क्यों कर रहायह भी सोचने का विषय है। सारे तर्क फेल हो रहे हैं। बस जो हो रहा है, उसे देखते जाना हैसमय के साथ तालमेल बिठाकर चलना है। आँख बंद कर लेने से न समस्या दूर होती हैन मुट्ठी बंद कर लेने से समय हमारी पकड़ में ठहरा रहता है; इसलिए जितना ज़्यादा हो जीवन में संतुलन बनाकर जीभरकर जीना चाहिए। हमें जीवन में सार्थक बदलाव लाकर जितना ज़्यादा हो सके प्रकृति के साथ जीना चाहिए।   

 

कोरोना महामारी भले ही लाखों लोगों को लील रहा है; लेकिन बहुत बड़ी सीख भी दे रही है। जीवन क्षणभंगुर हैजितना हो सके समय का सदुपयोग करें और खुश रहें। सच तो यही है कि जीवन जीना भूल गए हैं। समय के हाथ की कठपुतली बन उसके इशारे पर बस जीते चले जा रहे हैं। न ख़ुशीन उमंग, न नयापन। बने बनाए ढर्रे पर ज़िन्दगी घिसट रही है। किसी के पास इतना भी समय नहीं है कि ज़रा-सा रुककर किसी का हाल पूछ लेंकिसी से बेमक़सद दो मीठे बोल बोल लेंबेवजह हँसे-नाचें-गाएँकुछ पल सुकून से प्रकृति के सानिध्य में चुपचाप बैठ जाएँप्रकृति की चित्रकारी को जीभरकर देखें, उससे बातें करेंपशु-पक्षी को अपनी तरह प्राणी समझकर उसे जीने दें। कोरोना महामारी ने हमें ज़रूरत और फ़िज़ूलप्राकृतिक और अप्राकृतिक, बुनियादी ज़रूरत और विलासितास्वाभाविक और कृत्रिम जीवन शैलीअपना-परायाप्रेम-द्वेष, इस सभी की अवधारणा को अच्छी तरह समझा दिया है। इस पाठ को हम सभी को याद रखना चाहिए और हमें अपने बचे हुए समय को ख़ुशी-ख़ुशी जीना चाहिए क्योंकि सच यही है ''कल हो न हो।''  

 

अगर कोरोना हो गया तो समुचित इलाज करवाएँ। अगर कोरोना से बचे हुए है,ं तो स्वयं में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का पूर्ण प्रयास करें। जीवन को जितना ज़्यादा हो सके प्रकृति के क़रीब लाएँशुद्ध शाकाहारी भोजन एवं नियमित जीवनशैली अपनाएँसाथ ही मन में सकारात्मक भाव रखें। अभी के इस त्रासद वक़्त में हम ज़िन्दा हैं और दो वक़्त का खाना नसीब है, तो समझना चाहिए कि हम क़िस्मतवाले हैं। भविष्य में क्या होगा कोई नहीं जानतापर जो समय हमारी मुट्ठी में है, उसे ख़ूब खुश होकर अपनों के साथ हँसते हुए बाँटें। एक गीत जो अक्सर मैं सुनती हूँ ''जो मिले उसमें काट लेंगे हम / थोड़ी खुशियाँ थोड़े आँसू, बाँट लेंगे हम''  सचमुच वक़्त यही है जब हम दूसरों का दुःख बाँटेंखुशियाँ बाँटेंहँसी बाँटेंसमय बाँटेंजीवन बाँटें। 

  

प्रकृति का रहस्य तो सदा समझ से परे हैपरन्तु कोरोना काल में समय ने 'समय की क़ीमतसबको समझा दी है। समय का सदुपयोग कर दुनिया कैसे सुन्दर बनाया और रखा जाए इस पर चिन्तनमनन और क्रियाशीलता आवश्यक है। हम ख़ुश रहें कि हम ज़िन्दा हैसाँसों से नहीं आत्मा से ज़िन्दा हैं।


-जेन्नी शबनम (4.8.21)

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Monday, August 25, 2025

127. वृद्धावस्था : अनुभव का पिटारा


मानव तथा मौसम का स्वभाव एक-सा होता है। कब, क्या, कैसे, कौन, कहाँ, क्यों परिवर्तित हो जाए, पता ही नहीं चलता। यों मानव-जीवन तथा मौसम प्रकृति के हिस्से हैं, जिनका परिवर्तन निश्चित व नियत समय पर होता है; परन्तु कई बार ऐसे अप्रत्याशित रूपांतरण होते हैं, जो न निर्धारित हैं न अपेक्षित। मौसम का पूर्वानुमान और ज्योतिष की भविष्यवाणी असत्य सिद्ध हो जाती है; परन्तु सभी की कामना होती है कि जीवन तथा मौसम सदैव उचित व अनुकूल रहे, जिससे जीवन कष्टपूर्ण एवं दुःखमय न बने।  


मानव-जीवन जन्म से मृत्यु तक की यात्रा है, जिसमें कई पड़ाव आते हैं। हर पड़ाव पर व्यक्ति से अपेक्षित कुशल-व्यवहार की आशा रहती है। जैसे बच्चों के लिए खाना, खेलना, पढ़ना, अनुशासन में रहना इत्यादि अपेक्षित हैं, वैसे ही वयस्क तथा वृद्ध के लिए कुछ आचरण व कार्य निश्चित होते हैं। वयस्क एवं प्रौढ़ धनोपार्जन-कार्य में लगे रहते हैं तथा वृद्ध अवकाश ग्रहण करने के बाद अपने घर व बच्चों के साथ समय व्यतीत करते हैं। वृद्ध व्यक्ति का जीवन अनुभवों से भरा होता है, अतः उन्हें उचित आदर-सम्मान देना चाहिए।  

संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशन) ने वृद्धजनों के सम्मान के लिए 14 दिसम्बर 1990 में वृद्ध दिवस मनाने की घोषणा की थी। 1 अक्टूबर 1991 के दिन पहली बार वृद्ध दिवस मनाया गया। अब हर वर्ष अक्टूबर की पहली तिथि को विश्व भर में 'अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस' मनाया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 जुलाई 2022 तक बुज़ुर्गों की आबादी 14.9 करोड़ थी। वर्ष 2036 तक बुज़ुर्गों की संख्या 22.7 करोड़ होने का अनुमान है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में पुरुषों का औसत जीवनकाल 70-75 वर्ष और स्त्रियों का 75-80 वर्ष है।  

सामान्यतः व्यक्ति जब प्रौढ़ रहता है तब जीवन के सभी आवश्यक कार्यों को पूर्ण करने की योजना बनाता है। बच्चों की शिक्षा व विवाह, उत्तम आवास, समुचित स्वास्थ्य-सुविधा, परिवार के जीवन स्तर को उन्नत करना, भविष्य के लिए कुछ धन एकत्रित करना इत्यादि के लिए हर व्यक्ति प्रयासरत रहता है। अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते-करते जब व्यक्ति उम्र के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचता है, तब समझ आता है कि उसने अपने जीवन को यूँ ही समाप्त कर दिया, कभी स्वयं के लिए जिया ही नहीं। यदि आर्थिक स्थिति सुदृढ़ है, तो वृद्धावस्था थोड़ी सरल व सहज होती है; परन्तु आर्थिक स्थिति अच्छी न हो तो वृद्धावस्था अत्यन्त दयनीय व कष्टप्रद हो जाती है, विशेषकर अस्वस्थ होने की अवस्था में।  

हर व्यक्ति चाहता है कि उसके बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करें। यह देखा गया है कि माता-पिता कठिन परिश्रम कर बच्चों को विदेश भेजने के लिए इच्छुक व तत्पर रहते हैं। जो बच्चे पढ़ने या नौकरी के लिए विदेश चले गए, उनके माता-पिता गौरवान्वित होते हैं; क्योंकि बच्चों की सफलता पर माता-पिता को स्वयं के सफल होने की अनुभूति होती है। ऐसे माता-पिता को समाज से भी सम्मान मिलता है। पर जब उनकी वृद्धावस्था आती है तब वे अकेलेपन का अनुभव करते हैं। जो बच्चे विदेश चले गए, उनमें से अधिकतर वापस नहीं लौटते हैं। कई बार देखा गया है कि वृद्ध माता-पिता की बीमारी या मृत्यु पर भी वे नहीं आ पाते। यह अत्यन्त दुःखद स्थिति है; परन्तु इसमें दोष किसी का नहीं। कई बार विदेश में कार्यरत बच्चे चाहकर भी नहीं आ पाते हैं; क्योंकि उनका कार्य या छुट्टी इसमें बाधा बनती है। कुछ बच्चे अपने माता-पिता को पैसे भेजकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। कुछ बच्चे अपने माता-पिता से मानसिक-जुड़ाव नहीं रखते, अतः वे चिन्ता भी नहीं करते कि माता-पिता को उनकी कितनी आवश्यकता है। कई घटनाएँ ऐसी देखी गईं हैं कि माता-पिता की मृत्यु पर बच्चे वीडियो कॉल द्वारा दाह-संस्कार का हिस्सा बने हैं। 

एक दुःखद घटना समाचारपत्र में छपी कि एक वृद्धा माँ सोफ़े पर बैठी द्वार की ओर देखती हुई छह माह से मृत पड़ी कंकाल बन गई थी। उस माँ के बच्चे विदेश में थे। निःसन्देह वे अपनी माँ के सम्पर्क में नहीं रहते होंगे, इसलिए उन्हें पता नहीं था कि उनकी माँ छह माह पहले मर चुकी है। सच! कुछ बच्चे कितने असंवेदनशील होते हैं! समाचारपत्र में आए दिन पढ़ने को मिलता है कि बच्चों ने वृद्ध माता-पिता को पीटा, खाने-खाने को तड़पाया, एक-एक पैसे के लिए तरसाया, अस्वस्थ होने पर देखभाल नहीं की, अत्यधिक अस्वस्थ होने पर महँगा उपचार नहीं करवाया। भाइयों के बीच कलह है कि माता-पिता को कौन रखे। बच्चों ने माता-पिता की सम्पत्ति अपने नाम करके उन्हें घर से निकाल दिया और उनसे कोई सम्पर्क न रखा। समाज में जगहँसाई के डर से माता-पिता को घर में रखा, पर इतनी मानसिक यंत्रणा दी कि वे साथ रहने के बदले मर जाना चाहते हैं। बच्चों ने वृद्ध माता-पिता से उकताकर सारे सम्बन्ध तोड़ लिए। बिना बताए रेलवे स्टेशन या मन्दिर या वृद्धाश्रम में वृद्ध माता-पिता को छोड़ दिया। वृद्ध को भूलने की बीमारी होने पर यदि वे घर से चले गए, तो उनके बच्चों ने कोई खोज-ख़बर नहीं ली। जीवन से तंग आकर किसी वृद्ध ने आत्महत्या कर ली आदि।

इसी समाज में कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिन्होंने बिना दिखावा, बिना अपेक्षा, बिना सम्पत्ति के लालच अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा की, बहुत आदर-सत्कार किया और उनका मानसिक सम्बल बने रहे। कई घरों में आज भी बच्चे अपने माता-पिता से सलाह लेकर कोई कार्य करते हैं, चाहे उम्र कितनी भी हो। हालाँकि ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है; परन्तु यह भी सच है।  

हर माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों की शिक्षा उत्तम एवं विवाह समृद्ध घर में हो तथा वे सदैव सुखी रहें। इसके लिए वे जीवन भर की पूँजी लगा देते हैं, चाहे आर्थिक स्थिति कितनी भी निम्न क्यों न हो। अपनी वृद्धावस्था की चिन्ता न कर बच्चों के सुख-सुविधा के लिए जीना भारतीय परम्परा है, जिसे हर व्यक्ति अपने सामर्थ्य से अधिक निभाता है। संतान अगर सुपात्र हो, तो वृद्धावस्था सुखद व्यतीत होता है। शारीरिक कष्ट कम या अधिक तो सभी को भोगना पड़ता है। लेकिन संतान स्वार्थी, अहंकारी, कृतघ्न, दुष्ट, निकम्मी, असभ्य, उदण्ड हो, तो वृद्धावस्था अत्यन्त कष्टकारी होता है। ऐसी संतान शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से कष्ट देती है और वृद्ध माता-पिता लाचार होकर सब सहने को विवश होते हैं।  

वृद्ध होना जीवन-क्रम का नियम है। परन्तु वृद्धावस्था की कठिनाइयाँ ऐसी हैं, जिसे सोचकर हर प्रौढ़ चिन्तित रहता है। माना जाता है कि स्वभाव से बाल्यावस्था और वृद्धावस्था एक समान हैं। व्यक्ति वृद्धावस्था में बच्चों-सा आचरण करने लगता है; परन्तु बाल्यावस्था और वृद्धावस्था में एक बहुत बड़ा अंतर है। बच्चे अगर हठ करें या कोई अनुचित माँग रखें तो माता-पिता उसे मनाते हैं और हठ पूरी भी करते हैं, वहीं अगर कोई वृद्ध हठ करे या कोई उचित माँग भी करे तो उनके बच्चे अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं।  

वृद्ध का मनोविज्ञान वृद्ध के अलावा कोई नहीं समझता है। हर वृद्ध की इच्छा होती है कि उनके बच्चे उनके साथ थोड़ा समय व्यतीत करें, उनके स्वास्थ्य की देखभाल करें, बच्चों के जीवन में क्या हो रहा है जानें, अपना सुख-दुःख और अनुभव बच्चों से बाँटें, बच्चों के बच्चे का पालन-पोषण करें, बच्चों के महत्त्वपूर्ण निर्णय में उनकी सहभागिता हो या कम-से-कम इसकी सूचना मिले इत्यादि। कुछ वृद्धों की यह इच्छा पूरी होती है, पर अधिकतर वृद्धों की इच्छाएँ उनके मन में ही दम तोड़ देती हैं। जिन बच्चों को उँगली पकड़कर चलना सिखाया, अक्षर-अक्षर पढ़ना सिखाया, रात-रातभर जागकर पालन-पोषण किया, हर समय उनकी छत्रछाया बनकर रहे, वे ही बच्चे अब कहते हैं कि तुमने क्या किया, हर माँ-बाप का जो कर्त्तव्य है वह तुमने किया, तो इसमें विशेष क्या किया? पालन-पोषण में अगर थोड़ी भी चूक हो गई हो, तो बच्चे दोषारोपण करते हैं बिना यह सोचे कि उनके माता-पिता तब युवा थे और सब कुछ धीरे-धीरे सीख रहे थे, कुछ त्रुटि तो हुई ही होगी। कोई भी मनुष्य पर्फेक्ट नहीं होता, तो माता-पिता से यह उम्मीद क्यों?  

वृद्धावस्था ज्ञान और अनुभव का पिटारा होता है, जिसे व्यक्ति समय-समय पर खोलता है और चाहता है कि अगली पीढ़ी उनसे सीख लें, ताकि उनका जीवन सुगम, सरल व सफल हो। नई पीढ़ी को यह लगता है कि पुरानी पीढ़ी नासमझ है, समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है जिसे वे जानते-समझते नहीं हैं, उनके पुराने ज्ञान या अनुभव का क्या लाभ। नई पीढ़ी उनकी बातों को अनसुना करती है या ''निरर्थक बातें मत करो'' कहकर चुप करा देती है। यह सही है कि बदलते समय के अनुसार नए तकनीक का ज्ञान अधिकतर वृद्धों को नहीं है; परन्तु जीवन का अनुभव उनके पास ख़ूब होता है, जिससे नई पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है।

नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में दूरी व टकराव का कारण जेनेरशन गैप, शिक्षा का स्तर, आर्थिक स्थिति, परम्परा, परिवेश, व्यवसाय, निर्भरता, तकनीक, नई खोज, जीवन जीने की नई पद्धति, रहन-सहन, परिधान, दिखावा, दिनचर्या, लालच, बुद्धिमता, सोच-विचार, भावनात्मक दूरी, संवेदनशीलता, संवेदनहीनता, बीमारी, लम्बी बीमारी, शारीरिक अक्षमता, बच्चों-सा व्यवहार, संयुक्त परिवार, एकल परिवार, बहुमंज़िला फ्लैट, खान-पान, भोज और पार्टी, मद्यपान, धूमपान, अनुशासन इत्यादि है। इस दूरी को पाटकर और वृद्धों के अनुभव से सीख लेकर अगर नई पीढ़ी कार्य करती है, तो निःसन्देह उनका जीवन सरल-सुगम होगा।  

अधिकतर वृद्ध वृद्धावस्था को शाप सममझते हैं; क्योंकि शारीरिक और आर्थिक निर्भरता उन्हें लाचार बना देती है, जिससे उन्हें आत्मग्लानि होती है। वृद्धजनों की समस्याएँ इतनी अधिक हैं कि उनके अपने उन्हें सम्मान देना तो दूर, नाता तक तोड़ लेते हैं। ऐसे में उपेक्षित वृद्ध अपना शेष जीवन कैसे व्यतीत करें, यह उनके जीवन का बहुत बड़ा प्रश्न बन जाता है। छोटे बच्चों का पालना-पोषण करना जितना ही आनन्ददायक होता है, वृद्ध की देखभाल करना उतना ही अधिक कष्टदायक होता है। बच्चों के नियत समय पर बड़े होने और निर्भरता समाप्त होने का पता होता है; लेकन वृद्ध की अस्वस्थता एवं शारीरिक निर्भरता के समाप्त होने का कोई नियत समय नहीं है। 

एक अवस्था के बाद पूर्णतः स्वस्थ रहना किसी भी वृद्ध के लिए सम्भव नहीं होता है। इसलिए कितनी भी अच्छी संतान हो, एक समय के बाद वह थक व ऊब जाती है। अक्सर वृद्ध अपनी असहाय अवस्था पर शोक मनाते हैं और अपने जीवन की समाप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। ऐसे में संतान को चाहिए कि थोड़ा समय ही सही अपने बुज़ुर्गों के साथ बिताएँ, ताकि उनका मनोबल गिरे नहीं, मानसिक सम्बल मिले और उन्हें यह अनुभूति हो कि उनके बच्चे साथ हैं।  

परन्तु ऐसा भी नहीं है कि वृद्धावस्था में आपसी कटुता का सारा दोष बच्चों का ही है। वृद्ध होने पर भी माता-पिता द्वारा घर में अपना वर्चस्व बनाए रखना, बच्चों पर अत्यधिक अनुशासन करना, बच्चों के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप करना, तनिक भी असुविधा होने पर बच्चों पर दोषारोपण करना, बच्चों की आर्थिक स्थिति से भिज्ञ रहकर भी अनावश्यक व्यय करना, बच्चों द्वारा कुछ अच्छा समझाने पर अपमान का अनुभव करना, बिना बात घर में कलह करना, बच्चों के बच्चों पर अपना अधिकार समझना, बच्चों के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करना, बच्चों की असुविधा का ध्यान न रखना, वृद्धावस्था को स्वीकार न करना, नई पीढ़ी के साथ सामंजस्य न बिठाना इत्यादि कारण हैं, जिससे बच्चों के साथ सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं।  

अतः वृद्धावस्था में किसी भी रूप में अपनी संतान पर बोझ बनना सबसे बड़ा अपराध है, इसे हर व्यक्ति को समझकर व मानकर चलना चाहिए। भावनात्मक एवं मानसिक निर्भरता तो उचित है, परन्तु शारीरिक और आर्थिक रूप से निर्भर न बनना ही श्रेयस्कर है। हालाँकि यह सभी के लिए संभव नहीं है, परन्तु चेष्टा अवश्य करनी चाहिए। वृद्ध स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक योग-अभ्यास, नियमित व संयमित दिनचर्या का पालन करें। अस्वस्थ होने पर तुरन्त चिकित्सा करवाएँ ताकि कोई भी बीमारी बढ़े नहीं। अनावश्यक रूप से बच्चों के मामले में हस्तक्षेप न करें। जितना सम्भव हो आत्मनिर्भर रहें। सभी बच्चों को समान रूप से प्यार करें तथा उनमें आपसी मनमुटाव या दुराव की भावना न भरें। स्वयं को हमेशा व्यस्त रखें और सदैव सकारात्मक सोचें।

-जेन्नी शबनम (30.8.2024)
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Thursday, June 5, 2025

126. युगीन आवश्यकता की परिणति : सन्नाटे के ख़त -दयानन्द जायसवाल

दयानन्द जायसवाल जी और मैं (भागलपुर)
'सन्नाटे के ख़त' डॉ. जेन्नी शबनम (सर्वप्रिय विहार, नई दिल्ली) का अयन प्रकाशन से प्रकाशित यह काव्य-संग्रह युगीन आवश्यकता की परिणति है। इनकी काव्य-सृजन-पीठिका को जितना अधिक खँगाला जाएगा उतना इनकी अनबुझी समस्याएँ पारदर्शी होती चली जाएँगी। इनके साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण ही उन तमाम परिस्थितियों की देन लगती है, जिनमें परम्पराएँ चरमरा रही हैं। नई-नई आख्याएँ जाग रही हैं। समता, स्नेह, सम्मान की सर्जना के लिए सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों के बदलते परिवेश की नई-नई समस्याओं के नए-नए सन्दर्भ कवयित्री के सामने हैं, तो ऐसे में भावना का बाँध टूटना ही था। अतः कथ्य के साथ-साथ कथ्य के अनुकूल नए-नए व्यंजना के आयाम भी अभिव्यंजित हैं।

सारस्वत साधना में सतत-रत रहनेवाली उत्कृष्ट साहित्य सृजन कर बहुमूल्य कृतियों से साहित्य-समृद्ध करनेवाली सम्मानित रचनाकारों में प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम की अनेक रचनाएँ देश-विदेश की पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं अनेक साझा-संग्रह में कविता, हाइकु, हाइगा, ताँका, चौका, सेदोका, माहिया, लघुकथा, लेख आदि के अतिरिक्त इनकी मौलिक पुस्तकें 'लम्हों का सफर', 'प्रवासी मन', 'मरजीना', 'नवधा', 'झाँकती खिड़की' के अलावा 'सन्नाटे के ख़त' भी हैं, जिनमें आम जीवन की संवेदना, त्रासद, संकट, सुख-दुःख, बिछुड़न-मिलन आदि विचारों के झंझावात हैं।

साहित्य में जब भी हम जीवन की साधना, अनुभूतियों और मानवीय संवेदनाओं को शब्दों के माध्यम से उकेरने की बात करते हैं, तब काव्य की भूमि सबसे उपजाऊ प्रतीत होती है। ऐसा ही एक सशक्त उदाहरण डॉ. जेन्नी शबनम द्वारा रचित काव्य-संग्रह 'सन्नाटे के ख़त' जो न केवल भावनाओं का दस्तावेज़ है; बल्कि जीवन के विविध रंगों को समेटे एक संवेदनशील यात्रा भी है। 105 कविताओं से सुसज्जित यह संग्रह पाठक को आत्ममंथन, आत्मविश्लेषण और आत्मानुभूति की उस यात्रा पर ले चलता है, जहाँ हर कविता एक दर्पण की तरह सामने खड़ी हो जाती है। संग्रह की कविताएँ केवल शब्दों का संयोजन नहीं है; बल्कि एक एहसास है जो पाठकों के अंतर्मन तक उतर जाता है। कविताएँ न तो जटिल हैं और न ही बनावटी; वे सीधे मन को छूनेवाली हैं। यह संग्रह उन लोगों के लिए एक उपहार है, जो कविता को केवल पढ़ना नहीं; जीना चाहते हैं। इसी संग्रह की एक कविता 'देव' है-
"देव! देव! देव!
तुम कहाँ हो, क्यों चले गए?
एक क्षण को न ठिठके तुम्हारे पाँव
अबोध शिशु पर क्या ममत्व न उमड़ा
क्या इतनी भी सुध नहीं, कैसे रहेगी ये अपूर्ण नारी
कैसे जिएगी, कैसे सहन करेगी संताप
अपनी व्यथा किससे कहेगी
शिशु जब जागेगा, उसके प्रश्नों का क्या उत्तर देगी
वह तो फिर भी बहल जाएगा
अपने निर्जीव खिलौनों में रम जाएगा। 
बताओ न देव!
क्या कमी थी मुझमें
किस धर्म का पालन न किया
स्त्री का हर धर्म निभाया
तुम्हारे वंश को भी बढ़ाया
फिर क्यों देव, यों छोड़ गए
अपनी व्यथा, अपनी पीड़ा किससे कहूँ देव?
बीती हर रात्रि की याद, क्या नाग-सी न डसेगी
जब तुम बिन ये अभागिन तड़पेगी? ..."

वर्तमान समय की व्यवहारिक सच्चाइयों से मुठभेड़ करती कविताओं में शहरी जीवन की कृत्रिमता और गाँवों की आत्मीयता के बीच की खाई बड़े ही मार्मिक अंदाज में 'लौट चलते हैं अपने गाँव' नामक कविता में उकेरा गया है। यह कविता बताती है कि शहरी आधुनिकता की चकाचौंध में भी सूनापन है; लेकिन अपनापन तो गाँव की मिट्टी में ही साँस लेता है-
"मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से। 
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव
अपने घर चलते हैं
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते ही हर घर उठ जाता है
चटाई बीनती हुक्का गुड़गुड़ाती
बुढ़िया दादी धूप सेंकती है
गाती बाँधे नन्हकी स्लेट पर पेन्सिल घिसती है। ..."

एक रचनाकार जन-जीवन से संघर्ष करते-करते जब थक जाता है, हार जाता है, तब इस हार के अंतर शब्द ही उसके साँस बन जाते हैं और तब जैसे जीवनानुभूति के नए पर निकल आते हैं और उसके बाद ही जैसे छलाँग लगाते हैं- जीवन से सृष्टि, सृष्टि से ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड में स्व के अस्तित्व की अनुभूति करता है। ऐसी अवस्था में कवयित्री शबनम सबसे ज्यादा भावुक होती हैं और उस भाव चेतना के लिए स्थापित सिद्धांतों का उतना महत्त्व नहीं देतीं, जितना मानवीय निश्छलता का। जीवन संघर्ष उसकी भावुकता को जितना सघन और पैना बनाते हैं उतनी ही प्रबलता से हृदय द्रवित होता है और व्यंजना के संकेत स्वयं अपने अनुरूप शब्द शिल्प लेकर 'अपनों का अजनबी बनना' ऐसी कविता को जन्म देते हैं-
"समीप की दो समानान्तर राहें
कहीं-न-कहीं किसी मोड़ पर मिल जाती हैं
दो अजनबी साथ हों
तो कभी-न-कभी अपने बन जाते हैं। 
जब दो राह
दो अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े फिर?
दो अपने साथ रहकर अजनबी बन जाएँ फिर?
सम्भावनाओं को नष्ट कर नहीं मिलती कोई राह
कठिन नहीं होता, अजनबी का अपना बनना
कठिन होता है, अपनों का अजनबी बनना।  
एक घर में दो अजनबी
नहीं होती महज़ एक पल की घटना
पलभर में अजनबी अपना बन जाता है
लेकिन अपनों का अजनबी बनना, धीमे-धीमे होता है। 
व्यथा की छोटी-छोटी कहानी होती है
पल-पल में दूरी बढ़ती है
बेगानापन पनपता है
फ़िक्र मिट जाती है
कोई चाहत नहीं ठहरती है। 
असम्भव हो जाता है
ऐसे अजनबी को अपना मानना।"

कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का यह संग्रह 'सन्नाटे के ख़त' शिवत्व की चाहत में अपने ही भीतर एक द्वंद्वात्मक सम्बन्ध जी रहे हैं। शरीर एक बोझ तब लगने लगता है जब आत्मा अपनी अस्मिता के लिए घुटन महसूस करने लगे। यह तथ्य मैं जीवन की पथरीली पगडण्डी पर नंगे पाँव चलने वाले कवयित्री की काल्पनिक राही के सन्दर्भ में कह रहा हूँ, जिसको बार-बार अपनी पहचान के लिए अग्नि परीक्षा से गुज़रना पड़ता है। यदि उसे अपनी आत्मशक्ति और अपने संयम के प्रति अगाध आस्था न होती, तो विजय-यात्रा के अपने पड़ावों पर शब्द आतिथ्य उसके लिए बोझ के अतिरिक्त कुछ न होता। एक तरफ़ 'सन्नाटे के ख़त' में पाए जाने वाले भावनात्मक आक्रोश की प्रबलता का भार है, तो दूसरी तरफ यथार्थग्राही काव्य की चिन्ता, उसके बाद कविता के विशिष्ट हो पाने की दमतोड़ मेहनत। इन शक्तियों की क़दमताल में कवयित्री संयमित-अर्जित निखार से कभी खुलकर हँस नहीं पायी। वह सामाजिक चुनौतियाँ तथा जीवन के कटु क्षणों के ख़त के सन्नाटे का सामना करने में सशक्त- अशक्त होती रही है। कभी अभिजात की ज़ेब से उछलकर फ़कीर की झोली में गिरती है, तो कभी प्रकृति सम्पदा से आसक्त मानवीयकृत होती है और कभी नगर-बोध तो कभी ग्राम-बोध आदि से झूलती हुई नजर आती है। कहने का अभिप्राय है कि ख़त हमेशा अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने को भाषाशैली की बाजारों में दूर-दूर भटकता रहा। सन्नाटे के नाम चुप्पी से भरा ख़त पाकर कवयित्री का दार्शनिक मन बार-बार उनके फंदे से फिसलकर लहूलुहान होता हुआ अपनी सर्जनात्मक ज़मीन को और उर्वर-उपजाऊ बनाने का संकल्प दोहराता रहा इस 'अनुबन्ध' कविता के रूप में-
"एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच
कभी साथ-साथ फलित न होना
एक अनुबन्ध है स्वप्न और यथार्थ के बीच
कभी सम्पूर्ण सत्य न होना
एक अनुबन्ध है धरा और गगन के बीच
कभी किसी बिन्दु पर साथ न होना
एक अनुबन्ध है आकांक्षा और जीवन के बीच
कभी सम्पूर्ण प्राप्य न होना
एक अनुबन्ध है मेरे मैं और मेरे बीच
कभी एकात्म न होना।"

कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का अनुभूति-पक्ष जितना सबल है, उसका शिल्प-पक्ष उतना ही सुंदर है। शब्द-योजना, बिम्ब-योजना आदि शिल्प-सौंदर्य कविता को मूल्यवान बनाते हैं। सफलता हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं।
कवयित्री का संपर्क सूत्र- 9810743437

-दयानन्द जायसवाल 
संस्थापक सह प्रधान सम्पादक, सुसंभाव्य पत्रिका 
भागलपुर 
तिथि- 20.5.2025
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Sunday, May 25, 2025

125. सन्नाटे के ख़तों की आवाज़ -भीकम सिंह

मेरी छठी पुस्तक 'सन्नाटे के ख़त' की समीक्षा प्रो. डॉ. भीकम सिंह जी ने की है। प्रस्तुत है उनकी लिखी समीक्षा: 


सन्नाटे के ख़तों की आवाज़

लम्हों का सफ़रनवधाझाँकती खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) और मरजीना (क्षणिका-संग्रह) को जोड़कर डॉ. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य-संग्रह (सन्नाटे के ख़त) आया है। व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के ख़तों से गुज़रते हुए अचरज से भर जाते हैं; क्योंकि इन ख़तों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फैंटेसी अनेक भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ। यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती है। 

प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबन्ध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज़ हैजिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-

एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच

कभी साथ-साथ घटित न होना

एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)

जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज़्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-

बेवक़्त खिंचा आता था मन

बेसबब खिल उठता था पल

हर वक़्त हवाओं में तैरते थे

एहसास जो मन में मचलते थे। 

अब इन्तिजार है (पृष्ठ संख्या 29)

जो यह होने को एक निजी इन्तिज़ार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिज़ार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आए बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं। उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ घायल हैं; इसलिए ख़ुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिकसामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती हैं उस तरफ़ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-

जाने कैसी हवा चल रही है

न ठण्डक देती हैन साँसें देती है

बदन को छूती है

तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है

अब हवा बदल गई है। (पृष्ठ संख्या 52)

अपने गाँव से जुड़नाअपनी जड़ों से जुड़नाअपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-

मन उचट गया है शहर के सूनेपन से

अब डर लगने लगा है

भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से। 

चलो लौट चलते हैं अपने गाँव (पृष्ठ संख्या 58)

अपना गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मज़दूर के लिए एक अदद रोटी-

सुबह से रातरोज सबको परोसता

गोल-गोलप्यारी-प्यारीनरम-मुलायम रोटी

मिल जातीकाश!

उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)

भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका हैजैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितान्त पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्य हो जाती है-

अब दो पात्र मुझमें बस गए

एक तन में जीताएक मन में बसता

दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)

और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार की समर्थक होती चली जाती हैं-

इन सभी को देखता वक़्तठठाकर हँसता है

बदलता नहीं कानून

किसी के सपनों की ताबीर के लिए

कोई संशोधन नहीं

बस सज़ा मिलती है

इनाम का कोई प्रावधान नहीं

कुछ नहीं कर सकते तुम

या तो जंग करो या पलायन

सभी मेरे अधीनबस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)

और फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी ज़िन्दगी का वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है। फैंटेसी की कोई नीति नहींकोई दायरा नहीं, यह भावनाओं का आखेट हैजो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-

एक कैनवास कोरा-सा

जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग

पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे

रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)

और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैंफिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-

मन चाहता

भूले-भटके

मेरे लिए तोहफ़ा लिए 

काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)

जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि इसकी हिमायती हो जाती है और मगज़ के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा है रूठा हुआ।

इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझनेउसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने-समझाने में हैजो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पॉइंट है और पाठकों के लिए ज़रूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गम्भीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-

नीयत और नियति समझ से परे है

एक झटके में सब बदल देती है

जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)

जेन्नी शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को किस तरह कहा जा सकता है-

‘क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर

अपने वजूद में शामिलकर

जाने कितना इतराया करती थी

कितने सपनों को गुनती रहती थी

अब यह सब बीते जीवन का क़िस्सा लगता है। 

हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)

जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता हैयहाँ सयानापन कतई नहीं हैअति सूधौ सनेह को मारग है' घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरज़ोर कोशिश करतीअनुभूतियों के सफ़र में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, ज़िन्दादिली की सूचक है। ''अपनी पीर छुपाकर जीनामीठा कहकर आँसू पीना'' पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनेंजिन्हें जेन्नी शबनम ने सपनों में बचाए रखा है। शायद अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की ‘सबसे ख़तरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम सपनों को ज़िन्दा रखती है और उम्मीद करती है-

शायद मिल जाए वापस

जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)

काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-

प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक

बदन के घेरों में

या मन के फेरों में?

सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है

या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)

अलगनी’ उस वातावरण के बारे में हैजो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं। 

सन्नाटे के ख़त (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैंभाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है हीइसका सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार-बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन ख़तों को पढ़कर अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन ख़तों की आवाज़ साहित्यिक जगत् में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।

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सन्नाटे के ख़तडा. जेन्नी शबनमप्रथम संस्करण- 2024, मूल्य- 425 रुपयेपृष्ठ- 150

प्रकाशकः अयन प्रकाशकजे-19/139, राजापुरीउत्तम नगरनई दिल्ली- 110059


-भीकम सिंह 

दादरी, गौतमबुद्ध नगर 

तिथि- 16.5.2025 

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- जेन्नी शबनम (25.5.2025)

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