Monday, August 25, 2025

127. वृद्धावस्था : अनुभव का पिटारा


मानव तथा मौसम का स्वभाव एक-सा होता है। कब, क्या, कैसे, कौन, कहाँ, क्यों परिवर्तित हो जाए, पता ही नहीं चलता। यों मानव-जीवन तथा मौसम प्रकृति के हिस्से हैं, जिनका परिवर्तन निश्चित व नियत समय पर होता है; परन्तु कई बार ऐसे अप्रत्याशित रूपांतरण होते हैं, जो न निर्धारित हैं न अपेक्षित। मौसम का पूर्वानुमान और ज्योतिष की भविष्यवाणी असत्य सिद्ध हो जाती है; परन्तु सभी की कामना होती है कि जीवन तथा मौसम सदैव उचित व अनुकूल रहे, जिससे जीवन कष्टपूर्ण एवं दुःखमय न बने।  


मानव-जीवन जन्म से मृत्यु तक की यात्रा है, जिसमें कई पड़ाव आते हैं। हर पड़ाव पर व्यक्ति से अपेक्षित कुशल-व्यवहार की आशा रहती है। जैसे बच्चों के लिए खाना, खेलना, पढ़ना, अनुशासन में रहना इत्यादि अपेक्षित हैं, वैसे ही वयस्क तथा वृद्ध के लिए कुछ आचरण व कार्य निश्चित होते हैं। वयस्क एवं प्रौढ़ धनोपार्जन-कार्य में लगे रहते हैं तथा वृद्ध अवकाश ग्रहण करने के बाद अपने घर व बच्चों के साथ समय व्यतीत करते हैं। वृद्ध व्यक्ति का जीवन अनुभवों से भरा होता है, अतः उन्हें उचित आदर-सम्मान देना चाहिए।  

संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशन) ने वृद्धजनों के सम्मान के लिए 14 दिसम्बर 1990 में वृद्ध दिवस मनाने की घोषणा की थी। 1 अक्टूबर 1991 के दिन पहली बार वृद्ध दिवस मनाया गया। अब हर वर्ष अक्टूबर की पहली तिथि को विश्व भर में 'अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस' मनाया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 जुलाई 2022 तक बुज़ुर्गों की आबादी 14.9 करोड़ थी। वर्ष 2036 तक बुज़ुर्गों की संख्या 22.7 करोड़ होने का अनुमान है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में पुरुषों का औसत जीवनकाल 70-75 वर्ष और स्त्रियों का 75-80 वर्ष है।  

सामान्यतः व्यक्ति जब प्रौढ़ रहता है तब जीवन के सभी आवश्यक कार्यों को पूर्ण करने की योजना बनाता है। बच्चों की शिक्षा व विवाह, उत्तम आवास, समुचित स्वास्थ्य-सुविधा, परिवार के जीवन स्तर को उन्नत करना, भविष्य के लिए कुछ धन एकत्रित करना इत्यादि के लिए हर व्यक्ति प्रयासरत रहता है। अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते-करते जब व्यक्ति उम्र के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचता है, तब समझ आता है कि उसने अपने जीवन को यूँ ही समाप्त कर दिया, कभी स्वयं के लिए जिया ही नहीं। यदि आर्थिक स्थिति सुदृढ़ है, तो वृद्धावस्था थोड़ी सरल व सहज होती है; परन्तु आर्थिक स्थिति अच्छी न हो तो वृद्धावस्था अत्यन्त दयनीय व कष्टप्रद हो जाती है, विशेषकर अस्वस्थ होने की अवस्था में।  

हर व्यक्ति चाहता है कि उसके बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करें। यह देखा गया है कि माता-पिता कठिन परिश्रम कर बच्चों को विदेश भेजने के लिए इच्छुक व तत्पर रहते हैं। जो बच्चे पढ़ने या नौकरी के लिए विदेश चले गए, उनके माता-पिता गौरवान्वित होते हैं; क्योंकि बच्चों की सफलता पर माता-पिता को स्वयं के सफल होने की अनुभूति होती है। ऐसे माता-पिता को समाज से भी सम्मान मिलता है। पर जब उनकी वृद्धावस्था आती है तब वे अकेलेपन का अनुभव करते हैं। जो बच्चे विदेश चले गए, उनमें से अधिकतर वापस नहीं लौटते हैं। कई बार देखा गया है कि वृद्ध माता-पिता की बीमारी या मृत्यु पर भी वे नहीं आ पाते। यह अत्यन्त दुःखद स्थिति है; परन्तु इसमें दोष किसी का नहीं। कई बार विदेश में कार्यरत बच्चे चाहकर भी नहीं आ पाते हैं; क्योंकि उनका कार्य या छुट्टी इसमें बाधा बनती है। कुछ बच्चे अपने माता-पिता को पैसे भेजकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। कुछ बच्चे अपने माता-पिता से मानसिक-जुड़ाव नहीं रखते, अतः वे चिन्ता भी नहीं करते कि माता-पिता को उनकी कितनी आवश्यकता है। कई घटनाएँ ऐसी देखी गईं हैं कि माता-पिता की मृत्यु पर बच्चे वीडियो कॉल द्वारा दाह-संस्कार का हिस्सा बने हैं। 

एक दुःखद घटना समाचारपत्र में छपी कि एक वृद्धा माँ सोफ़े पर बैठी द्वार की ओर देखती हुई छह माह से मृत पड़ी कंकाल बन गई थी। उस माँ के बच्चे विदेश में थे। निःसन्देह वे अपनी माँ के सम्पर्क में नहीं रहते होंगे, इसलिए उन्हें पता नहीं था कि उनकी माँ छह माह पहले मर चुकी है। सच! कुछ बच्चे कितने असंवेदनशील होते हैं! समाचारपत्र में आए दिन पढ़ने को मिलता है कि बच्चों ने वृद्ध माता-पिता को पीटा, खाने-खाने को तड़पाया, एक-एक पैसे के लिए तरसाया, अस्वस्थ होने पर देखभाल नहीं की, अत्यधिक अस्वस्थ होने पर महँगा उपचार नहीं करवाया। भाइयों के बीच कलह है कि माता-पिता को कौन रखे। बच्चों ने माता-पिता की सम्पत्ति अपने नाम करके उन्हें घर से निकाल दिया और उनसे कोई सम्पर्क न रखा। समाज में जगहँसाई के डर से माता-पिता को घर में रखा, पर इतनी मानसिक यंत्रणा दी कि वे साथ रहने के बदले मर जाना चाहते हैं। बच्चों ने वृद्ध माता-पिता से उकताकर सारे सम्बन्ध तोड़ लिए। बिना बताए रेलवे स्टेशन या मन्दिर या वृद्धाश्रम में वृद्ध माता-पिता को छोड़ दिया। वृद्ध को भूलने की बीमारी होने पर यदि वे घर से चले गए, तो उनके बच्चों ने कोई खोज-ख़बर नहीं ली। जीवन से तंग आकर किसी वृद्ध ने आत्महत्या कर ली आदि।

इसी समाज में कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिन्होंने बिना दिखावा, बिना अपेक्षा, बिना सम्पत्ति के लालच अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा की, बहुत आदर-सत्कार किया और उनका मानसिक सम्बल बने रहे। कई घरों में आज भी बच्चे अपने माता-पिता से सलाह लेकर कोई कार्य करते हैं, चाहे उम्र कितनी भी हो। हालाँकि ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है; परन्तु यह भी सच है।  

हर माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों की शिक्षा उत्तम एवं विवाह समृद्ध घर में हो तथा वे सदैव सुखी रहें। इसके लिए वे जीवन भर की पूँजी लगा देते हैं, चाहे आर्थिक स्थिति कितनी भी निम्न क्यों न हो। अपनी वृद्धावस्था की चिन्ता न कर बच्चों के सुख-सुविधा के लिए जीना भारतीय परम्परा है, जिसे हर व्यक्ति अपने सामर्थ्य से अधिक निभाता है। संतान अगर सुपात्र हो, तो वृद्धावस्था सुखद व्यतीत होता है। शारीरिक कष्ट कम या अधिक तो सभी को भोगना पड़ता है। लेकिन संतान स्वार्थी, अहंकारी, कृतघ्न, दुष्ट, निकम्मी, असभ्य, उदण्ड हो, तो वृद्धावस्था अत्यन्त कष्टकारी होता है। ऐसी संतान शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से कष्ट देती है और वृद्ध माता-पिता लाचार होकर सब सहने को विवश होते हैं।  

वृद्ध होना जीवन-क्रम का नियम है। परन्तु वृद्धावस्था की कठिनाइयाँ ऐसी हैं, जिसे सोचकर हर प्रौढ़ चिन्तित रहता है। माना जाता है कि स्वभाव से बाल्यावस्था और वृद्धावस्था एक समान हैं। व्यक्ति वृद्धावस्था में बच्चों-सा आचरण करने लगता है; परन्तु बाल्यावस्था और वृद्धावस्था में एक बहुत बड़ा अंतर है। बच्चे अगर हठ करें या कोई अनुचित माँग रखें तो माता-पिता उसे मनाते हैं और हठ पूरी भी करते हैं, वहीं अगर कोई वृद्ध हठ करे या कोई उचित माँग भी करे तो उनके बच्चे अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं।  

वृद्ध का मनोविज्ञान वृद्ध के अलावा कोई नहीं समझता है। हर वृद्ध की इच्छा होती है कि उनके बच्चे उनके साथ थोड़ा समय व्यतीत करें, उनके स्वास्थ्य की देखभाल करें, बच्चों के जीवन में क्या हो रहा है जानें, अपना सुख-दुःख और अनुभव बच्चों से बाँटें, बच्चों के बच्चे का पालन-पोषण करें, बच्चों के महत्त्वपूर्ण निर्णय में उनकी सहभागिता हो या कम-से-कम इसकी सूचना मिले इत्यादि। कुछ वृद्धों की यह इच्छा पूरी होती है, पर अधिकतर वृद्धों की इच्छाएँ उनके मन में ही दम तोड़ देती हैं। जिन बच्चों को उँगली पकड़कर चलना सिखाया, अक्षर-अक्षर पढ़ना सिखाया, रात-रातभर जागकर पालन-पोषण किया, हर समय उनकी छत्रछाया बनकर रहे, वे ही बच्चे अब कहते हैं कि तुमने क्या किया, हर माँ-बाप का जो कर्त्तव्य है वह तुमने किया, तो इसमें विशेष क्या किया? पालन-पोषण में अगर थोड़ी भी चूक हो गई हो, तो बच्चे दोषारोपण करते हैं बिना यह सोचे कि उनके माता-पिता तब युवा थे और सब कुछ धीरे-धीरे सीख रहे थे, कुछ त्रुटि तो हुई ही होगी। कोई भी मनुष्य पर्फेक्ट नहीं होता, तो माता-पिता से यह उम्मीद क्यों?  

वृद्धावस्था ज्ञान और अनुभव का पिटारा होता है, जिसे व्यक्ति समय-समय पर खोलता है और चाहता है कि अगली पीढ़ी उनसे सीख लें, ताकि उनका जीवन सुगम, सरल व सफल हो। नई पीढ़ी को यह लगता है कि पुरानी पीढ़ी नासमझ है, समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है जिसे वे जानते-समझते नहीं हैं, उनके पुराने ज्ञान या अनुभव का क्या लाभ। नई पीढ़ी उनकी बातों को अनसुना करती है या ''निरर्थक बातें मत करो'' कहकर चुप करा देती है। यह सही है कि बदलते समय के अनुसार नए तकनीक का ज्ञान अधिकतर वृद्धों को नहीं है; परन्तु जीवन का अनुभव उनके पास ख़ूब होता है, जिससे नई पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है।

नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में दूरी व टकराव का कारण जेनेरशन गैप, शिक्षा का स्तर, आर्थिक स्थिति, परम्परा, परिवेश, व्यवसाय, निर्भरता, तकनीक, नई खोज, जीवन जीने की नई पद्धति, रहन-सहन, परिधान, दिखावा, दिनचर्या, लालच, बुद्धिमता, सोच-विचार, भावनात्मक दूरी, संवेदनशीलता, संवेदनहीनता, बीमारी, लम्बी बीमारी, शारीरिक अक्षमता, बच्चों-सा व्यवहार, संयुक्त परिवार, एकल परिवार, बहुमंज़िला फ्लैट, खान-पान, भोज और पार्टी, मद्यपान, धूमपान, अनुशासन इत्यादि है। इस दूरी को पाटकर और वृद्धों के अनुभव से सीख लेकर अगर नई पीढ़ी कार्य करती है, तो निःसन्देह उनका जीवन सरल-सुगम होगा।  

अधिकतर वृद्ध वृद्धावस्था को शाप सममझते हैं; क्योंकि शारीरिक और आर्थिक निर्भरता उन्हें लाचार बना देती है, जिससे उन्हें आत्मग्लानि होती है। वृद्धजनों की समस्याएँ इतनी अधिक हैं कि उनके अपने उन्हें सम्मान देना तो दूर, नाता तक तोड़ लेते हैं। ऐसे में उपेक्षित वृद्ध अपना शेष जीवन कैसे व्यतीत करें, यह उनके जीवन का बहुत बड़ा प्रश्न बन जाता है। छोटे बच्चों का पालना-पोषण करना जितना ही आनन्ददायक होता है, वृद्ध की देखभाल करना उतना ही अधिक कष्टदायक होता है। बच्चों के नियत समय पर बड़े होने और निर्भरता समाप्त होने का पता होता है; लेकन वृद्ध की अस्वस्थता एवं शारीरिक निर्भरता के समाप्त होने का कोई नियत समय नहीं है। 

एक अवस्था के बाद पूर्णतः स्वस्थ रहना किसी भी वृद्ध के लिए सम्भव नहीं होता है। इसलिए कितनी भी अच्छी संतान हो, एक समय के बाद वह थक व ऊब जाती है। अक्सर वृद्ध अपनी असहाय अवस्था पर शोक मनाते हैं और अपने जीवन की समाप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। ऐसे में संतान को चाहिए कि थोड़ा समय ही सही अपने बुज़ुर्गों के साथ बिताएँ, ताकि उनका मनोबल गिरे नहीं, मानसिक सम्बल मिले और उन्हें यह अनुभूति हो कि उनके बच्चे साथ हैं।  

परन्तु ऐसा भी नहीं है कि वृद्धावस्था में आपसी कटुता का सारा दोष बच्चों का ही है। वृद्ध होने पर भी माता-पिता द्वारा घर में अपना वर्चस्व बनाए रखना, बच्चों पर अत्यधिक अनुशासन करना, बच्चों के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप करना, तनिक भी असुविधा होने पर बच्चों पर दोषारोपण करना, बच्चों की आर्थिक स्थिति से भिज्ञ रहकर भी अनावश्यक व्यय करना, बच्चों द्वारा कुछ अच्छा समझाने पर अपमान का अनुभव करना, बिना बात घर में कलह करना, बच्चों के बच्चों पर अपना अधिकार समझना, बच्चों के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करना, बच्चों की असुविधा का ध्यान न रखना, वृद्धावस्था को स्वीकार न करना, नई पीढ़ी के साथ सामंजस्य न बिठाना इत्यादि कारण हैं, जिससे बच्चों के साथ सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं।  

अतः वृद्धावस्था में किसी भी रूप में अपनी संतान पर बोझ बनना सबसे बड़ा अपराध है, इसे हर व्यक्ति को समझकर व मानकर चलना चाहिए। भावनात्मक एवं मानसिक निर्भरता तो उचित है, परन्तु शारीरिक और आर्थिक रूप से निर्भर न बनना ही श्रेयस्कर है। हालाँकि यह सभी के लिए संभव नहीं है, परन्तु चेष्टा अवश्य करनी चाहिए। वृद्ध स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक योग-अभ्यास, नियमित व संयमित दिनचर्या का पालन करें। अस्वस्थ होने पर तुरन्त चिकित्सा करवाएँ ताकि कोई भी बीमारी बढ़े नहीं। अनावश्यक रूप से बच्चों के मामले में हस्तक्षेप न करें। जितना सम्भव हो आत्मनिर्भर रहें। सभी बच्चों को समान रूप से प्यार करें तथा उनमें आपसी मनमुटाव या दुराव की भावना न भरें। स्वयं को हमेशा व्यस्त रखें और सदैव सकारात्मक सोचें।

-जेन्नी शबनम (30.8.2024)
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Thursday, June 5, 2025

126. युगीन आवश्यकता की परिणति : सन्नाटे के ख़त -दयानन्द जायसवाल

दयानन्द जायसवाल जी और मैं (भागलपुर)
'सन्नाटे के ख़त' डॉ. जेन्नी शबनम (सर्वप्रिय विहार, नई दिल्ली) का अयन प्रकाशन से प्रकाशित यह काव्य-संग्रह युगीन आवश्यकता की परिणति है। इनकी काव्य-सृजन-पीठिका को जितना अधिक खँगाला जाएगा उतना इनकी अनबुझी समस्याएँ पारदर्शी होती चली जाएँगी। इनके साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण ही उन तमाम परिस्थितियों की देन लगती है, जिनमें परम्पराएँ चरमरा रही हैं। नई-नई आख्याएँ जाग रही हैं। समता, स्नेह, सम्मान की सर्जना के लिए सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों के बदलते परिवेश की नई-नई समस्याओं के नए-नए सन्दर्भ कवयित्री के सामने हैं, तो ऐसे में भावना का बाँध टूटना ही था। अतः कथ्य के साथ-साथ कथ्य के अनुकूल नए-नए व्यंजना के आयाम भी अभिव्यंजित हैं।

सारस्वत साधना में सतत-रत रहनेवाली उत्कृष्ट साहित्य सृजन कर बहुमूल्य कृतियों से साहित्य-समृद्ध करनेवाली सम्मानित रचनाकारों में प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम की अनेक रचनाएँ देश-विदेश की पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं अनेक साझा-संग्रह में कविता, हाइकु, हाइगा, ताँका, चौका, सेदोका, माहिया, लघुकथा, लेख आदि के अतिरिक्त इनकी मौलिक पुस्तकें 'लम्हों का सफर', 'प्रवासी मन', 'मरजीना', 'नवधा', 'झाँकती खिड़की' के अलावा 'सन्नाटे के ख़त' भी हैं, जिनमें आम जीवन की संवेदना, त्रासद, संकट, सुख-दुःख, बिछुड़न-मिलन आदि विचारों के झंझावात हैं।

साहित्य में जब भी हम जीवन की साधना, अनुभूतियों और मानवीय संवेदनाओं को शब्दों के माध्यम से उकेरने की बात करते हैं, तब काव्य की भूमि सबसे उपजाऊ प्रतीत होती है। ऐसा ही एक सशक्त उदाहरण डॉ. जेन्नी शबनम द्वारा रचित काव्य-संग्रह 'सन्नाटे के ख़त' जो न केवल भावनाओं का दस्तावेज़ है; बल्कि जीवन के विविध रंगों को समेटे एक संवेदनशील यात्रा भी है। 105 कविताओं से सुसज्जित यह संग्रह पाठक को आत्ममंथन, आत्मविश्लेषण और आत्मानुभूति की उस यात्रा पर ले चलता है, जहाँ हर कविता एक दर्पण की तरह सामने खड़ी हो जाती है। संग्रह की कविताएँ केवल शब्दों का संयोजन नहीं है; बल्कि एक एहसास है जो पाठकों के अंतर्मन तक उतर जाता है। कविताएँ न तो जटिल हैं और न ही बनावटी; वे सीधे मन को छूनेवाली हैं। यह संग्रह उन लोगों के लिए एक उपहार है, जो कविता को केवल पढ़ना नहीं; जीना चाहते हैं। इसी संग्रह की एक कविता 'देव' है-
"देव! देव! देव!
तुम कहाँ हो, क्यों चले गए?
एक क्षण को न ठिठके तुम्हारे पाँव
अबोध शिशु पर क्या ममत्व न उमड़ा
क्या इतनी भी सुध नहीं, कैसे रहेगी ये अपूर्ण नारी
कैसे जिएगी, कैसे सहन करेगी संताप
अपनी व्यथा किससे कहेगी
शिशु जब जागेगा, उसके प्रश्नों का क्या उत्तर देगी
वह तो फिर भी बहल जाएगा
अपने निर्जीव खिलौनों में रम जाएगा। 
बताओ न देव!
क्या कमी थी मुझमें
किस धर्म का पालन न किया
स्त्री का हर धर्म निभाया
तुम्हारे वंश को भी बढ़ाया
फिर क्यों देव, यों छोड़ गए
अपनी व्यथा, अपनी पीड़ा किससे कहूँ देव?
बीती हर रात्रि की याद, क्या नाग-सी न डसेगी
जब तुम बिन ये अभागिन तड़पेगी? ..."

वर्तमान समय की व्यवहारिक सच्चाइयों से मुठभेड़ करती कविताओं में शहरी जीवन की कृत्रिमता और गाँवों की आत्मीयता के बीच की खाई बड़े ही मार्मिक अंदाज में 'लौट चलते हैं अपने गाँव' नामक कविता में उकेरा गया है। यह कविता बताती है कि शहरी आधुनिकता की चकाचौंध में भी सूनापन है; लेकिन अपनापन तो गाँव की मिट्टी में ही साँस लेता है-
"मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से। 
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव
अपने घर चलते हैं
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते ही हर घर उठ जाता है
चटाई बीनती हुक्का गुड़गुड़ाती
बुढ़िया दादी धूप सेंकती है
गाती बाँधे नन्हकी स्लेट पर पेन्सिल घिसती है। ..."

एक रचनाकार जन-जीवन से संघर्ष करते-करते जब थक जाता है, हार जाता है, तब इस हार के अंतर शब्द ही उसके साँस बन जाते हैं और तब जैसे जीवनानुभूति के नए पर निकल आते हैं और उसके बाद ही जैसे छलाँग लगाते हैं- जीवन से सृष्टि, सृष्टि से ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड में स्व के अस्तित्व की अनुभूति करता है। ऐसी अवस्था में कवयित्री शबनम सबसे ज्यादा भावुक होती हैं और उस भाव चेतना के लिए स्थापित सिद्धांतों का उतना महत्त्व नहीं देतीं, जितना मानवीय निश्छलता का। जीवन संघर्ष उसकी भावुकता को जितना सघन और पैना बनाते हैं उतनी ही प्रबलता से हृदय द्रवित होता है और व्यंजना के संकेत स्वयं अपने अनुरूप शब्द शिल्प लेकर 'अपनों का अजनबी बनना' ऐसी कविता को जन्म देते हैं-
"समीप की दो समानान्तर राहें
कहीं-न-कहीं किसी मोड़ पर मिल जाती हैं
दो अजनबी साथ हों
तो कभी-न-कभी अपने बन जाते हैं। 
जब दो राह
दो अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े फिर?
दो अपने साथ रहकर अजनबी बन जाएँ फिर?
सम्भावनाओं को नष्ट कर नहीं मिलती कोई राह
कठिन नहीं होता, अजनबी का अपना बनना
कठिन होता है, अपनों का अजनबी बनना।  
एक घर में दो अजनबी
नहीं होती महज़ एक पल की घटना
पलभर में अजनबी अपना बन जाता है
लेकिन अपनों का अजनबी बनना, धीमे-धीमे होता है। 
व्यथा की छोटी-छोटी कहानी होती है
पल-पल में दूरी बढ़ती है
बेगानापन पनपता है
फ़िक्र मिट जाती है
कोई चाहत नहीं ठहरती है। 
असम्भव हो जाता है
ऐसे अजनबी को अपना मानना।"

कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का यह संग्रह 'सन्नाटे के ख़त' शिवत्व की चाहत में अपने ही भीतर एक द्वंद्वात्मक सम्बन्ध जी रहे हैं। शरीर एक बोझ तब लगने लगता है जब आत्मा अपनी अस्मिता के लिए घुटन महसूस करने लगे। यह तथ्य मैं जीवन की पथरीली पगडण्डी पर नंगे पाँव चलने वाले कवयित्री की काल्पनिक राही के सन्दर्भ में कह रहा हूँ, जिसको बार-बार अपनी पहचान के लिए अग्नि परीक्षा से गुज़रना पड़ता है। यदि उसे अपनी आत्मशक्ति और अपने संयम के प्रति अगाध आस्था न होती, तो विजय-यात्रा के अपने पड़ावों पर शब्द आतिथ्य उसके लिए बोझ के अतिरिक्त कुछ न होता। एक तरफ़ 'सन्नाटे के ख़त' में पाए जाने वाले भावनात्मक आक्रोश की प्रबलता का भार है, तो दूसरी तरफ यथार्थग्राही काव्य की चिन्ता, उसके बाद कविता के विशिष्ट हो पाने की दमतोड़ मेहनत। इन शक्तियों की क़दमताल में कवयित्री संयमित-अर्जित निखार से कभी खुलकर हँस नहीं पायी। वह सामाजिक चुनौतियाँ तथा जीवन के कटु क्षणों के ख़त के सन्नाटे का सामना करने में सशक्त- अशक्त होती रही है। कभी अभिजात की ज़ेब से उछलकर फ़कीर की झोली में गिरती है, तो कभी प्रकृति सम्पदा से आसक्त मानवीयकृत होती है और कभी नगर-बोध तो कभी ग्राम-बोध आदि से झूलती हुई नजर आती है। कहने का अभिप्राय है कि ख़त हमेशा अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने को भाषाशैली की बाजारों में दूर-दूर भटकता रहा। सन्नाटे के नाम चुप्पी से भरा ख़त पाकर कवयित्री का दार्शनिक मन बार-बार उनके फंदे से फिसलकर लहूलुहान होता हुआ अपनी सर्जनात्मक ज़मीन को और उर्वर-उपजाऊ बनाने का संकल्प दोहराता रहा इस 'अनुबन्ध' कविता के रूप में-
"एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच
कभी साथ-साथ फलित न होना
एक अनुबन्ध है स्वप्न और यथार्थ के बीच
कभी सम्पूर्ण सत्य न होना
एक अनुबन्ध है धरा और गगन के बीच
कभी किसी बिन्दु पर साथ न होना
एक अनुबन्ध है आकांक्षा और जीवन के बीच
कभी सम्पूर्ण प्राप्य न होना
एक अनुबन्ध है मेरे मैं और मेरे बीच
कभी एकात्म न होना।"

कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का अनुभूति-पक्ष जितना सबल है, उसका शिल्प-पक्ष उतना ही सुंदर है। शब्द-योजना, बिम्ब-योजना आदि शिल्प-सौंदर्य कविता को मूल्यवान बनाते हैं। सफलता हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं।
कवयित्री का संपर्क सूत्र- 9810743437

-दयानन्द जायसवाल 
संस्थापक सह प्रधान सम्पादक, सुसंभाव्य पत्रिका 
भागलपुर 
तिथि- 20.5.2025
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Sunday, May 25, 2025

125. सन्नाटे के ख़तों की आवाज़ -भीकम सिंह

मेरी छठी पुस्तक 'सन्नाटे के ख़त' की समीक्षा प्रो. डॉ. भीकम सिंह जी ने की है। प्रस्तुत है उनकी लिखी समीक्षा: 


सन्नाटे के ख़तों की आवाज़

लम्हों का सफ़रनवधाझाँकती खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) और मरजीना (क्षणिका-संग्रह) को जोड़कर डॉ. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य-संग्रह (सन्नाटे के ख़त) आया है। व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के ख़तों से गुज़रते हुए अचरज से भर जाते हैं; क्योंकि इन ख़तों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फैंटेसी अनेक भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ। यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती है। 

प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबन्ध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज़ हैजिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-

एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच

कभी साथ-साथ घटित न होना

एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)

जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज़्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-

बेवक़्त खिंचा आता था मन

बेसबब खिल उठता था पल

हर वक़्त हवाओं में तैरते थे

एहसास जो मन में मचलते थे। 

अब इन्तिजार है (पृष्ठ संख्या 29)

जो यह होने को एक निजी इन्तिज़ार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिज़ार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आए बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं। उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ घायल हैं; इसलिए ख़ुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिकसामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती हैं उस तरफ़ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-

जाने कैसी हवा चल रही है

न ठण्डक देती हैन साँसें देती है

बदन को छूती है

तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है

अब हवा बदल गई है। (पृष्ठ संख्या 52)

अपने गाँव से जुड़नाअपनी जड़ों से जुड़नाअपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-

मन उचट गया है शहर के सूनेपन से

अब डर लगने लगा है

भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से। 

चलो लौट चलते हैं अपने गाँव (पृष्ठ संख्या 58)

अपना गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मज़दूर के लिए एक अदद रोटी-

सुबह से रातरोज सबको परोसता

गोल-गोलप्यारी-प्यारीनरम-मुलायम रोटी

मिल जातीकाश!

उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)

भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका हैजैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितान्त पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्य हो जाती है-

अब दो पात्र मुझमें बस गए

एक तन में जीताएक मन में बसता

दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)

और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार की समर्थक होती चली जाती हैं-

इन सभी को देखता वक़्तठठाकर हँसता है

बदलता नहीं कानून

किसी के सपनों की ताबीर के लिए

कोई संशोधन नहीं

बस सज़ा मिलती है

इनाम का कोई प्रावधान नहीं

कुछ नहीं कर सकते तुम

या तो जंग करो या पलायन

सभी मेरे अधीनबस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)

और फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी ज़िन्दगी का वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है। फैंटेसी की कोई नीति नहींकोई दायरा नहीं, यह भावनाओं का आखेट हैजो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-

एक कैनवास कोरा-सा

जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग

पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे

रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)

और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैंफिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-

मन चाहता

भूले-भटके

मेरे लिए तोहफ़ा लिए 

काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)

जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि इसकी हिमायती हो जाती है और मगज़ के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा है रूठा हुआ।

इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझनेउसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने-समझाने में हैजो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पॉइंट है और पाठकों के लिए ज़रूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गम्भीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-

नीयत और नियति समझ से परे है

एक झटके में सब बदल देती है

जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)

जेन्नी शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को किस तरह कहा जा सकता है-

‘क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर

अपने वजूद में शामिलकर

जाने कितना इतराया करती थी

कितने सपनों को गुनती रहती थी

अब यह सब बीते जीवन का क़िस्सा लगता है। 

हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)

जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता हैयहाँ सयानापन कतई नहीं हैअति सूधौ सनेह को मारग है' घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरज़ोर कोशिश करतीअनुभूतियों के सफ़र में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, ज़िन्दादिली की सूचक है। ''अपनी पीर छुपाकर जीनामीठा कहकर आँसू पीना'' पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनेंजिन्हें जेन्नी शबनम ने सपनों में बचाए रखा है। शायद अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की ‘सबसे ख़तरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम सपनों को ज़िन्दा रखती है और उम्मीद करती है-

शायद मिल जाए वापस

जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)

काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-

प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक

बदन के घेरों में

या मन के फेरों में?

सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है

या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)

अलगनी’ उस वातावरण के बारे में हैजो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं। 

सन्नाटे के ख़त (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैंभाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है हीइसका सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार-बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन ख़तों को पढ़कर अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन ख़तों की आवाज़ साहित्यिक जगत् में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।

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सन्नाटे के ख़तडा. जेन्नी शबनमप्रथम संस्करण- 2024, मूल्य- 425 रुपयेपृष्ठ- 150

प्रकाशकः अयन प्रकाशकजे-19/139, राजापुरीउत्तम नगरनई दिल्ली- 110059


-भीकम सिंह 

दादरी, गौतमबुद्ध नगर 

तिथि- 16.5.2025 

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- जेन्नी शबनम (25.5.2025)

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Tuesday, May 6, 2025

124. मेरी दादी


 दादी 
''उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है 
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है।''
मेरी दादी उपरोक्त कविता की ये पंक्तियाँ, जिसे वंशीधर शुक्ल ने अवधी भाषा में लिखी है, कहती थीं, जब हम बच्चे उठने में देर करते थे। दादी से मुझे जीवन, दुनियादारी और परम्पराओं की सीख व समझ गीत, दोहे, भजन, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, कहावत, पहेली, कहानी इत्यादि द्वारा मिली। कबीर के दोहे, सूरदास के पद या विद्यापति की पदावली, दादी से ही मैंने सब सुना व जाना। बोधकथा, जातककथा, धर्मग्रंथों की कहानी, शिक्षाप्रद क़िस्से, तोता-मैना की कहानी, गोनू झा की कहानी, सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी इत्यादि की कहानियाँ दादी हमें सुनाती थीं। रोज़ रात में सोते समय हम दादी से कहते- ''दादी क़िस्सा सुनाओ।'' दादी रामायण या महाभारत का कुछ अंश कहानी की तरह सुनातीं। दादी हमेशा कबीर का यह दोहा कहती थीं- ''साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय, मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए।'' तुलसीदास का एक दोहा भी अक्सर कहती थीं- ''वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।''   
दादी
कितनी बातें, कितनी यादें, कितने क़िस्से हम अपनी स्मृतियों में समेटे होते हैं। जब कोई बात चलती है या याद आती है, तो किताब की तरह जीवन का हर सफ़्हा खुलता चलता है। अतीत को याद करते हुए मन हमेशा बचपन की तरफ़ लौटता है, जहाँ अपने लोगों के साथ जीवन बीता होता है। मेरी दादी मेरे जीवन का अहम हिस्सा रही हैं। खाना पकाती हुई, खेत-खलिहान-बगीचा का अवलोकन करती हुई, ख़ाली पैर भोरे-भोरे तरकारी तोड़कर लाती हुई, अनाज जोखती (तौलना) हुई, अनाज उसनती (उबालना) हुई, ढेंकी में चूड़ा कुटवाती हुई, जाँता में दलिया-दाल दरवाती हुई, मूँज से डलिया बुनती हुई, लालटेन जलाती हुई, घूर (अँगीठी) तापते हुए लोगों से बतियाती हुई, गीत गाती हुई, क़िस्सा सुनाती हुई, मेरे पापा को यादकर रोती हुई, मेरी मम्मी के हर दुःख में हिम्मत बँधाती हुई; न जाने कितने रूपों में दादी याद रहती हैं।  
हम बच्चे 
दादी से जुड़ी इतनी बातें हैं कि याद करूँ तो एक पुस्तक लिख जाए। दादी में मानवता कूट-कूटकर भरी हुई थी। दादी को ग़ुस्सा होते हुए कभी नहीं देखा; परन्तु कुछ ग़लत हो, तो बेबाकी से बोलती थीं। सभी से प्रेम करना, भूखे को खाना खिलाना, दान करना, सभी की फ़िक्र करना, रिश्ते-नाते निभाना, सभी की मदद करना, आदर-सत्कार करना, अपने-पराए का भेद न रखना इत्यादि कितना कुछ गुण दादी में था। वे धार्मिक थीं, उन्हें ईश्वर में आस्था थी; लेकिन वे कभी भी मूर्तिपूजक या पाखण्डी नहीं थीं। दादी बेहद प्रगतिशील सोच की स्त्री थीं। वे ज़्यादा शिक्षा नहीं ले सकीं, मागर ज़रूरत भर पढ़ लेती थीं। वे शिक्षा को बहुत महत्व देती थीं। हिन्दी के अलावा वे कैथी भाषा भी पढ़ती थीं। 
पापा, भइया, मम्मी 
मेरी दादी किशोरी देवी जिनका जन्म वर्ष 1906 में बिहार के शिवहर ज़िला के माली गाँव में हुआ। मेरे दादा सूरज प्रसाद की पहली पत्नी का देहान्त हो चुका था, अतः दादा की दूसरी शादी मेरी दादी से हुई। दादी के चार बच्चे, जिनमें मेरे पापा सबसे बड़े थे, तथा पहली दादी के दो बच्चे मिलाकर दादी छह बच्चों की माँ बनी। दादी शुरू से सभी बच्चों का पालन-पोषण एक समान करती रहीं; लेकिन पापा के बड़े भाई जिन्हें मैं बड़का बाबूजी कहती हूँ, दादी को सदैव सौतेली माँ ही मानते रहे। मेरे दादा दो भाई थे और दोनों के परिवार शिवहर के कोठियाँ गाँव में आस-पास रहते थे। मेरे दादा का संयुक्त परिवार होने के कारण मेरे पिता की शिक्षा में बहुत बाधा आ रही थी; क्योंकि कृषि पर निर्भरता थी। एक बच्चे (मेरे पिता) पर ज़्यादा पैसे ख़र्च हो रहे थे, जिससे घर में कलह होने लगा। अंततः बँटवारा हुआ और दादा-दादी के साथ पापा रह गए। दादी ने मेरे पिता की शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बँटवारे के बाद मेरे छोटे चाचा घराड़ी (पुश्तैनी मकान) में रह गए और मेरे दादा-दादी, बड़का बाबूजी का परिवार और मेरे पापा गाँव के बाहर यानी जहाँ से गाँव शुरू होता है, घर बनाकर रहने लगे। मेरे होश सँभालने के बाद पापा ने अलग घर बनवाया जहाँ दादी रहती थीं; दादा का बहुत पहले देहान्त हो चुका था। पापा-मम्मी भागलपुर में कार्यरत थे, तो दादी ही पापा के ज़मीन की खेती का काम देखती थीं। गाँव का कोई भी कार्य दादी से पूछे बिना पापा नहीं करते थे। माँ-बेटे का इतना अच्छा सम्बन्ध बहुत कम देखने को मिलता है। लगभग हर महीने या दो महीने पर वे भागलपुर आतीं, तो अनाज, दाल, तरकारी, घी इत्यादि लेकर आती थीं। जब भी पापा-मम्मी को कहीं बाहर जाना होता, तो वे हम भाई-बहन के लिए भागलपुर आ जाती थीं।
मम्मी, मैं, भाई, फुफेरा भाई, दादी 
हमारे बचपन में ननिहाल-ददिहाल में बच्चों का पालन पोषण होना आम बात थी। मेरी बीचवाली फुआ का बेटा कुछ साल दादी के पास रहकर अपने घर लौट गया। मेरी सबसे बड़ी फुआ का एक बेटा बचपन से हमारे साथ रहा, जबतक उसकी शादी न हो गई। मेरा एक चचेरा भाई लगभग हमारे साथ ही रहता और रात में अपने घर चला जाता था। चूँकि हमारे घर में बिजली थी, अतः भाई के साथ पढ़ने वाले कुछ बच्चे भी हमारे घर पर पढ़ने आते थे। हम सभी बच्चे एक साथ पढ़ते, फिर वे सभी अपने-अपने घर चले जाते या कभी रात में रुक भी जाते थे। मेरे दोनों भाई गाँव में दादी के पास रहकर मेट्रिक किए; लेकिन मैं दो साल गाँव में पढ़कर भागलपुर आ गई। मेरा फुफेरा भाई भी आगे की पढ़ाई के लिए भागलपुर आ गया और मेरा भाई पटना चला गया। उसके बाद खेत को बटइया पर देकर दादी भागलपुर आ गईं। दादी ने हम सभी की बहुत अच्छी तरह देखभाल की, पढ़ाया और समझदार बनाया। 
मैं, मम्मी, भइया, प्रो. गोरा 
मेरी दादी विचार से धार्मिक स्त्री थीं। किसी भी सुख या दुःख में दादी हमेशा रामचरितमानस की यह चौपाई कहतीं- ''होइहि सोइ जो राम रचि राखा।'' वे किसी ग़लत के सामने डटकर खड़ी हो जाती थीं, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। पापा कम्युनिस्ट, नास्तिक और गांधीवादी थे। हमारे घर में हर जाति-धर्म के लोगों का स्वागत-सत्कार होता था। पापा की मृत्यु के बाद बड़का बाबूजी के घर अगर कोई ऐसा मेहमान आ गया जो कम्युनिस्ट पार्टी या निम्न जाति का हो, तो उनके खाने के लिए मेरे घर से थाली जाती थी; क्योंकि कम्युनिस्ट  धर्म और छुआछूत नहीं मानते हैं। वर्ष 1989 में जब भागलपुर दंगा हुआ और हमारे घर में लगभग 100 लोग छुपे थे, तो उन सभी का खाना दादी ही बनाती रहीं। दादी ने कभी छुआछूत नहीं माना। शायद पापा के प्रभाव के कारण वे जाति-धर्म से ऊपर उठ गई थीं, या वैचारिक रूप से शुरू से वैसी ही रही होंगी।
बुढ़िया दादी, भइया, मैं, दादी 
मेरी दादी जब बहुत छोटी थीं तब उनके पिता का देहान्त हो गया। मेरी दादी की माँ अक्सर आतीं, जिन्हें हमलोग बुढ़िया दादी कहते थे। उन दिनों विधवा स्त्रियों को सफ़ेद साड़ी पहनना और सिर के बाल मुँड़वाने (अनिवार्य नहीं) की परम्परा थी। बुढ़िया दादी को मैंने सदैव सफ़ेद साड़ी और बिना बाल के सिर में देखा। वे बहुत धार्मिक महिला थीं, कपाल पर चन्दन-टीका और गले में तुलसी का माला पहनती थीं। वे अक्सर अयोध्या में जाकर महीनों रहतीं। जब भी अपने गाँव से आतीं, तो स्वयं का बनाया पेड़ा, मूढ़ी, लाई इत्यादि लाती थीं। हमलोग उनके आने का हमेशा इन्तिज़ार करते थे; क्योंकि उनका बनाया पेड़ा बहुत स्वादिष्ट होता था और वे कहानी सुनाती थीं। वे काफ़ी बूढ़ी थीं, झुककर लाठी लेकर चलतीं, पर अत्यंत फुर्तीली और तेज़ क़दमों से चलती थीं। उनका देहान्त 108 वर्ष की उम्र में 14.1.1979 को दादी के पास हुआ।  
बुढ़िया दादी, दादी, भाई, मैं 
मेरे दादा का देहान्त वर्ष 1963 में हुआ। तब मैं और मेरे भाई का जन्म नहीं हुआ था। जब से हमने होश सँभाला दादी को पाड़ वाली सफ़ेद साड़ी में देखा। अपने लिए साया-ब्लाउज भी वे स्वयं हाथ से सिलकर पहनती थीं। हमारे यहाँ कपास की खेती होती थी, तो दादी कपास से रूई निकालकर तकिया बनाती और उसका खोल भी स्वयं सिलती थीं। वे खाना बहुत स्वादिष्ट बनाती थीं। घर के अधिकतर कार्य वे स्वयं करती थीं। छुट्टियों में जब भी पापा गाँव जाते तो कुछ-न-कुछ काम करवाते, जिसके लिए 10-15 मज़दूर आते थे। इन सभी का पनपिआई (दोपहर का खाना) दादी बनाती थीं। सहयोग के लिए एक स्त्री भी होती थी। गाँव-समाज का कार्य पापा ने इतना कराया, पर अपने जीवन में गाँव का मकान पूरा नहीं बनवा सके। बाद में मैंने और मम्मी ने मुज़फ़्फ़रपुर जाकर मकान बनाने के लिए सभी सामानों की ख़रीददारी की। गाँव की एक स्त्री, जो मम्मी को बहुत सहयोग करती थी, सारा सामान ट्रक से लेकर गाँव आई। दादी अपने सामने पूरा घर बनवाई। जब मकान बन गया तो दादी से कहतीं- ''दुल्हिन तोहरे मेहनत से ई घर बनलई ह। बउआ के सपना तू पूरा कर देलू।'' (तुम्हारे मेहनत से यह मकान बना है। तुमने बउआ (मेरे पापा) का सपना पूरा कर दिया) फिर दादी पापा की याद में रोने लगती थीं। मम्मी कहतीं कि आपका साथ नहीं होता, तो हम यह सब नहीं कर पाते।  
गाँव का हमारा घर 
दादी बहुत कर्मठ और साहसी स्त्री थीं। मेरे पापा-मम्मी के लिए वे हर वक़्त खड़ी रहीं, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो। मेरे पापा का देहान्त 18.7.1978 में हुआ। उसके बाद मेरी मम्मी को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। दादी मेरी मम्मी को हिम्मत और हौसला देती रहीं। इस कारण मम्मी की ज़िन्दगी थोड़ी सुगम रही। दादी को पापा दीदी कहते थे और मम्मी माए कहती थीं। पापा को दादी बउआ कहकर पुकारती थीं और मम्मी को दुल्हिन। पापा के देहान्त के बाद भी मम्मी को दुल्हिन ही कहती रहीं। शाम को मम्मी कार्य करने के बाद घर लौटतीं तो थक जाती थीं। वे बिछावन पर लेटतीं, तो दादी आकर उनके पैर की तरफ़ बैठ जातीं और धीरे-धीरे पाँव दबाने लगतीं। मम्मी को बहुत अटपटा लगता कि सास होकर पाँव दबाए। दादी कहती कि तुम पुतोह न होकर बेटी होती तो पैर दबाते न! फिर मम्मी दिन भर का हाल और घटनाएँ दादी को सुनातीं। सास-बहू का इतना अच्छा सम्बन्ध मैंने आजतक नहीं देखा। 
दादी, मैं, मम्मी 
मैं जब समझदार हुई तो मम्मी को ज़बरदस्ती रंगीन साड़ी पहनाती और मम्मी दादी को। हालाँकि दादी कहती कि आदत है इसलिए रंगीन पहनना अच्छा नहीं लगता है। काफी हलके प्रिंट की साड़ी मम्मी जबरदस्ती पहनाती थीं। लेकिन हाथ में चूड़ी कभी नहीं पहनी। होली में जब मैं रंग लगा देती तो ग़ुस्सा होतीं, पर मैं कहाँ मानने वाली। फिर दादी हँसकर कहती- ''देख न दुल्हिन, जेन्नी हमरा रंग लगा देलई।'' (देखो न, जेन्नी ने मुझे रंग लगा दिया) मम्मी कहतीं- ''की होतई माए। हमरो त लगा देलई ह। रंग लगैला से कथी होतई।'' (क्या होगा माँ। मुझे भी लगा दी है। रंग लगाने से क्या होगा) हालाँकि मम्मी ख़ुद अपने को रंग नहीं लगाने देती थीं। मेरे नाना जब भी आते, तो दादी और नाना अपने-अपने पोते की बड़ाई करते रहते। नाना बहुत पूजा करते थे, पर दादी नहीं करती थीं। वे कहतीं- ''न पाप करीले, न पुन ला मरीले'' (न पाप करना है न पुण्य के लिए मरना है)। वे दोनों आपस में धार्मिक चर्चा करते रहते थे। उनका ख़ूब नोक-झोंक भी होता और हमलोग ख़ूब हँसते थे। 
    
बचपन का एक मज़ेदार क़िस्सा याद आता है। जब मैं छोटी थी तो मुझे अपनी दादी बहुत लम्बी-चौड़ी-विशाल दिखती थीं; वे मोटी थीं, शायद इसलिए। एक बार पापा ने सभी के बाल कटवाने के लिए नाई को बुलाया। वैसे मेरी मम्मी ही मेरा बाल काटती थीं; साधना कट का ख़ूब चलन था उस ज़माने में। पापा ने कहा कि जब नाई आया है, तो मेरा बाल भी काट देगा। नाई से बाल कटवाने के डर से मैं पलंग के नीचे छुप गई। मेरी खोज होने लगी। इतने में दादी गाँव से आईं और उसी पलंग के पास खड़ी हुईं। दादी का मोटा-बड़ा पैर देखकर मैं डर से चिल्लाने लगी और पकड़ी गई। दादी-पापा-मम्मी खूब हँसे। जब मैं बड़ी हुई, तो सोचती कि दादी की लम्बाई तो मुझसे कम है, फिर मुझे दादी इतनी विशाल क्यों लगती थी। अब समझ में आता है कि छोटे बच्चों को उनसे बड़ा कोई भी चीज़ विशाल दिखता है। 

वर्ष 1984 में पहली बार दादी बहुत ज़्यादा बीमार हुईं। उन्हें मधुमेह और गठिया हो गया। परन्तु अपने खानपान पर नियंत्रण कर वे स्वयं को स्वस्थ रखती थीं। आँखों के मोतियाबिन्द के ऑपरेशन के बाद वे छोटे अक्षरों वाली किताबें फिर से पढ़ने लगीं। उनकी देखने-सुनने की क्षमता और याददाश्त ज़रा भी कम नहीं हुई। चलने में थोड़ी परेशानी थी; परन्तु अपने सभी काम स्वयं करती थीं। यदि कुछ ख़ास खाना बनवाना हो, तो रसोईघर में कुर्सी पर बैठकर खाना बनवाती थीं। उस उम्र में उनका पढ़ना, गीत गाना, कहानी सुनाना जारी था। दादी जब भाई के पास रहने चली गईं, तो अधिकतर समय धर्मग्रंथ पढ़ने में बिताती थी। भाई सुबह हड़बड़ी में ऑफिस जाने लगता, तो कहता कि देर हो रही है, नहीं खाएँगे। दादी केला छीलकर कहती- ''बउआ एक कौर खा लो, ज़रा-सा खा लो।'' भइया ग़ुस्साते हुए बोलता- ''रोज़ तुम हमको ऐसे ही केला खिला देती हो।'' जिस तरह दादी मेरे पापा को बउआ और मम्मी को दुल्हिन कहकर सम्बोधित करती थीं, भइया और भाभी को भी बउआ और दुल्हिन ही कहती थीं। भइया में तो जैसे प्राण बसता था दादी का और भइया का प्राण दादी में। मेरा भाई अमेरिका से लौटते ही दादी को अपने साथ मुम्बई फिर बैंगलोर ले गया। जब भी दादी बीमार होतीं, तो मम्मी छुट्टी लेकर महीनों वहाँ रहती थीं।    

जब भी मैं दादी से मिलने जाती, तो उन बूढ़ी हथेलियों से मेरे पाँव दबाने लगतीं। मैं कहती- ''दादी तुम ख़ुद बीमार हो और मेरा पैर दबाती हो।'' दादी हँसती और कहती- ''अब देह में ताक़त कहाँ है, पैर दबता थोड़े होगा।'' मुझे महसूस होता था कि दादी के लिए मैं बच्ची ही थी। मेरा बेटा जब हुआ था, तब दादी मेरे ससुराल आई थीं और दिनभर बेटा के पास रहती थीं। मेरी बेटी का अन्नप्राशन दादी द्वारा खीर खिलाकर हुआ। दादी से मिलने मैं कभी-कभी मुम्बई और बैंगलोर जाती, तो बातों का लम्बा सिलसिला चलता था। सभी परिचितों का हाल समाचार लेतीं और बतातीं। अपनी लम्बी उम्र के लिए रोती- ''जाने हम कब मरेंगे, सब लोग (बेटा दोनों) तो चला गया।'' मैं बोलती- ''दादी, सोचो तुम कितनी भाग्यशाली हो। अपनी पोती (मेरी चचेरी बहन) के पोता को देख ली। ख़ुश होकर रहो, मरना तो सबको है ही एक-न-एक दिन, जब तक हो दोनों पोती (भाई की बेटियाँ) के साथ खेलो, उनको गीत सुनाओ, क़िस्सा सुनाओ जैसे हमलोग को सुनाती थी।'' दादी हँसकर कहती- ''अब उतना याद नहीं रहता है।'' मैं किसी कहानी का कुछ हिस्सा बोलती और कहती कि पूरी कहानी याद नहीं है, तो दादी पूरी कहानी सुना देतीं। वे कभी कुछ नहीं भूलीं। मेरे दोनों बच्चों से जब भी मिलीं, कहानी सुनातीं। मेरे बच्चों को उनकी नरम मुलायम झुर्रियाँ छूने में बड़ा मज़ा आता था। वे कहते- ''बड़ी नानी आपका स्किन कितना सॉफ्ट है।'' दादी हँसती थीं।    

मेरे पापा और मेरे छोटे चाचा का देहान्त हो चुका था। दादी हमेशा कहतीं कि बेटा दोनों मर गए और हम ज़िन्दा हैं, भगवान् हमको क्यों नहीं बुलाते हैं। इससे जुड़ा एक मज़ेदार वाक़या हुआ। शायद वर्ष 2002 की बात है। उन दिनों दादी पटना में रह रही थीं। दीवाली की छुट्टी थी, तो मम्मी भी थीं। भैया के कॉलेज के एक दोस्त अमीरुल हसन आए हुए थे। मेरी मम्मी व दादी को वे मम्मी व दादी ही मानते और बुलाते थे। मैं भी उनको शुरू से भइया बोलती और राखी बाँधती या भेजती थी। मुज़फ़्फ़रपुर के पास एक कॉलेज में वे प्रोफेसर थे; इनका देहान्त हुए लगभग 10 वर्ष हो गए हैं। दादी ने एक दिन सपना देखा कि दादा आए हैं, तो दादी पूछ रही हैं कि वे कब मारेंगी। दादा छह बोले और दादी का सपना टूट गया। दादी ने सभी को सपना बताया। दीवाली या उसके आस-पास छह तारीख़ थी। दादी ने कहा कि छह तारीख़ को हम मरेंगे। उस दिन सुबह उठकर दादी ने नई सफ़ेद साड़ी पहनी। भगवान् का नाम लिया, कुछ भजन गाई, अपने पास मम्मी और अमीरुल भैया को बैठाकर रखी कि आज किसी समय वे मरेंगी। दादी इन्तिज़ार करती रहीं और बार-बार कहती रहीं कि दादा अपने साथ ले जाएँगे। पूरा दिन बीत गया, रात के 12 बज गए। दूसरे दिन दादी ख़ूब हँसी और ख़ूब रोई कि भगवान् उनको क्यों नहीं ले जाते। अंततः दादी का सपना सच हुआ, भले कई सालों बाद। दादी का देहान्त 6.5.2008 में 102 साल की उम्र में हुआ। जाने इस संसार का सत्य क्या है, आख़िर दादी छह तारीख को ही इस संसार से विदा हुई। आज दादी के प्राणान्त के 17 वर्ष हो गए हैं। आज भी दादी के शरीर का अन्तिम स्पर्श याद है, बिल्कुल ठण्डा; उस अनुभव को बताने के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास। दादी-पापा-मम्मी की तस्वीर अपने कमरे में लगाई हूँ, बिल्कुल सामने। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जब इन तीनों को मैं याद न करूँ। 

दादी का अन्तिम संस्कार भाई ने किया; लेकिन मुख में अग्नि देने का साहस उसे नहीं हुआ। मैंने और भइया ने एक साथ मुखाग्नि दी। हालाँकि लोगों ने कहा कि स्त्री मुखाग्नि नहीं देती है; लेकिन भइया अकेले देने को तैयार नहीं था। दादी को मुखाग्नि देना और जलते हुए देखना मेरे जीवन का सबसे कष्टदायक समय था। जिसने बचपन से पाल-पोसकर बड़ा किया उसे ही जला रहे और जलते हुए देख रहे हैं। हालाँकि पापा को भी ऐसे ही जलाया गया था; परन्तु उनकी मृत्यु के बाद या उनका दाह-संस्कार मैंने नहीं देखा। मम्मी का देहान्त हुआ तो मैंने बिजली से जलाने के लिए कहा; क्योंकि दादी को अग्नि में चार-पाँच घंटे तक धीरे-धीरे जलते देखना मेरे लिए असह्य था।  
मम्मी 
दादी अपनी मृत्यु से छह माह पूर्व से अस्वस्थ रहने लगीं और बाद में बहुत ज़्यादा बीमार हो गईं। वे चलने में असमर्थ और दूसरों पर आश्रित हो गईं। अन्तिम तीन माह पहले दादी को अपने पास भागलपुर मम्मी ले आईं; क्योंकि मम्मी के लिए लम्बी छुट्टी लेना सम्भव नहीं था। मृत्यु से एक सप्ताह पूर्व उनकी याददाश्त थोड़ी कमज़ोर हो गई और कुछ देर के लिए किसी को पहचान नहीं पाती थीं। मैं गई तो दादी को लगा कि मेरी छोटी फुआ आई हैं। उन्होंने कहा- ''शशि, तू आ गेले।'' (शशि, तुम आ गई) फिर कुछ मिनट बाद बोलीं- ''ओ जेन्नी हो, हमको लगा की शशि आई है।'' शायद अन्तिम समय में दादी को अपनी बेटी को देखने की चाह रही होगी। गाँव में दादी जब तक रही मेरी छोटी फुआ महीनों-महीनों आकर रहती थीं; सबसे छोटी थीं इसलिए दादी की दुलारी थीं।  
पापा 
आज के समय में जब देखती हूँ कि बच्चों का अपने दादा-दादी या नाना-नानी से औपचारिक सम्बन्ध है, तो मुझे बेहद आश्चर्य होता है। मेरी दादी से मम्मी की तरह ही मेरा अनौपचारिक सम्बन्ध था। वर्ष 1984 में बीमार होने से पहले तक दादी का मेरे सिर में तेल लगाना और बाल धोना जारी था; क्योंकि मेरे बाल लम्बे थे। जब मैं गाँव में थी, तभी मेरा मासिक चक्र शुरू हुआ। उस ज़माने में लड़कियों को यह सब मालूम नहीं होता था। दादी-मम्मी ने मुझे समझाया और बताया। गाँव में साड़ी और अन्य कपड़ों का पैड बनाकर इस्तेमाल करना होता था और बाद में धोकर-सुखाकर दुबारा इस्तेमाल करना होता था। जब तक मैं गाँव में रही, रोज़ मेरा पैड दादी ही धोती रहीं। मेरी दादी ने मेरे लिए जो किया, मालूम नहीं अब की नानी-दादी ये सब करती हैं या नहीं। खाने की थाली में अगर कुछ खाना कभी मुझसे, भइया से या मम्मी से छूट जाए, तो दादी झट से वह खाना ले लेती थी। वे कहतीं कि खाना बर्बाद नहीं करना चाहिए; हालाँकि मम्मी को बहुत संकोच होता रहा; लेकिन दादी के लिए मम्मी बहू नहीं बेटी थी। जब तक पापा थे, तो किसी को किसी का जूठा खाने नहीं देते थे। बचपन से हम सभी को आदत डाली गई थी कि अपने-अपने प्लेट (प्लेट के पीछे हम सभी का नाम लिखा था) में खाना खाकर प्लेट धोकर रखना है।  
दादी 
पापा, दादी और मम्मी चले गए। पापा के हमउम्र सभी रिश्तेदारों (अपने एवं चचेरे सभी चाचा-चाची, फुआ-फूफा) का देहान्त हो गया। अब मेरी पीढ़ी सबसे बड़ी पीढ़ी है, जिनमें कई लोग गुज़र चुके हैं। मेरे गाँव में आज भी दादी को लोग बहुत श्रद्धा से याद करते हैं। पापा को उनके सिद्धांतों के लिए और मम्मी को उनकी सहृदयता और शिक्षा के लिए याद करते हैं। सभी कहते हैं कि दादी बहुत पुण्यात्मा, दयालु और प्रेरक विचारों वाली स्त्री थीं। गाँव वालों की इच्छा से दादा, दादी, पापा और मम्मी की संगमरमर की मूर्ति गाँव के घर में लग रही है।  

दादा 
हम सभी को इसी तरह जीना और मरना है। लेकिन किसी अपने का मरना और उसका जलाया जाना, असहनीय होता है। मैंने अपनी बेटी से कह रखा है कि मेरा पूरा देह दान किया हुआ है, अतः मृत्यु के बाद हॉस्पिटल को सूचना देना। मेरा जो भी अंग काम करेगा, वे ले लेंगे। बचे हुए देह को भागलपुर में बिजली से जलाना, जहाँ मेरे पापा, दादी, मम्मी को जलाया गया। हालाँकि मुझे नहीं मालूम कि मुझे जैसी अनुभूति होती है, वह किसी को होगी या नहीं, फिर भी अपनी बात कह दिया है। सोचती हूँ कि यदि आत्मा जैसी चीज़ हुई, तो शायद उसी जगह पर जलाई जाऊँ तो पापा, दादी, मम्मी की आत्मा से मुलाक़ात होगी, बात होगी। फिर से दादी की कहानी और गीत सुनूँगी। दादी सभी का समाचार पूछेगीं। मेरी मृत्यु होने से रोएँगी; लेकिन मुझे पापा-मम्मी से मिलकर होने वाली ख़ुशी पर मेरे लिए ज़रूर ख़ुश होंगी। दादी! मेरी दादी! प्यारी दादी!
-जेन्नी शबनम (6.5.2025)
दादी की 17वीं पुण्यतिथि)
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