धर्मेंद्र का जन्म 8 दिसम्बर 1935 को पंजाब के लुधियाना ज़िले में साहनेवाल गाँव में हुआ। धर्मेंद्र फ़िल्मफेयर पत्रिका के राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित नए प्रतिभा पुरस्कार के विजेता थे। पुरस्कार विजेता होने के कारण फ़िल्म में काम करने के लिए वे पंजाब से मुंबई गए; लेकिन फ़िल्म नहीं बनी। वर्ष 1960 में 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' फ़िल्म से धर्मेंद्र ने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की थी। उन्होंने हर प्रकार की फ़िल्मों में काम किया है। कुछ फ़िल्में तो सुपर हिट भी हुईं। नायक, खलनायक, जाँबाज़ सिपाही, भावुक इंसान, कॉमेडियन इत्यादि सभी रोल में धर्मेंद्र ने शानदार अभिनय किया है।
Monday, November 24, 2025
130. हैंडसम ही-मैन हीरो धर्मेंद्र
Sunday, November 16, 2025
129. उम्र का 60वाँ पड़ाव
आज मेरा 60वाँ जन्मदिन है। शून्य से 60 का सफ़र यूँ गुज़रा कि कभी तीव्र, तो कभी पलक झपकते समय के बीतने का अनुभव हुआ। जब तक पापा जीवित रहे, ख़ूब धूम-धाम से जन्मदिन मनाया जाता था। जन्मदिन में बड़ा भोज होता, जिसमें पापा-मम्मी के मित्र, सहकर्मी और रिश्तेदार आते थे। खाना-पीना, खेलना, लोगों का आना-जाना इसमें ही सारा दिन व्यतीत होता था। बचपन का कुछ जन्मदिन मनाना मुझे अब तक याद है।
Saturday, September 27, 2025
128. ख़ुश रहें कि हम ज़िन्दा हैं
विगत वर्ष 2020 के फरवरी माह में इस कोरोना विषाणु के संक्रमण से महामारी की चेतावनी आई थी; परन्तु इसकी भयावहता से हम लोग अनभिज्ञ थे, अतः लापरवाही हुई। कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ाने के लिए ताली-थाली-घंटी बजाने तथा दीप या मोमबत्ती जलाने का आह्वान हुआ। लोगों ने इसे भी काफ़ी मनोरंजक बनाया और पटाखे भी फोड़े; लेकिन कोरोना इतना भी कमज़ोर नहीं है। वह और ज़ोर से मृत्यु का तांडव करने लगा। किसके साथ क्या हो रहा है, इससे हम सभी अनभिज्ञ रहे और अपने-अपने घरों में सिमटकर रह गए। न जाने कब तक ऐसा चलता रहेगा। मन में ढेरों सवाल हैं, जिनका जवाब किसी के पास नहीं। हाँ, यह ख़ुशी की बात है कि इतनी जल्दी कोरोना का टीका आ गया और करोड़ों लोगों ने लगवा भी लिया; यद्यपि लोग लगातार संक्रमित हो रहे हैं। इस ख़बर के इन्तिज़ार में हम सभी हैं- जब यह सूचना आए कि हमारे जीवन से कोरोना सदा के लिए विदा हो गया और हम निर्भीक होकर अपने पुराने समय की तरह जी सकते हैं।
कोरोना काल में यों तो ढेरों समस्या, असुविधा, दुःख हमारे जीवन का हिस्सा बने, परन्तु इन प्रतिकूल और भयावह परिस्थितियों में भी हम खुशियाँ बटोरना सीख गए। कोरोना काल में अंतर्जाल ने पूरे समय हम सभी का साथ दिया और मन बहलाए रखा। ख़ूब सारे सृजन कार्य हुए, चाहे वह लेखन हो या अन्य माध्यम। फेसबुक लाइव, इंस्टाग्राम लाइव, यूट्यूब लाइव, ज़ूम मीटिंग इत्यादि होता रहा। ख़ूब सारी लाइव कवि-गोष्ठी हुई। मेरे एक मित्र ने प्रतिदिन इंस्टाग्राम पर लाइव कार्यक्रम किया, जिसमें देश के बड़े-बड़े हस्ताक्षर जिनमें लेखक, कवि, संगीतज्ञ, नर्तक, लो
कोरोना शुरू होने के बाद स्कूल-कॉलेज जो बंद हुए तो अब तक लगभग बंद हैं। यूँ ऑनलाइन पढ़ाई चल रही है। अब तो बिना परीक्षा दिए ही बोर्ड का रिजल्ट भी निकालना पड़ा। बच्चों के लिए यह सब बहुत सुखद है। सुबह-सुबह स्कूल जाने से छुट्टी मिली। मनचाहा खाना खाने को मिला। पढ़ने के लिए कोई पूर्व निर्धारित समय नहीं। बस मस्ती-ही-मस्ती। कुछ बच्चों ने खाना पकाना सीखा, किसी ने बागवानी, कोई चित्रकारी कर रहा है, तो कोई अपने किसी अधूरी चाहत को पूरी कर रहा है। घर के काम में बच्चे भी हिस्सा ले रहे हैं; क्योंकि बाहर से कार्य करने कोई नहीं आ सकता है। घर में सभी लोग आपस में गप्पे लड़ा रहे हैं या कोई खेल खेल रहे हैं। सभी साथ बैठकर सामयिक घटनाओं पर चर्चा, परिचर्चा और विचारों का आदान- प्रदान कर रहे हैं। अब बच्चे-बड़े सभी ने इस न्यू नार्मल को आत्मसात् कर जीवन को एक नई दिशा देकर जीने की कोशिश शुरु कर दी है।
कोरोना के इस गम्भीर और अतार्किक समय में उचित और सटीक क्या हो, यह कोई नहीं बता सकता है। अनुमान, आकलन, अफ़वाह, असत्य, असंवेदनशी
कोरोना के कारण लॉकडाउन होने से पर्यावरण पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। आसमान इतना साफ़ और सुन्दर हो गया है कि सहज ही नज़रें आसमान को ताकने लगती हैं। आम दिनों में प्रदूषण के कारण साँस लेना मुश्किल होता जा रहा है। पशुओं का विचरना, पक्षियों का कलरव सभी कुछ ओझल-सा होता जा रहा है। शहरीकरण के कारण पशु-पक्षी जो पालतू नहीं हैं, उनका जीवन ख़तरे में रहता है; क्योंकि उनके लिए कोई समुचित स्थान नहीं है, जहाँ वे रह सकें। कचरे में पड़े हानिकारक प्लास्टिक में बचा भोजन गाय-भैंस खाते हैं, और वही दूध घरों में इस्तेमाल होता है। कोरोना में जानवरों के खाने का भी प्रबंध किया गया, जो अपने आप में बहुत उचित और सराहनीय क़दम है। पक्षी पेड़ों पर बेहिचक ऊधम मचाये हुए है, क्योंकि उन्हें मानव का डर जो नहीं रहा। पेड़-पौधे जो प्रकृति की धरोहर हैं, ख़ूब चहक रहे हैं; क्योंकि न तो उन्हें कोई काट रहा है न फूलों को तोड़ रहा है। बाग़-बगीचे अपनी हरियाली के साथ लहलहा रहे हैं। चारों तरफ़ इतनी सुन्दर और स्वच्छ हवा है कि मन खिल गया है, जब तक कोरोना का भय याद न रहे। जंगल, ज़मीन, आसमान, नदी, खेत, बा
सूरज-चाँद ख़ूब खिल रहे हैं। यूँ वे पहले भी दमकते रहे हैं, परन्तु अब साफ़ आसमान होने के कारण यों महसूस होता है, मानों वे बहुत नज़दीक हमारी मुट्ठी की पकड़ में आ गए हैं। हवा में ख़ूब ताज़गी है। बारिश में बहुत मस्ती है। नदियाँ इतनी साफ़ हो गईं हैं कि आसमान का नीलापन पानी में घुल गया सा प्रतीत हो रहा है। भोर में चिड़ियों की चहचहाहट, जो खोती चली जा रही थी, अब गूँजने लगी है। न बाहर गाड़ियों का शोर है, न आदमी की भीड़ में अफरा-तफरी। न भागमभाग है, न चिल्ल-पों। बच्चे अब शिशु घर में नहीं जा रहे, अपने माता-पिता, भाई-बहन के साथ घर में हैं और घर के कामों को करना सीख रहे हैं। अपने-अपने स्तर पर सभी एक दूसरे की मदद कर रहे हैं और नया कुछ सीख रहे हैं। बुज़ुर्ग अब सोशल मीडिया का प्रयोग करने लगे हैं। अभी के इस कोरोना काल में एक तरफ़ जीवन आशंकाओं से त्रस्त है, तो दूसरी तरफ़ समय और जीवन के प्रति सोच का नज़रिया बदल गया है। जीवन को सकारात्मक होकर लोग देख रहे हैं। सच ही है, ''हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िन्दगी, हर पल यहाँ जीभर जियो, जो है समाँ कल हो न हो।''
एक मज़ेदार बात यह है कि लॉकडाउन खुलने के बाद लोग बाहर किसी बहुत परिचित को देखकर भी नहीं पहचान पाते हैं; क्योंकि मास्क है। अब आज का न्यू नार्मल यही है कि हम अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिए मास्क पहने रहें। मास्क की उपलब्धता के लिए इसका व्यवसाय बहुत तेज़ी से फ़ैल रहा है। एक-से-एक ख़ूबसूरत मास्क, रंग बिरंगे मास्क, परिधान से मैचिंग मास्क, चित्रकारी और फूलकारी किये हुए मास्क, रबड़ व फीते वाले मास्क, अलग-अलग आकार और आकृति वाले मास्क। आजकल परिधान से ज़्यादा नज़र मास्क पर ही है। बच्चे भी बिना ना-नुकुर किये मास्क पहन रहे हैं। बहुत से लोग सुरक्षा के ख़याल से मास्क के ऊपर से फेस शील्ड भी लगाते हैं। शुरू में तो यह सब बड़ा अटपटा लग रहा था; परन्तु अब इसकी आदत हो गई है, देखने की भी और लगाने की भी। परन्तु मास्क के अन्दर होंठों पर हँसी टिकी रहनी चाहिए। हमें ख़ुश रहना है कि हम ज़िन्दा हैं।
हवाई यात्रा में बीच की सीट पर जिन्हें सीट मिलती है उन्हें मास्क, फेस शील्ड के अलावे पी.पी.इ. किट पहनना होता है। यों लगता है जैसे अंतरिक्ष की उड़ान के लिए वे तैयार हुए हैं। लेकिन हवाई-यात्रा में जब भोजन का समय होता है, तो मास्क और फेस शील्ड हटाकर भोजन करते हैं और फिर वापस पहन लिए जातें हैं। मैं सोचती हूँ कि जितनी देर यात्री भोजन करते हैं, क्या कोरोना बैठकर सोचता होगा कि भोजन करते समय संक्रमण नहीं फैलाना चाहिए, इसलिए वह रुक जाता होगा! अन्यथा कोरोना को आने में देर ही कितनी लगती है और दो गज़ की दूरी पर तो कोई भी नहीं रहता है।
एक बात जो मुझे शुरू से अचम्भित कर रही है कि कोरोना की पहली लहर में ग्रामीण क्षेत्र इससे प्रभावित नहीं हुआ। मुमकिन है उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक हो। इस बात पर सभी को विचार करना चाहिए कि पहली लहर में आख़िर इस संक्रमण से गाँव अछूता क्यों रहा? नगर और महानगर इससे ज़्यादा प्रभावित हुए। आश्चर्यजनक यह भी है कि एक ही घर में किसी को कोरोना हुआ, किसी को नहीं। अब यह कोरोना ऐसा क्यों कर रहा, यह भी सोचने का विषय है। सारे तर्क फेल हो रहे हैं। बस जो हो रहा है, उसे देखते जाना है, समय के साथ तालमेल बिठाकर चलना है। आँख बंद कर लेने से न समस्या दूर होती है, न मुट्ठी बंद कर लेने से समय हमारी पकड़ में ठहरा रहता है; इसलिए जितना ज़्यादा हो जीवन में संतुलन बनाकर जीभरकर जीना चाहिए। हमें जीवन में सार्थक बदलाव लाकर जितना ज़्यादा हो सके प्रकृति के साथ जीना चाहिए।
कोरोना महामारी भले ही लाखों लोगों को लील रहा है; लेकिन बहुत बड़ी सीख भी दे रही है। जीवन क्षणभंगुर है, जितना हो सके समय का सदुपयोग करें और खुश रहें। सच तो यही है कि जीवन जीना भूल गए हैं। समय के हाथ की कठपुतली बन उसके इशारे पर बस जीते चले जा रहे हैं। न ख़ुशी, न उमंग, न नयापन। बने बनाए ढर्रे पर ज़िन्दगी घिसट रही है। किसी के पास इतना भी समय नहीं है कि ज़रा-सा रुककर किसी का हाल पूछ लें, किसी से बेमक़सद दो मीठे बोल बोल लें, बेवजह हँसे-नाचें-गाएँ, कुछ पल सुकून से प्रकृति के सानिध्य में चुपचाप बैठ जाएँ, प्रकृति की चित्रकारी को जीभरकर देखें, उससे बातें करें, पशु-पक्षी को अपनी तरह प्राणी समझकर उसे जीने दें। कोरोना महामारी ने हमें ज़रूरत और फ़िज़ूल, प्राकृतिक और अप्राकृतिक, बुनियादी ज़रूरत और विलासिता, स्वाभाविक और कृत्रिम जीवन शैली, अपना-पराया, प्रेम-द्वेष,
अगर कोरोना हो गया तो समुचित इलाज करवाएँ। अगर कोरोना से बचे हुए है,ं तो स्वयं में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का पूर्ण प्रयास करें। जीवन को जितना ज़्यादा हो सके प्रकृति के क़रीब लाएँ, शुद्ध शाकाहारी भोजन एवं नियमित जीवनशैली अपनाएँ, साथ ही मन में सकारात्मक भाव रखें। अभी के इस त्रासद वक़्त में हम ज़िन्दा हैं और दो वक़्त का खाना नसीब है, तो समझना चाहिए कि हम क़िस्मतवाले हैं। भविष्य में क्या होगा कोई नहीं जानता, पर जो समय हमारी मुट्ठी में है, उसे ख़ूब खुश होकर अपनों के साथ हँसते हुए बाँटें। एक गीत जो अक्सर मैं सुनती हूँ ''जो मिले उसमें काट लेंगे हम / थोड़ी खुशियाँ थोड़े आँसू, बाँट लेंगे हम।'' सचमुच वक़्त यही है जब हम दूसरों का दुःख बाँटें, खुशियाँ बाँटें, हँसी बाँटें, समय बाँटें, जीवन बाँटें।
प्रकृति का रहस्य तो सदा समझ से परे है, परन्तु कोरोना काल में समय ने 'समय की क़ीमत' सबको समझा दी है। समय का सदुपयोग कर दुनिया कैसे सुन्दर बनाया और रखा जाए इस पर चिन्तन, मनन और क्रियाशीलता आवश्यक है। हम ख़ुश रहें कि हम ज़िन्दा हैं; साँसों से नहीं आत्मा से ज़िन्दा हैं।
-जेन्नी शबनम (4.8.21)
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Monday, August 25, 2025
127. वृद्धावस्था : अनुभव का पिटारा
मानव तथा मौसम का स्वभाव एक-सा होता है। कब, क्या, कैसे, कौन, कहाँ, क्यों परिवर्तित हो जाए, पता ही नहीं चलता। यों मानव-जीवन तथा मौसम प्रकृति के हिस्से हैं, जिनका परिवर्तन निश्चित व नियत समय पर होता है; परन्तु कई बार ऐसे अप्रत्याशित रूपांतरण होते हैं, जो न निर्धारित हैं न अपेक्षित। मौसम का पूर्वानुमान और ज्योतिष की भविष्यवाणी असत्य सिद्ध हो जाती है; परन्तु सभी की कामना होती है कि जीवन तथा मौसम सदैव उचित व अनुकूल रहे, जिससे जीवन कष्टपूर्ण एवं दुःखमय न बने।
Thursday, June 5, 2025
126. युगीन आवश्यकता की परिणति : सन्नाटे के ख़त -दयानन्द जायसवाल
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| दयानन्द जायसवाल जी और मैं (भागलपुर) |
Sunday, May 25, 2025
125. सन्नाटे के ख़तों की आवाज़ -भीकम सिंह
मेरी छठी पुस्तक 'सन्नाटे के ख़त' की समीक्षा प्रो. डॉ. भीकम सिंह जी ने की है। प्रस्तुत है उनकी लिखी समीक्षा:
सन्नाटे के ख़तों की आवाज़
लम्हों का सफ़र, नवधा, झाँकती
खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) और मरजीना (क्षणिका-संग्रह) को
जोड़कर डॉ. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य-संग्रह (सन्नाटे के ख़त) आया है।
व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के ख़तों से गुज़रते हुए अचरज से भर जाते
हैं; क्योंकि इन ख़तों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फैंटेसी अनेक
भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ।
यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती
है।
प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबन्ध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज़ है, जिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-
एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)
जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज़्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-
बेवक़्त खिंचा आता था मन
बेसबब खिल उठता था पल
हर वक़्त हवाओं में तैरते थे
एहसास जो मन में मचलते थे।
अब इन्तिजार है (पृष्ठ संख्या 29)
जो यह होने को एक निजी इन्तिज़ार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिज़ार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आए बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी
शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं।
उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ
घायल हैं; इसलिए ख़ुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती हैं उस तरफ़ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-
जाने कैसी हवा चल रही है
न ठण्डक देती है, न साँसें देती है
बदन को छूती है
तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है
अब हवा बदल गई है। (पृष्ठ संख्या 52)
अपने गाँव से जुड़ना, अपनी जड़ों से जुड़ना, अपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-
मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से।
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव (पृष्ठ संख्या 58)
अपना
गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान
और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मज़दूर के लिए एक अदद रोटी-
सुबह से रात, रोज सबको परोसता
गोल-गोल, प्यारी-प्यारी, नरम-मु लायम रोटी
मिल जाती, काश!
उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)
‘भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका है, जैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितान्त पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्य हो जाती है-
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता, एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)
और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार की समर्थक होती चली जाती हैं-
इन सभी को देखता वक़्त, ठठाकर हँसता है
बदलता नहीं कानून
किसी के सपनों की ताबीर के लिए
कोई संशोधन नहीं
बस सज़ा मिलती है
इनाम का कोई प्रावधान नहीं
कुछ नहीं कर सकते तुम
या तो जंग करो या पलायन
सभी मेरे अधीन, बस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)
और
फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी ज़िन्दगी का
वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं
और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है।
फैंटेसी की कोई नीति नहीं, कोई दायरा नहीं, यह भावनाओं का आखेट है, जो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-
एक कैनवास कोरा-सा
जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग
पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे
रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)
और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैं, फिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-
मन चाहता
भूले-भटके
मेरे लिए तोहफ़ा लिए
काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)
जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि
इसकी हिमायती हो जाती है और मगज़ के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ
विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा
है रूठा हुआ।
इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझने, उसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने-समझाने में है, जो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पॉइंट है और पाठकों के लिए ज़रूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गम्भीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-
नीयत और नियति समझ से परे है
एक झटके में सब बदल देती है
जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)
जेन्नी
शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को
ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को
किस तरह कहा जा सकता है-
‘क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर
अपने वजूद में शामिलकर
जाने कितना इतराया करती थी
कितने सपनों को गुनती रहती थी
अब यह सब बीते जीवन का क़िस्सा लगता है।
हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)
जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता है, यहाँ सयानापन कतई नहीं है, अति
सूधौ सनेह को मारग है' घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी
प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरज़ोर कोशिश
करती, अनुभूतियों के सफ़र में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, ज़िन्दादिली की सूचक है। ''अपनी पीर छुपाकर जीना, मीठा कहकर आँसू पीना'' पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें, जिन्हें
जेन्नी शबनम ने सपनों में बचाए रखा है। शायद अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की
‘सबसे ख़तरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम
सपनों को ज़िन्दा रखती है और उम्मीद करती है-
शायद मिल जाए वापस
जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)
काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-
प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक
बदन के घेरों में
या मन के फेरों में?
सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है
या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)
‘अलगनी’ उस वातावरण के बारे में है, जो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं।
सन्नाटे के ख़त (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैं, भाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है ही, इसका
सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार-बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में
जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन ख़तों को पढ़कर
अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन ख़तों की आवाज़ साहित्यिक
जगत् में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।
-0-
सन्नाटे के ख़त- डा. जेन्नी शबनम, प्रथम संस्करण- 2024, मूल्य- 425 रु पये, पृष्ठ- 150
प्रकाशकः अयन प्रकाशक, जे-19/139, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059
-भीकम सिंह
दादरी, गौतमबुद्ध नगर
तिथि- 16.5.2025
-0-
- जेन्नी शबनम (25.5.2025)
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लम्हों का सफ़र, नवधा, झाँकती खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) और मरजीना (क्षणिका-संग्रह) को जोड़कर डॉ. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य-संग्रह (सन्नाटे के ख़त) आया है। व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के ख़तों से गुज़रते हुए अचरज से भर जाते हैं; क्योंकि इन ख़तों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फैंटेसी अनेक भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ। यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती है।
प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबन्ध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज़ है, जिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-
एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)
जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज़्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-
बेवक़्त खिंचा आता था मन
बेसबब खिल उठता था पल
हर वक़्त हवाओं में तैरते थे
एहसास जो मन में मचलते थे।
अब इन्तिजार है (पृष्ठ संख्या 29)
जो यह होने को एक निजी इन्तिज़ार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिज़ार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आए बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं। उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ घायल हैं; इसलिए ख़ुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती हैं उस तरफ़ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-
जाने कैसी हवा चल रही है
न ठण्डक देती है, न साँसें देती है
बदन को छूती है
तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है
अब हवा बदल गई है। (पृष्ठ संख्या 52)
अपने गाँव से जुड़ना, अपनी जड़ों से जुड़ना, अपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-
मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से।
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव (पृष्ठ संख्या 58)
अपना गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मज़दूर के लिए एक अदद रोटी-
सुबह से रात, रोज सबको परोसता
गोल-गोल, प्यारी-प्यारी, नरम-मु
मिल जाती, काश!
उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)
‘भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका है, जैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितान्त पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्य हो जाती है-
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता, एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)
और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार की समर्थक होती चली जाती हैं-
इन सभी को देखता वक़्त, ठठाकर हँसता है
बदलता नहीं कानून
किसी के सपनों की ताबीर के लिए
कोई संशोधन नहीं
बस सज़ा मिलती है
इनाम का कोई प्रावधान नहीं
कुछ नहीं कर सकते तुम
या तो जंग करो या पलायन
सभी मेरे अधीन, बस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)
और फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी ज़िन्दगी का वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है। फैंटेसी की कोई नीति नहीं, कोई दायरा नहीं, यह भावनाओं का आखेट है, जो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-
एक कैनवास कोरा-सा
जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग
पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे
रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)
और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैं, फिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-
मन चाहता
भूले-भटके
मेरे लिए तोहफ़ा लिए
काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)
जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि इसकी हिमायती हो जाती है और मगज़ के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा है रूठा हुआ।
इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझने, उसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने-समझाने में है, जो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पॉइंट है और पाठकों के लिए ज़रूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गम्भीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-
नीयत और नियति समझ से परे है
एक झटके में सब बदल देती है
जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)
जेन्नी शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को किस तरह कहा जा सकता है-
‘क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर
अपने वजूद में शामिलकर
जाने कितना इतराया करती थी
कितने सपनों को गुनती रहती थी
अब यह सब बीते जीवन का क़िस्सा लगता है।
हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)
जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता है, यहाँ सयानापन कतई नहीं है, अति सूधौ सनेह को मारग है' घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरज़ोर कोशिश करती, अनुभूतियों के सफ़र में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, ज़िन्दादिली की सूचक है। ''अपनी पीर छुपाकर जीना, मीठा कहकर आँसू पीना'' पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें, जिन्हें जेन्नी शबनम ने सपनों में बचाए रखा है। शायद अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की ‘सबसे ख़तरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम सपनों को ज़िन्दा रखती है और उम्मीद करती है-
शायद मिल जाए वापस
जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)
काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-
प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक
बदन के घेरों में
या मन के फेरों में?
सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है
या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)
‘अलगनी’ उस वातावरण के बारे में है, जो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं।
सन्नाटे के ख़त (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैं, भाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है ही, इसका सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार-बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन ख़तों को पढ़कर अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन ख़तों की आवाज़ साहित्यिक जगत् में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।
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सन्नाटे के ख़त- डा. जेन्नी शबनम, प्रथम संस्करण- 2024, मूल्य- 425 रु
प्रकाशकः अयन प्रकाशक, जे-19/139, राजापुरी,
-भीकम सिंह
दादरी, गौतमबुद्ध नगर
तिथि- 16.5.2025
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- जेन्नी शबनम (25.5.2025)
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