सोचते-सोचते दिमाग़ जैसे शून्य हो जाता है। मन ही नहीं आत्मा भी सदमे में है। मन में मानो सन्नाटा गूँज रहा है। कमज़ोर और असहाय होने की अनुभूति हर वक़्त डराती है और नाकाम होने का क्षोभ टीस देता है। हताशा के कारण जीवन जीने की शक्ति ख़त्म हो रही है। आत्मबल तो मिट ही चुका है, आत्मारक्षा की कोई गुंजाइश भी नहीं बची है। सारे सपने तितर-बितर होकर किसी अनहोनी की आहाट को सोच घबराए फिरते हैं। मन में आता है चीख-चीखकर कहूँ- ''ऐसी खौफ़नाक दुनिया में पल-पल मरकर जीने से बेहतर है, ऐ आधी दुनिया, एक साथ ख़ुदकुशी कर लो।''
हर दिन बलात्कार की वीभत्स घटनाओं को सुनकर 13 वर्षीय बच्ची अपनी माँ से कहती है- ''माँ, चलो किसी और देश में रहने चले जाते हैं। वहाँ कम-से-कम इतना तो नहीं होगा।'' माँ ख़ामोश है। कोई जवाब नहीं। ढाढस और हौसला बढ़ाने के लिए शब्द नहीं। बेटी को बेफ़िक्र हो जाने के लिए झूठी तसल्ली के कोई बोल नहीं। माँ की आँखें भींग जाती हैं। एक सम्पूर्ण स्त्री बन चुकी वह माँ जानती है कि वह ख़ुद सुरक्षित नहीं, तो बेटी को क्या कहे। उसके डर को कैसे दूर करे, किस देश ले जाए जहाँ उसकी बेटी पूर्णतः सुरक्षित हो। कम-से-कम इस दुनिया में तो ऐसी कोई जगह नहीं है। बेटी से माँ कहती है- ''ख़ुद ही सँभलकर रहो, बदन को अच्छे से ढँककर रहो, शाम के बाद घर से बाहर नहीं जाना, दिन में भी अकेले नहीं जाना, कुछ थोड़ा-बहुत ग़लत हो जाए तो चुप हो जाना वर्ना उससे भी बड़ा ख़म्याज़ा भुगतना पड़ेगा, किसी भी पुरुष पर विश्वास नहीं करना चाहे कितना भी अपना हो।'' लड़की बड़ी हो चुकी है। सवाल उगते हैं- आख़िर 80 साल की स्त्री के साथ बलात्कार क्यों? जन्मजात लड़की के साथ क्यों? 5 साल की लड़की के साथ क्यों? 6 साल, 7 साल, किसी भी उम्र की स्त्री के साथ...क्यों?... क्यों? ...क्यों?
कहाँ जाए कोई भागकर? किस-किस से ख़ुद को बचाए? ख़ुद को क़ैदखाने में बंद भी कर ले, तो क़ैदखाने के पहरेदारों से कैसे बचे? हर कोई इन सभी से थक चुका है, चाहे स्त्री हो या कोई नैतिक पुरुष। सभी पुरुषों की माँ-बहन-बेटी है; सभी सशंकित और डरे-सहमे रहते हैं। दुनिया का ऐसा एक भी कोना नहीं जहाँ स्त्रियाँ पूर्णतः सुरक्षित हों और बेशर्त सम्मान और प्यार पाएँ। हम सभी हर सुबह किसी दर्दनाक घटना के साक्षी बनते हैं और हर शाम ख़ुद को साबूत पाकर ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हैं। हर कोई स्वयं के बच जाने पर पलभर को राहत महसूस करता है, लेकिन दूसरे ही पल फिर से सहम जाता है कि कहीं अब उसकी बारी तो नहीं। ख़ौफ़ के साए में ज़िन्दगी जी नहीं जाती, किसी तरह बसर होती है; चाहे वह किसी की भी ज़िन्दगी हो।
सारे सवाल बेमानी। जवाब बेमानी। सांत्वना के शब्द बेमानी। हर रिश्ते बेमानी। शिक्षा, धर्म, गुरु, कानून, पुलिस, परिवार सभी नाकाम। जैसे शाश्वत सत्य है कि स्त्री का बदन उसका अभिशाप है; वैसे ही शाश्वत सत्य है कि पुरुष की मानसिकता बदल नहीं सकती। कामुक प्रवृति न रिश्ता देखती है, न उम्र, न जात-पात, न धर्म, न शिक्षा, न प्रांत। स्त्री देह और उस देह के साथ अपनी क्षमता भर हिंसक क्रूरता; ऐसे दरिन्दों की यही आत्मिक राक्षसी भूख है। ऐसे पुरुष को पशु कहना भी अपमान है; क्योंकि कोई भी पशु सिर्फ़ शारीरिक भूख मिटाने या वासना के वशीभूत ऐसा नहीं करता है। पशुओं के लिए यह जैविक क्रिया है, जो ख़ास समय में होता है। पुरुषों की तरह कामुकता उनका स्वभाव नहीं और न ही अपनी जाति से अलग वे ऐसा करते हैं। पुरुष के वहशीपना को रोग की संज्ञा देकर उसका इलाज करना उचित नहीं; क्योंकि ऐसे लोग कभी सुधरते नहीं हैं, अतः वे क्षमा व दया के पात्र नहीं हो सकते। कानून और पुलिस ऐसे लोगों के लिए मज़ाक की तरह है। अपराधी अगर पहुँच वाला है तो फ़िक्र ही क्या, और अगर निर्धन है तो जेल की रोटी खाने में बुराई ही क्या।
निश्चित ही मीडिया की चौकसी ने इन दिनों बलात्कार की घटनाओं को दब जाने से रोका है; परन्तु कई बार मीडिया के कारण ऐसे हादसे दबा दिए जाते हैं और बड़े-बड़े अपराधी खुले-आम घूमते हैं। सरकार, सरकारी तंत्र, मीडिया और कानून के पास ऐसी शक्ति है कि चाहे तो एक दिन के अंदर सभी अपराधों पर क़ाबू पा लें। लेकिन सभी के अपने-अपने हिसाब अपने-अपने उसूल। जनता असंतुष्ट और डरी रहे, तभी तो उन पर शासन भी सम्भव है। बलात्कार जैसे घृणित अपराध का भी राजनीतिकरण हो जाता है। सभी विपक्षी राजनैतिक पार्टियों को जैसे सरकार को कटघरे में लाने का एक और मौक़ा मिल जाता है। सत्ता परिवर्त्तन, तात्कालीन प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के इस्तीफ़ा से क्या ऐसे अपराध और अपराधियों पर अंकुश सम्भव है? हम किसी ख़ास पार्टी पर आरोप लगाकर अपने अपराधों से मुक्त नहीं हो सकते।
प्रशासन, पुलिस, कानून हमारी सुरक्षा के लिए है; लेकिन अपराधी भी तो हममें से ही कोई है, इस बात से हम इंकार नहीं कर सकते। अपराध भी हम करते हैं और उससे बचने के लिए भ्रष्टाचार को बढ़ावा भी हम ही देते हैं। हम ही सरकार बनाते हैं और हम ही सरकार पर आरोप लगाते हैं। हम ही कानून बनाते हैं और हम ही कानून तोड़ते हैं। हम में से ही कोई किसी की माँ-बहन-बेटी के साथ बलात्कार करता है और अपनी माँ-बहन-बेटी की हिफाज़त में जान भी गँवा देता है। आख़िर कौन हैं ये अपराधी? जिनकी न जाति है न धर्म। इनके पास इस अपराध को करने का कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं होता है और निश्चित ही इनके घरवाले ऐसे अपराध करने पर शाबासी नहीं देते होंगे। कानून और पुलिस की धीमी गति और निष्क्रियता, कानून का डर न होना और सज़ा का कम होना ऐसे अहम् कारण हैं जो ऐसे अपराध को रोक नहीं पाते हैं।
कुछ अपराध ऐसे होते हैं जिनकी सज़ा मृत्यु से कम हो ही नहीं सकती तथा 'जैसे को तैसा' का दंड नहीं दिया जा सकता; बलात्कार ऐसा ही अपराध है। इस जुर्म की सरल सज़ा और मृत्यु से कम सज़ा देना अपने-आप में गुनाह है। ऐसे अपराधी किसी भी तबक़े के हों, आरोप साबित होते ही बीच चौराहे पर फाँसी दे दी जानी चाहिए। ताकि ऐसी मनोवृति वाला दूसरा अपराधी डर के कारण ऐसा न करे। न्यायप्रणाली और पुलिस को संवेदनशील, निष्पक्ष और जागरूक होना होगा। अन्यथा ऐसे अपराध कभी न रुकेंगे।
- जेन्नी शबनम (21.4.2013)
___________________
23 comments:
जेन्नी बहन आपका लेख कड़वी हकीकत बयान करता है । हम किसी आदिम समाज में नहीं वरन पशुओं से भी बदतर किसी समाज में रह रहे हैं । फ़िल्म से लेकर साहित्य(?) तक हम रोज़ कुत्सा ही परोस रहे हैं,जिसका एकमात्र उद्देश्य है क्रूर और विकृत आनन्द । इस पापकर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं । हमारी आज की शिक्षा बच्चों लो केवल रेसकोर्स का घोड़ा बना रही है, उन्हें संस्कार नहीं दे रही है । परिवार और शिक्षा केन्द्र भी अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में असफल हो रहे हैं । आज इस समाज को इलाज नहीं सर्जरी चाहिए । बयान बहादुर बयान देते रहेंगे और ये नरपशु कुकर्म में लिप्त होते रहेंगे , प्रशासन कड़ी कार्यवाही का ढोल पीटता रहेगा ।क्रूर यथार्थ जानकर बस सदमा ही लगता है , एक दिन नहीं रोज़ -रोज़ ।
uff ...aankhein nam kar di aapke lekh ne ....
जेन्नी जी ! प्रतिक्रया में बस चंद बूंदें आंसुओं की नारी के नारकीय जीवन पर ...जो कभी दरिया बन जाती थी पर अब किसी के दिल को नहीं भिगोती ..
मैं आश्चर्य चकित हूँ इन महापुरुषों की नपुंसकता को देखकर जो इस जघन्य अपराध के लिए एक साथ मिलकर मृत्युदंड की सजा को पास नहीं करा पा रहे हैं आज मैं आहत हूँ कहीं कल ये परिवार के साथ न हो जाये मैं हथियार ठाणे में कोई संकोच नहीं करूँगा चाहे उसके बाद मुझे फांसी हो जाए
ab to aisa lagta hai ki aadmiyon ko ghar ya jail me hi band karna hoga .sarthak prastuti.
निश्चित ही इनके घरवाले ऐसे अपराध करने पर शाबासी नहीं देते हैं
जेन्नी जी यह सही है कि घर वाले ऐसे अपराध करने पर शाबासी नहीं देते लेकिन अपराध करने पर सजा भी तो नहीं देते, इन अपराधों की रोकथाम घर परिवार से ही हो सकती है ... अपराधी के परिवार के सदस्य इन अपराधों को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। घर वाले ही अपने परिवार के सदस्य की अपराधिक प्रवृत्ति को पहचान उसे सुधारने की पहल कर सकते हैं, उसके शुरुआती अपराधों को यूँ ही नजर अंदाज नहीं करना चाहिए अपराधी हमारे बीच ही होते हैं, हमारे आपके जैसे घरों के ही सदस्य होते हैं .... और इस वैचारिक, चारित्रिक गंदगी का इलाज भी हमें ही करना होगा . मीडिया, पुलिस या सरकार के भरोसे हम इस कैंसर को यूँ ही बे-लगाम बढ़ते नहीं दे सकते।
मैंने पहले भी एक आलेख में ऐसा लिखा था कि शुरुआत घर-परिवार से ही करनी होगी, बच्चों को बचपन से सही-गलत की शिक्षा देनी होगी, माँ-बाप को चरित्र निर्माण की जिम्मदारी निभानी होगी। सामाजिक नैतिक मूल्यों का गिरता हुआ स्तर ही इस तरह की बढ़ती हुयी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। मीडिया हो या रक्षक, सर्कार हो या प्रशासन हर जगह भृष्ट लोग और भृष्ट नीतियों का ही बोलबाला है। हम ऊपर ऊपर से चाहे जितनी कोशिश कर लें जब तक बीमारी का जड़ से इलाज नहीं किया जायेगा यह बार बार अपना सर उठती रहेगी .
लेकिन फौरी तौर पर इस कैंसर का इलाज युद्ध स्तर पर ही करना चाहिए ... बेशक समाज में बर्बरता की अनुमति नहीं होना चाहिए लेकिन जब आग लगी हो तो पहले उसे बुझाना चाहिए उसके बाद आग न लगने के उपायों पर काम करना चाहिए .. ठीक उसी तरह हमें त्वरित और शीघ्र कदम उठा कर इन अपराधों को रोकना ही होगा .... राक्षसी प्रवृत्ति के लोगों का संघार ही शायद आज के वक्त की जरुरत है ....
manju mishra
www.wordpress.com
आपकी इस प्रविष्टि क़ी चर्चा सोमवार [22.4.2013]के एक गुज़ारिश चर्चामंच1222 पर
लिंक क़ी गई है,अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए पधारे आपका स्वागत है |
सूचनार्थ..
सच में आत्मा आहत है इन घटनाओं के बारे में जानकर ... मन में रोष और विषाद भरा है
समाज में मूल्यों का ह्रास, रास-रंग से तनाव को दूर करने की कोशिश और आगे बढ़ने की आपा-धापी में लगता है इंसानियत कही पीछे ही छूट गयी है।
बिल्कुल सही बात लिखी है आपने जेन्नी जी! हम पूरी तरह आपसे सहमत हैं!
बहुत असहाय महसूस करते हैं अपने आप को! हर कोई अपने बच्चों को सही शिक्षा दे... मगर जो खुद ही ऐसा हो... वो उन्हें क्या शिक्षा देगा? हर गुरु अपने शिष्य को सही राह दिखाए... मगर जो खुद ही राह से भटका हुआ हो.... वो उन्हें क्या शिक्षा देगा, या फिर जो विद्यालय ही नहीं जाता हो, वो कहाँ से शिक्षा लेगा ? बहुत उलझ गया है ये सारा ताना-बाना!
जनता को ना पुलिस पर भरोसा रह गया है, ना ही सरकार पर...और तो और...लोगों का तो अपनों पर से भी विश्वास हट गया है!
सुधार की बहुत सख़्त ज़रूरत है, साथ ही बदलाव की! अपनी सुरक्षा अब हमें स्वयम् ही करनी पड़ेगी... वो भी एकजुट होकर!
और जहाँ तक न्याय का सवाल है, अगर जुर्म साबित हुआ है..तो फिर बिल्कुल भी देरी नहीं करनी चाहिए सज़ा देने में..वो भी कड़ी से कड़ी सज़ा..-जिसे पूरी दुनिया देखे और कोई भी ऐसा कुकर्म करने के पहले कई बार सोचे!
~सादर!!!
aaj kii paristhitiyon par bahut sashakt lekhan aapkaa ...samasyaa ke saath hii samaadhaan kii or bhii ingit kartee prastuti ke liye aap saadhuwaad kii paatr hain !!
saadar
jyotsna sharma
behad gambhir aur vicharniy prastuti,sadar** सारे सवाल बेमानी । जवाब बेमानी । सांत्वना के शब्द बेमानी । हर रिश्ते बेमानी । शिक्षा, धर्म, गुरु, कानून, पुलिस, परिवार सभी नाकाम । जैसे शाश्वत सत्य है कि स्त्री का बदन उसका अभिशाप है; वैसे ही शाश्वत सत्य है कि पुरुष की मानसिकता बदल नहीं सकती है । कामुक प्रवृति न रिश्ता देखती है न उम्र न जात-पात न धर्म न शिक्षा न प्रांत
aapke aalekh se gujarte vakt main kaee baar dehshat se to kaee baar gusse se bharta rahaa. aaj ki sanskaar veehin pidee kis aur jaa rahii hai.use pata hee nahin hai ki veh kar kayaa rahaa hai.mujhe Aadarniya Bankim Chattopadhayay jee ka ek upanyaas kabhee bachpan men padaa tha,jismen samajik rishton kii maakul vyaakhyaa ki the ek patr ke maadhyam se,jise main kabhee bhool nahin paaya.apne samay ko tatha samaajik rishton ko kareeb se samajne ki jameen taiyaar kar sakaa.aaj ki yuva pidi sirph ashleel kahani kisson tak seemet hokar reh gayaa hai,jo ki ghaatak sidh ho rahaa hai.sochta hoon aakhir ham kahaan aa gaye hain.iska koee ant bhee hai?
khair aapke is sarthak lekh ke liye badhai detaa hoon kyonki aapne itnaa sahas to dikhaya apni baat ko vayakt kar ke,anyatha log chuppi saadh lete hain.
काम्बोज भाई,
अक्सर सोचती हूँ कि आदिम समाज में भले शिक्षा नहीं थी लेकिन किसी न किसी रूप में मनुष्यों का जीवन एक निश्चित प्राकृतिक नियमों से संचालित होता था. जैसे जैसे सभ्यता और संस्कार की बात जोर पकड़ रही है उतना ही मनुष्य पाप के धरातल में धंसता जा रहा है. पशु समाज प्राकृतिक नियम पर चलता है, जिनमें मानव-सी सोचने के शक्ति नहीं लेकिन मनुष्यों सा अधर्मी नहीं. शायद इसी लिए कई बार पशु को मनुष्य से ज्यादा इमानदार माना जाता है. बस एक मात्र मनुष्य ही है जो जान बुझ कर गुनाह करता है. निश्चित ही जब शिक्षा धर्म आदि हार जाए तब एक मात्र उपाय बचता है कि गुनाहगारों के प्रति असंवेदनशील होकर क्रूरतम सज़ा दी जाए, भले यह मानवीय न हो. धन्यवाद.
हरकीरत जी,
दुनिया के हालात ऐसे हैं कि हमारी आँखें भीगती है और पोछने वाला कोई नहीं. प्रतिक्रया के लिए कोटिशः धन्यवाद.
कमला जी,
दिन पर दिन दुनिया इतनी बदरंग होती जा रही कि बस आँसू ही बह पाते हैं. किसी का दिल नहीं पिघलता इससे... प्रतिक्रया के लिए धन्यवाद.
रामाकांत जी,
सच है कि हम सभी हर वक़्त डर और आशंका में जीवन जीते हैं. अपने परिवार के साथ कुछ हो तो हम आप हथियार तो उठा ही लेंगे और एक अपराधी को सज़ा दे देंगे, लेकिन जिसके साथ हुआ उसकी ज़िंदगी का क्या? ऐसा किसी के साथ न हो इसके लिए तो संविधान और क़ानून को ही कठोर होना होगा. बहुत दुखद है ऐसे अपराध की पुष्टि होने के बाद भी लम्बी कानूनी प्रक्रिया और सज़ा में देरी ... धन्यवाद.
शालिनी जी,
घर या जेल पुरुष की मानसिकता वही... स्त्रियाँ सुरक्षित कहाँ... धन्यवाद.
मंजू जी,
सही कहा आपने कि बीमारी का इलाज जड़ से करना होगा और राक्षसी प्रवृति के लोगों का संहार करना होगा. कुछ हद तक यह सही है कि परिवार अपराधी पर अंकुश लगा सकता है. लेकिन मुझे लगता है जब तक बच्चा छोटा हो तब तक ही, बड़े होने के बाद जो क़ानून से नहीं डरता वो घर परिवार से क्या डरेगा. कई बार देखा गया है कि सीधे सरल माता पिता की संतान अपराधी बन जाती है.जिस परिवार का नैतिक मूल्य गिरा हुआ हो उन परिवारों के बच्चे भी वैसे ही होते हैं. फिर सुधार की प्रक्रिया कैसे हो? इस लिए किसी ख़ास नियम को मान कर चला नहीं जा सकता. मुझे लगता है कि बलात्कार जैसे अपराध को रोकने के लिए बलात्कारी को मृत्यु दंड की सज़ा देना ही एक मात्र उपाय है. कानून का प्रभावी होना बहुत आवश्यक है. सार्थक प्रतिक्रया के लिए धन्यवाद.
विकृत मानसिकता को प्रभावपूर्ण ढ़ंग से अनावृत करता सशक्त लेख।
निःशब्द...ये घटनाएँ मन को बहुत गहरे तक उद्वेलित कर जाती हैं...ऐसी उथल-पुथल मचाती हैं जिन्हें शब्दों में बयान कर पाना मुमकिन नहीं...|
सार्थक लेख...|
har jagar shaitan ghoom rahe hain ....vikat paristhiti ho gai hai ....
Dr.Shabnam,
These unsaid circumstances really disturb us.
Really well written.
Please visit my blog Unwarat.com & give your comments.
Vinnie
Post a Comment