''न चल सकते, न सो सकते, न बैठ सकते हैं, कैसे जीवन काटें?'' कहते-कहते आँसू भर आते हैं गीता देवी की आँखों में। मेरे पास कोई जवाब नहीं, क्या दूँ इस सवाल का जवाब? मैं पूछती हूँ ''कब से आप बीमार हैं?'' 50 वर्षीया शान्ति देवी विकलांग हो चुकी हैं, रो-रोकर बताती हैं ''जब से सरकार ने चापाकल गाड़ा है ज़हर पी-पीके हमारा ई हाल हुआ है।'' वे अपने दोनों पाँव को दिखलाती है, जिसकी हड्डियाँ टेढ़ी हो चुकी हैं। उन्होंने कहा ''जब तक चापाकल नहीं गाड़ा गया था, तब तक पानी का बहुत दिक्क़त था।लेकिन अब लगता है कि ये चापाकल ही हमारा जान ले लेगा, तो हम कभी इसका पानी नहीं पीते।'' खटिया पर बैठे हुए वह अपने घर का चापाकल दिखाती है और इशारा करती है उन डब्बों की ओर जिसमें पानी भरकर रखा हुआ है। वह कहती हैं कि सरकार थोड़ा-बहुत पानी का इन्तिज़ाम की है, वहीं से पानी लाकर रखते हैं, बाक़ी काम तो इसी ज़हर वाले पानी से करना पड़ता है।''
45 वर्षीया गीता देवी का पूरा बदन सूख गया है, दोनों हाथ-पाँव की हड्डियाँ टेढ़ी होकर अकड़ गई हैं, ख़ुद से कुछ नहीं कर सकतीं। अपना व्यक्तिगत काम करने में भी असमर्थ हैं। उनकी बीमारी के कारण देखकर लगता है जैसे वह 60 साल की हों। उनसे पूछने पर कि यह बीमारी कब से है, वे ऐसे देखती हैं मानो उनके कान सुन्न पड़ चुके हैं और ज़ुबाँ भी ख़ामोश, बस बेचारगी से चुपचाप देखती हैं। उसका पति बताते हैं कि क़रीब 2-3 साल पहले बीमार हुई और धीरे-धीरे पूरा देह सूखकर अकड़ गया। वे बताते हैं कि वही ज़हर जो पूरे गाँव को एक-एक करके खा रहा है उसी से ऐसा हाल हुआ है।
डी.पी.एस. भागलपुर के प्रधानाध्यापक श्री राकेश सिंह और हिन्दी की शिक्षिका श्रीमती अलका सिंह के साथ मैं भागलपुर शहर से क़रीब 15 किलोमीटर दूर जगदीशपुर प्रखंड के कोलाखुर्द गाँव में पहुँची। राकेश सिंह के एक मित्र जो भागलपुर में फिजियोथेरेपिस्ट हैं और उस गाँव के मरीजों को देखने जाते हैं, हमारे साथ थे। गाँव में घुसते ही 20-25 लोग इकट्ठे हो गए। सभी का अपना-अपना दर्द, कुछ बदन की पीड़ा कुछ मन की पीड़ा। ग्रामीणों ने बताया कि तक़रीबन 2000 की आबादी वाले इस गाँव में लगभग 100 व्यक्ति पूर्णतः या अंशतः विकलांग हो चुके हैं। कितने बड़े-बड़े नेता आए, कितने पेपरों में छपा। देश में कई जगहों पर यहाँ का पानी टेस्ट हुआ और सभी रिपोर्ट में आर्सनिक और फ्लोराइड होने की पुष्टि हुई। फिर भी कोई कुछ नहीं करता। अब भी ज़हर वाला पानी पी रहे हैं सभी। फ्लोराइड और आर्सनिक के कारण लगभग सभी को जोड़ में दर्द और हड्डी की समस्या है। रीढ़ की हड्डी धनुष की तरह मुड़ गई है। कई लोगों ने गाँव को छोड़ दिया है। ग्रामीणों ने बताया कि यहाँ कोई अपनी बेटी नहीं देना चाहता, न यहाँ की बेटी से कोई जल्दी ब्याह करना चाहता है। अपना खेत होते हुए भी कई लोग खेती छोड़कर पंजाब, गुजरात, दिल्ली पलायन कर चुके हैं। उनकी कमाई इतनी कम है कि घरवालों को ले नहीं जा सकते और जितना कमाते हैं परिवार वालों की बीमारी पर ख़र्च हो जाता है। छोटे-छोटे बच्चों का पाँव टेढ़ा हो गया है, वे सीधे चल नहीं पाते हैं। सरकार योजना तो बनाती है, लेकिन कितने लोगों को अपाहिज बनाने के बाद कुछ करेगी क्या पता।
कोलाखुर्द गाँव जहाँ अधिकांश राजपूत हैं और सबके पास खेत है, परन्तु सिंचाई के अभाव में खेत-खलिहान बंजर पड़े हुए हैं। सभी घरों में एक न एक व्यक्ति ज़रूर है जिसे आर्सनिक और फ्लोराइड के दुष्प्रभाव ने मरीज़ बना दिया है। तक़रीबन 30 वर्षों से यहाँ यह समस्या है। लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग ने यहाँ पर स्वच्छ पानी के लिए मिनी प्लांट बिठाया है जिसमें कोई ख़ास दवा डाली जाती है, जिससे पानी शुद्ध होता है। इस दवा की क़ीमत लाखों में है। सरकार द्वारा नियुक्त ठीकेदार अपनी मनमानी करता है और समय पर दवा नहीं डालता, जिसके कारण ये पानी भी ज़हरीला है। जिन-जिन चापाकलों के पानी में आर्सनिक या फ्लोराइड की मात्रा ज़्यादा है, उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिए गए हैं और पानी के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है। परन्तु सभी लोग इन चापाकलों के पानी का उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि मिनी प्लांट समुचित पानी देने में असमर्थ है। लाल निशान वाले एक चापाकल से एक चुल्लू पानी मैंने पीकर देखा कि पीने में ये कैसा लगता है। स्वाद में सामान्य पानी जैसा ही रंगहीन गंधहीन। लेकिन ऐसे रसायन का समिश्रण जिससे इंसान की ज़िन्दगी में तक़लीफ़ और दर्द का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है, जो मृत्युपर्यन्त रहता है।
इस गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर नारायणपुर कोलाखुर्द गाँव है, जहाँ एक कुआँ है, जिसके पानी में न तो फ्लोराइड है न आर्सनिक। सरकार ने एक योजना बनाई है जिसके तहत इस कुआँ के पास एक बड़ा कुआँ खोदकर पाईप लाइन द्वारा घर-घर पानी की आपूर्ति जाएगी। लेकिन हर सरकारी योजनाओं की तरह यह योजना भी फाइलों में दबी पड़ी है। यहाँ के लोगों के द्वारा बार-बार माँग करने पर सरकार ने तीन महीने के अंदर योजना के कार्यान्वयन की बात कही थी, लेकिन तीन महीने गुज़र चुके हैं।ग्रामीणों की स्थिति और भी विकट होती जा रही है।
भागलपुर का यह जगदीशपुर प्रखंड कतरनी चावल के उत्पादन के लिए समूचे देश में प्रसिद्ध है। लेकिन इसका कोलाखुर्द गाँव न अनाज उपजाता है न कोई सब्ज़ी, क्योंकि सिंचाई तो इसी पानी से करनी होगी। सिर्फ़ वर्षा के पानी पर निर्भर होकर खेती सम्भव नहीं है। जिन्हें भी संभव हो सका वे गाँव छोड़कर चले गए। जो बिल्कुल असमर्थ हैं शारीरिक या आर्थिक रूप से, धीरे-धीरे ख़ुद को ख़त्म होते देख रहे हैं। अधिकांश मरीज़ ऐसे हो चुके हैं जिनका इलाज सम्भव नहीं है। न उठ सकते, न हिल सकते, न स्वयं दैनिक क्रिया-कलाप कर सकते, ख़ामोशी से मृत्यु का इन्तिज़ार कर रहे हैं।
इस गाँव से लगा हुआ मध्य विद्यालय है, जिसमें 145 बच्चे और 4 शिक्षक हैं। कितने बच्चों को विकलांगता है, यह पूछने पर शिक्षकों ने अनभिज्ञता जताई। 5 बच्चे वहीं सामने दिख गए जिनके पाँव की हड्डी टेढ़ी हो गई है।स्कूल परिसर में मध्याह्न भोजन बनता है और बच्चों को खिलाया जाता है। आज भात (चावल) और दाल फ्राई बना, जिसमें दाल कम और पीला पानी ज़्यादा था। खाना बनाने वाली हमें देखकर डर गई कि कहीं सरकार की तरफ़ से कोई जाँच-पड़ताल तो नहीं। राकेश सिंह ने वहाँ की भाषा (अंगिका) में उसे समझाया कि डरो नहीं हम लोग सरकार के यहाँ से नहीं आए हैं, बस घूमने आए हैं। बहुत कहने पर भी वह खाना दिखाने से डरती रही, फिर वहीं के एक छात्र ने ढक्कन खोलकर खाना दिखाया। मेनू के हिसाब से खाना बना है, लेकिन मात्रा और पोषकता को कोई नहीं देखता। बीच-बीच में इसका भी अकस्मात अवलोकन और परीक्षण आवश्यक है।
कोलाखुर्द का दर्द पिघल-पिघलकर पूरे देश के अख़बार की ख़बरों का हिस्सा बनता है, लेकिन किसी इंसान के दिल को नहीं झकझोरता, न तो सरकार की व्यवस्था पर सवाल उठाता है। यहाँ स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है। भागलपुर जाकर इलाज कराना इनके लिए मुमकिन नहीं; क्योंकि आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि रोज़गार छोड़कर अपने घर वालों का अच्छा इलाज करा सकें। सरकार ने उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिया है, जिसका पानी दूषित है। प्लांट में समुचित पानी नहीं आता है जिससे पूरे गाँव को पानी मिल सके; यों प्लांट भी दवा के अभाव में अशुद्ध पानी ही दे रहा है।ग्रामीणों के पास दो विकल्प हैं, या तो ज़हर पी-पीकर धीरे-धीरे पीड़ा से मरें या गाँव छोड़ दें। एक और विकल्प है जिससे कोलाखुर्द को बचाया जा सकता है और वह है सामूहिक आंदोलन, जिसके लिए समस्त ग्रामीणों को एकजुट होकर हिम्मत दिखानी होगी। फिर शुद्ध पानी-सप्लाई की ठण्डी योजना फ़ाइल से निकल कोलाखुर्द तक पहुँचेगी और एक गाँव मिटने से बच जाएगा। कई बार अधिकार न मिले तो छीनना पड़ता है और शुद्ध पानी हक़ हमारा कानून हमें देता है ।
एक सवाल जो मेरे ज़ेहन में आया और मैं पूछने से ख़ुद को रोक न सकी कि जब सभी जान चुके हैं कि पानी ज़हरीला है, तो महज एक किलोमीटर दूर जहाँ शुद्ध पानी है, वहाँ से कम-से-कम पीने का पानी तो हर घर में लाया जा सकता है, जबतक कि सरकार योजना पर अमल नहीं करती है। यों भी सरकार द्वारा चापाकल गड़वाने से पहले यहाँ के ग्रामीण उसी कुआँ से पानी लाते थे। ज़िन्दगी दाँव पर लगा सकते हैं, लेकिन थोड़ा अधिक मेहनत नहीं कर सकते। सरकार तो अपनी ही रफ़्तार से चलती है, लेकिन हमें अपनी रफ़्तार तो बढ़ानी और बदलनी चाहिए।
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अलका सिंह, राकेश सिंह और मैं
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जेन्नी शबनम (8.6.2012)
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6 comments:
अपनी ज़िन्दगी के लिये सरकार पर पूरी तरह निर्भर रहना ठीक नहीं। गाँव वालों को ही मिलकर कोई उद्यम करना चाहिये, तीस साल से जो सरकारें सुन नहीं पा रही हैं वे अब क्या सुनेंगी? अधिकारियों ने तो लाल निशान लगाकर और मुनादी करवा के अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली है। पर य समस्या का समाधान तो नहीं।
सच मे इस हालात मे आप लोग जो काम कर रहे हैं, वाकई काबिले तारीफ है
मैं सैल्यूट करता हूं आप और आपकी टीम को
बताइये विकास के ना जाने कितने बड़े बड़े दावे किए जाते हैं। असल तस्वीर देखकर मन दुखी हो जाता है। आज हम लोगों तक शुद्ध पानी नहीं पहुंचा पा रहे हैं तो गरीबों को दोनों वक्त का भोजन क्या दे पाएंगे। जेन्नी मेम आंखे खोलने वाली पोस्ट है, बहुत बहुत शुभकामनाएं...
bahut badhia jankari jagrukta badhane ke sath sath sarkari prayas bhi jaruri hai....
यह हमारी,समाजिक-राजनैतिक इक्षाशक्ति का ना होना,साथ ही हम आम लोगों का औरों पर
आश्रित रहने की मानसिकता की त्रासदी को दर्शाता,आपका आलेख जमीनी हकीकत से रूबरू कराता है.आप इस दिशा में,जागरूकता फैला रहीं हैं, यह भी प्रसंशनीय है.
जिन्हें नाज है हिन्द पे वो कहाँ हैं...
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