Monday, May 14, 2012

36. मुझे नहीं जीना ऐसी दुनिया में (व्यथा-कथा)

रात के लगभग 8 बजे थे। प्राइवेट नर्सिंग होम में एक स्त्री को इमरजेंसी में भर्ती कराया गया और उसका अल्ट्रासाउंड हो रहा था। स्त्री लगातार दर्द से रो रही थी और बीच-बीच में अँगरेज़ी में डॉक्टर से कुछ-कुछ पूछ रही थीडॉक्टर ने कान में आला लगाकर बच्चे की धड़कन सुनने की कोशिश की।तभी भ्रूण ने चिल्लाकर कहा ''डॉक्टर, मुझे मार डालो, मैं इस दुनिया में नहीं आना चाहती, मेरी हत्या कर दो।'' डॉक्टर ने कहा ''ऐसा क्यों कह रही हो, तुम 3 महीने की हो चुकी हो, अब ये मुमकिन नहीं और ऐसा मैं क्यों करूँ?'' भ्रूण ने बेहद कातर स्वर में कहा ''डॉक्टर, आप नहीं जानतीं मेरी माँ की स्थिति, मुझे बचाने के लिए वे कितनी पीड़ा सह रही हैं, जबकि वे जानती भी नहीं कि मैं कन्या-भ्रूण हूँ।'' डॉक्टर हतप्रभ! वह स्त्री न तो ग़रीब परिवार की दिख रही, न अशिक्षित, धड़ाधड़ अँगरेज़ी में मेडिकल टर्म के शब्द बोल रही है और किसी तरह बच्चे को बचा लेने के लिए अनुरोध कर रही है। डॉक्टर समझ नहीं पा रही कि एक शिक्षित संपन्न माँ की कन्या-भ्रूण क्यों दुनिया में आना नहीं चाहती है? 

भ्रूण ने बताया कि जब उसकी माँ को पहली बार यह पता चला कि वह पेट से है, तो ख़ुश होकर अपने पति को बताने गई। दो झन्नाटेदार चाँटा गाल पर। माँ सहम गई। उसका पति चिल्लाने लगा कि बच्चा पैदा करने किसने बोला, उसने बच्चा पैदा करने के लिए शादी नहीं की है। उसे रोज़ उसका बदन चाहिए न कि बच्चा। बहुत रोई माँ। दूसरे दिन जब ऑफ़िस गई तो सभी ने पूछा- ''अरे फिर से ये क्या हो गया तुमको, गाल पर चोट के निशान।'' माँ ने बताया कि वह फिर से बाथरूम में फिसल गई, बहुत स्लीपरी है न बाथरूम। कई बार चोट के नीले निशान तथा हाथ और चेहरे पर खरोंच भी देखा था सभी ने, पर हर बार माँ यही कहती कि कभी सीढ़ी से गिर गई, कभी रास्ते पर हड़बड़ी में चलते हुए गिर गई, कभी पड़ोस के शिशु ने नाखून से नोच दिया। वह कैसे कहती कि उसका पति जिससे उसने प्रेम विवाह किया है, हर रात उसमें शैतान उतर आता है। 

दूसरे दिन शाम को माँ के ऑफ़िस से लौटने के बाद उसका पति उसे डॉक्टर के पास ले गया और लिंग जाँच कराया, तो पता चला कि कन्या है। रात को उसके पति ने जबरन शराब पिलाई और उसमें नींद की 8-10 गोलियाँ डाल दीं। रात में तबीयत बिगड़ने पर किसी डॉक्टर के पास ले गया और हमल गिरवा दिया। सुबह जब उसकी नींद खुली वह समझ गई कि उसका बच्चा नहीं रहा। फिर वही नियम, घर का काम-काज, ऑफ़िस, और फिर वही रातें जिनमें उसे ख़रीदी हुई वेश्या बन जाना होता है, जिसका फ़र्ज़ है ग्राहक को ख़ुश करना।

इस बार जब गर्भ रह गया तो माँ ने किसी को नहीं बताया। किसी तरह 3 महीना गुज़र गया। जिसमें से एक महीना वह अपने सास-ससुर के पास रही; क्योंकि सास अस्वस्थ थी और अच्छी परिचारिका होने के कारण पति ने वहाँ भेज दिया था। सास को पता चल गया कि वह पेट से है। ख़ुशी में ख़ूब लड्डू बाँटे और पोता ही जनने की धमकी दे डाली। बेटे को बताया तो बेटा ख़ुश हुआ और पत्नी को उलाहना दिया कि तुमने मुझे क्यों नहीं बताया। माँ सोची कि शायद इस बार सब ठीक हो गया है। सास भी वारिस का मुँह देखने साथ यहाँ आ गई। आज शाम को पति बोला कि चलो डॉक्टर को दिखा लो और जो भी सावधानी चाहिए, पता कर लो। माँ चली गई डॉक्टर के पास।फिर उसके पति ने डॉक्टर से पता कर लिया कि गर्भ में इस बार भी कन्या है। घर आकर माँ को बहुत मारा और पेट के बल धक्का दे दिया। सास खड़ी होकर तमाशा देखती रही। तभी उसके पति का एक दोस्त घर आया, उसने देखा कि माँ नीचे पड़ी कराह रही है और रक्त बह रहा है। दोस्त को देखते ही उसका पति बोला कि माँ सीढ़ी से गिर गई है और फिर झट से माँ को उठाया और गाड़ी में लेकर यहाँ आया।

भ्रूण ने कहा ''मैं कन्या हूँ न! इतने से मार से मैं खत्म नहीं हो पाई, दोस्त अंकल के कारण मैं बच गई। लेकिन दूसरे के भरोसे कितने दिन मैं बचूँगी अगर बच भी गई, तो माँ रोज़ ऐसे ही पिटेगी, नहीं सह पाती हूँ ये सब देखना।'' डॉक्टर ने भ्रूण को बहुत समझाया कि 3 महीने की तुम हो चुकी हो और ऐसा करना पाप है और अपराध भी। भ्रूण ने कहा कि आप नहीं कर सकतीं, पर दूसरे डॉक्टर तो यह करते ही हैं। किसी डॉक्टर ने ही तो बताया था कि माँ के पेट में कन्या है, तभी तो माँ के साथ इतना क्रूर बर्ताव हुआ है।माँ को जब उसका पति मार रहा था तो बोला ''अगर पैदा ही करना है, तो लड़का पैदा करो, मेरा वंश तो चलेगा। लड़की की रखवाली हर वक़्त कौन करेगा, कहीं रेप-वेप हो गया तो किसको मुँह दिखाएँगे, लड़की पैदा करके क्या दहेज में अपनी सारी संपत्ति किसी ग़ैर को दे दूँ?'' 

''डॉक्टर, आप ही बताइए क्या ऐसे घर में मेरा जन्म लेना मुनासिब है? अगर इन सब के बाद बच गई, तो जन्म के बाद जाने क्या हो? जाने कब कौन हवस का शिकार बना ले। हर वक़्त बदन के अंदर झाँकती नज़रों से कहाँ बच पाऊँगी। इन सबसे गुज़रते हुए बड़े होने पर अगर कोई मन को भा जाए, तो क्या पता मुझे इसकी क्या सज़ा मिले, मुमकिन है हमदोनों को मौत के घाट उतार दिया जाए। ये भी संभव है कि किसी के इसरार पर इंकार करूँ तो तेज़ाब से जलाकर मुझे विकृत कर दे। अगर इन सब हादसों से बच जाऊँ और विवाह की बात हो, तो दहेज की जुगाड़ में माँ-बाप के अवसाद की वज़ह बनूँगी और फिर मेरा मन कुण्ठाग्रस्त हो जाएगा। अगर ये भी सही सलामत निपट जाए तो क्या मालूम और ज़्यादा दहेज के लिए जला दी जाऊँ, चरित्रहीन बताकर निष्काषित कर दी जाऊँ, मुझे आत्महत्या करने के लिए विवश होना पड़े। यह भी मुमकिन है कि किसी की धूर्तता से मैं भी माँ-सी बन जाऊँ, जिसे इस आरोप में बार-बार प्रताड़ित किया जाए कि पेट से क्यों हुई या पेट में कन्या-भ्रूण क्यों?'' 

''डॉक्टर, मुझे नहीं जीना ऐसी दुनिया में, मुझे नहीं बनना अपनी माँ की तरह और न चाहती हूँ ऐसी ख़ौफ़नाक ज़िन्दगी, जिसमें हर पल अपने अस्तित्व को बचाने के लिए वार और आघात सहूँ। लोगों के तिरस्कार और घृणा की पात्र बनूँ। भ्रूण से लेकर जन्म होने और उसके बाद मृत्यु तक तमाम उम्र ख़ौफ़ के साए में जियूँ। अपने जीवन के वास्ते दूसरों की मेहरबानी के लिए याचना करती रहूँ और एक-एक दिन यह सोचकर व्यतीत करूँ कि चलो आज तो सुरक्षित रही। जानती हूँ मुझे मार ही दिया जाना है, चाहे तुम मारो या दूसरी डॉक्टर। माँ के साथ मैं भी हर वक़्त डरी होती हूँ कि कब क़त्ल कर दी जाऊँ। पल-पल मृत्यु की प्रतीक्षा बहुत ख़ौफ़नाक होती है। मैं नहीं आना चाहती ऐसे घृणित और डरावने संसार में।'' 

''डॉक्टर, तुम ही सोचो दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती को पूजने वाले भी अपने लिए कन्या नहीं चाहते। यह माना जाता है कि बिना ईश्वर-कृपा कुछ नहीं होता, फिर तो ईश्वर की इच्छा से ही कन्या-भ्रूण भी माँ के गर्भ में आती है न! पर अब लगता है कि शायद ईश्वर के हाथ में जीवन-मृत्यु नहीं, डॉक्टर चाहे तो परखनली द्वारा भ्रूण को जन्म दे-दे और जब चाहे किसी को मृत्यु। मैं जन्म नहीं लेना चाहती डॉक्टर, मुझे मार दो।''

जो डॉक्टर पाप-पुण्य और कानून की बात सुनाकर क़त्ल करने से मना कर रही थी, उसी ने पैसे से पाप को पुण्य में बदल दिया। भ्रूण की मृत्यु-याचना के कारण नहीं; बल्कि स्त्री के पति के पैसे से उसने पुण्य कमाया डॉक्टर ने कसाई बनकर माँ के बदन से भ्रूण को निकाला। एक चीख और फिर निःस्तब्धता! स्त्री और मानवता फिर से हारी, पुरुष जीत गया।

- जेन्नी शबनम (8.3.2006)
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28 comments:

प्रतुल वशिष्ठ said...

इस व्यथा कथा को एक दूसरी दिशा देता हूँ :

कन्या भ्रूण ने अपनी पूरी कैद के बाद जन्म लिया,

उसे एक अस्पताल के दरवाजे पर छोड़ दिया गया.

विकसित भ्रूण (बच्ची) ने माँ की गोद की बजाये

अस्पताल की शरण पायी, 'लावारिस बच्ची' के रूप में अखबार और टीवी पर प्रचार पाया.

और कुछ समय बाद एक अनाथालय में परवरिश को भेज दी गयी.

वहाँ अन्य कई बच्चों के साथ उसको भी फंड देने वालों की सहानुभूति के लिये सजाकर रख दिया गया.

जरूरतमंद गोद्लेने वाले माता-पिताओं को सौदेबाजी को बाध्य किया ...

यदि दुर्भाग्य से बच्ची सुन्दर निकली तो परिवार न देखकर उसे ग़लत हाथों में बेच दिया.


इस तरह विकास पाये हुए बच्चे घरेलु सेवकों और घृणित कार्यों को पूरा करने के हेतु बनते हैं.


एक बात और देखने में आती है जब भी कोई लावारिस बच्चा मिलता है उसे पालने वाले सामाजिक संस्थान उसपर अपने रिलीजन का ठप्पा जरूर लगा देते हैं.


जिस समाज में परिवार केवल अपने तक सीमित होते हैं. अपनी बातों को निजी मामला बताकर हर बात को गोपनीय रखते हैं. वहाँ ही ऎसी अंधेरगर्दी होती है.

जीवन में भलीभांति वैदिक सोलह संस्कारों को अपनाया जाये तो कोई बात न तो गोपनीय रहने से अपराध का रूप लेगी और न ही निजता का खामियाजा भोगेगी.


गर्भ संस्कार से लेकर दाह संस्कार तक यथोचित निजता का पालन किया जाना चाहिए. यदि समाज को पापमुक्त बनाना है तो हमें अपने-अपने आदर्श परम्पराओं का पालन करना ही होगा.

रतन चंद 'रत्नेश' said...

मार्मिक कथा... परन्तु यह पुरुष की जीत नहीं बल्कि हार है..

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

तड़ातड़ थप्पड़ों की बरसात कर दी आपने तो...पर जेन्नी जी! चमड़ी इतनी मोटी हैकि एक गिलास दारू में ही फिर कुछ और पता नहीं चलता। जिस देश में कन्या को देवी का स्वरूप मानकर पूजा जाता है उसी देश में स्त्री भोग्या बन कर रह गयी है। देवी मानने के पखण्ड से चिढ़ होने लगी है अब ..इसीलिये कई दशक हो गये हैं मन्दिर नहीं गया ...

rasaayan said...

बहुत ख़ूब लिखा, सच ये है वो देश और संस्कार जहाँ लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा होती है वहीँ ऐसा अधर्म......कभी इस किस्म की सोच रखने वालों के ज़ेहन में आया की बिना कन्या (जो माँ, बहिन, बेटी और पत्नी का रूप लेती है ) से ऐसी नफरत क्यों.....सिर्फ पैसा ही है और भूख.....

PRAN SHARMA said...

MARMIK , ATI MARMIK !

prritiy----sneh said...

bahut hi marmik avum sunder rachna. bahut achha likha hai
shubhkamnayen

सहज साहित्य said...

मुझे नहीं जीना ऐसी दुनिया में (व्यथा-कथा) -दिल दहला देने वाली सच्चाई बयान करती है । हमारे समाज की दमघोटू आस्थाएँ जीवन को और दूभर बना दे रही हैं ।जेन्नी जी का गद्य भी काव्य जैसी रवानगी लिये होता है ।कोरे विचार या निर्रथक बहस नहीं ,एक सार्थक संवाद, बेवाक बयान ;जो पाठक को सोचने पर बाध्य करता है कि आखिए हम हर तमाशे में मूक दर्शक क्यों बन जाते हैं! आपके दोनों ब्लाग गरिमामयी सामग्री के लिए नई ऊँचाई छू रहे हैं । मेरी शुभकामनाएँ !

डॉ. जेन्नी शबनम said...

प्रतुल जी,
इस व्यथा कथा का जो दूसरा पक्ष आपने लिखा है वह और भी दर्दनाक है. कन्या जन्म ले ले फिर उसके बाद की उसकी दुर्गति कम नहीं होती अगर वो अवैध हो या अनचाही हो. क्या मालूम बेच दी जाए या फिर तमाम उम्र के लिए किसी ऐसे गहरे कूएं में धकेल दी जाए जहाँ से उसके लिए रौशनी सदा के लिए बंद हो. आपने बहुत सही कहा कि ''गर्भ संस्कार से लेकर दाह संस्कार तक यथोचित निजता का पालन किया जाना चाहिए. यदि समाज को पापमुक्त बनाना है तो हमें अपने-अपने आदर्श परम्पराओं का पालन करना ही होगा.''
मेरे ब्लॉग पर सार्थक प्रतिक्रया के लिए हार्दिक धन्यवाद.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

रतन जी,
ये पुरुष की जीत नहीं थी बल्कि इस कथा के पुरुष-पात्र की जीत हुई. परन्तु सच ये है कि मानवता की हार हुई. ब्लॉग पर आने और प्रतिक्रिया देने के लिए धन्यवाद.

shikha varshney said...

उफ़ ...क्या कहूँ..पर अब भी उम्मीद है कभी तो अंत होगा इस सबका.कभी तो बदलेगी मानसिकता.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

कौशलेन्द्र जी,
देवी देवता के अस्तित्व के बारे में मैं नहीं जानती, मेरे अनुसार ये सभी अपनी अपनी ज़रूरत और सुविधा के लिए हम इंसानों द्वारा ही रचे गए हैं ताकि अपने कार्य-व्यवहार को हम प्रामाणिक रूप दे सकें. अगर हम धर्म ग्रन्थ और पुराण की बात करें तो स्त्री को कभी बहुत सम्मान मिला तो कभी पुरुष की गलती की सजा के रूप में अग्नि परीक्षा भी देनी पड़ी. सभी युद्ध स्त्री के कारण हुए, इस लिए नहीं कि स्त्री के सम्मान की बात थी बल्कि इस लिए कि स्त्री एक वस्तु थी, चाहे द्रौपदी हो या सीता, दांव पर उसकी जिन्दगी लगा दी गई. नहीं मालूम ये कैसा समाज और इश्वर की परिकल्पना. मैं तो सोच से नास्तिक हूँ, फिर भी सभी मंदिर में गई ताकि देख सकूँ कि लोग कैसे अपने फायदे के लिए ईश्वर और देवी देवता का कैसे इस्तेमाल करते हैं और किसी नास्तिक के मंदिर में प्रवेश को कौन सा ईश्वर रोक पाता है. अगर ईश्वरीय शक्ति होती तो सतयुग, द्वापर, त्रेता में राक्षस, डाकू, अहंकारी पुरुष नहीं होते. न कोई गौतम ऋषि होते न कोई रावण न कंश न... सिर्फ कलियुग को ही दोष क्यों?
मेरे ब्लॉग पर सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

अरविन्द भाई,
ऐसी सोच रखने वाले हर जगह हैं और आश्चर्य कि धार्मिक भी खूब हैं. बहुत दुखद है ये सब.
सार्थक टिप्पणी के लिए बहुत आभार.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

प्राण शर्मा जी,
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए ह्रदय से आभार.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

प्रीती जी,
मेरे ब्लॉग पर आपको देखकर प्रसन्नता हुई. सराहना के लिए दिल से शुक्रिया.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

काम्बोज भाई,
सराहना, सम्मान एवं प्रोत्साहन देने के लिए ह्रदय से आभारी हूँ. चाहे गद्य लिखूँ या पद्य आपके स्नेहिल आशीष एवं मार्गदर्शन की सदैव आवश्यकता और उम्मीद रहती है. बहुत बहुत आभार.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

shikha varshney has left a new comment on your post "36. मुझे नहीं जीना ऐसी दुनिया में (व्यथा-कथा)":

उफ़ ...क्या कहूँ..पर अब भी उम्मीद है कभी तो अंत होगा इस सबका.कभी तो बदलेगी मानसिकता.
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शिखा जी,
मेरे ब्लॉग में कुछ जादूगरी हो रही है, आपकी टिप्पणी यहाँ तक नहीं पहुंची जबकि इस पर की टिप्पणी आपके पास पहुँच रही है. ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया.

yashoda Agrawal said...

मर्म स्थल पर एक मार्मिक चोंट
हमसे पैदा हुए ये आदमी....
हमी को मार देना चाहते हैं हरदम

डॉ. जेन्नी शबनम said...

यशोदा जी,
यही तो सबसे दुखद स्थिति है कि जो हमारी बदौलत वही चाहता कि हमारा अस्तित्व खत्म हो जाए. सरहना के लिए शुक्रिया.

pragya said...

मानवता फिर से हारी और पुरुष जीत गया.....हर बार यही होता आया है....और यदि कन्या भ्रूण बाहरी दुनिया की बातें सुन पाती होगी तो वो सचमुच शायद यही सोचती होगी......ये हमारे समाज का क्रूर यथार्थ है.....मन भर आया....

pragya said...

मानवता फिर से हारी और पुरुष जीत गया.....हर बार यही होता आया है....और यदि कन्या भ्रूण बाहरी दुनिया की बातें सुन पाती होगी तो वो सचमुच शायद यही सोचती होगी......ये हमारे समाज का क्रूर यथार्थ है.....मन भर आया....

प्रेम सरोवर said...

आपके पोस्ट पर आना सार्थक हुआ । मेरी कामना है कि आप सदा सृजनरत रहें । मेरे नए पोस्ट "बिहार की स्थापना के 100 वर्ष" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

डॉ. जेन्नी शबनम said...

प्रज्ञा जी,
मेरे ब्लॉग पर आकार मुझे प्रोत्साहित करने के लिए धन्यवाद.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

प्रेम सागर जी,
मेरे ब्लॉग पर आकर आपने प्रोत्साहित किया, ह्रदय से आभार.

Dinesh pareek said...

अपने बहुत ही अच्छी तरह से और सयुक्त सब्दो को सजोया है मन पर्फुलित होगया यहाँ आके
http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/06/blog-post_04.html
आप मेरे ब्लॉग पर आकर आपने प्रोत्साहित करने के लिए धन्यवाद., आशा करता हूँ की आप आगे भी निरंतर आते रहेंगे
आपका बहुत बहुत धयवाद
दिनेश पारीक

डॉ. जेन्नी शबनम said...

बहुत शुक्रिया दिनेश जी.

pavitra agarwal said...

apane pero par khari, aatm nirbhar mahila bhi pata nahi kis moh me lat ghuse kha kha kar yah atyachar sahati hai ?

Dr. Shorya said...

बहुत सुन्दर ,इस जीवन का एक कटु सत्य है यह सब , बहुत बुरी धारणा है ये हमारे समाज की ,

Unknown said...

ऐसे घटिया पतियों को तो ज़िंदा ज़लादेने को जी करता है ।