''मारना जुर्म है तो पैदा करना क्यों नहीं?'' ''नाजायज़ बच्चा पैदा करना गुनाह है, तो जायज़ बच्चों की लम्बी क़तार जिसकी परवरिश नहीं कर सकते, गुनाह क्यों नहीं है?'' ये सवाल ऐसे हैं जिससे दुनिया के किसी भी मुल्क़ का विवेकशील इंसान जो ज़रा भी इंसानियत से इत्तेफ़ाक़ रखता है, के ज़ेहन में कौंध सकता है। अगर नहीं कौंधता, तो शर्मनाक है इंसानियत के लिए, इंसानी क़ौम के लिए और मुल्क़ के लिए। पाकिस्तानी फ़िल्म 'बोल' की नायिका जिसे हत्या के आरोप में फाँसी की सज़ा होती है, की आख़िरी ख़्वाहिश के मुताबिक़ मीडियावालों के सामने फाँसी से पहले कुछ कहना चाहती है, जबकि उसने किसी भी न्यायालय में अपनी ज़ुबान नहीं खोली और अपना गुनाह क़ुबूल किया है। वह ये सवाल सिर्फ़ अपने देश के राष्ट्रपति से नहीं कर रही, बल्कि आम अवाम से कर रही है। आख़िर क्यों सम्मान के नाम पर बेटियों को अनपढ़ रखा जाए और जानवरों-सी ज़िन्दगी जीने के लिए विवश किया जाए? ''जब औरत के सामने मर्द लाजवाब (निरुत्तर) हो जाता है तो हाथ उठाता है'', ये सिर्फ़ 'बोल' की नायिका का कथन नहीं, बल्कि अधिकतर मर्द की आदत है। अपनी शक्ति दिखाकर स्त्री को अधीन में रखना पूरी दुनिया की स्त्रियों की नियति है और पुरुष का व्यभिचार! आख़िर कब तक सहन करे स्त्री?
पुत्र मोह में बेटियाँ ज़्यादा हों, तो उन्हें जानवरों-सी ज़िन्दगी जीने पर विवश होना पड़ता है। पुत्र अगर मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग हो, तो भी उसे स्वीकार किया जाता है। परन्तु पुत्र अगर पुरुष न होकर स्त्री का गुण लेकर जन्मे, तो न सिर्फ़ समाज बल्कि घर में भी तिरस्कृत होता है। 'बोल' की नायिका का भाई जिसमें स्त्री-गुण हैं, पिता द्वारा सदैव तिरस्कृत रहता है। यहाँ तक कि पिता उसे देखना भी बर्दाश्त नहीं करता, अतः माँ और बहनों का वह लाडला पिता के सामने कभी नहीं आता है। समाज का एक कुरूप चरित्र है कि 'वैसे पुरुष' को पुरुष से ही बचना होता है; क्योंकि मौक़ा पाकर उसे हवस का शिकार बना लिया जाता है।
फ़िल्म 'बोल' की नायिका के भाई का बलात्कार होता है। फिर नायिका के सामने ही उसका पिता अपने पुत्र की हत्या कर देता है। समाज में किन्नर या हिजड़ों को सम्मान नहीं मिलता, जबकि किसी का भी स्त्री, पुरुष या हिजड़ा होना प्रकृति द्वारा प्रदत्त गुण है। नायिका प्रतिशोध में कुछ नहीं कर पाती; क्योंकि उसकी माँ का वह ख़ाविंद है, वह अपने पिता से सिर्फ़ नफ़रत कर पाती है।
एक तरफ़ पिता इसलिए शादी कर रहा है, ताकि अपने बेटे के क़त्ल को छुपाने के लिए रिश्वत के पैसे का इन्तिज़ाम कर सके और दूसरी तरफ़ उसकी शादी वेश्या से सिर्फ़ इसलिए हो रही है, क्योंकि बेटियाँ पैदा करने में उसे महारत हासिल है। कोठे पर लड़की की ज़रूरत होती है, लड़के की नहींI जिस दिन सबसे छुपकर एक कोठेवाली (वेश्या) से बाप शादी करता है उसी दिन उसकी दूसरे नंबर की बेटी अपनी माँ और बहनों के सहयोग से अपने प्रेमी से शादी करती है, जो अलग जाति का है। शाम को बाप घर आता है, तो बड़ी बेटी (नायिका) जो अपने पति के घर से निष्कासित होकर मायके में रहती है, बताती है कि उसने बहन का विवाह करा दिया; क्योंकि वह नहीं चाहती कि उसकी बहन की ज़िन्दगी भी उसके जैसी हो। बाप जो ख़ुद गुनाहगार है और दूसरी शादी करके आता है, बड़ी बेटी और बीवी को मारता है कि उसने छोटी बेटी का विवाह दूसरी जाति में क्यों कराया। बड़ी बेटी से नफ़रत करता पिता अब छोटी बेटी से भी नफ़रत करता है। यों वह अपनी बीवी एवं सभी बेटियों से नफ़रत करता है।
नायिका के पिता की दूसरी बीवी जो वेश्या है, एक बेटी की माँ बनती है। वह छुपकर बच्ची को उसके पिता के घर (नायिका के घर) पहुँचा देती है; अन्यथा उसे भी वेश्या बना दिया जाएगा। कोई भी माँ अपनी बच्ची को वेश्या के रूप में सहन नहीं कर सकती। पहली बीवी और बेटियाँ अवाक् हैं बाप के इस घिनौनी हरकत पर। परन्तु उस बच्ची का क्या दोष, सभी उसे अपना लेती हैं। वेश्यालय चलाने वाला गुण्डा बच्ची के गुम होने पर बाप को ढूँढने आता है, उधर बाप उस बच्ची की हत्या करने जाता हैI वह हत्या कर देना पसन्द करेगा, लेकिन अपनी बेटी का वेश्या होना नहीं। बच्ची की हत्या होने से नायिका बचा लेती है, लेकिन बाप को मार देती है; अगर नहीं मारती तो उस मासूम बच्ची को उसका ख़ूनी और क्रूर बाप मार देता। अचानक हुए ऐसे आघात से नायिका स्तब्ध है, और ख़ुद को गुनहगार मानकर समर्पण कर देती है।
फाँसी से पहले नायिका अपने परिवार से मिलती है, तो कहती है ''उतार फेंको बुर्क़ा'' और बहनों के सिर से बुर्क़ा खींचकर फेंक देती है। जिस वक़्त मीडिया के सामने नायिका अपने गुनाह और ज़िन्दगी की कहानी सुनाती है, सभी का मन द्रवित हो जाता है। एक महिला पत्रकार नायिका को अपने बाप के क़त्ल के लिए गुनहगार नहीं मानती और हर सम्भव कोशिश करती है कि किसी तरह नायिका की सज़ा माफ़ हो जाए। लेकिन सरकारी महकमे की चाटुकारिता और असंवेदनशीलता के कारण राष्ट्रपति तक बात नहीं पहुँच पाती और नायिका को फाँसी हो जाती है।
फाँसी से पहले नायिका अपने परिवार से मिलती है, तो कहती है ''उतार फेंको बुर्क़ा'' और बहनों के सिर से बुर्क़ा खींचकर फेंक देती है। जिस वक़्त मीडिया के सामने नायिका अपने गुनाह और ज़िन्दगी की कहानी सुनाती है, सभी का मन द्रवित हो जाता है। एक महिला पत्रकार नायिका को अपने बाप के क़त्ल के लिए गुनहगार नहीं मानती और हर सम्भव कोशिश करती है कि किसी तरह नायिका की सज़ा माफ़ हो जाए। लेकिन सरकारी महकमे की चाटुकारिता और असंवेदनशीलता के कारण राष्ट्रपति तक बात नहीं पहुँच पाती और नायिका को फाँसी हो जाती है।
नायिका के सभी सवाल अपनी जगह तटस्थ हैं। जवाब की अपेक्षा हर पुरुष से, समाज से, धर्म के नुमाइंदे और सत्ता वर्ग से है। ये सवाल पाकिस्तान की उस नायिका के चरित्र से निकल दुनिया की सभी स्त्रियों के ज़ेहन और ज़िन्दगी में दाख़िल होता है कि आख़िर कब तक स्त्रियाँ यों ज़िन्दगी जिएँगी? पुरुष के दंभ और स्त्री को उसकी औक़ात बताने वाला पुरुष कब अपनी औक़ात समझेगा? आख़िर कब तक स्त्रियाँ ग़ुलाम रहेंगी? चाहे वह बुर्क़ा की ग़ुलामी हो या पुरुष की ग़ुलामी या धर्म के नाम पर किया जाने वाला ज़ुल्म हो। बोल की नायिका का सवाल दुनिया की हर औरत का सवाल है।
- जेन्नी शबनम (अक्टूबर 28.10.2011)
- जेन्नी शबनम (अक्टूबर 28.10.2011)
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30 comments:
रात बारह चालीस हो रहे हैं.मैं पढ़ रही हूँ. कल फिल्म मंगवा कर देखती हूँ.शायद तब कुछ कह सकूँ.अभी तो एक हलचल मचा दी है इस आर्टिकल ने.
VICHAAROTTEJAK LEKH.AAPKE VICHARON
SE MAIN SAHMAT HUN . AAPKEE AWAAZ
KE SAATH SABKO AWAAZ MILAANEE CHAHIYE .
bahut sundar sameeksha....kya yahi hai Dharm aur samaaj ji paribhasha...
sharm aati hai ....kaash ye film kahin kuch jaagrookt alaaye...
अच्छी समीक्षा
Gyan Darpan
RajputsParinay
जेन्नी जी ,आपने 'बोल'फ़िल्म के माध्यम से इस समाज की सारी क्रूरता का कच्चा चिट्ठा बड़ी बेवाकी से खोल दिया है। यह हमारे समाज का एक रूप है , ऐसे लोगों का रूप जो वैचारिक अन्धकार में जी रहे हैं। इस सड़े गले समाज के साथ ऐसे भी तथाकथित प्रगतिशील हैं; जो समाज के सुधार और उन्नयन का ध्वज उठाए घूमते हैं, लेकिन वे भी भीतर से उतने ही असामाजिक हैं, जितने 'बोल' फ़िल्म के कुछ दकियानूसी पात्र। एक मित्र ने अपने ब्लाग की शुरुआत जब महिला रचनाकार से करनी चाही तो एक हितैषी ने कहा कि आपको पूरे शहर में कोई प्रुष नज़र नहीं आया ? जब दूसरे शहर के एक अच्छे रचनाकार को छापा तो सुनने को मिला-उस काले-कलूटे के सिवाय तुम्हें कोई साहित्यकार नज़र नहीं आया ?यह है आज के साहित्यकार! इसी तरह धार्मिकता ( यद्यपि धार्मिक कहना उचित नहीं)का मुखौटा लगाने वाले ऐसे पूज्य? व्यक्ति भी मिल जाएँगे, जो धर्म के नाम पर कलंक ही सिद्ध होते हैं।इस विचारोत्तेजक लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई !
uff!! bahut gad-ma-gad si kahani hai!!
par kya sach me aaj ke jindagi me aisa hota rahega ya hota aaya hai....
aakhir kab tak ye mahila patra itna tiraskrit jindagi jeete aayengi!
di deepawali ki shubhkamnayen...der se hi sahi!!
फिल्म सचमुच बहुत अच्छी है और कई सवाल पूछती है जो पूरी दुनिया की स्त्रियों के मन में छिपे हैं...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
छठपूजा की शुभकामनाएँ!
बेहतरीन समीक्षा .....मैंने फिल्म देखी है फिल्म के बोल अर्थपूर्ण भी है और विचारणीय भी.....
जेन्नी जी काफी सुना है इस फिल्म के बारे में पर देख नहीं पाई थी.आज आपने दिखा दी.
आवाज़ उठ रही है दुनिया के हर कोने से,बदलाव कितना और कब होगा ...पता नहीं..
Indu ji,
is film ko zaroor dekhein. ye dusre mulk ki film zaroor hai lekin zindagi aam stree kee hai chaahe wo kisi bhi mulk ki ho. dhanyawaad.
Pran sharma ji,
mere vichaar se aapki sahmati ke liye aabhar. ek saath kisi bhi samasya par log aawaaz nahin uthaate isi liye to samasya ka ant nahin hota. dheere dheere bediyaan toot rahi hai, ummid kayam hai. dhanayawaad aapka.
Arvind bhai,
kuchh to jaagruka zaroor aati hai kuchh to asar zaroor hota film ke maadhyam se, kam hin sahi. aap yahan tak aaye bahut dhanyawaad.
Ratan singh ji, bahut dhanyawaad.
Kaamboj bhai,
film ka paatra to ek aam saadharan kattar muslim pariwaar se hai aur wahi sochta hai jo use dharm ke hisaab se sahi lagta hai. lekin hamare samaaj mein achchhe susanskrit log bhi aisi soch rakhte hain aur dharm paramapara ke naam par gunaah karte hain. ye sach hai ki logon ko har baat mein nuks nikalna aata hai aur jab stree ko kahin se badhawa mile to sahaj nahin hota sweekaar karna. fir bhi soch aur maanyataayen badal rahi hain lekin raftaar bahut dheemi hai. saarthak pratikriya ke liye dhanyawaad.
Mukesh,
film ki kahani hai to bahut uljhan bhari lekin chitraankan bahut hin kushal hai. samaj ke jis charitra ko dikhaya gaya hai vaastavik sthiti bhi wahi hai, dukhad hai par sach hai. yahan aane ke liye dhanyawaad.
Pragya ji,
is film ke dwara puchhe gaye sawaal jwalant hai, par jawaab nadarad. shukriya yahan tak aane ke liye.
Roopchandra ji,
yaha tak aane ke liye aabhar.
Monica ji,
pratikriya dene ke liye dhanyawaad.
Shikha ji,
badlaav to ho raha hai lekin bahut dheeme raftaar mein, dekhkar man khinn ho jat ahai aur aakroshit bhi. par kya kar sakte koshish to fir bhi nahin chhod sakte na hin haalaat se samjhauta. duniy abadlegi lekin na jaane kitni krurtaaon ko sahne ke baad na jaane kitni sadi aur beetne ke baad. shukriya yahan aane ke liye.
बहुत खुबसूरत समीक्षा. व्यस्त होने की वजह से पढने में देर हुई. मैने फ़िल्म देखी तो नहीं लेकिन इस समीक्षा के आधार पर इतना जरुर कह सकती हुं कि इसमें वो आग है जो समाज को एक बार सोचने को विवश जरुर कर देगा. ऐसी फ़िल्मों को ज्यादा से ज्यादा लोग देख सकें ये मेरी कामना है.
sakaaraatmak pratikriya ke liye shukriya Sunita.
जेन्नी जी 'बोल' पिक्चर की समीक्षा पढ़ कर लगा मैने यह फिल्म अब तक क्यों नही देखी है। आप के द्वारा समीक्षा पढने के बाद मुझे द सेकेंड़ सेक्स किताब याद आ गई जिसे मै आज तक पूरा नहीं पढ़ पाई । स्त्रियों की दुनिया भर में स्थिति एक सी है। मुल्क की सीमाऍं इस संदर्भ में असीमित व मायने नहीं रखती है।
शानदार समीक्षा की है आपने।
लो आज फिर डेढ़ बज रहे हैं रात के.और मैं आपके ब्लॉग पर हूँ. मुल्क कोई भी हो मानवीय धरातल पर सुख,दुःख,समस्याए,पीड़ा,भावनाए सब जगह समान है.पाकिस्तान के कई गजल गायक,सूफी गायक मेरे बहुत प्रिय हैं.इसलिए मुझे इससे यह कोई फर्क नही पड़ता कि फिल्म किस मुल्क की है या...गीत,गजल सबद ....और कलाम.क्या कहूँ?क्या लिखूं?क्या बोलू? निःशब्द हूँ.फिल्म देखकर टाकीज से निकल कर घर तक आई.आदित्य और बहु डोली फिल्म के बारे मे बाते करते रहे.मैं चपर चपर करने वाली इंदु एकदम खामोश थी.मैं भी वो ही करती जो उसने किया.ये जो औरत के भीतर की आग है न अन्याय के करारे ,कठोर पत्थर उके शरीर पर जख्म करते हैं,रूह को यातना, भीतर तक रगड खाते रहते हैं किसी जमीन पर नही गिरते,उसी से पैदा हुई यह आग हर औरत मे एक से धधकती है बाबु!वो किसी भी मुल्क या मजहब की हो....मैं विचलित थी फिल्म के अंत तक पहुचते पहुँचते और..अब ???याद करने भर से.
सचमुच शब नही सहर हो तुम!
Anonymous said...
जेन्नी जी 'बोल' पिक्चर की समीक्षा पढ़ कर लगा मैने यह फिल्म अब तक क्यों नही देखी है। आप के द्वारा समीक्षा पढने के बाद मुझे द सेकेंड़ सेक्स किताब याद आ गई जिसे मै आज तक पूरा नहीं पढ़ पाई । स्त्रियों की दुनिया भर में स्थिति एक सी है। मुल्क की सीमाऍं इस संदर्भ में असीमित व मायने नहीं रखती है।
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saarthak pratikriya ke liy edil se aabhar. aap benaami tippani dene ki jagah apne profile ke sath likhein to jyada khushi hogi. saabhar.
Manoj ji,
aapka yahan aana bada sukhad laga. dhanyawaad.
इंदु जी,
आपने डेढ़ बजे जागकर प्रतिक्रिया लिखी. मैं २ बजे जाग कर आपकी सार्थक टिप्पणी से अभिभूत हूँ. बोल के चरित्र हमारे हीं आस पास के चरित्र है और इन सवालों पर हर स्त्री में ज्वाला तो करीब करीब एक सी भड़केगी. सोच, विचार, भाव, अभिव्यक्ति, ज़िन्दगी, हर देशों की अलग अलग होकर भी कहीं न कहीं समानता होती है. इस फिल्म को देखकर जैसे मन में कुछ खौल रहा था. बहुत सोची कि कुछ न लिखूँ, मुमकिन है इस विषय पर कोई दो राय किसी का न होगा लेकिन ख़ुद को लिखने से रोक न सकी. कहीं कहीं मन में एक संभावना थी कि शायद कोई मित्र मुझे पढ़ने यहाँ तक आयें तो उनसे मैं अपने विचार बाटूँ.
आपके स्नेह की सदैव आकाँक्षा रहती है. सादर.
जेन्नी
To understand status of women and laws related and followers as well as implementors....please read "Islam Unveiled' by Robert Spenser, with open mind and thoughtful understanding of this issue and movie...
wishes to Jenny ji for this article...movie...
मैं बहुत रोई बाबु! मेरे आंसू लगातार बहे जा रहे थे और........... अब भी.कुछ बाते,कुछ गीत,कुछ चित्र,कुछ लोग .......बहुत भावुक हूँ मैं उनको ले कर. यूँ मस्त,हंसी मजाक पसंद शरारती किस्म की औरत हूँ पर..जाने वो कौन है भीतर जो मुझे इतना कमजोर बना देता है बाबु!
बड़े बड़े हादसों से विचलित ना होने वाली यह इंदु उस समय यह नही रहती.मेरे बच्चे,मेरे पति जो मुझे एक छोटे बच्चे की तरह आज भी प्यार करते हैं ,ट्रीट करते हैं,समझाते हैं....' वो एक कहानी है....फिल्म है.इस सच को क्यों नही स्वीकारती तुम.क्यों इनमे सच ढूंढती हो?"
'हमारे आस पास ...कहीं दूर घटा यह सच है जानाजी !' कहती हूँ हर बार और ..तब भी मेरे आंसू मेरा कहा नही मानते.
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