Wednesday, March 16, 2011

20. बच्चियों का घर (चम्पानगर, भागलपुर) - 2




दरवाज़े के भीतर कदम पड़ते ही जश्न का माहौल दिखता है| छोटी-छोटी बच्चियाँ सलवार कुर्ती पहने सिर पर दुपट्टा डाले और हाथों में मेहँदी लगाये चहक रही है| एक बड़ा-सा हॉल की तरह बरामदा है जहाँ सभी लड़कियाँ अपने में मस्त है| बड़ा अच्छा लगता है देखकर, यतीमखाना और इतनी रौनक| चारो तरफ चहल पहल|

दरवाज़े के अन्दर घुसते ही इस यतीमखाना के संचालक मो. हाफ़िज़ मिन्नतुल्लाह से सामना होता है| उनसे हम कहते हैं कि आपके इस यतीमखाना को देखना चाहते हैं| वो कहते हैं ''इसे यतीमखाना न कहें, ये बच्चियों का घर है| ये यतीम कैसे? मैं इनका पिता हूँ|'' सुनकर मन में ख़ुशी की एक लहर-सी दौड़ जाती है| वो बताते हैं कि 31 दिसंबर को उन बच्चियों में से किसी एक कि शादी है| फिर आवाज़ देते हैं ''नूरजहाँ...  इधर आ बेटा,'' ''इसी की शादी है मैडम, शादी की तैयारी में हम सभी लगे हुए हैं, वो देखिए उधर अनाज साफ़ हो रहा है, ये देखिए...रजिया...जुलेखा... आओ, इधर आओ...सामने, दिखाओ...अपनी मेहंदी, दिखाओ मैडम को, मैडम देखिए इन सब को, कितनी ख़ुश हैं ये, ऐ रोशनी...सामने आओ, देखिए मैडम आपस में ये सब सज धज रही हैं, ऐ रजिया...आओ बेटा...सामने आओ, देखिए आपस में ही ये ख़ुद से लगाईं हैं|'' सभी बच्चियाँ आकर चारों तरफ से हम सभी को घेर लेती हैं| वे अपनी-अपनी मेहँदी दिखा रही है| उधर एक बुज़ुर्ग महिला बैठ कर शादी का जोड़ा तैयार कर रही है| सामने एक और हॉल की तरह आँगन है जिस पर छत भी है, 4-5 औरतें रात का खाना बना रही हैं| साथ ही कल शादी के लिए पकवान भी बना रही हैं| एक सुकून सा लगता है मन में यह सब देखकर| कहीं से नहीं लग रहा कि ये बच्चियाँ अनाथ है|

मिन्नतुल्लाह साहब ने बताया कि यहाँ जितनी भी बच्ची है सभी यतीम नहीं है| कल जिसकी शादी होनी है उसके माता पिता दोनों जीवित हैं| बगल के कमरे के सामने एक बहुत बुज़ुर्ग जो शरीर से लाचार भी दिखता है, उसे दिखाते हुए वो बताते हैं कि ये उसके अब्बा हैं, बेटी की शादी में न्योता दिया था, उसी में आए हैं| मैं हतप्रभ रह जाती हूँ| वो मेरी बात समझ जाते हैं, कहते हैं ''मैडम, क्या करें, ये सभी इतने ग़रीब हैं कि इनकी बच्चियों को हमलोग रख लेते हैं, कम से कम इनकी परवरिश और तालीम तो हो जाती है|'' ''अब देखिए इसी में किसी की किस्मत अच्छी हुई तो मन के लायक शौहर भी मिल जाता है इनको, नूरजहाँ को देखिए, अच्छा लड़का मिल गया, शादी कर देंगे फिर मेरी जवाबदेही ख़त्म'', ''इसकी शादी में 70-75 हज़ार का खर्चा है, सभी खर्च हम ख़ुद कर रहे हैं, माँ बाप बेचारे क्या कर सकते, चंदा पानी से ये सब हो जाता है|''

मिन्नतुल्लाह साहब से पूछती हूँ कि ये सभी पढ़ने में इतनी होशियार हैं, क्यों नहीं इनको स्कूल भेजते हैं? वे कहते हैं कि ''क्या करना इनको स्कूल जाकर? दीनी तालीम और दुनियावी तालीम (बहिश्ते ज़ेबर) ले लें यही काफ़ी है, फिर शादी ब्याह कर अपने शौहर के घर चली जाए, पढ़ लिखकर क्या करना है?'' मैं कहती हूँ कि पढ़ लिख लेंगी तो अपने पैर पर खड़ी तो हो सकती हैं? वे कहते हैं ''अगर पढ़ना चाहे तो मैं रोकता नहीं, पास के ही सरकारी स्कूल में भेज सकता हूँ, लेकिन ज़रूरत क्या है? जो छोटी बच्चियाँ हैं वो तो दीनी और दुनियावी तालीम ले ही रही हैं, जो थोड़ी बड़ी हैं उनको सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, पापड़ बनना, मेहँदी लगाना, घरेलू काम इत्यादि सिखाया जाता है, ज्यादा पढ़कर क्या करेंगी ये|''
चम्पानगर के एक संकरी गली में 4.75 कट्ठा ज़मीन में यह ''बच्चियों का घर'' बना हुआ है| इसकी स्थापना 1972 में हुई थी और पुनर्स्थापना 2006 में की गई| डॉ.जाकिर हुसैन जो भारत के तीसरे राष्ट्रपति थे, की सलाह और सुझाव पर इस यतीमखाना का निर्माण हुआ और इसका नाम भी उन्होंने ही सुझाया था ''बच्चियों का घर'', क्योंकि यतीमखाना शब्द उन्हें पसंद नहीं था, इसे एक घर के रूप में वो देखना चाहते थे| और आज यह सब देखकर सच में लगता है कि ये यतीमखाना नहीं बल्कि उन सभी बच्चियों का घर है जो नियति द्वारा किसी न किसी रूप में प्रताड़ित हैं|

यह घर अभी भी निर्माणाधीन है| 3 बड़े-बड़े कमरे हैं, 2 बड़ा-सा हॉल है, छत पर भी कमरा बना हुआ है| सुविधानुसार सभी कुछ यहाँ है| यहाँ 6-7 साल की उम्र से लेकर विवाह पूर्व तक बच्चियाँ रहती हैं| लगभग 54 बच्चियाँ अभी यहाँ रह रही हैं| सभी लड़कियाँ ज़मीन पर पुआल और उसके ऊपर कम्बल बिछा कर सोती हैं| सभी लड़की के पास एक-एक टीन का बक्सा है, जो एक मात्र उनकी अमानत है, जिसे यहाँ भर्ती करते समय अपने घर से लाना होता है| इसमें ही उनकी ज़रूरत का हर सामान रखना होता है|

यह पूछने पर कि यहाँ भर्ती करने का आधार क्या होता है, क्या सिर्फ मुस्लिम बच्चियों को ही पनाह मिलती है, मिन्नतुल्लाह साहब ने बताया कि यहाँ सिर्फ मुस्लिम बच्ची ही आती है, जिसे मस्ज़िद के इमाम द्वारा सत्यापित कराने के बाद ही रखा जाता है| जिस क्षेत्र, मोहल्ला या गाँव की लड़की होती है वहां का वार्ड कमिश्नर, मौलवी, मुखिया या थाना प्रभारी सत्यापित करते हैं| यहाँ आस पास के शहर जैसे बांका, मुंगेर, कटिहार, सहरसा इत्यादि की बच्चियाँ आती हैं|

मिन्नतुल्लाह साहब कहते हैं ''मैडम, आप जानती हैं, यहाँ सांसद शहनवाज़ साहब दो बार आ चुके हैं और मंत्री अश्वनी चौबे भी एक बार आए थे, लेकिन इस घर के लिए कोई कुछ नहीं करता, सभी आते हैं और सहायता की बात कर चले जाते हैं, सहायता आज तक कहीं से नहीं मिला'', ''क्या करें मैडम, हम लोग अपने ही बल पर ये चला रहे हैं'', ''चंदा, जकात, फितरह, अतियात और इमदादी की रकम से यहाँ का खर्चा चलता है, आज भी मेरे लोग गए हैं जमात में चन्दा के लिए, शादी है बेटी की, पैसा तो चाहिए ही न|'' मैं निःशब्द हो जाती हूँ, और चुपचाप मिन्न्तुल्लाह साहब को देखती रहती हूँ| वो कहते हैं ''मैडम शादी में आइयेगा न?'' एक बार नूरजहाँ के जन्मदाता को देखती हूँ फिर उसके इस पिता को जो इन सभी के पिता हैं और एक पिता का फ़र्ज़ बखूबी निभा रहे हैं|

- जेन्नी शबनम 


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9 comments:

Khare A said...

nishabd! ais abhi ho raha he! khair jo bhi he,

sundar prastuti!

खोरेन्द्र said...

''क्या करें मैडम, हम लोग अपने हीं बल पर ये चला रहे हैं'', ''चंदा, जकात, फितरह, अतियात और इमदादी की रकम से यहाँ का खर्चा चलता है, आज भी मेरे लोग गए हैं जमात में चन्दा केलिए, शादी है बेटी की, पैसा तो चाहिए हीं न|'' मैं निःशब्द हो जाती हूँ, और चुपचाप मिन्न्तुल्लाह साहब को देखती रहती हूँ| वो कहते हैं ''मैडम शादी में आइयेगा न?'' एक बार नूरजहाँ के जन्मदाता को देखती हूँ फिर उसके इस पिता को जो इन सभी के पिता हैं और एक पिता का फ़र्ज़ बखूबी निभा रहे हैं|

jiivan me dukh hae drd hai
to ..मिन्न्तुल्लाह साहब ..jaese log bhi hai
prastutikaran bahut khub rahaa ..

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sach me main bhi nihshabd!!....aapka ye chehra...dekh kar...kahin andar me kuchh hua............!

di bahut bahut shubhkamnayen..

सुनीता said...

अपने बच्चों के लिये तो सब जीते है लेकिन दुसरो के बच्चो के लिये जिने वाले इस शख्श को हमारा सलाम. दुसरों के लिये जीना ही जीवन को सार्थक बनाता है. थोडी सोच बद्लकर बच्चियो की पढाई के बारे मे सोचे तो और भी खुशी होगी. प्रेरणादायक आलेख.

सुनीता said...

अपने लिये और अपने बच्चो के लिये तो सब करते है. लेकिन दुसरो के बच्चो को अपना समझने वाले इस शख्श को हमारा सलाम. आज भी ऐसे लोगों ने मानवता को जिवित रखा है. थोडी सोच बदलकर बच्चियो की पढाई पर तवज्जो दें तो और भी खुशी होगी. प्रेरणादायक आलेख.

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

जहां इतना प्यार ..अपनापन और ज़िम्मेदारी हो वह जगह घर ही होगी यतीमखाना नहीं .....मिन्तुल्लाह साहेब को आदाब .....नूरजहाँ तो अपने शौहर के घर पहुँच गयी होगी ....खूब खुश रहे ...आबाद रहे.....ये दुआ है. जो बच्चियां रह गयी हैं वहां उन्हें बहुत-बहुत प्यार और आशीर्वाद .

shikha varshney said...

जेन्नी जी ! जाने क्यों मिन्न्तुल्लाह साहब की बात से सहमत होने को दिल करता है .कि क्या करेंगी पढलिख कर ...हमारे देश में एक ग्रेजुएट का भविष्य भी क्या है जो इन्हें कोई रोजगार मिल जायेगा.इससे तो अच्छा है कि वे दुनिअदारी और घरेलू धंधे ही सीखें.
मिन्न्तुल्लाह साहब जैसे लोग काश और कुछ हो जाएँ.
बहुत अच्छी पोस्ट.

vijay said...

bahut bhaya padna sach duniya mai bhale insano ki kami nahi....aap aisi jagah jati hai achha laga.

ओम पुरोहित'कागद' said...

बहुत अच्छी रपट !
शानदार एवम जानदार ब्लोग !
बधाई हो !
जय हो !