ढेर सारी डिग्रियाँ, प्रशंसा पत्र, कार्य-कुशलता प्रमाण पत्र और अन्य सर्टिफिकेट्स की भरमार! फिर ऐसा क्यों है कि जीवन के हर क्षेत्र में सिर्फ़ हार मिलती है। क्या ये डिग्रियाँ महज़ काग़ज़ का टुकड़ा है या उस वक़्त की सक्षमता, अध्ययनशीलता और कार्यकुशलता की निशानी, जो अब अक्षमता में बदल चुकी है। ऐसा क्यों होता है? बचपन से अब तक की सभी सफलताएँ यों अचानक कैसे असफलता में बदल जाती हैं? ऐसा कैसे हो जाता है? क्यों हो जाता है? क्यों हर वक़्त उम्मीद की जाती है कि शिक्षित स्त्री से कभी कोई ग़लती हो ही नहीं सकती? जीवन के हर क्षेत्र में उसके 'परफेक्ट' होने की न सिर्फ़ उम्मीद बल्कि उसे 'होना ही है' ऐसा माना जाता है। कोई चूक नहीं होनी चाहिए, चाहे वह उसके शिक्षा प्राप्ति का विषय रहा हो या नहीं, उसने उस सम्बन्ध में कभी जाना हो या नहीं। हर वक़्त हर अपेक्षाओं की हर कसौटी पर खरा उतरने की न सिर्फ़ उम्मीद बल्कि खरा सोना की तरह 24 कैरेट खरा होने की बाध्यता भी होती है।
इससे भली तो वे स्त्रियाँ हैं, जिन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली हैं। उनका जीवन न तो अवसाद में बीतता है न पति या ससुराल वालों को शिकायत रहती है कि वह कोई भी ग़ैर-वाज़िब माँग कर सकती है। इनके मन में भले ही शिकायत हो, पर ज़ुबाँ पर लाने का साहस नहीं करती हैं। इनसे सिर्फ़ घर चलाने तथा पति व ससुराल वालों के सत्कार की उम्मीद की जाती है। भले ही बात-बात पर ताना सुनती है कि कैसी गँवार से पाला पड़ा है, मूर्ख है कोई बात नहीं समझती है। पति की हमबिस्तर होने के दौरान सोने के कोई ज़ेवर या कोई उपहार माँग ले, तो पति सोचता है चलो फिर भी यह सस्ते का सौदा है, ज़ेवर या उपहार के बदले में पत्नी और भी अच्छी ग़ुलाम बनके रहेगी। कॉल गर्ल या वेश्या के पास जाओ तो शायद इससे ज़्यादा की माँग कर बैठती और एक-एक पल का हिसाब चुकता करना पड़ता। घर के काम के लिए अगर कामवाली को रखो, तो हर काम के लिए अलग-अलग पैसे दो। समाज में मुफ़्त में तारीफ़ भी मिल जाती है कि वह कितना अच्छा पति है, अपनी गँवार और अनपढ़ पत्नी को कितना मानता है। इधर पत्नी भी ख़ुश, इठलाते हुए अपना तोहफ़ा सबको दिखाती है कि एक और ज़ेवर या उपहार पति परमेश्वर ने दिया। मन में सोचती है कि उसकी माँग पर यह भी हो सकता था ज़ेवर तो दूर की बात दो-चार थप्पड़ जड़ देता तो? क्या ये कम नहीं कि हर पर्व-त्योहार पर जब अपनी माँ के लिए साड़ी खरीदता है, अपनी पत्नी को भी साड़ी देता है। कभी-कभार की मार भूल जाए, तो उसे जलाया तो नहीं गया न, क्या ये कम एहसान है ससुरालवालों का या पति परमेश्वर का। जब भी पति के लिए तीज का व्रत रखो तो पति महोदय के चेहरे की मुस्कान और पत्नी के साथ सुबह-सुबह उठकर उसके खाने के प्रबंध में हिस्सा लेना, क्या ये कम बड़ी बात हुई भला! साल में ऐसा मौक़ा बार-बार तो आता नहीं जब पूजा के कारण सम्मान मिले, इसलिए इस पक्के फ़ायदे का लाभ उठाने से चूकना भी नहीं चाहिए। एक तो नई साड़ी, उस पर से पति का प्यार! वाह! वाह!
तो बस इनके फ़ायदे देखिए। कामवाली ने सारा घर और रसोई साफ़ कर दी, कपड़े भी साफ़ कर दिए। एक कप चाय और दो पावरोटी दे दो, तो सब्ज़ी भी कटवा लो और आँटा भी गूँथवा लो। अब कपड़ा तो आयरन करने वाले को दे दिया, क्योंकि साहब को कड़क आयरन चाहिए, साथ में बच्चों का कपड़ा भी; क्योंकि स्कूल में साफ़ और अच्छा आयरन किया हुआ ड्रेस चाहिए। तो इन सब कामों से छुटकारा। अब पत्नी पढ़ी-लिखी नहीं तो पैसे के हिसाब-किताब से मुक्ति। न बाज़ार-हाट करना है, न किसी सामान के ख़त्म होने या पैसा के कम होने की चिन्ता करनी है। पति महोदय को जब समय मिले सामान ख़रीदकर लाएँगे, बस लिस्ट लिखवा देना है। न उधो का लेना न माधो का देना! कोई चिक-चिक नहीं कि तुम ज़्यादा ख़र्च करती हो। बस फिर क्या, सुबह फटाफट नाश्ता, टिफिन और बच्चे को तैयार कर देना है।फिर निश्चिन्त होकर चाहे तो सो जाओ या टी.वी. देखो। बच्चे दिन में आएँगे तो वक़्त पर जाकर उनको ले आना है और खाना खिला दिया, फिर कोई काम नहीं। सारा दिन पड़ोसी से गप्पे मारो या अपनी सहेली से, कौन पूछता है। बच्चों को पढ़ाने से भी छुटकारा, अनपढ़ माँ कैसे पढ़ा पाएगी बच्चे को? बच्चे भी मज़े में कि माँ को क्या पता कि वे क्या पढ़ रहे हैं, कम्प्यूटर पर पढ़ रहे हैं या मस्ती कर रहे हैं। शाम को पति के आते ही सजकर पत्नी तैयार और मुस्कुराती हुई सामने हाज़िर। ऑफ़िस में मूड ख़राब हो, तो बेवज़ह दो-चार झाड़ पड़ भी गया तो क्या, शाम को गरम पकौड़े और चाय के बाद सब ग़ुस्सा ख़त्म।
आजकल तो और भी अच्छा है, बच्चों ने ज़िद की कि बाहर का खाना खाएँगे, तो फिर कभी-कभी खाना पकाने से भी आराम। सास-ससुर बुज़ुर्ग हुए तो 8-10 साल के बाद तो वैसे भी चिल्लाना कम कर देते हैं। उन्हें तो बस उनके पसन्द का खाना चाहिए और बेटा जब ऑफ़िस से आए तो बहु के पास नहीं जाना चाहिए। इतना होता रहे तो किस बात का झगड़ा? सब मामला अपने-आप निबट और निबह जाता है कि बेटा अब भी बदला नहीं, आज भी ऑफ़िस से आकार पहले उन्हें मिलता है फिर घर में जाता है बहू से मिलने। कभी-कभार बेटा से कहकर बहू को 2-4 गाली-गलौज सुनवा दो और पूरे रोब-दाब में रहो, फिर तो बहू जीवन भर सेवा करेगी ही मुफ़्त में। बहूरानी भी ''जी माँ'' ''जी पापा'' कहकर अपने पति को ख़ुश करती रहती है, भले ही मन में सास-ससुर से नाराज़गी हो।
काम करने का मन न हो, तो ढेरों बहाने हैं तबीयत ख़राब होने के। सिर में ख़ूब सारा तेल चुपड़कर चुपचाप पति के सामने शाम को जाएगी और चाय के साथ सूखा बिस्किट दे दिया। पति समझ गए कि श्रीमती जी की तबीयत ठीक नहीं। फिर आह-ओह करते हुए बिस्तर पर लेट गई। आज तो पति का झाड़ भी न मिलेगा और काम से फ़ुर्सत सो अलग। खाना बनाने के समय ये उठेंगी और आह-आह करते हुए रसोई में प्रवेश करेंगी ताकि पति जी सुन लें कि अब वह चौका में जा रही है। पति कहेंगे कि छोड़ दो, आज खाना बाहर से मँगवा लेते हैं, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं। और ये मारा तीर निशाने पर ''नहीं-नहीं दवा ले लिया है, ठीक हो जाएगी तबीयत, काहे को पैसा बर्बाद करना, बस 10 मिनट में खाना बन जाएगा, तब तक आप टी.वी. देखिए न।'' बढ़िया निशाना लगा, पति महोदय उठकर आएँगे बच्चों के पास। बच्चे भी होशियार वक़्त का फ़ायदा उठाते हुए ''पापा आज बाहर से खाना मँगाओ न, रोज़-रोज़ घर का खाना खाकर बोर हो गए हैं और मम्मी बीमार भी तो है।'' क्या मारा, एक तीर कई निशाना, काम से आराम भी और बाहर का खाना बिना कहे आ गया। सब पर धाक भी जम गया कि घर के प्रति वह कितनी ज़िम्मेदार है। देखो खाना तो बना ही रही थी आप ही लोग बाहर से मँगवाए न!
तो बात अब सीधी-सी है कि शिक्षित स्त्री भली कि अशिक्षित? दोनों के अपने-अपने फ़ायदे और नुक़सान। अब ज़रा बेचारी शिक्षित स्त्री का मशीनी इंसान बनना देखिए।
शिक्षित स्त्री से हर काम में अपेक्षा होती है कि वह उसे सही-सही निपटाए।कभी ग़ुस्सा होकर पति या ससुराल वाले दो-चार बात सुना भी दें तो क्या, वह तो पढ़ी-लिखी समझदार है, उसे सहनशक्ति रखनी चाहिए। अब चूल्हा-चौका और घर का काम तो छूटता नहीं चाहे शिक्षित हो या अशिक्षित। इस पर अधिकार और एकछत्र राज़ करने का वरदान ईश्वर ने तो सिर्फ़ स्त्रियों को दिया है, तो भला पुरुष का प्रवेश कैसे हो? अब आजकल के कुछ नए युवा समझते नहीं, बस बीवी का हाथ बँटाने पहुँच जाते हैं चौका में। फिर देखो घर का कोहराम; अगर घर में सास-ननद हो। इस कोहराम से तो भला है कि चौका को मन्दिर की तरह दूर से ही प्रणाम कर लें ऐसे घर के पति महाराज! अब बीवी शिक्षित है तो उम्मीद यही होती कि वह कमाकर भी लाए, खाना भी पकाए, बच्चों को भी पढ़ाए, आस-पड़ोस से अच्छा सम्बन्ध भी रखे। सास-ससुर और उनके रिश्तेदारों तथा पति के मित्रों से प्रेम तथा शालीनता से पेश आए; भले वे लोग दुर्व्यवहार करें या कटाक्ष करें। शिक्षित कन्या तो इसीलिए लाए हैं न कि उसमें सहनशक्ति हो, वर्ना क्या कमी पड़ी थी लड़की की। एक-एक पैसा सोच-समझकर ख़र्च करे, बच्चे बीमार पड़ें तो उसका ही दोष कि उसे बच्चे को सँभालना नहीं आता है। खाना में कई पकवान न हो, तो पति का ग़ुस्सा दो-चार दिन पर निकलता ही है। दो-चार चाँटा न पड़े तो दो-चार अपशब्द ही सही, पर पति का अधिकार है सुनाना और पत्नी का कर्तव्य है सुनना।
घर की स्थिति में और सुधार लाना हो या स्त्री कैरियर कॉनशस है, तो ऐसे में उसका नौकरी करना लाज़िमी है। उम्मीद की जाती है कि पढ़ी-लिखी लड़की किसलिए घर लाई गई, जब कमाकर घर में पैसा न लाए। जब नौकरी के लिए बाहर जाती है, तो न सिर्फ़ पति बल्कि सास-ससुर और ननद-देवर भी शक से देखेंगे कि कहीं चक्कर तो नहीं चला रही है बाहर।बात-बात पर ये शब्द कान में दे दिया जाएगा कि पता नहीं नौकरी करती है या गुलछर्रे उड़ाती है, इतना सजकर क्यों जाती है। थककर वह आए तो कोई एक कप चाय भी न पूछे। उसके आने से पहले सभी लोग चाय पी लेंगे ताकि उसके लिए न बनाना पड़े। अब वह अकेले के लिए तो बनाएगी नहीं, सबसे पूछेगी ''आप लोग चाय पिएँगे?'', सभी कहेंगे ''हमने तो पी लिया अब अगर तुम पूछ रही हो तो पी लेंगे'', जैसे कि चाय पीकर वे सभी उसपर एहसान करेंगे। अगर कामवाली न आए तो चौका में सारा दिन का बर्तन ज्यों-का-त्यों पड़ा हुआ होगा। जबकि काम वाली 4 बजे आती है, लेकिन तब से सास-ननद को समय नहीं मिला कि बर्तन धो लें, और जब बहूरानी चाय पीकर बर्तन धोने जाएगी तो वे कहेंगी ''हम तो इंतिज़ार कर रहे थे कि कामवाली शायद देर से आए, बस अब धोने ही जा रहे थे बर्तन कि तुम दोनों आ गई।'' पति भी ख़ुश कि माँ को कितनी चिन्ता है बहू की। अब बहू तो पढ़ी-लिखी, उसे संस्कारी भी तो बनना है। शिष्टाचार भी तो बहू के लिए ही तय होता है न! भला सास-ननद से बर्तन धुलवाए? भले थककर और काम कर-करके पीठ और कमर का दर्द आजीवन मोल ले ले।
सभी काम से निपटकर सोने जाओ तो बिस्तर पर पति को पत्नी नहीं बल्कि कोई नवयौवना चाहिए जो न सिर्फ़ उत्तेजित करे, बल्कि पूर्ण काम-संतुष्टि दे जैसा कि पाँच सितारा होटल की मँहगी कॉल गर्ल देती हों। अगर वैसी संतुष्टि न मिले तो ये सुनिए ''अरे काम और नौकरी तो दोनों करके आए हैं, तुमने घर में दो-चार बर्तन क्या धो लिए और 4 रोटी क्या बना ली कि इतनी थक गई, क्या रोज़ रात में होटल में सोने जाऊँ?'' अब इसका क्या जवाब दे भला एक कथित शिक्षित नारी, जो पति की नज़र में बेकार है। नहीं मालूम क्यों नहीं समझ पाती ये शिक्षित स्त्रियाँ कि नारी का जन्म सिर्फ़ भोगने के लिए हुआ है, उसे अपने मन और ज़रूरत को समझाने का हक़ नहीं मिला।
अब पढ़ी लिखी माँ है तो यह जवाबदेही भी है कि बच्चों को वह पढ़ाए, बच्चों की सभी ज़रूरतें पूरी करे, बच्चों का मनोविज्ञान समझे। घर में कोई कितना भी कुछ कह दे, अपनी छवि ऐसी बनाए रखनी है ताकि बच्चों पर ऐसा असर न हो कि उसकी माँ पढ़ी-लिखी होकर भी जाहिल है। आख़िर माँ ही तो बच्चों की प्रथम शिक्षिका है और घर प्रथम पाठशाला, तो घर को मर्यादा में रखने की जवाबदेही भी उसी स्त्री की हुई। अब नौकरी करती है तो पाई-पाई का हिसाब जोड़ेगी ही, कोई भी फ़ालतू ख़र्च हुआ तो ज़ुबान खोल दी।लो अब आ गई आफ़त! ''इतनी हिम्मत जो पति से पैसे का हिसाब पूछा, अरे मर्द है कमाता है, क्या वह अपने बाप के घर से लेकर आई है जो उसने पूछने की हिम्मत की?'' अब पैसा जितना है कामवाली तो रखना मुश्किल है, तो भाई मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। कभी बीमार पड़ जाओ तो और भी बड़ा कोहराम घर में। अब तनख़्वाह कटेंगे सो अलग, काम न हो पाने से सारा दिन सबका ताना सुनना होगा सो अलग, पति महोदय अगर बाहर से खाना लेकर आ गए तो सीधा इल्ज़ाम कि वह बीवी का ग़ुलाम हो गया। ओह! किसी में कोई चारा नहीं। बीमारी में भी घर से बाहर रहना ही भला।पर दिन भर पति की जासूस आँखें पीछा कहाँ छोड़ती हैं। बीमारी में भी नौकरी पर चल दी मैडम, बात पक्की है कि कोई चक्कर चला रही है। घर में घुसते ही सबकी नज़रें एक्स-रे की तरह। अब किसके बात का क्या जवाब और कहाँ से हो जवाब।
क्या करे क्या न करे, बड़ी मुश्किल हाय! पढ़-लिखकर नौकरी करो तो अलग समस्या, पढ़ी-लिखी न हो तो रोज़ ताने कि कैसी अनपढ़ से पाला पड़ा। एक उपाय है बचपन से लेकर शादी तक पढ़ाई ऐसी पढ़ो कि बस वक़्त गुज़रे और जब नौकरी खोजो तो तुरन्त मिल जाए। न माँ-बाप का नुक़सान हो न अनपढ़ का लेबल लगे और शादी भी फटाफट हो जाए। बस शादी होते ही पति को गिरफ़्त में करना है और पति को लेकर दूसरे शहर ट्रांसफर। सबसे पहली सीख कि झूठ और बहाना के लिए कोई नई वेबसाईट खोजो, जिससे ऐसी एक्टिंग करो कि बेचारा पति क्या महेश भट्ट और राजश्री प्रोडक्शन वाले भी धोखा खा जाएँ। तो बस काम हो गया। नौकरी भी पक्की, पैसा भी कमाओ, ऐश-मौज-मस्ती सब बाहर और घर में घुसते ही आह... ओह... आउच... पति दौड़ेगा... ''क्या हुआ जानू?''
- जेन्नी शबनम (16.10.2010)
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6 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति .
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .
sundar vivechna ki he aapne, padhi likhi aur be padhi likhi stri ki
badhai
इस पोस्ट में तो आप राशन पानी लेकर चढ़ बैठीं हैं।
kitna likh diya aapne........:D
pahle padh chuka hota, to amal bhi karta......:)
waise achchha laga........!!
जेन्नी जी ! बड़े जोश में बहुत कुछ लिख डाला है :) शिक्षित होने पर नमक भी छिड़क दिया है तो मैं तो बस मुस्कुराकर ही जा रही हूँ :)
bahut baariki se aap sab kuchh likh gayi
jo dekhaa aur jo jaanaa ....
sab sach hae
purush rat bhar bahar ghum sakta hai
ek strii nahi
andhera bhi purush ke liye ujalaa hai
ujalaa bhi par
aurat ke liye andheraa hain .....
aapko badhaaii achchhe lekh ke liye
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