Friday, October 18, 2024

113. हृदय की संवेदनशीलता और कोमलता बयाँ करता काव्य-संग्रह 'नवधा' - दयानन्द जायसवाल

श्री दयानन्द जायसवाल, साहित्यकार एवं मोक्षदा इन्टर स्कूल, भागलपुर के पूर्व प्राचार्य, ने मेरी पुस्तक पर सार्थक समीक्षा की है मैं हृदय से आभार व्यक्त करते हुए समीक्षा प्रेषित कर रही हूँ
 
'नवधा' अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित डॉ. जेन्नी शबनम, दिल्ली का यह काव्य-संग्रह कवयित्री के हृदय की संवेदनशीलता और कोमलता बयाँ करता है। इनकी दृष्टि विषयों के बहुत गहरे उतरती है और उनके मर्म को सहेज लाती है। बहुत आह्लादकारी हैं इनकी आत्मीय मिठास से बुनी इनकी रचनाएँ, जहाँ आज के विघटनकारी समय में सबकुछ टूट रहे हैं, यहाँ तक कि रिश्ते-नाते भी। वहाँ इनकी रचनाएँ उनको बचाकर रखने की कोशिश ही नहीं, एक कोमल ज़िद भी है। बिम्बों के चयन ही नहीं, रंगों और रसों का  संयोजन भी इनकी रचना की अपूर्व विशेषता है, जिसमें पाठकों को आकृष्ट करने की प्रबल क्षमता है। नारी जीवन की बेचैनी और सामाजिक असमानता दिखाने के बाद भी इन्होंने कहीं पराजय, टूटन, थकान और गतिहीनता का पक्ष नहीं लिया। इनका स्वप्नजीवी मन कुहासे को चीरकर उजाले को जमीन पर लाने के आग्रहों से भरा है।

       कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का 'नवधा' काव्य-संग्रह में नौ विधाओं का संग्रह है। उन नौ विधाओं में ' हाइकु', 'हाइगा', 'ताँका', 'सेदोका', 'चोका', 'माहिया', 'अनुबन्ध', 'क्षणिकाएँ' तथा 'मुक्तावलि' हैं। नवधा-काव्य-सृजन में इनका सम्पूर्ण परिचय और इनके जीवन के मीठे-कटु अनुभवों का आत्मालोचन भी है। इनकी यह सारी काव्य शैली जापानी कविता की समर्थवान विधा है। 

     हाइकु का विकास होक्कू से हुआ है, जो एक लंबी कविता की शुरुआती तीन पंक्तियाँ हैं जिन्हें टंका के नाम से भी जाना जाता है। यह  5-7-5 के शब्दांश होते हैं जिसमें इन्होंने प्रेम की महत्ता को इस प्रकार दर्शाया है-

" प्रेम का काढ़ा 

  हर रोग की दवा

  पी लो ज़रा-सा।"

'हाइगा' जिसका शाब्दिक अर्थ है 'चित्र कविता', जो चित्रों के समायोजन से वर्णित किया जाता है। यह हाइकु का प्रतिरूप है, जिसमें इन्होंने समुद्र की लहर का सचित्र वर्णन किया है- 

"पाँव चूमने

लहरें दौड़ आईं

मैं सकुचाई।"

'ताँका' जापानी काव्य की एक सौ साल पुरानी काव्य विधा है। इस विधा को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान काफ़ी प्रसिद्धि मिली। उस समय इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ है। यह पाँच पंक्तियों और  5-7-5-7-7= 31 वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करता है, जिसे इन्होंने बालकविता के रूप में एक नन्हीं-सी परी को आसमान से उतारी और वो बच्चों का दिल बहलाई और पुनः लौट गई। उसे इन चंद पंक्तियों में भावनाओं का अथाह सागर-सा उड़ेल दी है- 

"नन्हीं सी परी

लिए जादू की छड़ी

बच्चों को दिए

खिलौने और टॉफी

फिर उड़ वो चली।"

'सेदोका' में किसी एक विषय पर एक निश्चित संवेदना, कल्पना या जीवन-अनुभव वर्णित होता है। इसमें क्रमशः 5-7-7-5-7-7 वर्णक्रम की छह पंक्तियाँ होती हैं, जिसे इन्होंने वियोगावस्था का वर्णन, प्रेमिका के मन की पीड़ा को संवेदनाओं की काली घटाओं में इस प्रकार घोली हैं- 

"मन की पीड़ा 

बूँद-बूँद बरसी  

बदरी से जा मिली  

तुम न आए  

साथ मेरे रो पड़ी  

काली घनी घटाएँ।" 

 'चोका' भारतीय दृष्टिकोण से यह एक वार्णिक छंद है जिसमें 5-7-5-7 वर्णों के क्रम में कई पंक्तियाँ हो सकती हैं। इसके अंत की दो पंक्तियों में सात-सात वर्ण होते हैं। इस कला पक्ष के साथ भाव के प्रवाह में रची गयी कविता 'चोका' कहलाती है। 


कवयित्री के मन में अपनी इन कविताओं को लेकर कोई दुविधा नहीं है। देश दुनिया के संघर्षजीवी जन के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकांक्षाओं  और बेहतर ज़िंदगी, बेहतर दुनिया के लिए इनकी मुक्ति चेतना ही प्रतिबद्धता है। दूसरी ओर इस प्रतिबद्धता के पीछे इनकी समस्त भावनाओं, अनुभूतियों, आत्मीयता और कोमलतम संवेदनाओं को बचा लेने का मन दिखता है, जिसके बिना न तो जीवन जीने योग्य दिखता है और न ही मनुष्यता सुरक्षित हो सकती है। इनकी कविताओं में प्रकृति के उपादानों के माध्यम से मानव जीवन के अनुभवों को कुशलता से व्यक्त किया गया है। इसमें अभिव्यक्ति की सहजता और शब्दों की तरलता के साथ-साथ दृश्यात्मक बिम्बों की विशिष्टता देखकर आँखें जुड़ा जाती हैं। 'चोका' की एक कविता है-

  'सुहाने पल' - "मुट्ठी में बंद / कुछ सुहाने पल / ज़रा लजाते / शरमा के बताते / पिया की बातें / हसीन मुलाक़ातें / प्यारे-से दिन / जगमग-सी रातें / सकुचाई-सी / झुकी-झुकी नजरें / बिन बोले ही / कह गई कहानी / गुदगुदाती / मीठी-मीठी खुशबू / फूलों के लच्छे / जहाँ-तहाँ खिलते / रात चाँदनी / आँगन में पसरी / लिपटकर / चाँद से फिर बोली / ओ मेरे मीत /  झीलों से भी गहरे / जुड़ते गए / ये तेरे-मेरे नाते / भले हों दूर / न होंगे कभी दूर / मुट्ठी ज्यों खोली / बीते पल मुस्काए / न बिसराए / याद हमेशा आए / मन को हुलसाए।" 

     रूप, रस, गंध, शब्द-स्पर्श आदि ऐन्द्रिय बिम्बों से बुना गया इनकी अन्य कविताओं का सृजनात्मक कर्म जीवन के सन्दर्भों का समुच्चय है। कवयित्री का यह प्रयास घर को घर की तरह रखने का संकल्प है। घर गहरी आत्मीयता, परस्पर सम्बद्धता, समर्पण, विश्वास और व्यवस्था का एक रूप है। दीवारों के दायरे को भरे-पूरे संसार में तब्दील करना इनका लक्ष्य है। इनका यह सोच इनकी लोक-संपृक्ति का प्रमाण है। 

कवयित्री को हार्दिक बधाई एवं सफलता की शुभकामनाएँ। 

कवयित्री का संपर्क सूत्र-  9810743437

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Thursday, July 18, 2024

112. भगदड़

उत्तर प्रदेश राज्य के हाथरस ज़िला में सिकंदराराव के गाँव फुलरई में 2 जुलाई 2024 को सत्संग के बाद हुई भगदड़ में 121 लोगों की मृत्यु हुई, जिनमें 113 महिलाएँ हैं। यह भगदड़ कथावाचक भोले बाबा उर्फ़ सूरज पाल उर्फ़ नारायण साकार विश्व हरि के सत्संग के बाद हुई। कथावाचन के बाद बाबा के आदेशानुसार वापस जाते समय अनुयायी बाबा का आशीर्वाद व चरण-रज लेने के लिए दौड़ पड़े, जिससे भगदड़ मच गई। 

वर्ष 2013 में 'इंटरनेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन' में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि भारत में 79% भगदड़ धार्मिक सभाओं और तीर्थयात्राओं के कारण होती है। यह भी पाया गया कि ये धार्मिक सामूहिक आयोजन अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में किए जाते हैं, जहाँ बुनियादी सुविधाएँ नहीं होने के कारण ख़तरा बना रहता है।  

वैज्ञानिकों ने एक डाटाबेस तैयार किया है, जिसके आँकड़े के अनुसार भारत और पश्चिमी अफ्रीका भगदड़ की दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा केन्द्र बनता जा रहा है। सबसे ज़्यादा खेल और धार्मिक आयोजनों में ऐसी दुर्घटनाएँ होती हैं।

भीड़ पर से नियंत्रण ख़त्म हो जाए या भीड़ प्रबन्धन असफल हो जाए तो भगदड़ मच जाती है; भीड़ के एकत्रित होने का कारण कुछ भी हो सकता है। न सिर्फ़ भारत में बल्कि विदेशों में भी ऐसी कई दुर्घटनाएँ हुईं हैं। न सिर्फ़ धार्मिक आयोजन बल्कि अन्य कार्यक्रम जहाँ भीड़ बहुत होती है, ऐसे हादसे होते हैं। 

वर्ष 1989 में ब्रिटैन के शेफील्ड के एक स्टेडियम में एक मैच के दौरान प्रशंसकों की भीड़ अनियंत्रित हो गई, जिसमें 96 लोग मारे गए। वर्ष 2001 में अफ्रीका के अकरा के एक स्टेडियम में अनियंत्रित प्रशंसको पर पुलिस द्वारा आँसू-गैस छोड़े जाने पर भगदड़ हो गई, जिसमें 126 लोग मारे गए। वर्ष 2022 में इंडोनेशिया के एक स्टेडियम में भगदड़ के कारण 125 लोग मारे गए। 

अंतरजाल पर मिली सूचनाओं के अनुसार भारत और विदेशों की भगदड़ की बड़ी दुर्घटनाओं का विवरण निम्न है- 

*वर्ष 2003 में महाराष्ट्र के नासिक ज़िले सिंहस्थ कुम्भ मेले में पवित्र स्नान के दौरान हुए भगदड़ में 39 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2005 में महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में मंधारदेवी मन्दिर में वार्षिक तीर्थयात्रा के दौरान 340 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2008 में हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर ज़िले के नैना देवी मन्दिर में चट्टान खिसकने की अफ़वाह से मचे भगदड़ में 162 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2008 में राजस्थान के जोधपुर में चामुण्डा देवी मन्दिर में बम विस्फोट की अफ़वाह के भगदड़ में 250 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2010 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में राम जानकी मन्दिर में कृपालु महाराज द्वारा दान दिए जा रहे खाना व कपड़ा लेने के दौरान मची भगदड़ में 63 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2011 में केरल के इडुक्की ज़िले में सबरीमाला मन्दिर से दर्शन कर लौट रहे लोगों से एक जीप के टकरा जाने के बाद मची भगदड़ में 104 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2011 में उत्तराखण्ड में हरिद्वार के हर की पौड़ी के भगदड़ में 20 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2012 में बिहार के पटना में गंगा नदी के घाट पर छठ पूजा के दौरान अस्थायी पुल के ढहने से हुई भगदड़ में 20 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश के दतिया ज़िले में रतनगढ़ मन्दिर के पास नवरात्र उत्सव के दौरान पुल टूटने की अफ़वाह से मची भगदड़ में 115 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2014 में बिहार के पटना के गाँधी मैदान में दशहरा समारोह की समाप्ति के तुरन्त बाद मची भगदड़ में 32 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2015 में आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी ज़िले में पुष्करम उत्सव के दिन गोदावरी नदी के तट के स्नान स्थल पर भगदड़ में 27 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2022 में जम्मू-कश्मीर के माता वैष्णो देवी मन्दिर में भीड़ के कारण हुई भगदड़ में 12 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2023 में इंदौर के बेलेश्वर महादेव झूलेलाल मन्दिर में रामनवमी के अवसर पर आयोजित हवन कार्यक्रम के दौरान बावड़ी का स्लैब ढह जाने से 36 लोगों की मौत हुई। 

*वर्ष 1990 में सऊदी अरब के मक्का के अल-मुआइसम सुरंग में ईद-उल-अजहा के मौक़े पर हज यात्रा के दौरान भगदड़ में 1426 लोगों की मौत हुई।
*वर्ष 1994 सऊदी अरब के मक्का के पास जमरात पुल के पास शैतान को पत्थर मारने के हज-रस्म के दौरान हुए भगदड़ में 270 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2004 में ही जमारात ब्रिज के पास शैतान को पत्थर मारने के हज-रस्म के भगदड़ में 251 लोगों की मौत हुई। 
*वर्ष 2022 में दक्षिण कोरिया के सियोल में हैलोवीन समारोह की भगदड़ में 151 लोगों की मौत हुई। 

इन तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत हो या विदेश हर जगह हीरो-वर्शिप (Hero-worship) की जाती है; चाहे वह खेल का मैदान हो या किसी बाबा या ईश्वर के लिए अंधभक्ति। पूजा, प्रेम, भक्ति, आदर, सम्मान, अनुराग, आराधना, सम्मान, पसन्द इत्यादि होना ग़लत नहीं है। ग़लत तो तब होता है जब इनमें से किसी की भी अति हो, और इसी अति का दुष्परिणाम है ऐसा हादसा।  

धर्म के नाम पर न जाने कितनी सदियों से अत्याचार हो रहे हैं और यह सब जानकर भी लोग इसमें फँस जाते हैं। चाहे वह किसी भी धर्म या संप्रदाय की बात क्यों न हो। ईसाई समाज के बाबा दूर खड़े मंत्र पढ़ते हैं और लोग गिरने लगते हैं। हर रविवार को विशेष प्रार्थना के लिए हर ईसाई का चर्च में जाना अनिवार्य है। ऐसे ही मुस्लिम समाज में मुल्ला-मौलवी ने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर है। मक्का-मदीना जाना है तो जाना है, भले शरीर से लाचार हो। हिन्दू देवी-देवताओं के अधिकतर मशहूर मन्दिर पहाड़ों पर या ऊँचे स्थानों पर बने हुए हैं; भले जान चली जाए पर वहाँ जाना ही है। 

बेहद आश्चर्य होता है कि आज का सभ्य और शिक्षित समाज ऐसे बाबाओं के चक्कर में कैसे फँस जाता है; गाँव हो या शहर। स्त्रियाँ इन बाबाओं के चंगुल में ज़्यादा फँसती हैं और अपना सर्वस्व लुटा बैठती हैं, चाहे वे शिक्षित हों या अशिक्षित। कुछ दशक पहले तक बहुत कम लोग अंधभक्त होते थे। नित्य-क्रिया की तरह पूजा-पाठ, वंदना, नमाज़ या प्रार्थना किया करते थे। जिस ख़ास दिन पर कोई उत्सव हो वह मनाया करते थे। परन्तु अब यह सब फ़ैशन की तरह हो गया है। उस पर से हर कुछ दिन में एक नया बाबा आ जाता है और लोग पुण्य कमाने उसके पास दौड़ पड़ते हैं। सोच, समझ, शिक्षा, विज्ञान, तकनीक सबको पछाड़ दे रहा है यह बाबा-मुल्ला समाज। इनके तर्कहीन, अवैज्ञानिक और अनर्गल बातों पर विशवास कर लोग इनका अनुसरण और अनुकरण करते हैं और किसी-न-किसी हादसे के शिकार हो जाते हैं। राम रहीम, निर्मल बाबा, आसाराम, सूरज पाल या अन्य बाबा; इन सभी ने स्त्रियों पर अत्याचार किया और कितनों की जान ले चुके हैं। 

निःसन्देह बाबा-मुल्ला दोषी है; लेकिन हमारा अशिक्षित समाज ज़्यादा दोषी है। धन, सुख, पद, प्रतिष्ठा, संतान, मनोकामना इत्यादि का लोभ और ईश्वर का डर मनुष्य को इन पाखण्डियों के नज़दीक ले जाता है और फिर वे इसका फ़ायदा उठाते हैं। हर धर्म-ग्रन्थ में प्रेम, दया, अहिंसा, मर्यादा, मोक्ष की बातें बताई गई हैं; परन्तु लोग इसे न अपनाकर मन्दिर-मस्जिद-चर्च में भटक रहे हैं और बाबाओं, मुल्लों, पादरियों के चक्कर में पड़ रहे हैं।      

जान-बूझकर पाप करना ही क्यों, जो पुण्य के चक्कर में मन्दिर-मस्जिद भटकना पड़े, बाबाओं या पंडितों से निदान का उपाय करवाना पड़े। जो भी संत, महात्मा, फ़क़ीर या गुरु होते हैं, वे भीड़ जुटाकर लोगों को बरगलाकर जबरन अपनी प्रतिष्ठा नहीं करवाते, न तो वे चमत्कार दिखाते हैं, न अनुयायियों की संख्या बढ़ाते हैं। लेकिन पाखण्डी जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, तरह-तरह के अनुष्ठान क्रिया आदि करके लोगों के दिमाग़ को क़ैद कर लेते हैं और इसका दुरूपयोग कर अपना धन-बल बढ़ाते हैं।    

निःसन्देह हमारी शिक्षा सही नहीं है, हमारे संस्कार सही नहीं है। अन्यथा लोग वर्तमान जीवन का कर्म छोड़कर मृत्यु टालने और मृत्यु के बाद के सुख के लोभ में न पड़ते, न ऐसे पाखण्डी बाबाओं के चक्कर में पड़कर जान गँवाते। जो बाबा आपसी भाईचारा मिटा रहा है, समाज में आपस में दूरी बढ़ा रहा है, अमीर-ग़रीब का दो समाज बाँट रहा है, शिक्षित को भी अंधविश्वास के कुँआ में धकेल रहा है, अशिक्षित को और भी पिछड़ा बना रहा है; ऐसा बाबा हो मुल्ला हो या पादरी या अन्य कोई भी धर्म का ठेकेदार हमें उससे दूर रहना होगा ताकि उसका धर्म का धंधा बंद हो सके। 

धार्मिक आयोजन या यात्राओं में जितने भी भगदड़ हुए हैं, इन सभी के दोषी हम सब हैं, हमारा शिक्षित समाज है और हमारी सरकार। अपने-अपने धर्म, सम्प्रदाय और नियम का पालन लोग अपने-अपने घरों में करें। सरकार को चाहिए कि सार्वजनिक जगह पर सार्वजनिक रूप से धार्मिक आयोजन को बंद करवाए। जिसे प्रार्थना, नमाज़, पूजा-पाठ या कोई ख़ास अनुष्ठान करना है, वह अपने-अपने घरों में करे या फिर जो भी मन्दिर-मस्जिद-गिरजाघर पहले से है, वहाँ जाकर करे। सभी पाखण्डी बाबाओं, मुल्लों, पादरियों व नक़ली धर्म गुरुओं को कठोर दण्ड मिलना चाहिए ताकि आगे कोई बाबा बनने की हिम्मत न करे। अन्यथा लोग ऐसे ही अंधभक्ति में पड़कर जान-माल गँवाते रहेंगे, बाबा बेफ़िक्र रहकर नया-नया अनुयायी बनाता रहेगा, सरकार मुआवज़ा देती रहेगी। अगर कोई ईश्वर कहीं होता होगा, तो मनुष्य के इस गँवारूपन पर हँसता ही होगा। 

- जेन्नी शबनम (18.7.2024)

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Wednesday, May 1, 2024

111. शासक हाथी और शोषित कुत्ता

एक कहावत है- ''हाथी चले बाज़ार कुत्ता भौंके हज़ार।'' इसका अर्थ है आलोचना, निन्दा, द्वेष या बुराई की परवाह किए बिना अच्छे कार्य करते रहना या सही राह पर चलते रहना। इसका सन्देश अत्यन्त सकारात्मक है, जो हर किसी के लिए उचित, सार्थक एवं अनुकरणीय है। हम सभी के जीवन में ऐसा होता है जब आप सही हों फिर भी आपकी अत्यधिक आलोचना होती है। अक्सर आलोचना से घबराकर या डरकर कुछ लोग निष्क्रिय हो जाते हैं या चुप बैठ जाते हैं। कुछ लोग अनुचित राह पकड़ लेते हैं और ''हाथी चले बाज़ार कुत्ता भौंके हज़ार'' कहावत को चरितार्थ करते हैं। वे बिना किसी परवाह के अनुचित कार्य करते रहेंगे; न अपने सम्मान की चिन्ता न दूसरे की असुविधा की फ़िक्र। बस अपना हित साधना है, पूरी दुनिया जाए भाड़ में।   

वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें तो राजनीतिक परिस्थितियों पर यह कहावत सटीक बैठती है, भले नकारात्मक रूप से ही सही। कुछ नेता स्वयं को हाथी मानकर अति मनमानी करते हैं, अति निर्लज्जता से सारे ग़लत काम करते हैं, असंवेदनशीलता की सारी हदें लाँघ जाते हैं, बेशर्मी से दाँव-पेंच लगाकर बाज़ी चलते हैं। उन्हें न अपनी आलोचना की फ़िक्र है, न अपने कुकृत्यों पर शर्मिन्दगी। पद, पैसा और लालच के सामने उन्हें किसी चीज़ की कोई परवाह नहीं। 

इस सन्दर्भ में सोचें तो हम आम जनता कुत्ते की तरह हैं, जो हर अनुचित पर लगातार भौंक रहे हैं और सदियों से भौंकते जा रहे हैं। न किसी को हमारी परवाह है, न कोई हमारी बात सुनता है; फिर भी हम भौंकते रहते हैं। ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद करते रहते हैं। हमारे अधिनायक, बादशाह, शासक, नेता, आका, सत्ताधीश बिगड़ैल हाथी की तरह सत्ता हथियाने के लिए भाग रहे हैं और हम जैसे भौंकते कुत्तों को रौंदते जा रहे हैं। वे हाथी हैं, अपने हाथी होने पर उन्हें घमण्ड है और इस अभिमान में पाँव के नीचे आने वाले कुत्तों को रौंदना उनका कर्त्तव्य; क्योंकि ऐसे कुत्ते उनकी राह में बाधा डालने के लिए खड़े हैं।  

भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, अन्याय, अत्याचार, तानाशाही, निरंकुशता आदि के ख़िलाफ़ हम कितना भी भौंके, कोई सुनवाई नहीं है। नेताओं को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, उन्हें अपने फ़ायदे के लिए जो सही लगता है वे करते हैं; वे हाथी जो ठहरे। आम जनता तो कुत्ता है, भौंके, भौंकता रहे। जिधर रोटी मिलेगी दुम हिलाते हुए कुछ कुत्ता हाथी के पीछे चला जाएगा। कुछ कुत्ता हमेशा की तरह भौंक-भौंककर जनता को जगाएगा ताकि वे अपना अधिकार जाने और सही के लिए भौंकने में साथ दें। 

जब-जब चुनाव आएगा तब-तब हाथी होश में आएगा और गिरगिट-सा रंग बदलते हुए अपनी चाल थोड़ी धीमी करेगा। बाज़ार से गुज़रते हुए रोटी का टुकड़ा फेंकता जाएगा, थोड़ा पुचकारेगा, थोड़ा दया दिखाएगा; जो झाँसे में न आया उसे पाँव तले कुचल देगा। यों भी पेट और वोट का रिश्ता बहुत पुराना है। पाँच साल जनता कुत्ते की तरह भौंके और नेता हाथी की तरह मदमस्त चलता रहे।

समाज में हर तरह के लोग होते हैं, जो हर कार्य का आकलन, अवलोकन और निष्पादन अपने सोच-विचार से करते हैं। हमारी सोच को शिक्षा, धर्म और संस्कृति सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है। जाने कब आएगा वह दिन जब न कोई शासक होग़ा न कोई शोषित। सभी की सोच पर से धर्म और जाति का पर्दा उठेगा और जनहित को ध्यान में रखकर इन्सानियत वाले समाज का निर्माण होगा।  

शासक हाथी और शोषित कुत्ता, खेल जारी है... हाथी अपने मद में चूर जा रहा है और कुत्ते भौंक रहे हैं। हाथी सदा सही होता है और कुत्ता सदा बेवकूफ़! सन्दर्भ भले उलट गया पर कहावत सही है- ''हाथी चले बाज़ार कुत्ता भौंके हज़ार।'' 

- जेन्नी शबनम (1.5.24)

(मज़दूर दिवस)

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Friday, March 8, 2024

110. स्त्री-रोबोट


चित्र गूगल से साभार 
दरवाज़े की घंटी बजी। बहुत क़रीने से साड़ी पहनी हुई एक स्त्री ने मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोल आने का कारण पूछा। फिर बड़े तहज़ीब से बैठक में बिठा पानी लेकर आई। पानी का ग्लास देने के बाद घर के भीतर गई और उस सदस्य को सूचना दी, जिससे मिलना था। फिर वह मुस्कुराती हुई आई और चाय देकर चली गई। अमूमन आम घरों का यह एक सामान्य चलन है। लेकिन जब पता चले कि वह स्त्री जीवित इंसान नहीं बल्कि रोबोट है, तो निःसन्देह हम चौंक जाएँगे या डर जाएँगे, मानो भूत देख लिया हो। 

सुना है कि ऐसे-ऐसे रोबोट बन गए हैं जो हर काम चुटकियों में कर देते हैं, और वह भी उत्तम तरीक़े से। विज्ञान और तकनीक ने मनुष्य का विकल्प रोबोट बनाया है। ऐसे रोबोट बन गए हैं जो स्त्री का विकल्प ही नहीं बल्कि स्त्री ही है, जो हर वह काम करेगी जो एक स्त्री करती है। घर के सारे काम से लेकर पुरुष के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने का कार्य वह बेहिचक और पूरी तन्मयता से करेगी। स्त्री-रोबोट देखने में ख़ूबसूरत और सुडौल होगी, आपके पसन्द का परिधान पहनेगी, आपके पसन्द का भोजन पकाएगी, जो गीत आप सुनना चाहें वह गाएगी, ऑनलाइन आपके बैंक के कार्य करेगी, बाज़ार से ऑनलाइन सामान मँगाएगी, आपके हर कार्य का हिसाब रखेगी, आपके रूटीन का ध्यान रखेगी, खाना-दवा सही वक़्त पर देगी। आपके मनोभाव के अनुरूप वह हर काम करेगी, जिससे आपको आनन्द आए और जीवन सुचारू रूप से चले। बस वह बच्चा पैदा नहीं कर सकती।  

अभी एक फ़िल्म आई थी 'तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया'। इसमें स्त्री पात्र का चरित्र एक ख़ूबसूरत स्त्री-रोबोट का है, जिसके प्रेम में फ़िल्म का नायक पड़ जाता है; यहाँ तक कि उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध भी बनाता है। उस स्त्री-रोबोट से विवाह करने को व्यग्र हो जाता है और विवाह करने के लिए एक सुघड़ सुसंस्कृत बहु के रूप में घरवालों से मिलवाता है। ख़ैर... यह तो फ़िल्म है, जो हमें हमारे समाज के भविष्य का रूप दिखा रहा है। ऐसा सचमुच कब होगा मालूम नहीं, जब हम एक आम स्त्री और रोबोट में फ़र्क़ न कर पाएँ। हालाँकि फ़िल्म में इसके दुष्परिणाम भी दिखाए गए हैं; लेकिन यह तो सत्य है कि हर पुरुष ऐसी ही रोबोट स्त्री चाहता है, जो बिना थके बिना किसी शिकायत किए चौबीस घंटा उसके लिए मुस्कुराती हुई उपलब्ध रहे।  
चित्र गूगल से साभार 
समाज में स्त्रियों की जो स्थिति है ऐसे में मुनासिब है कि संसार से स्त्री प्रजाति मिट जाए और उसकी जगह स्त्री-रोबोट ले ले। हमारे पुरुषप्रधान समाज में सैकड़ों सालों से स्त्री जीवन के सुधार के लिए कार्य किए गए; लेकिन नतीज़ा सिफ़र। कुछ ख़ास तबक़े और वर्ग को छोड़ दें, तो हज़ारों साल से स्त्री की वास्तविक स्थिति में ज़्यादा सुधार नहीं हुआ है। हाँ! अब स्त्री पढ़ रही है, कार्य करती है, बच्चे सँभालती है और पुरुष को बराबर का सहयोग देती है। परन्तु यह सब इतना कम है कि अगर सही मायने में सर्वे हो, तो सारी बातें स्पष्ट रूप से सामने आएँगी। 

बलात्कार व बलात्कार के बाद हत्या, दहेज़ के लिए प्रताड़ना व हत्या, भ्रूण हत्या, अशिक्षा, बाल विवाह, घरेलु हिंसा, छेड़खानी इत्यादि दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। हज़ारों प्रयत्न के बाद भी स्त्रियों को आज़ादी एवं सुरक्षा नहीं मिल सकी है। स्त्री का जीवन माँ के गर्भ में आने से लेकर मृत्युपर्यन्त ख़तरे में रहता है। दोष सिर्फ़ पुरुष समाज का नहीं, हम सभी की इसमें बराबर भागीदारी है। 

'तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया' फ़िल्म देखकर यह ख़याल आया कि सचमुच ऐसे रोबोट बनाए जाएँ, जो पूर्णतः शारीरिक और मानसिक रूप से स्त्री हो, ताकि पुरुष अपने मनमाफ़िक़ उसका संचालन और उपयोग करे। स्त्री-रोबोट 24 घण्टे हर काम के लिए उपलब्ध रहेगी। घर का काम, बैंक का काम या कोई गुप्त कार्य वह आसानी से करेगी। उसे न भूख लगेगी न प्यास, न आँसू बहाएगी न कोई शिकायत करेगी, न उसे कोई तकलीफ़ होगी, न कोई अपेक्षा रखेगी। जितना मर्ज़ी उसके साथ हमबिस्तर हुआ जा सकता है। अगर बलात्कार भी हो, तो वह न चीखेगी न चिल्लाएगी। पुरुष जो भी कार्य का आदेश देगा वह करेगी। 

अधिकतर पति को अपनी पत्नी से शिकायत रहती है। ढेरों चुटकुले बने हैं पत्नी पीड़ित पुरुष द्वारा स्त्री के लिए। पुरुष के अनुसार पत्नी अपने पति को ग़ुलाम बनाकर रखना चाहती है, उसकी आज़ादी छीन लेती है, उसपर हमेशा सन्देह करती है, निराधार आरोप लगाती है, सिर्फ़ पति के पैसे से मतलब रखती है इत्यादि। ऐसे में स्त्री-रोबोट सचमुच बहुत बढ़िया विकल्प है। पुरुष की सारी ज़रूरत स्त्री-रोबोट पूरी करेगी। अगर ऐसा हो जाए तो पुरुषों की दुनिया बहुत अच्छी और आनन्दमय हो जाएगी।  

जहाँ तक सवाल है कि रोबोट बच्चे पैदा नहीं कर सकती, जो एक जीवित स्त्री का कार्य है; तो इसके लिए रोबोटिक्स के इंजीनियर थोड़ी और मेहनत करें और बच्चा पैदा करने वाली स्त्री-रोबोट का आविष्कार करें। फिर इस संसार से सारी स्त्री ख़त्म हो जाएगी। यों स्त्री की हत्या कई कारणों से होती रहती है- माँ के गर्भ में, दहेज के लिए ससुराल में, प्रेम के लिए हामी न भरने पर पागल प्रेमी द्वारा, बलात्कार करके, प्रतिष्ठा के लिए (ऑनर किलिंग)। स्त्री-रोबोट आ जाने से ये सारे अपराध बन्द हो जाएँगे।

स्त्री को यों भी नरक का द्वार कहा गया है। न रहेगा द्वार न कोई प्रवेश करके जाएगा नरक में। स्त्री मुक्त संसार से यह दुनिया स्वर्ग बन जाएगी। फिर सारे पुरुष स्वर्ग में निवास करेंगे। 

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएँ। 

चित्र गूगल से साभार 
-जेन्नी शबनम (8.3.2024)
(अन्तर्रष्ट्रीय महिला दिवस)
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Friday, December 22, 2023

109. माझा का इमरोज़

इमरोज़ चले गए। आज वे अपनी अमृता से मिलेंगे। निश्चित ही जाते वक़्त वे बहुत ख़ुश रहे होंगे कि वे अपनी माझा के पास जा रहे हैं। यों वे दूर हुए ही कब थे! इमा के लिए उनकी माझा सदा साथ रही, जो अपने कमरे में बैठी नज़्म लिखती रहती है और उनके द्वारा बनाई चाय पीती रहती है। 

इमरोज़ जी से कुछ कुछ सालों से मिलना नहीं हुआ। इधर वे लगातार अस्वस्थ रह रहे थे। एक दो बार फ़ोन पर बात हुई, लेकिन पहले की तरह बात नहीं कर पा रहे थे। एक दो मित्र ने मुझसे कहा था कि जब भी इमरोज़ जी से मिलने जाऊँ तो उन्हें भी साथ ले चलूँ। मैंने कह दिया था कि अब शायद उनसे कभी मिल नहीं पाऊँगी। जाने क्यों मुझे लगने लगा था कि मैं उनसे नहीं मिल पाऊँगी। आज अतीत की कितनी यादें एक साथ मेरी आँखों के सामने से गुज़र रही हैं। 

अमृता जी को जब से मैंने पढ़ना शुरू किया, तब से वे मेरी प्रिय लेखिका रही हैं। उनकी लगभग सारी किताबें मैंने पढ़ी। अधिकतर किताबें मैं आज भी सहेज कर रखी हूँ। मुझे पता चला कि मेरे घर के नज़दीक उनका घर है। संयोग से 1998 में मुझे अमृता जी का फ़ोन नंबर मिला। मैंने फ़ोन किया तो इमरोज़ जी ने उठाया। मैंने मिलने की इच्छा जताई, तो उन्होंने कहा कि अमृता जी अभी बीमार हैं, कुछ दिन बाद मैं आऊँ। मैं अपने घर में व्यस्त हो गई। 2005 में एक दिन फिर मिलने की इच्छा जागी। मैंने फ़ोन किया तो इमरोज़ जी ने आने को कहा। मैं अपने बच्चों के साथ मिलने गई। गेट के भीतर ठीक सामने एक कमरा था, जो शायद गैरेज होगा, जिसमें अमृता प्रीतम की किताबें, चित्र व इमरोज़ जी की पेंटिंग थी। मैं अपलक निहारती रही, मानो ख़ज़ाना मेरे हाथ लगा हो। मैं बहुत रोमांचित महसूस कर रही थी।
इमरोज़ जी और मैं
इमरोज़ जी ने दरवाज़ा खोला और मुझे गले से लगा लिया। हमें लेकर वे पहली मंजिल पर गए। मेरे बच्चों को दुलार किया। हम चाय पी रहे थे तभी आवाज़ आई- इमा-इमा। इमरोज़ जी तेज़ी से एक कमरे की तरफ़ गए। फिर लौटे और कहा कि अमृता को खिलाना है, अभी आता हूँ। उनकी बहु ने कटोरे में कुछ दिया, जिसे लेकर वे खिलाने गए। वापस आकर उन्होंने कहा कि अमृता बहुत बीमार है। फिर मुझे लेकर सामने वाले कमरे में गए, जहाँ अशक्त अमृता लेटी हुईं थीं अमृता जी को देखा तो मेरी आँखें भर आईं।

1986 में अमृता प्रीतम को पहली बार मैंने देखा था, जब नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन के कॉन्फ़्रेंस में वे आई थीं। जितना ख़ूबसूरत व्यक्तित्व, उतना ही शानदार वक्तव्य। मैं अपलक उनको देखती-सुनती रह गई। उनके साथ फ़ोटो खिंचवाना भी याद न रहा। वही ओजस्वी अमृता आज सिकुड़ी-सिमटी हुई असमर्थ बिस्तर पर लेटी हैं। ख़ुद से करवट भी बदल नहीं पा रही थीं। इमरोज़ जी ने उनके सिर पर हाथ फेरा, जैसे किसी बच्चे को पुचकारते हैं।

इमरोज़ जी ने पूरा घर घुमाया, फोटो व पेंटिंग दिखाई, कुछ फोटो से जुड़ी कहानी सुनाई। अमृता से उनकी मुलाक़ात और साथ बीती ज़िन्दगी की कहानी सुनाई। मेरे बताने पर कि मैं कविता लिखती हूँ, वे बहुत ख़ुश हुए और कहा कि जब भी दोबारा आऊँ तो अपनी कविताएँ लेकर आऊँ।
दुबारा उनसे मिलने गई तब अमृता जी का देहान्त हो चुका था। वे मुझे उसी तरह गले मिले और ऊपर ले गए। जाड़े का दिन था, तो हम छत पर बैठे। फिर चाय पीते हुए बातचीत होती रही। बीच में वे ऊपर की छत पर कबूतर को दाना डालने भी गए। मुझसे मेरी कविताएँ सुनी। मेरी किताब के बारे में पूछा। मैंने कहा- “मैं कविता लिखती हूँ यह किसी को नहीं पता है। मुझे झिझक होती है बताने में कि मैं लिखती हूँ। पता नहीं कैसा लिखती हूँ।” वे मुस्कुराए और कहने लगे- ''तुम जो भी लिखती हो जैसा भी लिखती हो मानो कि अच्छा लिखती हो। कोई क्या सोचेगा, यह मत सोचो। अपनी किताब छपवाओ।” यह सुनकर मुझमें जैसे साहस आया। उसके बाद अपनी कविताओं को मैं बेहिचक सार्वजनिक करने लगी।  

मैं अक्सर इमरोज़ जी से मिलने जाती थी। कभी फ़ोन पर बात हो जाती। जब भी जाती 2-3 घंटे बैठती और इमरोज़ जी चाय बनाकर पिलाते। वे अपनी नज़्में सुनाते। उनमें गज़ब की ऊर्जा, स्फूर्ति, तेज़ और शालीनता थी। उन्होंने अपनी किताब, कैलेण्डर और कुछ अनछपी कविताएँ भी दीं। मैं कोई-न-कोई उनके क़िस्से उनसे पूछती रहती। वे सहज रूप से सारे क़िस्से सुनाते। किसी भी सवाल पर वे बुरा नहीं मानते थे, भले कितना ही निजी सवाल पूछूँ। कुछ कवयित्री उन्हें हिन्दी में लिखी हुई रचनाएँ भेजती थीं, वे मुझसे कहते कि पढ़ दो। वे पंजाबी और उर्दू लिखना पढ़ना जानते थे, हिन्दी नहीं।
इमरोज़ जी और मैं
एक दिन मैं उनके घर जा रही थी, तो वे बोले कि अमुक जगह रुको मैं आ रहा हूँ। वे आए और बोले कि पास में बाज़ार है, वहाँ चलो कॉफ़ी पिएँगे। हम लोग पास ही एस.डी.ए. मार्केट में गए कॉफ़ी पीने। कॉफ़ी के साथ मेरी कविता और अमृता की बातें होती रहीं। अमृता जी की बेटी का घर पास में ही है, जहाँ वे बाद में चले गए। 

जब भी मिली उन्हें कभी नाख़ुश नहीं देखा। हर परिस्थिति में वे मुस्कुराते रहते, जैसे मुस्कराहट का मौसम उनपर आकर ठहर गया हो। यहाँ तक कि जब ग्रीन पार्क का घर बिक गया, तो मैं बहुत दुःखी थी। मैंने उनसे पूछा कि आपने क्यों नहीं रोका मकान बेचने से, आपको बहुत दुःख हुआ होगा। वे मुस्कुराने लगे। मुझे लगा कि अपने मन की पीड़ा वे बताते नहीं हैं, अपनी मुस्कराहट में सब छुपा जाते हैं।
 
जब तक वे हौज़ ख़ास वाले घर में रहे, मैं अक्सर चली जाती थी। एक सुकून-सा मिलता था उनसे बातें करके। जब वे ग्रेटर कैलाश के मकान में चले गए, तब भी गई। नया घर भी बहुत क़रीने से था, जहाँ अमृता उनके साथ जी रही थीं। 
आईने में हमारी छवि - इमरोज़ जी और मैं
मेरी किताब अब तक छपी न थी। 2013 में एक दिन इमरोज़ जी का फ़ोन आया। उन्होंने एक नंबर देकर कहा कि यह प्रकाशक है, इससे बात करो और किताब छपवाओ। संयोग से प्रकाशक को मैं पहले से जानती थी। मैंने बताया कि मैं इन्हें जानती हूँ और इनसे ही मेरी पहली किताब छपेगी। किन्हीं कारणों से मेरी किताब छपने में बहुत देर हुई। मेरी इच्छा थी कि इमरोज़ जी की पेंटिंग मेरी किताब का आवरण चित्र हो। लेकिन जब किताब छपने का समय आया तो इमरोज़ जी दिल्ली से बाहर थे। बिना उनकी अनुमति के मैं चित्र का उपयोग नहीं कर सकती थी; हालाँकि मेरे पास उनकी पेंटिंग थी। किताब छपी, इमरोज़ जी को बताया। बहुत ख़ुश थे वे। परन्तु ऐसा संयोग रहा कि मैं अपनी किताब के साथ उनसे मिल न सकी।

इमरोज़ जी के लिए मेरे जैसी हज़ारों प्रशंसक है; परन्तु मेरे लिए इमरोज़ जी जैसा कोई नहीं। मुझमें साहस व हिम्मत उनके कारण आया, जिससे मैं अपनी लेखनी को सार्वजनिक कर सकी। इमरोज़ जी के साथ मेरी ढेरों यादें हैं। विगत 2 साल से मैं मिलने का प्रयास कर रही थी, लेकिन उनके अस्वस्थ होने के कारण मिल न सकी। इस वर्ष भी उनके जन्मदिन 26 जनवरी को फ़ोन पर बात न हो सकी। अब न कभी मुलाक़ात होगी न बात होगी
इमरोज़ चले गए। पर वे अकेले नहीं गए, अमृता को साथ ले गए। जब तक इमरोज़ रहे, अमृता को जीवित रखा। कहते हैं कि शरीर मृत्यु के बाद पंचतत्व में मिल जाता है, लेकिन आत्मा नहीं मिटती। शायद अमृता-इमरोज़ की रूहें फिर से मिली होंगी। मुमकिन है कोई और दुनिया हो, जहाँ रूहें रहा करती हैं। उस संसार में अमृता-इमरोज़ अपनी-अपनी कलाओं में व्यस्त होंगे। इमा-माझा साथ-साथ चाय पिएँगे और अपने-अपने क़िस्से सुनाएँगे। 

प्रेम के बारे में बहुत पढ़ा-सुना; लेकिन प्रेम क्या होता है, यह मैंने इमरोज़ जी से जाना, समझा और देखा। इमरोज़ का प्रेम ऐसा है, जिसमें न कोई कामना है, न कोई अपेक्षा। इमरोज़ का अस्तित्व ही प्रेम है। इमरोज़ प्रेम के पर्याय हैं। इमरोज़-सा न कोई हुआ है न होगा।  
 
अलविदा इमरोज़!
अलविदा इमा-माझा!

- जेन्नी शबनम (22.12.2023)
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Thursday, December 21, 2023

108. डंकी

इंग्लैण्ड जाने का सपना लगभग हर भारतीय देखता है। कहीं-न-कहीं मन में यह भावना होती है कि जिस देश ने हिन्दुस्तान पर राज किया और जिसके साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था, वह देश कैसा होगा। अमीर के लिए तो दुनिया में कहीं भी जाना कठिन नहीं होता है। लेकिन आम आदमी या ग़रीब जब सपना देखता है, तो उसका पूरा होना अत्यन्त कठिन होता है। 

ग़रीबों के सपनों की राह में पैसा, भाषा, बोली, धोखाधड़ी, कानून आदि बाधाएँ आती हैं। हर वर्ष लाखों की संख्या में ग़रीब अपने सपनों को पूरा करने विदेश जाते हैं, जिनमें कुछ पहुँच पाते हैं तो कुछ हमेशा के लिए लापता हो जाते हैं। अमूमन ग़रीब और अशिक्षित को वीज़ा नहीं मिलता है। जो अवैध तरीक़े से विदेश पहुँच जाते हैं, वे अत्यन्त निम्न स्तर का जीवन गुज़ारते हैं; पर अपने घरवालों को अपना सच नहीं बताते कि किन कठिन परिस्थितियों में वे रह रहे हैं। चूँकि वे विदेश में हैं, तो उनका घर-समाज सोचता है कि वे बहुत ख़ुशहाल जीवन जी रहे हैं। एक तरफ़ इन्हें पैसा कमाना है, तो दूसरी तरफ़ पुलिस से बचना है। इसी जद्दोजहद में जीवन बीतता है। शायद ही कोई जो अवैध तरीक़े से विदेश जाता है, अपने वतन वापस लौट पाता है।      
 
फ़िल्म 'डंकी' ग़रीबों के सपने देखने और उसे पूरा करने के संघर्ष की सच्ची कहानी है। डंकी का अर्थ है अवैध तरीक़े से दूसरे देश में जाना। डंकी द्वारा जाना बेहद कठिन है। कई देशों के समुद्र, जंगल, पहाड़, रेगिस्तान आदि को छुपकर पार करना होता है। रास्ते में आने वाली कठिनाइयों से लोग जान भी गँवा देते हैं। पकड़े गए तो अवैध या घुसपैठिया होने के कारण उस देश के क़ानून के अनुसार सज़ा मिलती है। कई बार जान भी चली जाती है।
     
'डंकी' में पंजाब के एक गाँव की कहानी है, जहाँ के कुछ युवक-युवती अलग-अलग कारणों से इंगलैण्ड जाने का सपना देखते हैं। वे सभी आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं। उन्हें वीज़ा नहीं मिल पाता है। शाहरुख़ खान एक फौज़ी है और उस गाँव में आता है, जहाँ तापसी पन्नू से मुलाक़ात होती है। तापसी पन्नू का भी सपना है इंग्लैण्ड जाकर पैसा कमाना, ताकि वह अपने गिरवी पड़े घर को छुड़ा सके। 

शाहरुख़ परिस्थितिवश उस गाँव में रुक जाता है और वह तापसी के प्यार में पड़ जाता है; परन्तु ज़ाहिर नहीं करता। सभी युवक-युवती हर तरह से प्रयास करते हैं कि वीज़ा मिल सके; लेकिन असफल रहते हैं। शाहरुख़ हर तरह से सहायता करता है, लेकिन कामयाब नहीं होता। उन सभी के पास न पैसा है, न शिक्षा। वे अँगरेज़ी नहीं बोल सकते, तो वीज़ा मिलना असम्भव हो जाता है। फिर उन्हें पता चलता है कि डंकी पर लोग विदेश जाते हैं। शाहरुख़ अपने प्रयास से सभी को डंकी पर इंग्लैण्ड ले जाता है, जिनमें से कुछ रास्ते में मारे जाते हैं। वे किसी तरह इंग्लैण्ड पहुँचने पर पाते हैं कि डंकी से आए लोग किस दुर्दशा में जी रहे हैं। फिर भी वे वापस नहीं लौटते। शाहरुख़ भारत लौटना चाहता है। वह अपने देश के ख़िलाफ़ ग़लत नहीं बोलता और न झूठ बोलता है, अतः उसे वापस भेज दिया जाता है। 35 साल के बाद शाहरुख़ के 3 दोस्त जो डंकी पर इंग्लैण्ड गए थे, वापस लौटना चाहते हैं। शाहरुख़ अपनी चालाकियों से उन्हें भारत वापस लाता है। 

हमारे देश की कुछ ज़रूरी समस्याओं को भी इस फ़िल्म में बेहतरीन डायलॉग के साथ पेश किया गया है, जैसे- अँग्रेज़ी बोलना, पैसे देकर काम निकलवाना, वीज़ा के लिए ग़लत प्रमाण पत्र बनाना, इंग्लैण्ड में रहने के लिए असाइलम का उपयोग तथा वहाँ का स्थायी निवासी बनने का कानून इत्यादि। अँगरेज़ी भाषी देश में जाने के लिए IELTS (अँगरेज़ी भाषा की परीक्षा) पास करना होता है। इसके लिए कोचिंग सेंटर है; लेकिन जो अशिक्षित या हिन्दी माध्यम से पढ़ा है वह कितनी भी कोशिश कर ले अँगरेज़ी नहीं बोल पाता है।   

अमेरिका, इंग्लैण्ड, कनाडा इत्यादि देश भारतीयों से भरा पड़ा है। विदेश में पैसे कमाने का सपना लेकर न जाने कितने लोग देश से पलायन करते हैं। भले ही विदेश में बेहद निम्न स्तर का काम करते हों; लेकिन विदेश जाकर ज़्यादा पैसा कमाना लक्ष्य होता है। वैध और अवैध तरीक़े से लगातार लोग जा रहे हैं। या तो कुछ बन जाते हैं या मिट जाते हैं। पंजाब में हर उस घर की छत पर हवाई जहाज का मिनिएचर (लघु आकार) बनाकर लगाया जाता है, जिस घर का कोई विदेश गया होता है। यह उस घर के लिए सम्मान की बात होती है। 

शाहरुख़ शानदार अभिनेता हैं। उनकी आँखें बोलती हैं। शाहरुख़ की आँखें उनके मनोभाव को व्यक्त कर देती हैं। युवा शाहरुख़ से ज़्यादा अच्छे प्रौढ़ शाहरुख़ लगते हैं। शाहरुख़ हर तरह की भूमिका बेजोड़ निभाते हैं। चाहे वे सुपर हीरो बनें या भावुक इंसान। 

'डंकी' में भावुक दृश्य शाहरुख़ ने बख़ूबी निभाया है। तापसी पन्नू अपने पात्र में सही नहीं दिखती; उनका अभिनय भी प्रभावहीन है। अन्य अभिनेताओं का अभिनय सामान्य है। विकी कौशल की भूमिका छोटी है; लेकिन बहुत अच्छा अभिनय किया है। फ़िल्म में कुछ हास्यास्पद दृश्य है, जो विशेष प्रभाव नहीं छोड़ता है।
 
'डंकी' सच्ची घटनाओं पर आधारित बेहद मार्मिक, प्रेरक, भावुक, संवेदनशील एवं शिक्षाप्रद फ़िल्म है। सच है, सपना देखना चाहिए लेकिन उसे पूरा करने के लिए ग़लत राह का चुनाव सही नहीं होता। अपना वतन, अपनी मिट्टी, अपनी भाषा ही सब कुछ है। 

-जेन्नी शबनम (21. 12. 2023)
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Monday, November 27, 2023

107. कृत्रिम बुद्धिमत्ता (ए.आई.) के मायने

चित्र गूगल से साभार 
एक दिन मेरे मोबाइल पर फ़ोन आया कि मेरा नाम, मोबाइल नं. और आधार कार्ड का इस्तेमाल कर कुछ कुरियर हुआ है, जो पकड़ा गया है। मैंने कहा कि मैंने नहीं भेजा, तो बताया गया कि चूँकि मैंने नहीं भेजा है अतः मुझे मुम्बई जाकर कम्प्लेन करना होगा। मैं मुम्बई नहीं जा सकती थी, तो उसने कहा कि वह मुम्बई पुलिस को फ़ोन ट्रान्सफर कर रहा है, जहाँ मुझे शिकायत लिखवानी है। मैंने सारा विवरण कथित मुम्बई पुलिस को दे दिया। फिर पुलिस वाले ने कहा कि मैं स्काइप पर अपनी शिकायत को सत्यापित कराऊँ। उसने मुझसे स्काइप डाउनलोड करवाया, जो नहीं हो सका। एक घंटे से ज़्यादा वक़्त उसने मुझपर और मेरा उसपर बर्बाद हुआ। जब मैंने अपने आधार कार्ड का नम्बर माँगा तो वह बहाना बनाने लगा। जिस नम्बर से फ़ोन आया, वह 9 डिजिट का था और कॉलबैक नहीं हुआ। फिर मैंने दिल्ली और मुम्बई पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी।  

मेरे साथ हुई यह घटना ए.आई. का बहुत छोटा उदाहरण है। ए.आई. के द्वारा किसी भी व्यक्ति के डाटा और उसके पैटर्न को समझकर आसानी से धोखा दिया जाता है। इस तरह के साइबर क्राइम पर एक सीरीज़ भी बनी है 'जामताड़ा'। कई बार लोग इस तरह के जाल में फँस जाते हैं, तो कुछ लोग संयोग से बच जाते हैं। इसका नेटवर्क इतना मज़बूत और वास्तविक लगता है कि ज़रा भी शक़ नहीं होता। ऐसी घटनाएँ हमारे देश में लगातार बढ़ती जा रही हैं। इसलिए आज किसी अनजान पर कोई यक़ीन नहीं कर पाता है। हर अनजान फ़ोन संदिग्ध लगने लगा है। लोग राह चलते किसी की सहायता करने से डरने लगे हैं। धोखे का बाज़ार इतना समृद्ध हो चुका है कि सभी का सभी से भरोसा उठ चुका है। हमारा आपसी सामंजस्य न होने और सामाजिक दूरी बढ़ने का यह बहुत बड़ा कारण है। हालाँकि तकनीकी विकास न होता तो आज दुनिया इतनी विकसित नहीं होती। यह भी सच है कि तकनीक के इतने विकसित होने से हमें रोज़मर्रा के कार्यों में भी बहुत सहूलियत मिली है।  

जब से दुनिया में तकनीकी ज्ञान बढ़ा है, हर रोज़ कुछ न कुछ इसमें इज़ाफ़ा होता है। 20वीं सदी के अन्त से पहले ही आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता (ए.आई.) में बहुत तेज़ी से विकास हुआ। एक तरह से यह तकनीकी क्रान्ति है। ऐसे-ऐसे रोबोट तैयार हुए जो ऑफ़िस और घर का काम भी करने लगे। ए.आई. के कारण संसार का कोई भी रहस्य अनजाना नहीं रहा। तकनीकी ज्ञान, विज्ञान के साथ ही सामजिक जीवन पर भी इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। देश का रक्षा तंत्र, पोलिसिंग, बैंकिंग, शिक्षा, खुफ़िया विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, मौसम विभाग, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, रिसर्च इत्यादि हर क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई है। किसी भी विषय पर कुछ जानना हो या किसी तस्वीर की ज़रूरत हो, ए.आई. झट से सब कुछ सामने दिखा देता है। चिकित्सा में किसी जटिल ऑपरेशन में किसी दूसरे देश के डॉक्टर द्वारा किसी दूसरे देश में सफल ऑपरेशन हो जाता है। कृषि कार्य हो या घर में खाना पकाना, हर जगह ए.आई. प्रवेश कर चुका है। पूर्वानुमान के आधार पर किसी संकट से बचा जा सकता है। यों लगता है मानो कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर पूरा ब्रह्माण्ड सिमट गया है और एक क्लिक से दुनिया मुट्ठी में कर लो।  

हमारा डिजिटल पर्सनल डाटा हमारे ढेरों काम में इस्तेमाल में आता है। बैंक अकाउन्ट खुलवाने, क्रेडिट-डेबिट कार्ड बनवाने, सरकारी सेवाओं में, फोन का कनेक्शन, बिजली-पानी का कनेक्शन, बच्चों का नामांकन, होटल बुक करने, रेल-हवाई या बस द्वारा टिकट बुक करने, सरकारी विभागों में किसी सेवा लेने के लिए, इन्टरनेट पर अपना प्रोफाइल बनाने इत्यादि हर काम में हमारा डाटा शेयर होता है। मार्केटिंग कम्पनी हमारा डाटा इकठ्ठा कर अपने प्रचार-प्रसार के लिए उपयोग करती है। गूगल, सफारी, फेसबुक, इंस्टाग्राम या फिर नेट पर कुछ भी खोजा जाए तो ए.आई. के द्वारा हमारे फेसबुक या इंस्टाग्राम अकाउंट पर हमारे पैटर्न को देखकर उससे सम्बन्धित चीज़ें दिखने लगती हैं। यहाँ तक कि कम्प्यूटर या मोबाइल पर हमारे गेम खेलने के पैटर्न पर भी ए.आई. की नज़र रहती है। यूट्यूब में कुछ देखें तो उससे सम्बन्धित और भी वीडियो सामने आ जाता है। बड़ा आश्चर्य होता है कि कम्प्यूटर को कैसे पता कि हम क्या देखना चाहते हैं। यों लगता है मानो हम मनुष्य मशीनों और तकनीक के जाल में उलझ गए हैं, जहाँ सब कुछ अप्राकृतिक और डरावने रूप से सामने आता है। आज का मनुष्य समाज से कटकर मशीनों के साथ जीवन बिता सकता है और जो चाहे कर सकता है। 
 
ए.आई. के द्वारा जब जो चाहे किया जा सकता है, क्योंकि यह मनुष्य की बुद्धि नहीं है जो सोचेगा; बल्कि मशीन की बुद्धि है जो उसमें फीड किए हुए प्रोग्रामिंग के अनुसार कार्य करेगा। यह न थकता है, न ऊबता है, लगातार क्रियाशील रहकर अपने प्रोग्रामिंग किए हुए कार्य का निष्पादन करता रहता है। जटिल प्रोग्रामिंग कर न सिर्फ़ औपचारिक कार्य; बल्कि भावनात्मक कार्य भी इनके जरिए हो रहा है। अब ऐसे-ऐसे रोबोट बन गए हैं, जो हमारे दुःख में हमारे साथ रो सकता है और ख़ुशी में हँस सकता है, हमारे सवालों के जवाब दे सकता है। दुनिया का कुछ भी जानना हो पूरे विस्तार से जानकारी देता है। निश्चित रूप से मनुष्य की बुद्धि जहाँ ख़त्म होती है ए.आई. की बुद्धि वहाँ से शुरू होती है।  

किसी भी तकनीक में कुछ अच्छाइयाँ हैं, तो बुराइयाँ भी होती हैं। ए.आई. के लिए जिस सॉफ्टवेयर और तकनीक का इस्तेमाल होता है उसके लिए उचित संसाधनों की आवश्यकता होती है, जो काफ़ी महँगी होती है। ए.आई. का कार्य मशीन करता है, अतः इसमें न नैतिकता होती है, न भावना, न मूल्य, न सही-ग़लत का फ़ैसला लेने की क्षमता। इनमें न संवेदनशीलता होती है, न भावनात्मकता। इससे मिलने वाली जानकारी की फिल्टरिंग नहीं होती है। ए.आई. के द्वारा मनुष्य के दिमाग को नियंत्रित किया जा रहा है और हम आसानी से इसके चक्कर में पड़कर कई बार बहुत बड़ा नुक़सान कर लेते हैं। ए.आई. के दुरुपयोग के कारण कितने लोगों की जान जा चुकी है। चूँकि मशीन के पास सोचने की क्षमता नहीं है अतः इसका इस्तेमाल विनाशकारी कार्यों में कुशलता से हो सकता है। इसकी सहायता से तबाही और विध्वंस लाया जा सकता है। एक क्लिक से साइबर हमला होगा और दुनिया तहस-नहस हो जाएगी।  

इस कृत्रिम बुद्धिमत्ता से सब कुछ सम्भव है, परन्तु सामाजिक मूल्य, मनुष्य की कुशलता व दक्षता नष्ट हो रही है। मनुष्य आलसी और कृत्रिम बुद्धि के मशीन पर निर्भर होता जा रहा है। जो काम मनुष्य सारा दिन लगाकर करता है, मशीन के द्वारा चंद मिनट में हो जाता है। ऐसे में सरकारी उद्यम हो या उद्योग, उद्योगपति हो या व्यवसायी, कार्यरत आदमी हो या आम आदमी, हर लोग मशीन को अपना रहा है ताकि पैसा बचे। इससे बेरोज़गारों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। निश्चित रूप से आई.टी. सेक्टर (इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) को छोड़कर हर क्षेत्र में बेरोज़गारी बढ़ेगी।  

संयमित और संतुलित तरीक़े से अगर ए.आई. का उपयोग हो, तो देश और अधिक उन्नति कर सकता है। लेकिन अगर दुर्भावना से इसका प्रयोग होगा तो निःसंदेह दुनिया बहुत डरावनी और विनाश की तरफ अग्रसर हो जाएगी। मशीन की बुद्धि का उपयोग मानव अपनी बुद्धि से करे, तभी मानवता का हित सम्भव है। ए.आई. हमारे जीवन में जितनी सुविधा दे रहा है, उतना ही एक अनजाना-सा डर मन में भर रहा है। 

-जेन्नी शबनम (15.7.2023)
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Sunday, November 12, 2023

106. 'टाइगर 3'

पोस्टर के साथ मैं
''वक़्त नहीं लगता वक़्त बदलने में।'' - यह बहुत बड़ा सच है। यह पंक्ति सलमान खान और कैटरीना कैफ़ अभिनीत फ़िल्म 'टाइगर 3' का डायलॉग है। फ़िल्म के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि जीवन के सन्दर्भ में यह बहुत बड़ा सच है। वक़्त कितनी तेज़ी से बदलता है, आश्चर्य होता है जब पीछे मुड़कर देखती हूँ। यों लगता है मानो पलक झपका और मैं कहाँ-से-कहाँ पहुँच गई। अपने जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव वक़्त के साथ मैंने देखा। हाँ, सिनेमा भी बहुत देखती रही, जब से सिनेमा देखने की उम्र हुई। सिनेमा की शौक़ीन मैं, अब भी ख़ूब मन से सिनेमा देखती हूँ। 

मैं फ़िल्म समीक्षक नहीं हूँ, तो उस दृष्टि से सलमान-शाहरुख की फ़िल्में नहीं देखती। मनोरंजन के लिए देखती हूँ, क्योंकि ये दोनों मेरे पसन्दीदा अभिनेता हैं। इनकी फ़िल्मों में मुझे न फ़िल्म की पटकथा से मतलब होता है, न कहानी से, न व्यर्थ के दिमाग़ी घोड़े दौड़ाने से। बस सिनेमा इंजॉय करती हूँ, भले अकेली जाऊँ, पर देखती ज़रूर हूँ। सलमान-शाहरुख की फ़िल्म पहले दिन देखना हमेशा से मेरे लिए ख़ुशी का दिन होता है। 

फ़िल्म 'टाइगर 3' आज दीपावली के दिन सिनेमा हॉल में रिलीज़ हुई। जैसे ही सलमान पर्दे पर आए, तालियाँ और सीटियाँ बजनी शुरू हो गईं। अब अपनी उम्र के लिहाज़ से मैं तो ऐसा नहीं कर सकती थी, पर तालियों-सीटियों को ख़ूब इंजॉय किया। सलमान के एक डायलॉग ''जब तक टाइगर मरा नहीं, तब तक टाइगर हारा नहीं'' पर पूरा सिनेमा हॉल तालियों से गूँज गया। सलमान के हर एक्शन सीन पर तालियाँ बजती रहीं। फ़िल्म में जब शाहरुख खान (छोटी भूमिका) सलमान की मदद के लिए आते हैं, तब भी सीटी और तालियों की गड़गड़ाहट गूँजने लगी। मुझे याद आया शाहरुख खान की फ़िल्म 'पठान' में सलमान (छोटी भूमिका) शाहरुख की मदद के लिए आते हैं, तो ऐसे ही हॉल में सीटी और तालियाँ गूँजी थीं। 

'टाइगर 3' की कहानी के अन्त में जब यह पता चलता है कि पकिस्तानी प्रधानमंत्री को उनके अपने ही लोग हत्या करने वाले होते हैं, तो हिन्दुस्तान के रॉ एजेन्ट अर्थात सलमान उनको बचाते हैं, तब पाकिस्तानी छात्राओं द्वारा हिन्दुस्तान का राष्ट्रगान 'जन गण मन' का धुन बजाया जाता है। राष्ट्रगान का धुन शुरु होते ही सिनेमा हॉल का हर दर्शक खड़ा हो गया। यह सचमुच बहुत सुखद लगा। काश! हर देश एक दूसरे का सच में ऐसे ही सम्मान करे और कहीं कोई युद्ध न हो।  

मैं सोच रही हूँ कि अगर हर देश और वहाँ का हर देशवासी, चाहे राजनेता हो या आम नागरिक, अमन की चाह रखे तो कभी दो देश के बीच युद्ध नहीं होगा। परन्तु यह सम्भव ही नहीं। सिनेमा देखकर भले हम ताली बजाएँ या सीटी, लेकिन देश की सीमा पर हर दिन जवान मारे जा रहे हैं। कितने ही रॉ एजेन्ट मारे जाते हैं, जिन्हें अपना देश स्वीकार नहीं करता है। अमन की बात करने वाला भी अपने अलावा दूसरे धर्म को प्रेम से नहीं देखता है। आज जिस तरह कई देश आपस में युद्ध कर रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब तीसरा विश्व युद्ध शुरु हो जाएगा। फिर न धर्म बचेगा न देश न दुनिया।

सलमान-शाहरुख मेरे हमउम्र हैं। इन्हें हीरो के रूप में देखकर लगता है कि वे अभी भी युवाओं को मात देते हैं, जबकि मुझ जैसे आम स्त्री-पुरुष इस उम्र में जीवन के अन्तिम पल की गिनती शुरु कर देते हैं। इन अभिनेताओं से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए और जीवन को भरपूर जीना चाहिए। इन्हें देखकर लगता है मानो वक़्त बढ़ता रहा, पर इनकी उम्र ठहर गई; अजर अमर हैं ये। युवा सलमान-शाहरुख से उम्रदराज़ सलमान-शाहरुख को देख रही हूँ। बढ़ती उम्र के साथ ये और भी आकर्षक लगने लगे हैं। इनका न सिर्फ़ सुन्दर व्यक्तित्व है, बल्कि बहुत उम्दा अभिनेता भी है। निःसंदेह सलमान-शाहरुख की बढ़ती उम्र उनकी फ़िल्मों और प्रशंसकों में कमी नहीं ला सकती। 

'टाइगर 3' हिट होगी या फ्लॉप मुझे नहीं मालूम, पर मेरे लिए सलमान-शाहरुख की हर फ़िल्म हिट होती है। मुझे सलमान-शाहरुख-सा कोई अभिनेता नहीं लगता। हालाँकि ढेरों अभिनेता हैं, जो बेहतरीन अभिनय करते हैं, लेकिन इन दोनों की बात ही और है मेरे लिए। इस वर्ष दीपवाली के अवसर पर टाइगर 3 का तोहफ़ा मिला है। उम्मीद है अगले साल ईद के अवसर पर 'टाइगर 4' ईदी के रूप में मिलेगा। 

सलमान की ऊर्जा यूँ ही अक्षुण्ण रहे और लगातार फ़िल्में करते रहें। टाइगर 3 के लिए बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ! 

- जेन्नी शबनम (12.11.2023)
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Tuesday, August 1, 2023

105. माँ हो न!

कल शाम से वसुधा दर्द से छटपटा रही थी। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उसके पाँव कटकर गिर जाएँगे। रात में ही उसने बगल में सोये अपने पति को उठाकर कहा- ''अब दर्द सहन नहीं हो रहा, अस्पताल ले चलो।" आधी नींद में ही विजय बोला- "बस अब सुबह होने ही वाली है, चलते हैं।" और वह खर्राटे लेने लगा। तड़पते हुए लम्बी-लम्बी साँसें लेकर किसी तरह वसुधा ने रात गुज़ारी। 

दर्द से वसुधा को रुलाई आ रही थी। वह छटपटाकर कभी पेट पकड़ती तो कभी कमर। उसे लग रहा था जैसे अब उसका पेट, कमर और पैर फट जाएगा। सुबह होते ही अस्पताल जाने के लिए वसुधा को गाड़ी में बिठाया गया। घर के निकट ही अस्पताल है। विजय के पिता ने आदेशात्मक स्वर में कहा- "मन्दिर होते हुए अस्पताल जाना।" विजय की माँ पास के मन्दिर जाकर पुत्र प्राप्ति की कामना करके लौटी, उसके बाद सभी अस्पताल गए। वसुधा दर्द से कराह रही थी, बीच-बीच में उसकी चीख निकल जाती थी। 
 
अस्पताल पहुँचते ही नर्स उसे ओ.टी. में ले गई। सिजेरियन होना तय था; क्योंकि वसुधा का रक्तचाप इन दिनों काफ़ी बढ़ा हुआ रह रहा था। लगभग दो घंटे बीत गए। सभी की नज़रें दरवाज़े पर टिकी थीं कि कब नर्स आए और खुशख़बरी सुनाए। तभी नर्स ट्रे में शिशु को लेकर आई। सभी के चेहरे पर ख़ुशी छा गई; पुत्र जो हुआ था। शिशु को देखने के लिए सभी बेचैन थे। कोई तस्वीर ले रहा है, कोई चेहरे का मिलान ख़ुद से कर रहा है, कोई उसका रंग-रूप देख रहा है। विजय के पिता ने कहा- "विजय, पहले जाकर मन्दिर में लड्डू चढ़ा आओ।" विजय मन्दिर में लड्डू चढ़ाने बाज़ार की तरफ़ चला गया।  

एक तरफ़ एक स्त्री चुपचाप खड़ी थी। उसके चेहरे पर घबराहट और चिन्ता के भाव थे। वह अब भी उसी दरवाज़े की तरफ़ बार-बार देख रही थी जिधर से नर्स आई थी। नर्स ने लाकर बच्चे को दिया तो मारे ख़ुशी के वे रोने लगीं, फिर बच्चे को प्यार कर धीरे से नर्स से पूछा- ''बच्चे की माँ कैसी है? वह ठीक है न?'' नर्स ने मुस्कुराकर कहा- ''वह बिल्कुल ठीक है। तुम जच्चा की माँ हो न!'' उस माँ की डबडबाई आँखों ने नर्स को सब समझा दिया था। 

- जेन्नी शबनम (6.7.2023)
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Tuesday, May 23, 2023

104. फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' - मेरे विचार


फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' की समीक्षा या विश्लेषण करना मेरा मक़सद नहीं है, न किसी ख़ास धर्म की आलोचना या विवेचना करना है। कुछ बातें जो इस फ़िल्म को देखकर मेरे मन में उपजी हैं, उनपर चर्चा करना चाहती हूँ। इस फ़िल्म के पक्ष-विपक्ष में दो खेमा तैयार हो चुका है कि इसे दिखाया जाए या इस पर पाबन्दी लगाई जाए। किसी के सोच पर पाबन्दी तो लगाई नहीं जा सकती, लेकिन फ़िल्म देखकर यह ज़रूर समझा जा सकता है कि इसे बनाने वाले की मानसिकता कैसी है। पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त यह फ़िल्म सामाजिक द्वेष फैलाने की भावना से बनी है। यह फ़िल्म सभी को देखनी चाहिए और दूषित मानसिकता के सोच से बाहर निकलना चाहिए। 

यह फ़िल्म केरल की युवा लड़कियों के धर्मांतरण और धर्मांतरण के बाद  चरमपंथी इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एन्ड सीरिया में शामिल होने की कहानी पर आधारित है। इसकी कहानी 4 लड़कियों के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनमें दो हिन्दू, एक मुस्लिम और एक ईसाई धर्म से है। इस फ़िल्म में दावा किया गया है कि हज़ारों लड़कियाँ ग़ायब हुई हैं, जिनको धर्मांतरण कर मुस्लिम बनाया गया और जबरन आई.एस.आई.एस. में भर्ती किया गया है। आई.एस.आई.एस. में लड़कियों को मुख्यतः दो कारण से शामिल किया जाता है पहला कारण है कट्टरपंथियों द्वारा क्रूर यौन तृप्ति और दूसरा है ज़रूरत पड़ने पर मानव बम के रूप में इस्तेलाम करना। 

जिन वीभत्स दृश्यों को दिखाया गया है, सचमुच दिल दहल जाता है। चाहे वह किसी इंसान की हत्या हो, स्त्री के प्रति क्रूरता, या जानवर को काटने का दृश्य। हालाँकि इससे भी ज़्यादा हिंसा वाली फ़िल्में बनी हैं, लेकिन वे सभी काल्पनिक हैं, इसलिए मन पर ज़्यादा बोझ नहीं पड़ता। चूँकि यह फ़िल्म सत्य घटना पर आधारित है, इसलिए ऐसे दृश्य देखना सहन नहीं होता है। यों देखा जाए तो हक़ीक़त में आई.एस.आई.एस. की क्रूरता और अमानवीयता इस फ़िल्म के दिखाए दृश्यों से भी अधिक है।  

फ़िल्म में जिस तरह से युवा शिक्षित लड़कों-लड़कियों का धर्मांतरण कराया जा रहा है, वह बहुत बचकाना लगता है। जिन तर्कों के आधार पर धर्म परिवर्तन दिखाया गया है, वह शिक्षित समाज में तो मुमकिन नहीं; हाँ प्रेम के धोखे से हो सकता है। जन्म से हमें एक संस्कार मिलता है चाहे वह किसी भी धर्म का हो, हम बिना सोच-विचार किए उसी अनुसार व्यवहार करते हैं और उसे ही सही मानते हैं। किसी भी धर्म में जन्म लेना किसी के वश में नहीं, इसलिए किसी दूसरे धर्म का अपमान करना या निन्दा करना जायज़ नहीं। अपनी इच्छा से कोई धर्म परिवर्तन कर ले, तो कोई बुराई नहीं; लेकिन साजिश के तहत जबरन करना अपराध है। 

नास्तिक होने के लिए हम तर्कपूर्ण, विचारपूर्ण और वैज्ञानिक तरीक़े से चीज़ों को सोचते-समझते हैं फिर एक सोच निर्धारित करते हैं। नास्तिक किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करते, उनका सिर्फ़ एक ही धर्म होता है - मानवता। इस फ़िल्म में कम्युनिस्ट पिता की बेटी बेतुके तर्क को सुनकर न सिर्फ़ धर्म परिवर्तन कर लेती है, बल्कि अपने पिता पर थूकती भी है। एक नास्तिक का ऐसा रूप दिखाना दुःखद है। किसी भी नास्तिक का ऐसा 'ब्रेन वॉश' कभी भी सम्भव नहीं है कि कोई धर्मांधता में अपने पिता या दूसरे धर्म को इतनी नीचता से देखे या किसी पर थूके।   

कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और राजनीतिक सिद्धांतकार थे। उन्होंने धर्म पर आलोचना करते हुए उसे अफ़ीम की संज्ञा दी है। आज हम देख सकते हैं कि धर्म नाम का यह अफ़ीम किस तरह समाज को गर्त में ढकेल रहा है। धर्म के इस अफ़ीम रूप का असर होते हुए हम हर दिन देख रहे हैं। यों लगता है मानो जन्म लेते ही प्रथम संस्कार के रूप में धर्म नाम का अफ़ीम चटा दिया जाता है। आजकल छोटे-छोटे बच्चों को भी 'जय श्री राम' और 'अल्लाह हू अकबर' कहते हुए सुना जा सकता है। किसी भी धर्म के हों, ऐसे अफ़ीमची धर्म के नाम पर मरने-मारने को सदैव उतारू रहते हैं और दंगा-फ़साद करते रहते हैं। 
        
प्रेम में पड़कर धर्म परिवर्तन तो फिर भी समझा जा सकता है; लेकिन मूर्खतापूर्ण बातों को सुनकर और मानकर धर्म को बदल लेना सम्भव नहीं है। यों प्रेम में पड़कर या विवाह करके धर्म बदलना कहीं से जायज़ नहीं है। जबरन किसी का धर्म बदल सकते हैं; लेकिन जन्म का मानसिक संस्कार कैसे कोई बदल सकता है? डर से भले कोई हिन्दू बने या मुस्लिम बन जाए, पर मन से तो वही रहेगा जो वह जन्म से है या बने रहना चाहता है

फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' कुटिल मानसिकता के द्वारा मुस्लिम धर्म के ख़िलाफ़ बनाई गई फ़िल्म लगती है। धर्म परिवर्तन किसी भी मज़हब के द्वारा होना ग़लत है। फ़िल्म में जो धर्म परिवर्तन है वह एक साजिश के तहत हो रहा है, एक सामान्य जीवन जीने के लिए नहीं। इस फ़िल्म को बनाने का मक़सद धर्म परिवर्तन से ज़्यादा आई.एस.आई.एस. की गतिविधि होनी चाहिए। जिसमें वे मासूम लड़के-लड़कियों को धर्म का अफ़ीम खिलाकर गुमराह कर रहे हैं और अपने ख़ौफ़नाक इरादे को पूरा कर रहे हैं। इस साजिश में जिस तरह मुस्लिम धर्म के पक्ष में वर्णन है, वह निंदनीय है। 

दुनिया के किसी भी धर्म में कभी भी हिंसा नहीं सिखाई जाती है। ईश्वर, अल्लाह, जीसस या अन्य कोई भी ईश्वर या ईश्वर के दूत सदैव प्रेम की बात करते हैं। हाँ, यह सच है कि धर्म को तोड़-मरोड़कर धर्म के ठेकेदार अपने-अपने धर्म को बड़ा और सबसे सही बनाने में दूसरों को नीचा दिखाते हैं और अपने ही धार्मिक ग्रंथों को अपनी मानसिकता के अनुसार उसका वाचन और विश्लेषण करते हैं। अंधभक्त ऐसे ही पाखण्डी धर्मगुरुओं या मुल्लाओं के चंगुल में फँस जाते हैं। गीता, कुरान या बाइबल को सामान्यतः कोई ख़ुद नहीं पढ़ता; बाबाओं, पादरी या मौलवी के द्वारा सुनकर समझता है और उसी के कहे को ब्रह्मवाक्य समझता है। 
 
विश्व में लगभग 300 धर्म हैं। भारत में  मुख्यतः हिन्दू, इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी इत्यादि धर्म के अनुयायी हैं। जिसे हम धर्म कहते हैं वास्तव में वह सम्प्रदाय है। अपनी-अपनी मान्यताओं और सुविधाओं के अनुसार समय-समय पर अलग-अलग सम्प्रदाय बनते गए। एक को दूसरे से ज़्यादा बेहतर कहना उचित नहीं है। अगर कोई किसी भी सम्प्रदाय से जुड़ाव महसूस नहीं करता है, तो यह उसका निजी स्वभाव या पसन्द है। इससे वह न तो पापी हो जाता है न असामाजिक। ईश्वर की सत्ता को माने या न माने, किसी ख़ास को माने या न माने, व्यक्ति तो वही रहता है। धर्म या सम्प्रदाय को मानना स्वेच्छा से होनी चाहिए। जबरन किसी से न प्रेम किया जा सकता है न नफ़रत। अपने स्वभाव और मत के अनुसार जो सही लगे और जो समाज के नियमों के अधीन हो, वही जीवन जीने का उचित और सही मार्ग है। 

मन्दिर-मस्जिद-गिरिजा-गुरुद्वारा में भटकना, मूर्तिपूजा करना, पाँच वक़्त का नमाज़ पढ़ना, धर्म की परिभषा या परिधि में नहीं आता है। मान्यता, परम्परा, रीति-रिवाज, प्रथा, चलन, विश्वास इत्यादि का पालन करना एक नियमबद्ध समाज के परिचालन के लिए ज़रूरी है। इन सभी का ग़लत पालन कर दूसरों को कष्ट देना या ख़ुद को उच्च्तर मानना ग़लत है। 

जिस तरह हमारा संविधान बना और फिर समय व ज़रूरत के अनुसार उसमें संशोधन किए जाते हैं, उसी तरह हमारा धर्म होना चाहिए - इंसान का, इंसान के द्वारा, इंसान के लिए। जिसमें इंसान की स्वतंत्रता, समानता और सहृदयता का पालन करना ही धर्म हो। समय के बदलाव के साथ मनुष्य के 'इस' धर्म में परिवर्तन होना ज़रूरी है, परन्तु 'इस' धर्म का जो मुख्य तत्व है वह बरकरार रहना चाहिए। 

-जेन्नी शबनम (23.5.2023)
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