Thursday, January 16, 2025

119. ख़त, जो मन के उस दराज़ में रखे थे -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी द्वारा लिखी भूमिका:
काव्य में कल्पना के पुष्प खिलते हैंभावों की कलिकाएँ मुस्कुराती हैं, सुरभित हवाएँ आँचल लहराते हुए अम्बर की सीमाएँ नाप लेती हैं। जीवन इन्द्रधनुषी रंगों से रँग जाता है। चिट्ठियों की मधुर सरगोशियाँ नींद छीन लेती हैं। क्या वास्तविक जीवन ऐसा ही हैकदापि नहीं। भावों की कलिकाओं को जैसे ही गर्म लू के थपेड़े पड़ते हैंतो यथार्थ जीवन के दर्शन होते हैं। जीवन की पगडण्डी बहुत पथरीली हैजिस पर नंगे पाँव चलना हैतपती दोपहर में। आसपास कोई छतनार गाछ नहीं हैजिसके नीचे बैठकर पसीना सुखा लिया जाए। चारों तरफ़ सन्नाटा है। कोई बतियाने वालाराह बताने वाला नहीं है। उस समय पता चलता है कि जो हम कहना चाहते थेवह कभी उचित समय पर कहा नहीं। जो सहना चाहते थेवह सहा नहीं। जिसे अपना बनाकर रखना चाहते थेवह कभी अपना था ही नहीं। जब इस जगत्-सत्य का पता चलता हैतब पता चला कि मुट्ठी से रेत की मानिन्द समय निकल गया। चारों तरफ़ बचा केवल सन्नाटा। जीवन के कटु क्षणों के वे ख़तजो कभी लिखे ही नहीं गए। जो लिखे भी गएकभी भेजे ही नहीं गए। ज़ुहूर नज़र के शब्दों में-

              वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देखकर

              मैंने उसको आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं।


डॉ. जेन्नी शबनम के कुछ इसी प्रकार के 105 ‘सन्नाटे के ख़त’ हैंजो समय-समय पर चुप्पी के द्वारा लिखे गए हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम जिससे प्रेम करते हैंउसे सही समय पर अभिव्यक्त नहीं करते। जिसे घृणा करते हैंसामाजिक दबाव में उसको कभी होंठों पर नहीं लाते। परिणाम होता हैजीवन को भार की तरह ढोते हुए चलते जाना।


ये ख़त मन के उस दराज़ में रखे थेजिसे कभी खोलने का अवसर ही नहीं मिला। अब जी कड़ा करके पढ़ने का प्रयास कियाक्योंकि ये वे ख़त हैंजो कभी भेजे ही नहीं गए। किसको भेजने थेस्वयं को ही भेजने थे। अब तक जो अव्यक्त थाउसे ही तो कहना था। पूरा जीवन तो जन्म-मृत्युप्रेम घृणास्वप्न और यथार्थ के बीच अनुबन्ध करने और निभाने में ही चला गया-

              एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच

              कभी साथ-साथ घटित न होना

              एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच

              कभी साथ-साथ फलित न होना

              एक अनुबन्ध है स्वप्न और यथार्थ के बीच

              कभी सम्पूर्ण सत्य न होना


जीवनभर कण्टकाकीर्ण मार्ग पर ही चलना पड़ता है; क्योंकि जिसे हमने अपना समझ लिया हैउसका अनुगमन करना था। मन की दुविधा व्यक्ति को अनिर्णय की स्थिति में लाकर खड़ा कर देती हैजिसके कारण सही मार्ग का चयन नहीं हो पाताजबकि-

              उस रास्ते पर दोबारा क्यों जाना

              जहाँ पाँव में छाले पड़ेंसीने में शूल चुभें

              बोझिल साँसें जाने कब रुकें।


निराश होकर हम आगे बढ़ने का मार्ग ही खो बैठते हैं। आधे-अधूरे सपने ही तो सब कुछ नहीं। सपनों से परे भी तो कुछ है। कवयित्री ने जीवन में एक अबुझ प्यास को जिया है। मन की यह प्यास किसी सागरनदी या झील से नहीं बुझ सकती।


घर बनाने में और उसको सँभालने में ही हमारा सारा पुरुषार्थ चुक जाता है। इसी भ्रम में जीवन के सारे मधुर पल बीत जाते हैं-

              शून्य को ईंट-गारे से घेरघर बनाना

              एक भ्रम ही तो है

              बेजान दीवारों से घर नहींमहज़ आशियाना बनता है

              घरों को मकान बनते अक्सर देखा है

              मकान का घर बनना, ख़्वाबों-सा लगता है।


इन 105 ख़तों में मन का सारा अन्तर्द्वन्द्वअपने विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। आशा है पाठक इन ख़तों को पढ़कर अन्तर्मन में महसूस करेंगे।


दीपावली: 31.10.2024                                                     -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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- जेन्नी शबनम (16.1.2025)

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4 comments:

Anonymous said...

बहुत ही सुन्दर समीक्षा...!
बहुत बहुत बधाई... 🌹🌹

Anonymous said...

अविस्मरणीय भाव संयोजन!

शिवजी श्रीवास्तव said...

बहुत सुन्दर, सारगर्भित भूमिका, आदरणीय काम्बोज जी की भूमिका ने सन्नाटे के ख़त पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ा दी, आपको एवं आदरणीय काम्बोज जी को बहुत बहुत बधाई

Sudha Devrani said...

वाह!!!
लाजवाब भूमिका,
आ. रामेश्वर कम्बोज जी द्वारा लिखित भूमिका सन्नाटे के खत पढ़ने को लालायित करती है
बधाई एवं शुभकामनाएं ।