Friday, December 22, 2023

109. माझा का इमरोज़

इमरोज़ चले गए। आज वे अपनी अमृता से मिलेंगे। निश्चित ही जाते वक़्त वे बहुत ख़ुश रहे होंगे कि वे अपनी माझा के पास जा रहे हैं। यूँ वे दूर हुए ही कब थे उनसे! इमा के लिए उनकी माझा सदा साथ थी, जो अपने कमरे में बैठी नज़्म लिखती रहती है और उनके द्वारा बनाई चाय पीती रहती है। 

इमरोज़ जी से कुछ कुछ सालों से मिलना नहीं हुआ। इधर वे लगातार अस्वस्थ रह रहे थे। एक दो बार फ़ोन पर बात हुई, लेकिन पहले की तरह बात नहीं कर रहे थे। एक दो मित्र ने मुझसे कहा था कि जब भी इमरोज़ जी से मिलने जाऊँ तो उन्हें भी साथ ले चलूँ। मैंने कह दिया था कि अब शायद उनसे कभी मिल नहीं पाऊँ। जाने क्यों मुझे लगने लगा था कि अब मैं उनसे नहीं मिल पाऊँगी। आज अतीत की कितनी यादें एक साथ मेरी आँखों के सामने से गुज़र रही हैं। 

अमृता जी को जब से मैंने पढ़ना शुरू किया, तब से वे मेरी प्रिय लेखिका रही हैं। उनकी लगभग सारी किताबें मैंने पढी हैं। अधिकतर किताबें मैं आज भी सहेज कर रखी हूँ। मुझे पता चला कि मेरे घर के नज़दीक ही उनका घर है। संयोग से 1998 में मुझे अमृता जी का फ़ोन नंबर मिला। मैंने फ़ोन किया तो इमरोज़ जी ने उठाया। मैंने मिलने की इच्छा जताई, तो उन्होंने कहा कि अमृता जी अभी बीमार हैं, कुछ दिन बाद मैं आऊँ। मैं अपने घर में व्यस्त हो गई। 2005 में एक दिन फिर मिलने की इच्छा जागी। मैंने फ़ोन किया तो इमरोज़ जी ने आने को कहा। मैं अपने बच्चों के साथ मिलने गई। गेट के भीतर ठीक सामने एक कमरा था, जो शायद गैरेज होगा, जिसमें अमृता प्रीतम की किताबें, चित्र व इमरोज़ जी की पेंटिंग थी। मैं अपलक निहारती रही, मानो ख़ज़ाना मेरे हाथ लगा हो। मैं बहुत रोमांचित महसूस कर रही थी।
इमरोज़ जी ने दरवाज़ा खोला और मुझे गले से लगा लिया। हमें लेकर वे पहली मंजिल पर गए। मेरे बच्चों को दुलार किया। हम चाय पी रहे थे तभी आवाज़ आई- इमा-इमा। इमरोज़ जी तेज़ी से एक कमरे की तरफ़ गए। फिर लौटे और कहा कि अमृता को खिलाना है, अभी आता हूँ। उनकी बहु ने कटोरे में कुछ दिया, जिसे लेकर वे खिलाने गए। वापस आकर उन्होंने कहा कि अमृता बहुत बीमार है। फिर मुझे लेकर सामने वाले कमरे में गए। अमृता जी को देखा तो मेरी आँखें भर आईं।

1986 में अमृता प्रीतम को पहली बार मैंने देखा था, जब नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन के कॉन्फ़्रेंस में वे आई थीं। जितना ख़ूबसूरत व्यक्तित्व, उतना ही शानदार वक्तव्य। मैं अपलक उनको देखती-सुनती रह गई। उनके साथ फ़ोटो खिंचवाना भी याद न रहा। वही ओजस्वी अमृता आज सिकुड़ी-सिमटी हुई असमर्थ बिस्तर पर लेटी हैं। ख़ुद से करवट भी बदल नहीं पा रही थीं। इमरोज़ जी ने उनके सिर पर हाथ फेरा, जैसे किसी बच्चे को पुचकारते हैं।

इमरोज़ जी ने पूरा घर घुमाया, फोटो व पेंटिंग दिखाई, कुछ फोटो से जुड़ी कहानी भी सुनाई। अमृता से उनकी मुलाक़ात और साथ बीती ज़िन्दगी की कहानी सुनाई। मेरे बताने पर कि मैं कविता लिखती हूँ, वे बहुत ख़ुश हुए और कहा कि जब भी दोबारा आऊँ तो अपनी कविताएँ लेकर आऊँ।
दोबारा उनसे मिलने गई तब अमृता जी का देहान्त हो चुका था। वे मुझे उसी तरह गले मिले और ऊपर ले गए। जाड़े का दिन था, तो हम छत पर बैठे। फिर चाय पीते हुए बातचीत होती रही। बीच में वे ऊपर की छत पर कबूतर को दाना डालने भी गए। मुझसे मेरी कविताएँ सुनी। मेरी किताब के बारे में पूछा। मैंने कहा- “मैं कविता लिखती हूँ यह किसी को नहीं पता है। मुझे झिझक होती है बताने में कि मैं लिखती हूँ। पता नहीं कैसा लिखती हूँ।” वे मुस्कुराए और कहने लगे- ''तुम जो भी लिखती हो जैसा भी लिखती हो मानो कि अच्छा लिखती हो। कोई क्या सोचेगा, यह मत सोचो। अपनी किताब छपवाओ।” यह सुनकर मुझमें जैसे साहस आया। उसके बाद अपनी कविताओं को मैं बेहिचक सार्वजनिक करने लगी।  

मैं अक्सर इमरोज़ जी से मिलने जाती थी। कभी फ़ोन पर बात हो जाती। जब भी जाती 2-3 घंटे बैठती और इमरोज़ जी चाय बनाकर पिलाते। वे अपनी नज़्में सुनाते। उनमें गज़ब की ऊर्जा, स्फूर्ति, तेज़ और शालीनता थी। उन्होंने अपनी किताब, कैलेण्डर और कुछ अनछपी कविताएँ भी दीं। मैं कुछ न कुछ उनके क़िस्से उनसे पूछती रहती। वे सहज रूप से सारे क़िस्से सुनाते। किसी भी सवाल पर वे बुरा नहीं मानते थे, भले कितना ही निजी सवाल पूछूँ। कुछ कवयित्री उन्हें हिन्दी में लिखी हुई रचनाएँ भेजती थीं, वे मुझसे कहते कि पढ़ दो। वे पंजाबी और उर्दू लिखना पढ़ना जानते थे, हिन्दी नहीं।
एक दिन मैं उनके घर जा रही थी तो वे बोले कि अमुक जगह रुको मैं आ रहा हूँ। वे आए और बोले कि पास में बाज़ार है, वहाँ चलो कॉफ़ी पिएँगे। हम लोग पास ही एस.डी.ए. मार्केट में गए कॉफ़ी पीने। कॉफ़ी के साथ मेरी कविता और अमृता की बातें होती रहीं। अमृता जी की बेटी का घर पास में ही है, जहाँ वे बाद में चले गए। 

जब भी मिली उन्हें कभी नाख़ुश नहीं देखा। हर परिस्थिति में वे मुस्कुराते रहते, जैसे मुस्कराहट का मौसम उनपर आकर ठहर गया हो। यहाँ तक कि जब ग्रीन पार्क का घर बिक गया, तो मैं बहुत दुःखी थी। मैंने उनसे पूछा कि आपने क्यों नहीं रोका मकान बेचने से, आपको बहुत दुःख हुआ होगा। वे हँस पड़े। मुझे लगा कि अपने मन की पीड़ा वे बताते नहीं हैं, अपनी मुस्कराहट में सब छुपा जाते हैं।
 
जब तक वे हौज़ ख़ास वाले घर में रहे, मैं अक्सर चली जाती थी। एक सुकून-सा मिलता था, उनसे बातें करके। जब वे ग्रेटर कैलाश के मकान में चले गए, तब भी गई। नया घर भी बहुत क़रीने से था, जहाँ अमृता उनके साथ जी रही थीं। 
मेरी किताब अब तक छपी न थी। 2013 में एक दिन इमरोज़ जी का फ़ोन आया। उन्होंने एक नंबर देकर कहा कि यह प्रकाशक है, इससे बात करो और किताब छपवाओ। संयोग से प्रकाशक को मैं पहले से जानती थी। मैंने बताया कि मैं इन्हें जानती हूँ और इनसे ही मेरी पहली किताब छपेगी। किन्ही कारणों से मेरी किताब छपने में बहुत देर हुई। मेरी इच्छा थी कि इमरोज़ जी की पेंटिंग मेरी किताब का आवरण चित्र हो। लेकिन जब किताब छपने का समय आया तो इमरोज़ जी दिल्ली से बाहर थे। बिना उनकी अनुमति के मैं चित्र का उपयोग नहीं कर सकती थी; हालाँकि मेरे पास उनकी पेंटिंग थी। किताब छपी, इमरोज़ जी को बताया। बहुत ख़ुश थे वे। परन्तु ऐसा संयोग रहा कि मैं अपनी किताब के साथ उनसे मिल न सकी।

इमरोज़ जी के लिए मेरे जैसी हज़ारों प्रशंसक है; परन्तु मेरे लिए इमरोज़ जी जैसा कोई नहीं। मुझमें साहस व हिम्मत उनके कारण आया, जिससे मैं अपने लेखन को सार्वजनिक कर सकी। इमरोज़ जी के साथ मेरी ढेरों यादें हैं। विगत 2 साल से मैं मिलने का प्रयास कर रही थी, लेकिन उनके अस्वस्थ होने के कारण मिल न सकी। इस वर्ष भी उनकी जन्मतिथि, जो 26 जनवरी को होता है, फ़ोन पर बात न हो सकी। अब न कभी मुलाक़ात होगी न बात होगी! 
इमरोज़ चले गए। पर वे अकेले नहीं गए, अमृता को भी साथ ले गए। जब तक इमरोज़ रहे, अमृता को जीवित रखा। कहते हैं कि शरीर मृत्यु के बाद पंचतत्व में मिल जाता है, लेकिन आत्मा नहीं मिटती। शायद अमृता-इमरोज़ की रूहें फिर से मिली होंगी। मुमकिन है कोई और दुनिया हो जहाँ रूहें रहा करती हैं। उस संसार में अमृता-इमरोज़ अपनी-अपनी कलाओं में व्यस्त होंगे। इमा-माझा साथ-साथ चाय पिएँगे और अपने-अपने क़िस्से सुनाएँगे। 

प्रेम के बारे में बहुत पढ़ा-सुना; लेकिन प्रेम क्या होता है, यह मैंने इमरोज़ जी से जाना, समझा और देखा। इमरोज़ का प्रेम ऐसा है जिसमें न कोई कामना है न कोई अपेक्षा। इमरोज़ का अस्तित्व ही प्रेम है। इमरोज़ प्रेम के पर्याय हैं। इमरोज़-सा न कोई हुआ है न होगा।  
 
अलविदा इमरोज़!
अलविदा इमा-माझा!

- जेन्नी शबनम (22. 12. 2023)
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14 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 23 दिसम्बर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

Onkar said...

वाह. बहुत सुंदर

Anonymous said...

सुप्रभात सभी को आदरणीय अमृता प्रीतम जी को कोटि-कोटि नमन मैंने उन्हें बचपन से पढ़ा और महसूस किया है क्योंकि मैंने स्नातक तक पंजाबी पड़ी है इसलिए पाठ्यक्रम के साथ-साथ उनकी अन्य पुस्तक पढ़ने का भी मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ आपकी रचना पढ़कर मन प्रसन्न हुआ सादर नमन

Anonymous said...

प्रेम का स्तित्व नहीं होता। प्रेम का शरीर से कोई लेना देना नहीं होता। दो आत्माओं के मिलन में ही प्रेम है,जिसके लिए जीवित रहना जरूरी नहीं। अमृता से उम्र में छोटे थे इमरोज़,मगर उनके पवित्र इश्क ने उन्हें उम्र के बंधन से दूर कर दिया था

Anonymous said...

आपके माध्यम से इमरोज जी को जान सकी। सुन्दर पोस्ट। नमन उनके पावन प्रेम को 🙏

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

जितेन्द्र माथुर said...

ख़ुशकिस्मत हैं आप जो ऐसे महान व्यक्ति से मिलीं तथा जिसका बनाया हुआ चित्र आपको अपनी पुस्तक के लिए आवरण-पृष्ठ के निमित्त प्राप्त हुआ। इमरोज़ और अमृता का प्यार अमर है। मुहब्बत करने वालों के लिए मिसाल हैं वे। और हमेशा रहेंगे। अपने संस्मरण इस पोस्ट के द्वारा साझा करने हेतु आभार आपका।

Rupa Singh said...

अमृता प्रीतम और इमरोज जी को नमन।

हरीश कुमार said...

सुन्दर

नूपुरं noopuram said...

हृदयस्पर्शी . अभिनन्दन.

Sweta sinha said...

क्या कहें शब्द नहीं मिल रहे।
एक बार फिर आप आमंत्रित हैं-
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २६ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

Meena Bhardwaj said...

अमृता प्रीतम एवं इमरोज से संबंधित हृदयस्पर्शी संस्मरण ।

Sudha Devrani said...

बहुत ही हृदयस्पर्शी एवं भावपूर्ण संस्मरण ।

Kamini Sinha said...

आप बहुत खुशनशीब रही जेन्नी जी,जो ऐसी हस्ती का सानिध्य मिला। आपकी जुबानी इमरोज जी को जानना बेहद सुखद अनुभूति हो रही है। ऐसी हस्तियां अम्र होती है। इस संस्मरण को साझा करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया,सादर नमन