Tuesday, May 23, 2023

104. फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' - मेरे विचार


फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' की समीक्षा या विश्लेषण करना मेरा मक़सद नहीं है, न किसी ख़ास धर्म की आलोचना या विवेचना करना है। कुछ बातें जो इस फ़िल्म को देखकर मेरे मन में उपजी हैं, उनपर चर्चा करना चाहती हूँ।

इस फ़िल्म के पक्ष-विपक्ष में दो खेमा तैयार हो चुका है कि इसे दिखाया जाए या इस पर पाबन्दी लगाई जाए। किसी के सोच पर पाबन्दी तो लगाई नहीं जा सकती, लेकिन फ़िल्म देखकर यह ज़रूर समझा जा सकता है कि इसे बनाने वाले की मानसिकता कैसी है। पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त यह फ़िल्म सामाजिक द्वेष फैलाने की भावना से बनी है। यह फिल्म सभी को देखनी चाहिए और दूषित मानसिकता के सोच से बाहर निकलना चाहिए। 

यह फ़िल्म केरल की युवा लड़कियों के धर्मांतरण और फिर चरमपंथी इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एन्ड सीरिया में शामिल होने की कहानी पर आधारित है। इसकी कहानी 4 लड़कियों के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनमें दो हिन्दू, एक मुस्लिम और एक ईसाई धर्म से है। इस फ़िल्म में दावा किया गया है कि हज़ारों लड़कियाँ गायब हुई हैं, जिनको धर्मांतरण कर मुस्लिम बनाया गया और जबरन आई.एस.आई.एस. में भर्ती किया गया है। आई.एस.आई.एस. में लड़कियों को मुख्यतः दो कारण से शामिल किया जाता है- पहला कारण है कट्टरपंथियों द्वारा क्रूर यौन तृप्ति और दूसरा है ज़रूरत पड़ने पर मानव बम के रूप में इस्तेलाम करना। 

जिन वीभत्स दृश्यों को दिखाया गया है, सचमुच दिल दहल जाता है। चाहे वह किसी इंसान की हत्या हो या स्त्री के प्रति क्रूरता या जानवर को काटने का दृश्य। हालाँकि इससे भी ज्यादा हिंसा वाली फ़िल्में बनी हैं, लेकिन वे सभी काल्पनिक हैं, इसलिए मन पर ज़्यादा बोझ नहीं पड़ता। चूँकि यह फ़िल्म सत्य घटना पर आधारित है, इसलिए ऐसे दृश्य देखना सहन नहीं होता। यूँ देखा जाए तो हक़ीक़त में आई.एस.आई.एस. की क्रूरता और अमानवीयता इस फ़िल्म के दिखाए दृश्यों से भी अधिक है।  

फ़िल्म में जिस तरह से युवा शिक्षित लड़कों-लड़कियों का धर्मांतरण कराया जा रहा है, वह बहुत बचकाना लगता है। जिन तर्कों के आधार पर धर्म परिवर्तन दिखाया गया है, वह शिक्षित समाज में तो मुमकिन नहीं; हाँ प्रेम के धोखे से हो सकता है। जन्म से हमें एक संस्कार मिलता है चाहे वह किसी भी धर्म का हो, हम बिना सोच-विचार किए उसी अनुसार व्यवहार करते हैं और उसे ही सही मानते हैं। किसी भी धर्म में जन्म लेना किसी के वश में नहीं, इसलिए किसी दूसरे धर्म का अपमान करना या निन्दा करना जायज़ नहीं। अपनी इच्छा से कोई धर्म परिवर्तन कर ले तो कोई बुराई नहीं लेकिन साजिश के तहत जबरन करना अपराध है। 

नास्तिक होने के लिए हम तर्कपूर्ण, विचारपूर्ण और वैज्ञानिक तरीक़े से चीज़ों को सोचते-समझते हैं फिर एक सोच निर्धारित करते हैं। नास्तिक किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करते, उनका सिर्फ़ एक ही धर्म होता है - मानवता। इस फ़िल्म में कम्युनिस्ट पिता की बेटी बेतुके तर्क को सुनकर न सिर्फ़ धर्म परिवर्तन कर लेती है बल्कि अपने पिता पर थूकती भी है। एक नास्तिक का ऐसा रूप दिखाना दुखद है। किसी भी नास्तिक का ऐसा 'ब्रेन वॉश' कभी भी संभव नहीं है कि कोई  धर्मान्धता में अपने पिता या दूसरे धर्म को इतनी नीचता से देखे या किसी पर थूके।   

कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और राजनीतिक सिद्धांतकार थे। उन्होंने धर्म पर आलोचना करते हुए उसे अफ़ीम की संज्ञा दी है। आज हम देख सकते हैं कि धर्म नाम का यह अफ़ीम किस तरह समाज को गर्त में धकेल रहा है। धर्म के इस अफ़ीम रूप का असर होते हुए हम हर दिन देख रहे हैं। यूँ लगता है मानो जन्म लेते ही प्रथम संस्कार के रूप में धर्म नाम का अफ़ीम चटा दिया जाता है। आजकल छोटे-छोटे बच्चों को भी 'जय श्री राम' और 'अल्लाह हू अकबर' कहते हुए सुना जा सकता है। किसी भी धर्म के हों, ऐसे अफ़ीमची धर्म के नाम पर मरने-मारने को सदैव उतारू रहते हैं और दंगा-फ़साद करते रहते हैं।         

प्रेम में पड़कर धर्म परिवर्तन तो फिर भी समझा जा सकता है लेकिन मूर्खतापूर्ण बातों को सुनकर और मानकर धर्म को बदल लेना संभव नहीं। यूँ प्रेम में पड़कर या विवाह कर धर्म बदलना जायज़ नहीं है। जबरन किसी का धर्म बदल सकते हैं लेकिन जन्म का मानसिक संस्कार कैसे कोई बदल सकता है? डर से भले कोई हिन्दू बने या मुस्लिम बन जाए पर मन से तो वही रहेगा जो वह जन्म से है या बने रहना चाहता है। अपनी इच्छा से कोई किसी भी धर्म को अपना ले तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं, लेकिन जबरन धर्म परिवर्तन करवाना गुनाह है। 

फिल्म 'द केरला स्टोरी' कुटिल मानसिकता के द्वारा मुस्लिम धर्म के ख़िलाफ़ बनाई गई फ़िल्म लगती है। धर्म परिवर्तन किसी भी मज़हब के द्वारा होना ग़लत है। फ़िल्म में जो धर्म परिवर्तन है वह एक साजिश के तहत हो रहा है, एक सामान्य जीवन जीने के लिए नहीं। इस फ़िल्म को बनाने का मकसद धर्म परिवर्तन से ज़्यादा आई.एस.आई.एस. की गतिविधि होनी चाहिए। जिसमें वे मासूम लड़के-लड़कियों को धर्म का अफ़ीम खिलाकर गुमराह कर रहे हैं और अपने ख़ौफ़नाक  इरादे को पूरा कर रहे हैं। इस साजिश में जिस तरह मुस्लिम धर्म के पक्ष में वर्णन है, वह निंदनीय है। 

दुनिया के किसी भी धर्म में कभी भी हिंसा नहीं सिखाई जाती है। ईश्वर, अल्लाह, जीसस या अन्य कोई भी भगवान या भगवान के दूत सदैव प्रेम की बात करते हैं। हाँ, यह सच है कि धर्म को तोड़-मरोड़कर धर्म के ठेकेदार अपने-अपने धर्म को बड़ा और सबसे सही बनाने में दूसरों को नीचा दिखाते हैं और अपने ही धार्मिक ग्रंथों को अपनी मानसिकता के अनुसार उसका वाचन और विश्लेषण करते हैं। अंधभक्त ऐसे ही पाखण्डी धर्मगुरुओं या मुल्लाओं के चंगुल में फंस जाते हैं। गीता, कुरान या बाइबल को सामान्यतः कोई ख़ुद नहीं पढ़ता, बाबाओं, पादरी या मौलवी के द्वारा सुनकर समझता है और उसी के कहे को ब्रह्मवाक्य समझता है। 
 
विश्व में लगभग 300 धर्म हैं। भारत में  मुख्यतः हिन्दू, इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी इत्यादि धर्म के अनुयायी हैं। जिसे हम धर्म कहते हैं वास्तव में वह सम्प्रदाय है। अपनी-अपनी मान्यताओं और सुविधाओं के अनुसार समय-समय पर अलग-अलग सम्प्रदाय बनते गए। एक को दूसरे से ज़्यादा बेहतर कहना उचित नहीं है। अगर कोई किसी भी सम्प्रदाय से जुड़ाव महसूस नहीं करता है, तो यह उस व्यक्ति का निजी पसन्द है। इससे वह न तो पापी हो जाता है न असामाजिक। ईश्वर की सत्ता को माने या न माने, किसी ख़ास को माने या न माने, व्यक्ति तो वही रहता है। धर्म या सम्प्रदाय को मानना स्वेच्छा से होनी चाहिए। जबरन किसी से न प्रेम किया जा सकता है न नफ़रत। अपने स्वभाव और मत के अनुसार जो सही लगे और जो समाज के नियमों के अधीन हो वही जीवन जीने का उचित और सही मार्ग है। 

मन्दिर-मस्जिद-गिरिजा-गुरुद्वारा में भटकना, मूर्तिपूजा करना या 5 वक़्त का नमाज़ पढ़ना धर्म की परिभषा या परिधि में नहीं आता है। मान्यता, परम्परा, रीति-रिवाज़, प्रथा, चलन, विश्वास इत्यादि का पालन करना एक नियमबद्ध समाज के परिचालन के लिए ज़रूरी है। इन सभी का ग़लत पालन कर दूसरों को कष्ट देना या ख़ुद को उच्च्तर मानना ग़लत है। 

जिस तरह हमारा संविधान बना और फिर समय व ज़रूरत के अनुसार उसमें संशोधन किए जाते हैं, उसी तरह हमारा धर्म होना चाहिए - इंसान का, इंसान के द्वारा, इंसान के लिए। जिसमें इंसान की स्वतंत्रता, समानता और सहृदयता का पालन करना ही धर्म है। समय के बदलाव के साथ मनुष्य के इस धर्म में परिवर्तन होना ज़रूरी है, परन्तु इस धर्म का जो मुख्य तत्व है वह बरकरार रहना चाहिए। 

-जेन्नी शबनम (23.5.2023)
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9 comments:

Niranjan Welankar said...

आपका ब्लॉग पढा| आपने बहुत सन्तुलित ढंग से अपने विचार रखे हैं| काफी हद तक आपसे सहमत हूँ| वाकई ये सब सम्र्प्रदाय ही हैं| सच की तरफ जाने के रास्ते हैं| और वास्तविक धर्म तो एक ही होता है, जिसे कुदरत का कानून या नियम या जगत् का गुणधर्म भी कहा जाता है| इतनी परिपक्व और सन्तुलित सोच देख कर बहुत अच्छा लगा| आभार|

विजय कुमार सिंघल 'अंजान' said...

आपके विचारों से सहमत नहीं हूँ। आपने एक मजहब की आलोचना से बचने के लिए ऐसे विचार प्रकट किये हैं। फिल्म में जो दिखाया गया है वह सत्य का एक अंश मात्र है। वास्तविकता इससे भी अधिक घृणित है। लगता है कि आपको भी सेकूलेरिया रोग हो गया है कि इस्लाम और इस्लामी आतंकवाद में कोई बुराई देख ही नहीं सकतीं। आपके विचार समाज के लिए हानिकारक हैं।

Anupama tripathi said...

आपने सुरुचिपूर्ण तरीके से अपने विचार रखे | समाज में जो होना चाहिए और जो हो रहा है उसका अंतर स्पष्ट किया |आपके विचार पढ़ कर कोई स्वयं को बदल सके,यही बहुत बड़ी समाज सेवा होगी |

Anonymous said...

बड़े सुंदर ढंग से आपने अपने विचार प्रकट किए हैं। सभी धर्मों की मंज़िल एक हैं लेकिन धर्म कट्टरता ग़लत हैऔर धर्म परिवर्तन तो और भी ग़लत जो कि आज इस्लाम और ईसाई धर्मों के द्वारा किया जा रहा है। सुदर्शन रत्नाकर

प्रियंका गुप्ता said...

अच्छी ब्लॉग पोस्ट है, बहुत बधाई

सुभाष नीरव said...

जेन्नी जी, आपने अपने ब्लॉग में 'द केरल स्टोरी' को लेकर शानदार समीक्षा की है। आपने अपना मत बहुत निष्पक्ष होकर रखा है। मैं भी अब यह फ़िल्म देखना चाहता हूँ।

जितेन्द्र माथुर said...

आपकी सोच संतुलित तथा अनुकरणीय है.

Anonymous said...

धर्म और संप्रदाय की अवधारणा को जितनी सूक्ष्मता से आपने परिभाषित किया है , सराहनीय है। फिल्म के बारे में क्या ही ही कहें ? क्योंकि मैं अभी तक देखने का साहस नहीं जुटा  पाई हूँ।  लेकिन उससे इतर भी जो कुछ अपने लिखा पूर्णतः सत्य है। समसामायिक विषय पर इतना उत्तम आलेख के लिए आपको साधुवाद !


रेखा श्रीवास्तव

Sudha Devrani said...

सुन्दर आलेख जेन्नी शबनम जी !
सही कहा आपने धर्म या सम्प्रदाय को मानना स्वेच्छा से होनी चाहिए। जबरन किसी से न प्रेम किया जा सकता है न नफ़रत।
इस फिल्म की वीभत्सता पढकर और सुनकर ही मैं भी इसे देखने की हिम्मत नहीं कर पा रही।
बहुत सी लड़कियों के साक्षात्कार देखे जो बता रही थी कि उनके साथभी वाकई यही सब हुआ । यदि ऐसा हो रहा है तो बहुत ही घृणित कार्य है
सामयिक विषय पर सुन्दर लेख हेतु बधाई आपको ।