Thursday, March 8, 2018

59. औरत की आज़ादी का मतलब


'हमें चाहिए आज़ादी', 'हम लेकर रहेंगे आज़ादी', किसे नहीं चाहिए आज़ादी? हम सभी को चाहिए आज़ादी सोचने की आज़ादी, बोलने की आज़ादी, विचार की आज़ादी, प्रथाओं से आज़ादी, परम्पराओं से आज़ादी, मान्यताओं से आज़ादी, काम में आज़ादी, हँसने की आज़ादी, रोने की आज़ादी, प्रेम करने के आज़ादी, जीने की आज़ादी...स्त्री के तौर पर जन्म लेने की आज़ादी  

कभी-कभी मेरे दिमाग़ की नसें कुलबुलाती हैं, ढ़ेरों विचार छलाँग मारते हैं, जेहन में अजीब-अजीब से ख़याल आते हैं, साँसें घुटती है, लफ़्ज़ों की पाबंदी उफ़ान मारती है अघोषित नियमों की पहरेदारी में अस्तित्व मिट रहा है सपने मर रहे हैं, आक्रोश उन्माद और अवसाद एक साथ घेरे हुए है। कभी-कभी सोचती हूँ कहीं ये पागलपन तो नहीं; पर यह सब बाह्य नहीं अंतस में व्याप्त है निःसंदेह चेतनाशून्य हो जाने का मन होता है अवचेतन मन पर जो भी प्रभाव हो पर व्यक्त रूप से प्रभाव नहीं पड़ने देना होगा हर हाल में हमें स्वयं पर नियंत्रण रखना ही होगा हमारी मान्यताएँ और मर्यादा इसकी अनुमति नहीं देती है  

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत के 109 साल हो रहे हैं। हर साल स्त्रियों की उपलब्धि और सम्मान के लिए दुनिया भर में न सिर्फ महिलाएँ बल्कि पुरुष भी इस दिन को मनाते हैं। परन्तु यह दिन महज़ अब एक ऐसा दिन बन कर रह गया है जब सरकारी और गैर सरकारी संगठन स्त्रियों के पक्ष में कुछ बातें कहेंगे, कुछ नई योजनायें बनाई जाएँगी, विचार विमर्श होंगे और फिर 'दुनिया की महिलाएँ एक हों' के उद्घोष के साथ 8 मार्च के दिन की समाप्ति हो जाएगी। फिर वही आम दिन की तरह कहीं किसी स्त्री का बलात्कार, किसी का दहेज़ उत्पीड़न, किसी का जबरन विवाह, कहीं कन्या भ्रूण हत्या, कहीं एसिड से जलाया जाएगा तो कहीं परम्परा के नाम पर बलि चढ़ेगी।  

महिला दिवस मनाने का अब मेरा मन नहीं होता है। न उल्लास होता है न उमंग। सब कुछ यांत्रिक-सा लगने लगा है। टी वी और अखबार द्वारा महिला दिवस के आयोजन को देखकर मुझे यूँ महसूस होता है जैसे हम स्त्रियों का मखौल उड़ाया जा रहा है। बड़े-बड़े बैनर और पोस्टर जहाँ स्त्रियों की शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए जैसे बीज मंत्र लिख दिया गया हो। प्रचार पढ़ो और देखो फिर मान लो कि स्त्रियों की स्थिति सुधर गई हैबाजारीकरण का स्पष्ट असर दिखता है इस दिन कपड़े, आभूषण इत्यादि पर छूट! तरह तरह के प्रलोभन! न कुछ बदला है न बदलेगा! ढाक के वही तीन पात!  

सही मायने में अब तक स्त्रियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है; भले ही हम स्त्री सशक्तीकरण की कितनी भी बातें करें। स्त्री शिक्षा और उसके अस्तित्व को बचाने के लिए ढेरों सरकारी योजनाएँ बनी। सरकारी और गैर सरकारी संगठन के तमाम दावों के बावज़ूद स्त्रियों की स्थिति सोचनीय बनी हुई है। हालात बदतर होते जा रहे हैं। महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की परियोजनाएँ फाइलों में ही खुलती और बंद होती हैं। ग्रामीण और निम्न वर्गीय महिलाओं की स्थिति में महज़ इतना ही सुधार हुआ है कि उनके हाथों में झाड़ू और हँसुआ के साथ ही मोबाइल भी आ गया है। निःसंदेह मोबाइल को प्रगति का पैमाना नहीं माना जा सकता है।   

सामजिक मूल्यों के ह्रास का असर स्त्री के शारीरिक शोषण के रूप में और भी विकराल रूप में उभर कर सामने आया है। शारीरिक अत्याचार दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। मेरा अनुमान है कि 99% महिलाएँ कभी न कभी अवश्य ही शारीरिक शोषण का शिकार हुई हैं। चाहे वो बचपन में हो या उम्र के किसी भी पड़ाव पर। घर, स्कूल, कॉलेज, कार्यालय, स्पताल, बाज़ार, सड़क, बस, ट्रेन, मंदिर, कहीं भी स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। शोषण करने वाला कोई भी पुरुष हो सकता है। उसका अपना सगा, रिश्तेदार, पति, पिता, दोस्त, पड़ोसी, परिचित, अपरिचित, सहकर्मी, सहयात्री, शिक्षक, धर्मगुरु इत्यादि।       

परतंत्रता को आजीवन झेलना स्त्री के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है स्त्री को त्याग और ममता की देवी कहकर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाता है ताकि वह सहनशील बनी रहकर अत्याचार सहन करती रहे और अगर न कर पाए तो आत्मग्लानि में जिए कि स्त्री के लिए निर्धारित मर्यादा का पालन वह नहीं कर पाई यह एक तरह की साजिश है जो रची गई है स्त्री के ख़िलाफ़ स्त्री को अपेक्षित कर्तव्यों के पालन के लिए मानसिक रूप से विवश किया जाता है स्त्रियाँ अपना कर्तव्य निभाते-निभाते और मर्यादाओं का पालन करते-करते दम तोड़ देती हैं, लेकिन आजीवन मनचाहा जीवन नहीं जी पाती हैं  

समाज का निर्माण कदापि मुमकिन नहीं अगर स्त्री को समाज से विलग या वंचित कर दिया जाएइसका तात्पर्य यह नहीं कि पुरुष की अहमियत नहीं है या पुरुष के ख़िलाफ़ कोई साजिश है परन्तु पुरुष के वर्चस्व का ख़ामियाज़ा न सिर्फ स्त्री भुगतती है बल्कि पूरा समाज भुगतता है मानवता धीरे-धीरे मर रही है असंतोष, आक्रोश और संवेदनशून्यता की स्थिति बढ़ती जा रही है कौन किससे सवाल करे? कौन उन बातों का जवाब दे जिसे हर कोई सोच रहा है? भरोसा करने का कारण नहीं दिखता, क्योंकि कहीं न कहीं हर स्त्री ने चोट खाई है परिपेक्ष्य में चाहे कुछ भी हो परन्तु संदेह के घेरे में सदैव स्त्री ही आती है और आरोपित भी वही होती है अपनी घुटन, छटपटाहट, पीड़ा, भय, अपमान आदि किससे बाँटे? वह नहीं समझा सकती किसी को कि वह सब अनुचित है जिससे किसी स्त्री को तौला और परखा जाता है  
ऐसा नहीं कि सदैव स्त्रियाँ ही सही होती हैं और हर पुरुष गलत अक्सर मैंने देखा है कि जहाँ पुरुष कमज़ोर है या स्त्री के सामने झुक जाता है वहाँ स्त्रियाँ इसका फ़ायदा उठाती हैं; वैसे ही जैसे स्त्री की कमजोरी का फ़ायदा पुरुष उठाता है स्त्रियों के अधिकार की रक्षा के लिए बहुत सारे कानून बने हैं और इन कानूनों का नाज़ायज़  फ़ायदा ऐसी स्त्रियाँ उठाती हैं मेरे विचार से ऐसी महिलाएँ मानसिक रूप से कुंठा की शिकार हैं। अमूमन जब किसी को पावर (शक्ति) मिल जाता है तो वह अभिमानी और निरंकुश हो जाता है इसी कारण कुछ महिलाएँ जिन्हें पावर मिल जाता है वे पुरुषों को प्रताड़ित करने लगती हैं अधिकांशतः पति और अधीनस्थ कर्मचारी महिलाओं द्वारा प्रताड़ित किए जाते हैं इसलिए मेरे विचार से मुद्दा स्त्री पुरुष का नहीं बल्कि शक्ति और सामर्थ्य का है  
आखिर क्यों नहीं स्त्री-पुरुष एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हैं और एक दूसरे को बराबर समझते हैं ताकि कोई किसी से न कमतर हो न कोई किसी के अधीन रहे ऐसे में हर दिन महिला दिवस होगा और हर दिन पुरुष दिवस भी मनाया जाएगा।  

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2018)
(अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस)


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29 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-03-2017) को "अगर न होंगी नारियाँ, नहीं चलेगा वंश" (चर्चा अंक-2904) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Manju Mishra said...

"स्त्री-पुरुष एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करें और कोई किसी से न कमतर हो न कोई किसी के अधीन रहे" बिलकुल सही कहा जेन्नी जी जिस दिन एेसा हो जायेगा अपने अाप ही सब ठीक हो जायेगा ।

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत ही सुन्दर ,सार्थक और निष्पक्ष पोस्ट |बधाई और शुभकामनाएँ

Sanjay Grover said...

जेन्नी जी, आप पागल बिलकुल नहीं हैं, ऐसी बातें दिल से तो निकाल ही दीजिए, दिमाग़ से भी निकाल दीजिए।

आज़ादी अपनी मनःस्थिति पर भी निर्भर है, अब देखिए न, मैं स्त्री नहीं हूं फिर भी आज़ाद हूं।

Satya sharma said...

बहुत ही सारगर्भित और उम्दा आलेख ।
सच ही कितना सुखद होगा जब हर दिन महिला दिवस और पुरुष दिवस होगा । एक नए समाज का सृजन होगा। बहुत - बहुत बधाई

HINDI AALOCHANA said...

सुचिंतित आलेख के लिए बधाई

Anita Manda said...

उम्दा आलेख।

Anonymous said...

जेन्नी जी बहुत-बहुत अभिनन्दन,
आपने अपनी अनुभूति को बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णित किया है | प्रस्तुत लेख सटीक एवं सारगर्भित विचारों से परिपूर्ण है | मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ –“ऐसा नहीं कि सदैव स्त्रियाँ ही सही होती हैं और हर पुरुष गलत.....”
कमाना करते हैं कि आपका यह स्वप्न जल्दी ही पूर्ण हो.... “ऐसे में हर दिन महिला दिवस होगा और हर दिन पुरुष दिवस भी मनाया जाएगा |”
पूर्वा शर्मा

ज्योति-कलश said...

सुन्दर , सार्थक .चिंतनपरक प्रस्तुति .. हार्दिक बधाई जेन्नी जी !

Alaknanda Singh said...

सच कहा, शबनम जी,बराबरी जरूरी है, ना कोई कम ना ज्‍यादा, बहुत अच्‍छा आलेख

Krishna said...

जेन्नी जी बहुत सुंदर सार्थक आलेख...बधाई।

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अरे हुजूर वाह ताज बोलिए : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

Mahesh Barmate "Maahi" said...

बहुत ही सार्थक पोस्ट.. शुभकामनाएं

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-03-2017) को "अगर न होंगी नारियाँ, नहीं चलेगा वंश" (चर्चा अंक-2904) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'


March 8, 2018 at 9:55 AM Delete
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बहुत बहुत आभार रूपचन्द्र शास्त्री जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...


Anonymous Manju Mishra said...
"स्त्री-पुरुष एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करें और कोई किसी से न कमतर हो न कोई किसी के अधीन रहे" बिलकुल सही कहा जेन्नी जी जिस दिन एेसा हो जायेगा अपने अाप ही सब ठीक हो जायेगा ।

March 8, 2018 at 12:04 PM Delete
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मेरे विचार को आपका समर्थन मिला, अत्यंत आभार मंजु जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger जयकृष्ण राय तुषार said...
बहुत ही सुन्दर ,सार्थक और निष्पक्ष पोस्ट |बधाई और शुभकामनाएँ

March 8, 2018 at 1:51 PM Delete
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हार्दिक आभार जयकृष्ण जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...


Blogger Sanjay Grover said...
जेन्नी जी, आप पागल बिलकुल नहीं हैं, ऐसी बातें दिल से तो निकाल ही दीजिए, दिमाग़ से भी निकाल दीजिए।

आज़ादी अपनी मनःस्थिति पर भी निर्भर है, अब देखिए न, मैं स्त्री नहीं हूं फिर भी आज़ाद हूं।

March 8, 2018 at 5:40 PM Delete
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सही कहा संजय जी. थोड़ा थोड़ा तो हूँ न तभी तो पागलों के अड्डा पर जाती रहती हूँ. आप स्त्री नहीं है इसीलिए तो इतने आज़ाद हैं. प्रेरक प्रतिक्रया के लिए धन्यवाद.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger Satya Sharma said...
बहुत ही सारगर्भित और उम्दा आलेख ।
सच ही कितना सुखद होगा जब हर दिन महिला दिवस और पुरुष दिवस होगा । एक नए समाज का सृजन होगा। बहुत - बहुत बधाई

March 8, 2018 at 6:05 PM Delete
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यह ऐसी ख्वाहिश है जो कभी पूरी नहीं होगी, फिर भी चाह तो है. आपका हार्दिक आभार सत्या शर्मा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger HINDI AALOCHANA said...
सुचिंतित आलेख के लिए बधाई

March 8, 2018 at 10:11 PM Delete
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आपका हृदय से धन्यवाद.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger anita manda said...
उम्दा आलेख।

March 9, 2018 at 9:04 AM Delete
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शुक्रिया अनिता जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Anonymous Anonymous said...
जेन्नी जी बहुत-बहुत अभिनन्दन,
आपने अपनी अनुभूति को बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णित किया है | प्रस्तुत लेख सटीक एवं सारगर्भित विचारों से परिपूर्ण है | मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ –“ऐसा नहीं कि सदैव स्त्रियाँ ही सही होती हैं और हर पुरुष गलत.....”
कमाना करते हैं कि आपका यह स्वप्न जल्दी ही पूर्ण हो.... “ऐसे में हर दिन महिला दिवस होगा और हर दिन पुरुष दिवस भी मनाया जाएगा |”
पूर्वा शर्मा

March 9, 2018 at 9:50 AM Delete
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मेरे विचारों से आप सहमत हैं, यह मेरे लिए ख़ुशी की बात है. मैं जानती हूँ मेरा यह स्वप्न कि स्त्री पुरुष में समानता हो, कभी पूर्ण नहीं होगा. फिर भी उम्मीद तो है कि शायद कभी... दिल से आभार पूर्वा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger ज्योति-कलश said...
सुन्दर , सार्थक .चिंतनपरक प्रस्तुति .. हार्दिक बधाई जेन्नी जी !

March 9, 2018 at 11:54 AM Delete
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आपका तहे दिल से शुक्रिया ज्योत्स्ना जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...


Blogger Alaknanda Singh said...
सच कहा, शबनम जी,बराबरी जरूरी है, ना कोई कम ना ज्‍यादा, बहुत अच्‍छा आलेख

March 9, 2018 at 1:36 PM Delete
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अपने अपने क्षेत्र में दोनों को बराबर अधिकार होने चाहिए, न कम न ज्यादा. आभार अलकनंदा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...


Blogger Krishna said...
जेन्नी जी बहुत सुंदर सार्थक आलेख...बधाई।

March 9, 2018 at 8:00 PM Delete
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हृदय से धन्यवाद कृष्णा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अरे हुजूर वाह ताज बोलिए : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

March 10, 2018 at 12:41 AM Delete
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ब्लॉग बुलेटिन में मेरे पोस्ट को लिंक करने के लिए आपका हृदय से आभार कुमारेन्द्र जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...


Blogger Mahesh Barmate said...
बहुत ही सार्थक पोस्ट.. शुभकामनाएं

March 18, 2018 at 8:44 AM Delete
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बहुत बहुत धन्यवाद महेश जी.

मंजूषा मन said...

बहुत अच्छा लिखा है

सार्थक

प्रियंका गुप्ता said...

बहुत सार्थक आलेख है...| अक्सर जो विचार हर स्त्री के मन में कुलबुलाते हैं, उनको आपने शब्द दे दिए हैं...| एक अच्छे आलेख के लिए मेरी हार्दिक बधाई...|

हमारीवाणी said...

आपके ब्लॉग की फीड ठीक से काम नहीं कर रही है, फीड में आपकी आखिरी ब्लॉग-पोस्ट "59. औरत की आज़ादी का मतलब" दिखा रहा है. जिसके कारण आपकी लेटेस्ट पोस्ट हमारीवाणी पर पब्लिश नहीं हो पा रही है.

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