अजीब होती है हमारी ज़िन्दगी। शांत व सुकून देने वाला दिन बीत रहा होता है कि अचानक ऐसा हादसा हो जाता कि हम स्तब्ध हो जाते हैं। हर कोई किसी-न-किसी दुर्घटना के पूर्वानुमान से सदैव आशंकित और आतंकित रहता है। कब कौन-सा वक़्त देखने को मिले कोई नहीं जानता, न इसकी कोई भविष्यवाणी कर सकता है। यों लगता है जैसे हम सभी किसी भयानक दुर्घटना के इंतिज़ार में हैं, और जब तक ऐसा कुछ हो न जाए तब तक उस पर विमर्श और बचाव के उपाय भी नहीं करते हैं।
कोई हादसा हो जाए तो अख़बार, टी.वी., नेता, आम आदमी सभी में सुगबुगाहट आ जाती है। हादसा ख़बर का रूप इख़्तियार कर हलचल पैदा कर देता है। किसी भी घटना का राजनीतिकरण उसको बड़ा बनाने के लिए काफ़ी है और उतना ही ज़रूरी घटना पर मीडिया की तीक्ष्ण दृष्टि। छोटी-से-छोटी घटना मीडिया और नेताओं की मेहरबानी से बड़ी बनती है, तो कई बड़ी और संवेदनशील घटनाएँ नज़र-अंदाज़ किए जाने के कारण दब जाती है। यों लगता है जैसे न सिर्फ़ हमारी ज़िन्दगी दूसरों की मेहरबानियों पर टिकी है, बल्कि हम अपने अधिकार की रक्षा भी अकेले नहीं कर सकते। सरकार, कानून, पुलिस के होते हुए भी हम असुरक्षित हैं और अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर।
रोज़-रोज़ घटने वाली शर्मनाक और क्रूर घटना फिर से घटी है। इंसानियत पर से भरोसा एक बार फिर टूटा है। दिल्ली में घटी दिल दहला देने वाली बलात्कार की घटना एक सामान्य दुर्घटना नहीं है; बल्कि मनुष्य की हैवानियत और हिंसा का बर्बर उदाहरण है, स्त्री जाति के साथ किया जाने वाला क्रूरतम अपराध है। आम जनता, पुलिस, मीडिया, सरकार, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता सभी सदमे और सकते में हैं। कोई सरकार को दोष दे रहा है, तो कोई पुलिस को; क्योंकि सुरक्षा देने में दोनों ही नाकाम रही है। कोई स्त्रियों के जीने के तरीक़े को इस घटना से जोड़कर देख रहा है, तो कोई सांस्कृतिक ह्रास का परिणाम कह रहा है। कारण और कारक जो भी हों, ऐसी शर्मनाक और घृणित घटनाएँ रोज़-रोज़ घट रही हैं और हम सब बेबस हैं। ऐसी हर दुर्घटना न सिर्फ़ स्त्री के अस्तित्व पर सवाल है बल्कि समस्त पुरुष वर्ग को कटघरे में खड़ा कर देती है; क्योंकि बलात्कार ऐसा वीभत्स अपराध है, जिसे सिर्फ़ पुरुष ही करता है।
पुरुष की मानसिक विकृति का परिणाम है कि जन्म से ही स्त्री असुरक्षित होती है और हर पुरुष को सन्देह से देखती है। कुछ ख़ास पुरुष की मानसिक कुण्ठा, मानसिक विकृति या रुग्णता के कारण समस्त पुरुष जाति से घृणा नहीं की जा सकती और न इस अपराध के लिए कसूरवार ठहराया जा सकता है। हर स्त्री किसी-न-किसी की माँ, बहन, बेटी है और हर पुरुष किसी-न-किसी का पिता, भाई, बेटा; फिर भी ऐसी पाश्विक घटनाएँ घटती हैं। मनुष्य की अजीब मानसिकता है कि हर बलात्कारी अपनी माँ, बहन, बेटी की सुरक्षा चाहता है और उसकी माँ, बहन, बेटी उसको इस अपराध की सज़ा से बरी करवाना चाहती हैं।
बलात्कार की शिकार स्त्री तमाम उम्र ख़ुद को दोषी मानती है और हमारा समाज भी। एक तरफ़ वह शारीरिक और मानसिक यातना की शिकार होती है, तो दूसरी तरफ़ समाज की क्रूर मानसिकता की। समाज उसे घृणा की नज़र से देखता है और उसमें ऐसी कितनी वज़हें तलाशता है, जब उस स्त्री को दोषी साबित कर सके। समाज की सोच है कि पुरुष ऐसे होते ही हैं, स्त्री को सँभलकर रहना चाहिए। अब सँभलना में क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं, इसे कोई परिभाषित नहीं कर पाता। स्त्री का रहन-सहन, पहनावा, चाल-ढाल को सदैव उसके चरित्र के साथ जोड़कर देखा जाता है। पुरुष की ग़लती की सज़ा स्त्री भुगतती है। कई बार तो घर का ही अपना कोई सगा बलात्कारी होता है। जिस उम्र में लड़की यह नहीं जानती कि स्त्री-पुरुष क्या होता है, ऐसे में अगर बलात्कार की शिकार हो, तो फिर दोष किसका? क्या उसका स्त्री होना?
हमारे देश में कानून की लचर प्रणाली अपराधों के बढ़ने में सहूलियत देता है। किसी भी तरह का अपराधी आज कानून से नहीं डरता है। कई सारे अपराधी ऐसे हैं, जो सबूत और गवाह के अभाव में बाइज्ज़त बरी हो जाते हैं और पीड़ित को इसका ख़म्याज़ा भुगतना पड़ता है। आजीवन सश्रम कारावास की सज़ा पाया क़ैदी भी जेल में शान का जीवन जीता है। जेल में भोजन-वस्त्र तो मिलता ही है, बीमार होने पर सरकारी ख़र्चे पर इलाज भी और घर वालों से मिलते रहने की छूट भी। अगर जो लाग-भाग वाला अपराधी है, तब तो जेल का कमरा उसके लिए साधारण होटल के कमरे की तरह हो जाता है, जहाँ टी.वी., फ्रीज, फ़ोन और पसन्द का खाना सभी कुछ उपलब्ध हो जाता है।
बलात्कारी को मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सज़ा देना निश्चित ही कम है; क्योंकि मृत्यु सारी समस्याओं से नजात पाने का नाम है। बलात्कार जैसे क्रूरतम अपराध के लिए न तो मृत्युदंड पर्याप्त है, न आजीवन कारावास।बलात्कारी को ऐसी सज़ा मिले, जिससे अपराधी मनोवृत्ति के लोगों पर ख़ौफ़ के कारण अंकुश लगे।
हमारे देश में फाँसी की सज़ा देकर भी फाँसी देना मुमकिन नहीं होता है। न जाने कितने मामले क्षमा याचना के लिए लम्बित रहते हैं। सबसे पहली बात कि जब एक बार अपराध साबित हो गया और फाँसी की सज़ा मिल गई, तो उसे क्षमा याचना के लिए आवेदन का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। फाँसी सार्वजनिक रूप से दी जानी चाहिए, ताकि कोई दूसरा ऐसे अपराध करने के बारे में सोच भी न सके। बलात्कारी को फाँसी देने से ज़्यादा उचित होगा कि उसे नपुंसक बनाकर सार्वजनिक मैदान में सेल बनाकर फाँसी के दिन की लम्बी अवधि तक रखा जाए, ताकि हर आम जनता उसे घृणा से देख सके।शारीरिक पीड़ा देने से ज़्यादा ज़रूरी है मानसिक यातना देना, ताकि तिल-तिलकर उसका मरना सभी देखें और कोई भी ऐसे अपराध करने की हिम्मत न करे।
डर और ख़ौफ़ के साए में तमाम उम्र जीना बहुत कठिन है, पर हर स्त्री ऐसे ही जीती है, उसे जीना ही पड़ता है। सरकारी शब्दावली में ख़ास जाति में जन्म लेने वाला दलित है, जबकि वास्तविक रूप में मनुष्य की सिर्फ़ एक जाति दलित है, और वह है स्त्री; चाहे किसी भी जाति या मज़हब की हो।दलित और दलित के अधिकारों की बात करने वाले हमारे देश में सभी को इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि आख़िर दलित है कौन? क्या स्त्री से भी बढ़कर कोई दलित है?
- जेन्नी शबनम (18.12.2012)
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12 comments:
'बलात्कार की स्त्रीवादी परिभाषा'लेख में कटु यथार्थ वर्णित है । अब तो लगता है- हम किसी बर्बर युग में जी रहे हैं । मानसिक विकृति के शिकार पुरुष कुछ भी कर सकते हैं, कह सकते हैं । यह विकृति बहुत से उन लोगों में भी बहुतायत में मिली है जो समाज के ठेकेदार हैं। धर्मगुरुओं, राजनेताओं ,साहित्यकारों ,शिक्षा से जुड़े गुरुओं ने भी अपनी गरिमा को उतना ही तार -तार किया है , जितना किसी सामान्य जन ने ।महिलाएँ इनका आसान शिकार बन जाती हैं। संस्कारहीनता इसका मूल आधार है। नारी विरोधी इस क़्द्र हावी है कि बहुतों को उसका आगे बढ़ना बर्दाश्त नहीं । यह वर्ग ऐसा है जिस पर समाज भरोसा करता है , लेकिन इनकी कही गई इनकी बातों को सुना जाए तो पता चलेगा कि रावण और दुश्शासन तो यूँ ही बदनाम थे ,उनका आदिम रूप तो ये हैं । जेन्नी जी आपने इस लेख के माध्यम से जो बात कही है , मैं उसका कायल हूँ ।
एैसे अपराधी और जो उसकी सहायता करे उसे भी ,हिजड़ा बना,माथा दाग़ कर जीने के लिये छोड़ देना चाहिये!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (21-12-2012) के चर्चा मंच-११०० (कल हो न हो..) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
रविवार (15 दिसंबर 2012) को दिल्ली में गैंग रेप की शिकार हुई लड़की से पूरे देश को सहानुभूति है। 6 दरिंदों ने उसके साथ रेप करने के लिए उसके साथ मारपीट भी की। वह सफ़दरजंग अस्पताल में वेंटीलेटर पर है और अब तक 5 बार कोमा में जा चुकी है। उसकी 5 बार लाइफ़ सेविंग सर्जरी की जा चुकी है। संसद के दोनों में भी यह मुददा उठा और केन्द्रीय गृह मंत्री श्री सुशील कुमार शिंदे जी ने अपना बयान भी जारी किया कि बसों में सफ़र को महफ़ूज़ बनाने के लिए वह क्या क़दम उठाएंगे ?
जो क़दम वह उठाएंगे, उनकी सराहना की जानी चाहिए लेकिन इसके बाद भी राजधानी और देश भर में बलात्कार होते रहेंगे, यह भविष्यवाणी की जा सकती है और इसका आधार यह है कि विकसित पश्चिमी देशों में इस तरह के सुरक्षात्मक उपाय किए जाने के बावजूद वहां आज भी बलात्कार होते हैं। केवल सुरक्षा उपायों से या सख्त सज़ाओं से बलात्कार को रोकना संभव नहीं है। सामाजिक और क़ानूनी उपायों के साथ उन नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों में फिर से विश्वास जगाने की भी ज़रूरत है, जिन्हें कि आधुनिकता और विलासिता के लिए जानबूझ कर भुला दिया गया है। नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों में विश्वास जगाये बिना एक पवित्र और सदाचारी समाज बनाना संभव नहीं है।
अफ़सोस की बात है कि हमारे समाज में पवित्रता और सदाचार को लाने के लिए वैसे प्रयास नहीं किए जा रहे हैं जैसे कि नैतिकता और सदाचार को ध्वस्त करने के लिए किए जा रहे हैं। हमारी नई नस्ल धन और संपन्नता के लिए कुछ भी कर सकती है और कर रही है। आज नशा, जुआ, नंगापन और क्राइम भी आय के साधनों में शुमार किए जाते हैं। आज ग़रीब होना पाप और अमीर का हर पाप समाज का ट्रेंड बन गया है। ईश्वर, धर्म, ऋषि-पैग़ंबरों के आदेश-निर्देश लोगों को व्यर्थ लगने लगे हैं। इसी का दंड विभिन्न तरीक़ो से हम भोग रहे हैं, जिनमें कि एक बलात्कार भी है। इसके लिए केवल केन्द्र सरकार को कोसना ही काफ़ी नहीं है क्योंकि अलग अलग पार्टी की राज्य सरकारों में बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं।
बलात्कार को मुददा बनाकर अपनी राजनीतिक भड़ास निकालने के बजाय हमें ईमानदारी से लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा के बारे में सोचना होगा।
आदमी आज भी वही है जोकि वह आदिम युग में था। समय के साथ साधन बदलते हैं लेकिन प्रकृति नहीं बदलती। बुरे लोगों की बुराई से बचने के लिए अच्छे लोगों को संगठित होकर अच्छे नियमों का पालन करना ही होगा। इसके सिवाय न पहले कोई उपाय था और न आज है।
ईश्वर की एक निर्धारित व्यवस्था हैं, जिसका नाम सब जानते हैं। जब आदमी या औरत उससे बचकर किसी और मार्ग पर निकल जाए तो फिर वह जिस भी दलदल में धंस जाए तो उसके लिए वह ईश्वर को दोष न दे बल्कि ख़ुद को दे और कहे कि मैं ही पालनहार प्रभु के मार्गदर्शन को छोड़कर दूसरों के दर्शन और अपनी कामनाओं के पीछे चलता रहा/चलती रही।
अल्लाह तो लोगों पर तनिक भी अत्याचार नहीं करता, किन्तु लोग स्वयं ही अपने ऊपर अत्याचार करते है (44) जिस दिन वह उनको इकट्ठा करेगा तो ऐसा जान पड़ेगा जैसे वे दिन की एक घड़ी भर ठहरे थे। वे परस्पर एक-दूसरे को पहचानेंगे। वे लोग घाटे में पड़ गए, जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठलाया और वे मार्ग न पा सके (45).
सूरा ए यूनुस आयत 44 व 45
सरकारी शब्दावली में ख़ास जाति में जन्म लेने वाला दलित है जबकि वास्तविक रूप में मनुष्य की सिर्फ एक जाति दलित है, और वो है स्त्री; चाहे किसी भी जाति या मज़हब की हो । true ..
जेन्नी शबनम जी बहुत गहन वैचारिक सोच से उपजा सारगर्भित आलेख आपकी चिंता हर उस मानव की चिंता है जिसमें कुछ संवेदना अभी शेष है |अब समाज के रहनुमा अपराधिक पृष्ठभूमि से लैस लोग होने लगे राजनीति अब अरबों -खरबों का कारोबार हो गयी है |अब जनता को इस नई आज़ादी के बारे में कुछ सोचना होगा |मुनव्वर राना का एक शेर है शरीफ़ इन्सान क्यूँ आखिर इलेक्शन हार जाता है /किताबों में तो लिक्खा है कि रावण हार जाता है |
बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया आपने .सुन्दर
मेरी नई पोस्ट ; गांधारी के राज में नारी ! http://kpk-vichar.blogspot.in
शीला सोनिया तमाम सांसद और उनके बच्चे इस देश में सुरक्षित हैं वी आई पी दर्जा है इनका ,आम आदमी के साथ सिर्फ कांग्रेस का दिखाऊ हाथ है, सुरक्षा नहीं .सभी नारियां दलित पद दलित नहीं
हैं .यहाँ सुरक्षा सिर्फ नेताओं के लिए है बाकी सब विकलांग हैं .किसी के पास जेड सिक्युरिटी है किसी के पास जेड प्लस ,क्या खतरा है इन ललुवों को ,इनके एक दर्जन लाल और लालियों को ?क्या
खतरा है प्रियंका गांधी को ?और अगर नहीं है तो क्यों नहीं है ?.क्यों एक सामन्य सुरक्षा भी देश की आधी आबादी को उपलब्ध नहीं है .बुनियादी सवाल पुलिस सुरक्षा का एक तरफ़ा इस्तेमाल है
700
सांसदों और हजारों विधायकों द्वारा ,विषम इस्तेमाल है यह सुरक्षा उपकरण का ,आदमी एक सुरक्षा कर्मी पचास .आदमी है या नर पिशाच ?
Virendra Kumar SharmaDecember 21, 2012 2:05 PM
नारियां हमारे समाज में महत्वपूर्ण पारिवारिक इकाई रहीं हैं .चाहे वह किसी वंश या कुल की हों .उनकी मर्यादा रक्षा की सामन्य धारणा हर पुरुष के मन में होती थी .उसकी रक्षा करते समय कोई
शीलवान पुरुष उनकी जाती नहीं पूछा करता था .भारतीय मन की इस मर्यादा को अगर किसी ने खंडित किया है तो उन राजनीतिक व्यक्तियों ने चाहे वह पुरुष हों या नारी ,जो अपनी सुरक्षा के लिए
पचासों अंग रक्षक साथ लेकर चलतें हैं .उन्हें ऐसे नैतिक मुद्दों पर घडयाली आंसू बहाने और आश्वासन देने का कोई हक़ हासिल नहीं है .चाहे फिर वह शीला दीक्षित हों या फिर सोनिया गांधी .उन बबुओं
के बारे में क्या कहा जाए जो भारत भर के युवाओं से मिलते घूम रहें हैं .क्या सिर्फ वोट के लिए युवाओं के बीच में घूमना बस यही उद्देश्य है ?उस कथित युवा सम्राट की अब तक तो कोई टिपण्णी भी नहीं
आई .
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :41. बलात्कार की स्त्रीवादी परिभाषा
डॉ.जेन्नी शबनम
अजीब होती है हमारी ज़िंदगी । शांत सुकून देने वाला दिन बीत रहा होता है कि अचानक ऐसा हादसा हो जाता की हम सभी स्तब्ध हो जाते हैं । हर कोई किसी न किसी दुर्घटना के पूर्वानुमान से सदैव आशंकित और आतंकित रहता है । कब कौन-सा वक़्त देखने को मिले कोई नहीं जानता न भविष्यवाणी कर सकता है । कई बार यूँ लगता है जैसे हम सभी किसी भयानक दुर्घटना के इंतज़ार में रहते हैं, और जब तक ऐसा कुछ हो न जाए तब तक उस पर विमर्श और बचाव के उपाय भी नहीं करते हैं …
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सटीक बात कहता सरर्थक एवं सारगर्भित आलेख मैंने भी इसी विषय पर कुछ लिखा है समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/2012/12/blog-post_21.html
priya Dr jenny jee aapka yeh aalekh bahut saare sawalon par hame sochne ko majboor karta hai tatha hamare samaj par ubharte kaale dhabbhon ko ujagar kar jaata hai,aakhir yeh sab kyaa ho rahaa hai.hamari sanskriti itni kamjor to naheen ki ese sawaalon ke hal bhee n dhoondh payen.agar esaa hai to yeh hamaare kamjor hote privaron kii isthitiyan hee jimmedaar hain. jin par sab ko mil baith kar un raston ko tlaashnaa hoga jinse nari jaati kii samaj men narkiya hoti jindagi ko bachaya jaa sake kyonki veh bhogyaa nahin balki devi ke saath-saath samaj nirmatri bhee hai.
bahut sunder.
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