दिल्ली के पेट में क्या सिर्फ़ गाली और असभ्य जीवन शैली है? क्या यहाँ रिश्तों का कोई मूल्य नहीं? क्या सिर्फ नग्नता और अवांछित स्थितयाँ ही दिल्ली के गर्भ में है? आख़िर आमिर खान 'देल्ही बेली' से क्या साबित करना चाहते हैं? वही आमिर खान जो किसानों की आत्महत्या पर, मीडिया के तमाशे पर, बेहद असरदार फ़िल्म बनाते हैं। वही आमिर खान जो बच्चों और अभिभावकों के मनोविज्ञान को परदे पर यूँ उतारते हैं, जैसा कभी किसी ने सोचा न हो। वही आमिर खान 'देल्ही बेली' जैसी निरर्थक फ़िल्म भी बनाते हैं। क्यों बनाते हैं, इसका जवाब शायद आमिर के पास भी नहीं होगा।
गालियों की बौछार इस सिनेमा में क्यों है, इसका कोई औचित्य समझ में नहीं आया। बाथरूम जाने और पेट ख़राब होने के भौंडेपन पर कोई हँसी नहीं आई। किसी भी दृश्य से आम जीवन के साथ इसका सन्दर्भ समझ नहीं आया। अगर बात करें बैचलर ज़िन्दगी की, तो मैं नहीं मानती कि कोई भी इतने गन्दे वातावरण में रह सकता है, जैसा सिनेमा में दिखाया गया है। जिन किरदारों को इसमें दिखाया गया है, वे पढ़े-लिखे और मीडिया से हैं। ऐसी जीवन शैली कहीं से भी उनकी दशा का वास्तविक चित्रण नहीं है। हर वाक्य में गाली, देश के किसी भी कोने में ऐसा देखने को नहीं मिलता है।
आज का युवा चिन्तनशील है, शराब पीता है, मोहब्बत करता है, एक लड़की को इसलिए छोड़ सकता है क्योंकि मानसिक धरातल पर उसे अपने बराबर नहीं समझता है, जीवन शैली निम्न हो सकती है, गाली भी देता है, वेश्यागमन भी कर सकता है, अपनी मर्ज़ी से ज़िन्दगी जीना चाहता है। परन्तु इस सिनेमा के किरदार-सा एक भी चरित्र आम जीवन में नहीं दिखता है। पुराने मकान की दशा, टूट जाना, या गन्दगी को दिखाना फिर भी जायज़ है; लेकिन एक युवा पत्रकार, फोटोग्राफर और कार्टूनिस्ट के बारे में ऐसा दिखाना कहीं से भी ग्राह्य नहीं है।
गाली देना मनुष्य के प्रतिकार से जुड़े मनोविज्ञान का हिस्सा है। गाली वह हथियार है, जिससे किसी के प्रति अपने क्रोध को अहिंसात्मक तरीक़े से अभिव्यक्त किया जाता है और गाली देकर मन की भड़ास निकाली जाती है। गाली देना हमारी परम्परा में भी शामिल है; भले उसके लिए ख़ास अवसर होते हैं, जब सार्वजनिक रूप से औरतें भी गाली देती हैं। हिन्दू-विवाह में एक अवसर पर वर पक्ष वालों को गाली देने का रिवाज है, जो हास्य और मनोरंजन माना जाता है। इस रिवाज की लोग प्रतीक्षा करते हैं।इसमें वर के महत्वपूर्ण रिश्तेदारों का नाम पता करके गाली दी जाती है।इसे कोई बुरा नहीं मानता बल्कि सभी मज़ा लेते हैं और एक परम्परा की तरह इसे महत्त्व देते हैं।
गाली को आधुनिक युवाओं की थाती बताना कहाँ से जायज़ है? औरत हो या मर्द गाली सभी देते हैं और अपने-अपने हिसाब से देते हैं। बस फ़र्क ये आया है कि वही गाली हिन्दी में सुनने में बुरी लगती है और अँगरेज़ी में कहा जाए तो आम बात। परन्तु यों धड़ल्ले से गाली देना आज तक कहीं नहीं सुना, न देखा। फ़िल्म 'ओमकारा' में बहुत गालियाँ थीं; लेकिन उस फ़िल्म के चरित्र के लिए यह सही था और उसका गाली देना अटपटा नहीं लगा। पत्रकारों का स्तर इतना निम्न नहीं है कि वे सारा समय सिर्फ़ गाली देते रहें और वह भी बेवज़ह। जीवन शैली में गिरावट दिखाना अगर इस सिनेमा का मक़सद है, फिर भी अंत में कुछ तो सन्देश देना चाहिए।
इस फ़िल्म को किस दर्जा में डाला जाएगा, आमिर खान को कम-से-कम एक बार ज़रूर विचार करना चाहिए था। दिल्ली में संस्कारों की कमी नहीं है, न यहाँ के युवा इतने निम्न स्तर पर उतर आए हैं। गाली ठूँसकर 'ए' सर्टिफिकेट लेना, ताकि जनमानस के दिमाग़ में कुछ ख़ास सिनेमा होने की सोच आए और फ़िल्म चल पड़े; शायद ऐसी मानसिकता रही होगी आमिर खान की। अपने नाम को भुनाकर इस फ़िल्म को हिट कराना एकमात्र उद्देश्य है, जिसे आमिर खान ने बख़ूबी किया है। हर दृश्य में फूहड़ हास्य, गाली और अतार्किक सोच। क्या आमिर खान का स्तर ऐसा हो गया? ऐसी स्तरहीन सिनेमा के द्वरा दर्शक को क्या सन्देश देना चाहते हैं आमिर खान, जिनसे हर सिनेमाप्रेमी स्तरीय सिनेमा की उम्मीद रखता है। यह फ़िल्म बेहद निराश करती है। आमिर खान की सोच और समझ पर आश्चर्य होता है। अब आमिर खान के सिनेमा को देखने से पहले फ़िल्मी समीक्षकों की राय पढ़कर ही जाना होगा, क्या पता 'देल्ही बेली' की तरह फिर से ख़ुद पर शर्मिंदा होकर लौटना पड़े।
- जेन्नी शबनम (9.7. 2011)
___________________
14 comments:
अभी तक फिल्म देखी नहीं..पर जो रिव्यूज़ आ रहे हैं वो आमिर की अन्य फिल्मों के रिव्यू जैसे नहीं हैं...
जेनी शबनम जी आपने आमिर खान की अच्छी क्लास ली है ।आम जन जीवन में गाली के पीछे एक रुग्ण मानसिकता है । गाली का केन्द्र बिन्दु माँ , बहन या बेटी ही होती है, चाहे वह गाली किसी को भी दी जाए । अपने को विश्व गुरु कहने वाले देश की यह विडम्बना ही है कि फ़िल्म होंया कोई और कार्यक्रम , फूहड़पन की ओर ही अगसर हैं ।
आमिर ने अच्छी फिल्में दीं , लेकिन शायद अब फूहड़पन का संक्रमण उन्हें भी ग्रस्त कर चुका है ! इतनी गललियों सा समावेश शायद उनकी ही मानसिक वृत्ति का दोष लगता है ! फिल्मों से यदि कोई सकारात्मक सन्देश न जाए किसी को , तो वह फिल्म निरर्थक है ! फिल्म के माध्यम से अपनी देश की संस्कृति को नीचा दिखाना कोई बुद्धिमानी नहीं है.
.
Its a pleasure to be your follower.
sach kahoon to film aisi bhi buraayi nahi thi...logo ne wohi galti ki jo aap kar rahe hai, doosre filmo se compare karna...aamir ne film likhi nahi hai, kisi aur ne likhi unhone produce kar di...
jahaan tak yuvaaon ke beech gaali ka prayog hai, to wo "zyada' hai..bahut zyaada hai..kisi bhi film me jo dikhaate hai usse zyda hai....achha ya bura sach hai
http://teri-galatfahmi.blogspot.com/
Pragya ji,
shukriya yahan tak aane ke liye.
Kamboj bhai,
gaali yun to aam jivan ka hissa hai. yun jaise ki anek shabdon ka ek shabd aur us ek shabd se aadmi apna bhadaas nikaal deta hai. is film ke maadhyam se Amir khan kya bataana chaah rahe wo samajh nahin aaya. itni gaali ki kisi apnon ke saath hin nahin balki akele bhi film dekhna asahya ho.
dhanyawaad aap yahan aaye.
Zeal ji,
bahut saarthak tippani, shukriya.
Ehsaas ji,
Aamir khan ne film likhi nahin lekin produce to kiya na. bina script padhe koi bhi film ko produce nahin karta. aur Amir khan jaise samvedansheel kalakar se koi aisi ghatiya film ki ummid nahin karta. yahan tulna nahin ki ja rahi balki aisi nirarthak film banane ki soch par hum sabhi hairaan hain.
dhanyawaad aap aaye. ye mahaz meri soch hai isase aap sahmat ho ye aawshyak nahin. aap yahaan par aapka dil se swagat hai.
अच्छी प्रस्तुति।
मैने यह फ़िल्म देखी नहीं है इसलिये ज्यादा कुछ कहने का हक नहीं रखती. कुछ दोस्तों से जो फ़िल्म के बारे में सुना है उसके आधार पर यह तो कह ही सकती हूं कि आमिर खान जैसे संवेदनशील फ़िल्म्रकार से ऐसी उम्मीद नहीं थी.
HAMNE BHI MOVIE DEKHI NAHI, PAR DI AAPKE BAATO SE SAHMAT...
AUR AMIR JAISE VYAKTITWA SE AISEE UMMID NAHI THI........
जितना सुना पढ़ा है वाकई यह फिल्म आमिर के स्तर की नहीं लगती.बाकी अभी तक देख नहीं पाई हूँ.लगता है एक बार देख ही लेनी चाहिए.
Post a Comment