भ्रष्टाचार और काला धन के मुद्दे पर समूचे देश में उथल-पुथल और बवाल मचा हुआ है। जब अन्ना हजारे जंतर-मंतर पर अनशन पर बैठे, तो देश का हर नागरिक, कुछ सामाजिक और राजनितिक दल, अनेकों स्वयंसेवी संस्थाएँ, कई सामाजिक संगठन, बुद्धिजीवी, आम और ख़ास लोग एकजुट हो गए। सरकार ने सभी माँगों को मान लिया और जन लोकपाल बिल बनाने पर सहमति के बाद उसपर क्रियान्वयन शुरू हो गया। इस अनशन से कितनों की महत्वाकांक्षाओं को बल मिला और सरकार के ख़िलाफ़ एक मुहीम-सा चल पड़ा है। आश्चर्य होता है, इसी देश की कोई एक महिला अकेले 11 साल से अनशन पर बैठी है और उसके साथ कोई नहीं। बार-बार उसे जेल में डाला जाता है, उस पर आत्महत्या का आरोप लगाया गया, नाक में नली के द्वारा उसे जबरन भोज्य-पदार्थ दिया जा रहा है। पिछले 11 साल से ये सिलसिला जारी है। मुमकिन है देश के अधिकतर लोग इस महिला का नाम भी न जानते हों। आम आदमी और मानवीयता के ख़िलाफ़ पिछले 53 साल से इस्तेमाल किए जा रहे भारतीय सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम 1958 को हटाए जाने को लेकर 11 सालों से भूख हड़ताल पर यह महिला बैठी है।
11 सितम्बर, 1958 को भारतीय संसद ने सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून [आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (ए.एफ.एस.पी.ए)] पारित किया। शुरू में इसे 'सात बहनों' के नाम से विख्यात पूर्वोत्तर के सात राज्यों असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मिज़ोरम और त्रिपुरा में लागू किया गया। वर्ष 1990 में इसे जम्मू कश्मीर में भी लागू कर दिया गया। बेक़ाबू आतंरिक सुरक्षा स्थिति को नियंत्रित करने के लिए सरकार द्वारा सेना को यह विशेषाधिकार दिया गया, ताकि सुरक्षा के कड़े उपाय किए जा सकें। इस कानून के तहत शक की बुनियाद पर बिना किसी वारंट के गिरफ़्तारी, गोली मारने या दूसरे तरीक़े से बल प्रयोग का अधिकार सुरक्षा बलों को है। बिना इजाज़त किसी के भी घर में घुसकर तलाशी करने का अधिकार सेना को प्राप्त है। परन्तु इस विशेषाधिकार का हनन वक़्त-वक़्त पर सेना द्वारा किया जाता रहा है और ये सभी राज्य इस कानून की पीड़ा का दंश विगत 53 साल से झेलते आ रहे हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 355 की आड़ में पारित इस अमानवीय कानून के कारण सुरक्षा के नाम पर सेना को क्रूरता की सारी हदें पार करने का वैध सरकारी अधिकार मिल गया है। इस कानून की आड़ में सेना के जवान खुलेआम क़त्ल और बलात्कार करते हैं।
वर्ष 1991 में असम में सैनिक कार्रवाई के दौरान शान्ति और सुरक्षा के नाम पर सैकड़ों निर्दोषों की हत्या कर दी गई। बन्दूक़ के निशाने पर महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। वर्ष 1995 में कोहिमा में 'ऑपरेशन तलाशी' के दौरान जीप का टायर फटने से बौख़लाए सैनिकों ने बम हमले के अंदेशे के कारण अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी, जिसमें 7 निर्दोष लोगों की मौत हुई और 7 नाबालिगों सहित 22 लोग गम्भीर रूप से ज़ख़्मी हुए। वर्ष 1995 में नमतिरम (मणिपुर) के 5 गाँव में सैनिक कार्रवाई के दौरान कई महिलाओं से बलात्कार किया गया। वर्ष 1997 में ओईनाम (मणिपुर) में सेना द्वरा जारी हिंसा का विरोध करने पर सैनिकों ने 3 महिलाओं के साथ बलात्कार कर 15 ग्रामीणों की हत्या कर दी और कई लोगों को बिजली के झटके देकर हमेशा के लिए विकलांग बना दिया।
इम्फाल से 10 किलोमीटर मालोम (मणिपुर) गाँव के बस स्टॉप पर बस के इंतिज़ार में खड़े 10 निहत्थे नागरिकों को उग्रवादी होने के सन्देह पर गोलियों से निर्ममतापूर्वक मार दिया गया। मणिपुर के एक दैनिक अख़बार 'हुयेल लानपाऊ' की स्तम्भकार और गांधीवादी 35 वर्षीया इरोम शर्मिला 2 नवम्बर 2000 को इस क्रूर और अमानवीय कानून के विरोध में सत्याग्रह और आमरण अनशन पर अकेले बैठ गईं। 6 नवम्बर 2000 को उन्हें 'आत्महत्या के प्रयास' के जुर्म में आई.पी.सी. की धारा 307 के तहत गिरफ़्तार किया गया और 20 नवम्बर 2000 को जबरन उनकी नाक में तरल पदार्थ डालने की कष्टदायक नली डाली गई। पिछले 11 साल से उनका सत्याग्रह जारी है। शर्मीला का कहना है कि जब तक भारत सरकार सेना के इस विशेषाधिकार कानून को पूर्णतः हटा नहीं लेती तब तक उनकी भूख हड़ताल जारी रहेगी।
शर्मिला की रिहाई के लिए तमाम विरोध और मानवाधिकारों के प्रदर्शन के बावजूद उन्हें नहीं छोड़ा गया। कानून के मुताबिक़ अधिकतम एक साल के लिए ही जेल में रखा जा सकता है, इसलिए बार-बार शर्मिला को छोड़ा जाता है और फिर गिरफ़्तार कर लिया जाता है। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल, इम्फाल में शर्मिला क़ैद हैं, जहाँ उन्हें नली के द्वरा जबरन तरल भोज्य पदार्थ देकर जीवित रखा गया है; क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद शर्मिला अनशन न तोड़ने पर अडिग हैं। शर्मिला कहती हैं ''मैं अपना अनशन नहीं तोड़ने जा रही, एक उद्देश्य के लिए मरने के लिए तैयार हूँ, जिसे मैं न्यायसंगत और सही समझती हूँ।''
पिछले वर्ष मणिपुर की महिलाओं ने सैनिकों द्वारा बलात्कार और हिंसक कार्रवाइयों से त्रस्त होकर सेना के ख़िलाफ़ नग्न प्रदर्शन भी किया। शर्मिला के समर्थन में कई महिला अधिकार संगठनों ने इम्फाल के जे.एन. अस्पताल के बाहर क्रमिक भूख हड़ताल शुरू कर दी है, यानी कि समूह बनाकर प्रतिदिन भूख हड़ताल करना। शर्मिला के समर्थन में मणिपुर स्टेट कमीशन फॉर वूमेन, नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन, नेशनल कैम्पेन फॉर दलित ह्यूमन राइट्स, एकता पीपुल्स यूनियन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स, ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आदि शामिल हैं।
शर्मिला के समर्थन में विदेशों की कई संस्थाएँ, जिनमें पूरी दुनिया के मानवाधिकार संगठनों और एन.आर.आई. फ्रेंड्स ऑफ़ साउथ एशिया, एन.आर.आई. फॉर ए सेक्युलर एंड हारमोनियस इंडिया, पाकिस्तान ऑर्गेनाइजेशंस, पीपुल्स डेवलपमेंट फाउंडेशन, इंडस वैली थियेटर ग्रुप, इंस्टिट्यूट फॉर पीस एंड सेक्युलर स्टडीज आदि शामिल हैं।
इरोम शर्मिला का अनशन निःसंदेह दुनिया का सबसे लम्बा चलने वाला अनशन है। जहाँ दूसरे देश शर्मिला के साथ हैं, वहीं अपना देश न सिर्फ़ ख़ामोश है; बल्कि शर्मिला की प्रताड़ना को और बढ़ा दी गई। शारीरिक रूप से बेहद कमज़ोर शर्मिला, 11 साल की अनवरत तपस्या और पीड़ा को अकेली झेलती शर्मिला, आज भी बुलन्द हौसला रखती हैं। मणिपुर की ये लौह-महिला अपने कर्त्तव्य और देश के लिए अपनी जान की परवाह किए बिना कहती हैं ''एक दिन ज़रूर आएगा जब ख़ुशियाँ लौटेंगी।'' वे कहती हैं ''यह मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है, मेरा सत्याग्रह शान्ति, प्रेम और सत्य की स्थापना हेतु समूचे मणिपुर की जनता के लिए है।"
अहिंसात्मक आन्दोलन की ये परिणति आख़िर क्यों? क्यों हमारे देश की जनता अन्ना और बाबा के साथ खड़ी हो जाती है, लेकिन शर्मिला को जानती तक नहीं। शर्मिला की लड़ाई सिर्फ़ उनके अपने लिए नहीं है, पूरे देश के लिए है, मानवता के लिए है, उन औरतों के लिए है जिन्हें जब-न-तब रौंदा जाता है, बलात्कार किया जाता है, उन लाचारों के लिए है जिनके अपनों को उनकी आँखों के सामने कानून की आड़ में बेरहमी से मार दिया जाता है, उन बेज़ुबानों के लिए है जो चुप रहने को मज़बूर हैं। कोई भी कहीं भी सुरक्षित नहीं है, सेना जब चाहे किसी का क़त्ल कर दे या क्रूरता से औरतों की इज़्ज़त लूट ले। मानवाधिकार संगठन के लाख प्रयास के बाद भी नतीजा कुछ नहीं निकला; क्योंकि सेना जो भी करती है उसे कानूनन सही साबित कर देती है और उन्हें ऐसा करने का विशेषाधिकार मिला हुआ है। बलात्कार तो वैसे भी साबित नहीं हो पाता है; क्योंकि उसके बाद कोई स्त्री आवाज़ उठाने का साहस नहीं रखती है। पुरुषों को सन्देह के आधार पर जब चाहे क़ैद कर ले या फिर हत्या कर दे।
क्रूरता और दमन की कहानी लिखने वाला कोई और नहीं हमारा देश है, जो आज से 53 साल पहले लिख दिया। इसके लिए हमारी सरकार ज़िम्मेदार है, जो हर एक घटना को जानते हुए भी ख़ामोश है। अन्ना हजारे और रामदेव बाबा के अनशन के साथ लाखों लोग शामिल हो गए; लेकिन शर्मिला के साथ इनमें से कोई नहीं आया। क्या अन्ना या बाबा पूर्वोत्तर राज्यों के इस अमानवीय क्रूर कानून को नहीं जानते? भ्रष्टाचार और काला धन के लिए तो ये लोग अनशन पर बैठ गए और अवसरवादिता का लाभ उठा रहे; लेकिन इंसानियत की लड़ाई के लिए ये इतने सालों से ख़ामोश क्यों हैं? क्या जवाब दे सकेंगे सामजिक सेवक अन्ना हजारे या योग गुरु बाबा रामदेव? अन्ना हजारे की सोच है कि एकमात्र लोकपाल बिल के द्वारा भ्रष्टाचार दूर हो जाएगा, और योग-गुरु-व्यवसायी बाबा रामदेव सोचते हैं कि विदेश में पड़ा काला धन आ जाने से हमारे देश की सभी समस्या सुलझ जाएगी, भ्रष्टाचार दूर हो जाएगा और देश प्रगति-उन्नति कर लेगा।
क्या शर्मिला के बारे में जानकार किसी देशभक्त का ख़ून नहीं खौलता? अपने ही देश में अपनी ही चुनी हुई सरकार द्वारा ऐसा दमन, क्या प्रजातंत्र में ये जायज़ है? ये कैसा लोकतंत्र है, जिसमें कोई महिला 11 साल से इंसानियत के लिए संघर्ष कर रही है और हमारी जनता जो धर्म के नाम पर बवाल मचा देती है, चुप तमाशा देख रही है। क्या शर्मिला का संघर्ष, अहिंसात्मक सत्याग्रह और अनशन हुक्मरानों को शर्मसार नहीं करता? क्या सिर्फ़ इसलिए कि इस राज्य की जनता कानून के कारण मज़बूर और लाचार है? क्या इसलिए कि शर्मिला एक स्त्री है? क्या ऐसे कानून पर अतिशीघ्र पाबन्दी नहीं लगनी चाहिए, जिससे आम जन-जीवन अपनी ज़िन्दगी चैन से जी सके? क्या शर्मिला को आम स्त्रियों की तरह जीने का हक़ नहीं? क्या शर्मिला को सपने देखने और जीने का हक़ नहीं?
शर्मिला न जमानत चाहती हैं, न अपने लिए सरकार से रहम चाहती हैं, न अनशन तोड़ने को राज़ी हैं। बस एक ही माँग कि सरकार इस काले कानून को बेशर्त ख़त्म करे। उम्मीद और आशा के साथ शर्मिला अब भी अस्पताल में क़ैद हैं, जहाँ नाक में नली के द्वारा तरल पदार्थ दिया जा रहा है। उम्मीद नहीं टूटती उनकी, तमाम यातनाओं को भोगते हुए भी कल के सुनहरे भविष्य के लिए संघर्षरत हैं, ताकि पूर्वोत्तर राज्यों में भी एक नई सुबह हो, जहाँ ज़िन्दगी को ज़िन्दगी की तरह आम इंसान जी सके।
सलाम शर्मिला!
सलाम शर्मिला!
- जेन्नी शबनम (11.6.2011)
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19 comments:
ek dard ye bhi...par dard me bhi muskurata chehra.....!!
salaam iss sharmila ko salam!!
bahut achha likha hai aapne, sach yahi haal hai desh ka.
जेन्नी जी ! शर्मीला जी के साथ पूरा देश है. मीडिया जिसे चाहे उछाल दे ...जिसे चाहे डुबा दे ......शर्मीला जी के बारे में किसी को जानकारी ही नहीं है ....यह लोगों का नहीं मीडिया का दोष है. शायद यह हमारे हुक्मरानों की चाल है कि हम पूर्वांचल की खबरों से कटे रहते हैं ......समाचार पत्र भी देश के इस अंग को तरजीह नहीं देते. यह मेरी पुरानी शिकायत है. माओवादियों से निपटने के लिए सेना को मिले अधिकार का दुरुपयोग दुर्भाग्य जनक है .....शर्मिन्दगी का कारण भी. कोई अधिकार कितना भी जनकल्याणकारी क्यों न हो, यदि किसी उसका दुरुपयोग होता है तो उसे निश्चित ही समाप्त किया जाना चाहिए.
शर्मीला जी के साथ देशवासियों का पक्षपात जानबूझ कर नहीं किया गया है.... सूचना के अभाव में ऐसा हुआ है ...अतः आपका यह दोषारोपण उचित नहीं है. रही बात अन्ना और रामदेव जी की .....तो अभी जो उनका उद्देश्य जनता के सामने आया है वह निर्दोष प्रतीत होता है...इसका परिणाम क्या होगा ......कितना होगा .......हम नहीं कह सकते......पर सही दिशा में कुछ होने की उम्मीद ज़रूर कर सकते हैं. लोकपाल बिल से भ्रष्टाचार तो समाप्त नहीं होगा पर अंकुश लगने की आशा की जा सकती है. कालाधन वापस लाने से शायद यह परम्परा प्रवासी होने से बच जाय. वस्तुतः एक आन्दोलन इसलिए भी होना चाहिए कि लोग अपने जीवन व्यवहार में शुचिता लायें ...यह कार्य आत्मानुशासन का है ...साधू-संतों को इसके लिए एक सामाजिक-शुचिता का आन्दोलन करना चाहिए.
सोचने को बाध्य करती पोस्ट!
आपने एक ऐसे आदर्श व्यक्तित्व से परिचय करवाया जहाँ सूचना के तंत्र पहुँचते नहीं ... शर्मिला जी के प्रयास किसी भी दृष्टि से अन्ना और रामदेव बाबा से कमतर नहीं आँके जा सकते.
मैं कौशलेन्द्र जी के विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ.
छह नवम्बर २००० को, यानी हड़ताल शुरु करने के तीसरे दिन ही पुलिस ने उन्हें आत्महत्या के प्रयास के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया। तभी से जेल भेजी जाती हैं, छूटती हैं, फिर जेल भेज दी जाती हैं। जेल में नाक से नली लगाकर उन्हें जबरदस्ती भोजन दिया जाता है। उनका संघर्ष नायाब है। गांधीजी के सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत पर चलकर इनका संघर्ष बेमिसाल है।
जेन्नी जी ,अन्ना और राम के देश में शर्मिला" आपका विचारपूर्ण और सारगर्भित लेख है । चिन्तन की गहन धारा का तार्किक एवं संवेदनशील प्रवाह सोचने को बाध्य करता है कि आज़ादी के इतने वर्षों में भी लोकतन्त्र को मज़बूत बनाने के बजाय सरकार चलाने पर ही बल दिया गया ।आम आदमी की व्यथा रोज़ बढ़ती जा रही है । इसकी उपेक्षा एक दिन विस्फोटक स्थिति पैदा कर देगी जो लोक तन्त्र के लिए कदापि शुभ नही है। गद्य में आपका यह विचारशील रूप भी बहुत सराहनीय है ।
क्या कहा जाये जेन्नी जी ! अब तो सरकार बिलकुल ही बहरी और तानाशाह बन गई है ऐसा लगता है.
जनता बेचारी तो ख़बरों के लिए मीडिया पर निर्भर है पर उसका हाल भी क्या है सब जानते हैं.
Mukesh,
sharmila ke sangharsh ko salam!
shukriya yaha aane aur samarthan dene keliye.
Prritiy,
samarthan keliye shukriya aapka.
Kaushalendra ji,
bahut achhi baat aapne kahi hai...
''एक आन्दोलन इसलिए भी होना चाहिए कि लोग अपने जीवन व्यवहार में शुचिता लायें ...यह कार्य आत्मानुशासन का है ...साधू-संतों को इसके लिए एक सामाजिक-शुचिता का आन्दोलन करना चाहिए.''
aur shayad yahi ek upaay hai aadmi mein insaaniyat laane keliye. agar har vyakti aatmaanushaasan kare to nihsandeh kahin koi samasya hin na ho.
bhrashtachar ke mudde par chaahe anna ho ya baba bas rajniti hin karte aaye, aur ab to ye sab dhire dhire log bhi samajh rahe. par bhrshatachar aisa mudda hai jisase aam aadmi prabhaawit hai, to nihsandeh is mudde par pura desh ek ho jata hai. sharmila ke maamle mein baat ye hai ki pura desh isase prabhaawit nahin hai, sirf kuchh aise raajya jahan se aaye neta desh ko chalane mein aham bhoomika nahin nibhaate, isliye upekshit rajya ki samasya bhi upekshit ho gai hai. aaj sharmila keliye koi anna ya baba nahin khada ho raha. media kahne ko swatantra hai par ye bhi hamare tantra ka hissa hai, fir nirpekshta ki baat kaise kahi jaaye. media chup hai, kyonki is khabar se use koi faayeda nahin. sharmila ka sangharsh kuchh logon keliye prernashrot bane aur aandolan anjaam par pahunche ye aasha to hai.
blog par saarthak tippani keliye shukriya.
Roopchandra ji,
yahan aane keliye bahut aabhar.
saarthak tippani ke liye bahut aabhar Pratul ji.
satyaagrah ka ye roop shayad duniya ka sabse mahan satyaagrah hoga, lekin media kee upeksha ya fir desh ke bade netaaon ka raajya nahin hone se ya fir anya raajya kee aam janta ke sarokaar ki baat nahin hone se shayad ise koi mahatwa nahin diya ja raha. baharhaal sangharsh jaari hai, ab dekhna hai kya hota hai. aasha bani hui hai.
bahut shukria Manoj ji.
Kamboj bhai,
bahut shukriya. mere lekh par aapki tippani dekhkar bahut khushi hui. aam aadmi se judi samasya ki upeksha se hin aaj visfotak sthiti aa chuki hai, chaahe wo desh ke aarthik, saamajik, rajnaitik haalaat hon. aazadi ke baad se aaj tak ek bhi samasya suljhi nahin, aur bhi ulajhti ja rahi aur samasyaaon ka roop vikraal hota ja raha.
bas lekh ke maadhyam se apni baat kahti hu, jante hue ki kahin koi pariwartan nahin hone wala.
aapke snehaashish ke liye bahut aabhar.
Shikha ji,
media jis din nirpeksh ho jaaye dekhiye sarkar jaagti hai ki nahin. yahi to mushkil hai ki un raajyon se desh ke baaki hisson ko koi matlab nahin na satta ko. sharmila ka sangharsh nischit hin nirnaayak mod legi aur sarkaar ko baadhya hona hoga is kanoon ko hatane keliye. shukriya yahan tak aane keliye.
bahut hi dardmai saarthak lekh sharmilaji ko hamaraa bhi salaam.bahut badhaai aapko .aabhaar
यह एक विडंबना ही है कि महज कुछ दिनों के अनशन से ही देश का बच्चा-बच्चा अन्ना हजारे को जानता और पह्चानता है. लेकिन इस बेहद सम्वेदनशील मुद्दे पर न तो किसी का ध्यान गया और न ही शर्मिला की तरफ़. बहुत प्रेरक आलेख.
यह एक विडंबना ही है कि महज कुछ दिनों के अनशन से ही देश का बच्चा-बच्चा अन्ना हजारे को जानता और पह्चानता है. लेकिन इस बेहद सम्वेदनशील मुद्दे पर न तो किसी का ध्यान गया और न ही शर्मिला की तरफ़. बहुत प्रेरक आलेख.
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