Friday, February 11, 2011

18. चम्पानगर के यतीम बच्चे



आज मैं चम्पानगर में हूँ| नाथनगर का ये मोहल्ला भागलपुर का हीं एक हिस्सा है| यहाँ दारुल यतामा नाम से एक और यतीमखाना है| मगर जब हम इसमें अन्दर घुसते हैं तो बच्चों के शोरगुल में ये यतीमखाना किसी स्कूल सरीखा नज़र आता है| इसकी स्थापना 1944 में की गई तथा यहाँ तकरीबन 70 बच्चे अभी रह रहे हैं| यहाँ सभी उम्र के बच्चे हैं जिनमें कुछ यतीम हैं तो कुछ दुर्रे यतीम| बच्चों की निगाह किताब पर कम खाना पकाने वाली फूफी की ओर टिकी है जिनकी रसोई पढ़ाई वाले कमरे के बिलकुल सामने हैं| काजवलीचक और चम्पानगर के यतीम बच्चों में कोई फर्क नहीं| सबके सपने एक जैसे, सबके दर्द एक जैसे|



हमारी बात हुई इमरान और नुसरान से| उन्होंने बताया चम्पानगर में बच्चों को तालीम के साथ हीं सिलाई, जिल्द साजी, पारचा बाफी इत्यादि का भी प्रशिक्षण दिया जाता है| जो बच्चे अच्छा पढ़ते हैं उनके लिए आगे की पढ़ाई की व्यवस्था भी की जाती है| चंदा, जकात, फितरह, अतियात और इमदादी की रकम से यहाँ का खर्चा चलता है|
मैं और मेरे दो साथी सभी से अलग अलग बात कर रहे थे, और तस्वीर ले रहे थे| इमरान और नुसरान ने कई बच्चों की कहानियां हमें सुनाई| मेरे जेहन में काजवलीचक के उन बच्चों की बातें ताज़ा थी जिनसे मैं बात करके आई थी| यहाँ भी वैसे हीं तमाम बच्चे, कोई यतीम कोई दुर्रे-यतीम| अम्मी अब्बू जिन्दा हैं फिर भी यतीमखाने में परवरिश? किसी की अम्मी ने दूसरा निकाह कर लिया था तो किसी के वालिद अल्लाह के पास चले गए थे, किसी के अब्बू की नयी बीबी मारती पीटती थी, किसी की अम्मी के नए शौहर मारते थे, कोई बेवा अपने बच्चों को पालने में असमर्थ थी, किसी के अम्मी-अब्बू दोनों चल बसे थे| यतीम की परिभाषा भी मैं यहाँ आकर भूल गई| जाने कैसे अपने जिगर के टुकड़ों को यहाँ छोड़ दिया होगा उन सबों ने?



मैं खामोश थी, तभी 24-25 साल का एक नौजवान आया और हम सभी को कुर्सी दिया बैठने को| 
मैंने पूछा कि ''आप यहाँ क्या करते हैं?''
उसने कहा कि ''मैं बचपन से यहीं पला हूँ और अब यहीं इसी यतीमखाना में बच्चों को तालीम दे रहा हूँ|''
कोने में बैठे एक बुज़ुर्ग सज्जन पर नज़र पड़ी, मैं उठकर उनके पास जा बैठी, बड़े खुश हुए वो| पूछने पर उन्होंने बताया कि वो यहाँ बच्चों को तालीम देते हैं| मैं पूछी कि जो बच्चे बड़े होकर कुछ काम करने लगते क्या वो यतीमखाना केलिए कुछ करते हैं, क्योंकि घर तो उनका यही हुआ| उन्होंने कहा ''नहीं आज के जमाने में कौन किसका है मैडम, हमलोग बिना किसी स्वार्थ के इनकी परवरिश करते हैं, कभी कोई मिलने आ जाए तो ख़ुशी होती है, वैसे जो भी यहाँ से चला जाता है कुछ न कुछ कमा हीं लेता है और घर बसा लेता है फिर यहाँ कौन आता है|'' गहरी पीड़ा दिखी उनकी आँखों में|
मैं सोचती रही कि जाने क्यों इसे यतीम खाना या अनाथालय कहा जाता है? जबकि कई बच्चों के वालिद भी जीवित हैं| पर सबसे अच्छी बात ये है कि नाम भले अनाथालय हो पर यहाँ सर पर छत है और आँखों में उम्मीदें साँसे ले रही है|
……जारी


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6 comments:

Sunil Kumar said...

इस तरह के यतीम बच्चों के लिए आप जो भी करते है भगवान उसका फल आपको ज़रुर देता है क्योंकि यह भी एक तरह की इबादत है मुझे निदा फ़ाजली साहेब का शेर याद आ रहा है

घर से मस्जिद अगर दूर चलो यूँ करले ,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये |

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sunil sir se bilkul sahmat hoon...agar aap apne samay ka sadupyog iss tarah se karti hain, to upar wala dekh raha hai..:)
bhagwaan aapko ta-jindagi khush rakhe..!

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sunil sir se bilkul sahmat hoon...agar aap apne samay ka sadupyog iss tarah se karti hain, to upar wala dekh raha hai..:)
bhagwaan aapko ta-jindagi khush rakhe..!

shikha varshney said...

bina kisi umeed aur swaarth ke yateem bachchon ko chhat aur parvarish dete hain isse bada punya aur kya ho sakta hai.

shahroz said...

muddat bad idhar aaya...aapki kai post padh gaya.....dilli me rahte huye bhi aapke pas ab bhi sarokaar aur sanskar shesh hai, behad khushi hoti hai.
fursat kam rahti hai so niyamit post nahin dekh pat kshama kijiyega.in dinon ranchi me hun.

सहज साहित्य said...

बहन आप तो दुनिया की सबसे बड़ी इबादत में लगी हैं। सच्चा साहित्यकार मन-कर्म और वचन से एक होता है ; आपकी तरह ।