Friday, January 7, 2011

16. काहे कईल हो बाबू जी दूरंग नीतिया..


आज के हिन्दुस्तान में स्त्री एक वस्तु मानी जाती है| समय बदला, संस्कृति बदली, पीढियां बदली, लेकिन स्त्री जहाँ थी वहीं है, जिसे हर कोई अपनी पसंद के अनुरूप जांचता परखता है फिर अपनी सुविधा के हिसाब से चुनता है, और यह हर स्त्री की नियति है| आज के सन्दर्भ में स्त्री वास्तु के साथ साथ एक विषय भी है जिसपर जब चाहे जहां चाहे विस्तृत चर्चा हो सकती है| चर्चा में उसके शरीर से लेकर उसके कर्त्तव्य, अधिकार और उत्पीड़न की बात होती है| अपनी सोच और संस्कृति के हिसाब से सभी अपने - अपने पैमाने पर उसे तौलते हैं| ये भी तय है कि मान्य और स्थापित परम्पराओं से स्त्री ज़रा भी विलग हुई कि उसकी कर्तव्यपरायणता ख़त्म और समाज को दूषित करने वाली मान ली जाती है| युग परिवर्तन और क्रान्ति का परिणाम है कि स्त्री सचेत हुई है, लेकिन अपनी पीड़ा से मुक्ति कहाँ ढूंढे? किससे कहे अपनी व्यथा? युगों युगों से भोग्या स्त्री आज भी महज़ एक वस्तु हीं है, चाहे जिस रूप में इस्तेमाल हो| 

कभी रिश्तों की परिधि तो कभी प्रेम उपहार देकर उस पर एहसान किया जाता है कि देखो तुम किस दुर्गति में रहने लायक थी, तुमसे प्रेम या विवाह कर तुमको आसमान दिया है| लेकिन आज़ादी कहाँ? आसमान में उड़ा दिया और डोर हाथ में थामे रहा कोई पुरुष, जो पिता हो सकता या भाई या फिर पति या पुत्र| जब मन चाहा आसमान में उड़ाया जब चाहा ज़मीन में ला पटका कि देख तेरी औकात क्या है| स्त्री की प्रगति की बात कर समाज में पुरुष प्रतिष्ठा भी पाता है कि वो प्रगतिवादी है| क्या कभी कोई पुरुष स्त्री की मनःस्थिति को समझ पाया है कि उसे क्या चाहिए? अगर स्त्री अपना कोई स्थान बना ले या फिर अलग अस्तित्व बना ले फिर भी उसकी अधीनता नहीं जाती|


यूँ स्त्री विमर्श और स्त्री के बुनियादी अस्तित्व पर गहन चर्चा तो सभी करते पर मैं यहाँ इन सब पर कोई चर्चा नहीं करना चाहती| मैं बस स्त्री की पीड़ा व्यक्त करना चाहती हूँ जो एक गीत के माध्यम से है| एक भोजपुरी लोक गीत जो मेरे मन के बहुत हीं करीब है, जिसमें एक स्त्री अपने जन्म से लेकर विवाह तक की पीड़ा अभिव्यक्त करती है| वो अपने पिता से कुछ सवाल करती है कि उसके और उसके भाई के पालन पोषण और जीवन में इतना फर्क क्यों किया जबकि वो और उसका भाई एक हीं माँ के कोख से जन्म लिया है| भाई बहन के पालन पोषण की विषमता से आहत मन का करुण क्रंदन एक कचोट बन कर दिल में उतरता है और जिसे तमाम उम्र वो सहती और जीती है| 

इस गीत में पुत्री जो अब ब्याहता स्त्री है, अपने पिता से पूछती है कि क्यों उसके और उसके भाई के साथ दोहरी नीति अपनाई गई, जबकि एक हीं माँ ने दोनों को जन्म दिया...


(एके कोखी बेटा जन्मे एके कोखी बेटिया
दू रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया) - 2


बेटा के जनम में त सोहर गवईल अरे सोहर गवईल
हमार बेरिया (काहे मातम मनईल हमार बेरिया) - 2
दू रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया


बेटा के खेलाबेला त मोटर मंगईल अरे मोटर मंगईल
हमार बेरिया (काहे सुपली मऊनीया हमार बेरिया) - २
दू रंग नीतिया 
काहे कईल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया


बेटा के पढ़ाबेला स्कूलिया पठईल अरे स्कूलिया पठईल
हमार बेरिया (काहे चूल्हा फूंकवईल हमार बेरिया) - २
दू रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया


बेटा के बिआह में त पगड़ी पहिरल अरे पगड़ी पहिरल
हमार बेरिया (काहे पगड़ी उतारल हमार बेरिया) - २
दू रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया


एके कोखी बेटा जन्मे एके कोखी बेटिया
दू रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया  


(अज्ञात लेखक)
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कोख - गर्भ
दूरंग नीतिया - दोहरी नीति
काहे कईल - क्यों किये
गवईल - गवाना
हमार बेरिया - हमारी बारी में
खेलाबेला - खेलने के लिए
सुपली मऊनी - सुप और डलिया
पढ़ाबेला - पढ़ाने केलिए
स्कूलिया - स्कूल
पठईल - भेजना
पहिरल - पहनना
उतारल -  उतारना    


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14 comments:

shikha varshney said...

samajh men nahi aata kab badlegi mansikta hamare samaaj kee.
akhir jimmedar kaun hai is awastha ka? purush? samaaj? ya khud stree.?
vyathit karti post Jenny ji.

rasaayan said...

kya nahin kah diya is lekh main.....
kyon aisi sthiti hai, jabki har nari isase guzarti hai phir bhi vo beta chahti hai aur swayam bhi bhagi ho jqati hai, jaisa geet main kaha hai....
geet ke shabdon ka arth dene se paDhkar aur achchhaa kaga...
dhanyvad...

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Di jahan tak rachna ka sawal hai....ek dum jhakkas....bihar ke mitti ki soundhi soundhi khusboo aa rahi hai...:)
samajh me aa raha hai, aap abhi wahin ho...:D


lekin sach kahun di, ab waisa bhi nahi raha ki betiyon ke liye roya jaye....achchha aap khud ko aaine me dekh kar bolna...kya kabhi aapke saath kuchh aisa hua, kabhi aapne aisa feel kiya ki aapke bhaiya ko jayda pyar mila ho:)

pragya said...

एक-एक पंक्ति सही है जेन्नी जी...स्त्री यहाँ तभी तक देवी है जब तक पुरुषों के अनुसार उसका व्यवहार और उसकी सोच है..जहाँ इनके विरुद्ध गई कि.......क्या लिखूँ बहुत सारे नाम हैं ऐसी स्त्री के लिए जो पुरुष के हिसाब से नहीं चलती...

pragya said...

और जो स्त्री इसे सहती है वही जानती है कि कितना मुश्किल है अपनी बात कहना, अपनी बात रखना..क्योंकि ऐसा करने पर उसे जाने कितने इमोशनल ब्लैकमेलिंग से होकर गुज़ारा जाता है और by hook or by crook उसी तोड़ा जाता है...अपने लिए सोचने वाला समाज ऐसी स्त्री को देवी नहीं मान सकता जिससे उसे थोड़ी सी भी परेशानी झेलनी पड़े...जब तक स्त्री उसके लिए अपना जीवन नरक बनाती रहे तभी तक स्त्री देवी है..और जितना नरक वह चुपचाप जिए वह उतनी बड़ी देवी है लेकिन जहाँ उसने थोड़ा सा भी अपने बारे में सोचा वहीं वह पदच्युत कर चुड़ैल बना दी जाती है...और उसके बाद समाज ख़ासतौर पर हमारा देश यह कहकर गौरवान्वित महसूस करता है कि हमारे यहाँ तो महिलाओं को देवी कहते हैं...यह देवी सम्बोधन स्त्री को उसकी परिधि में रहने की आज्ञा देता है...

सहज साहित्य said...

बहन शबनम जी मैं लोकगीतों को जीवन के लिए ज़रूरी मानता हूँ । कविताकोश में भी लोकगीत हैं ऽअप वहा भी इन्हें जोड़ सकती है।आपने बहुत अच्छा कार्य है। सभी गीत और साथ में आपका आलेख मन को छू लेते हैं

सहज साहित्य said...

लोकगीतों में जो उपालम्भ और दर्द निहित है वह और कहाँ देखने को मिल सकता है ! शबनम जी ने कुछ देरे के लिए घर -गाँव की सौंधी माटी से जोड़ दिया ।

निर्मला कपिला said...

अपने विषय को जिस गम्भीरता और सच्चाई से लिखा है उसके लिये आप बधाई की पात्र हैं। शायद ये समाज औरत के मामले मे कभी नही सुधरेगा। आभार।

डॉ. जेन्नी शबनम said...

shikha i,
samaj ki is ithiti ke bhaagidaar hum sabhi hain, kisi ek se pura samaj na banta na bigadta. fir bhi aahat to hoti hai stree hin.
aalekh par aane keliye bahut aabhar.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

arvind bhai,
yahi to atree ki vidambana hai, aur samaaj ka dhaancha, kya kiya jaaye? bhojpuri geet hai lekin iske bhaav har stree kee peeda darshata hai, aur aapne bhi is peeda ko mehsoos kiya bahut dhanyawaad.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

mukesh ji,
baat sirf kuchh logon ki ya hamari nahin hai. apwaad sabhi mein hote lekin ek aam soch aur peeda yahi hai jise har stree kam ya jyada bhugatati hai. hum sabhi apni beti ko bahut pyar karte fir bhi uske bhawishya ko lekar chintit aur aashankit rahte, kyonki samaj nahin badla hai bhaai.

jab ye likhi thee us samay to bihar mein hin thee, achha lagta hai wahan aur hamara kaam bhi wahin jyada rahta ab.

lekh tak aane keliye bahut shukriya bhaai.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

pragya ji,
purush ke hisaab se puri zindgi jina hota, aur jisne bagawat ki uska nateeja bahut dardnaak hota, yaa to akelepan se khatm ho jaati ya fir samaj kee upeksha use jine nahi deti. fir bhi waqt ke saath badlaav ki ummid to hai...
lekh tak aane aur samajhne keliye dil se shukriya aapka.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

kamboj bhaisahab,
aapka sujhaav to bahut achha hai ki ise kavita kosh mein shaamil kiya jaaye, taaki inka astitwa bana rahe. mumkin ho saka to koshish karungi.

lok geet hamare jivan se jude hote they, aur is geet mein beti apna dard baant rahi hai.

lekh aapko pasand aaya bahut dhanyawaad.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

nirmala ji,
stree ka sach sabhi jaante samajhte, badi badi baaten ki jaati, kanoon bante, aarakshan diye jaate, baawzood sthiti yathaawat, fark bas tareeke mein pada hai par peeda to wahi hai.
mere lekh ko aapne dil se samjha bahut aabhar aapka.