मेरी छठी पुस्तक 'सन्नाटे के ख़त' की समीक्षा प्रो. डॉ. भीकम सिंह जी ने की है। प्रस्तुत है उनकी लिखी समीक्षा:
सन्नाटे के ख़तों की आवाज़
लम्हों का सफ़र, नवधा, झाँकती
खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) और मरजीना (क्षणिका-संग्रह) को
जोड़कर डॉ. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य-संग्रह (सन्नाटे के ख़त) आया है।
व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के ख़तों से गुज़रते हुए अचरज से भर जाते
हैं; क्योंकि इन ख़तों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फैंटेसी अनेक
भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ।
यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती
है।
प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबन्ध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज़ है, जिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-
एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)
जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज़्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-
बेवक़्त खिंचा आता था मन
बेसबब खिल उठता था पल
हर वक़्त हवाओं में तैरते थे
एहसास जो मन में मचलते थे।
अब इन्तिजार है (पृष्ठ संख्या 29)
जो यह होने को एक निजी इन्तिज़ार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिज़ार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आए बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी
शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं।
उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ
घायल हैं; इसलिए ख़ुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती हैं उस तरफ़ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-
जाने कैसी हवा चल रही है
न ठण्डक देती है, न साँसें देती है
बदन को छूती है
तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है
अब हवा बदल गई है। (पृष्ठ संख्या 52)
अपने गाँव से जुड़ना, अपनी जड़ों से जुड़ना, अपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-
मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से।
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव (पृष्ठ संख्या 58)
अपना
गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान
और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मज़दूर के लिए एक अदद रोटी-
सुबह से रात, रोज सबको परोसता
गोल-गोल, प्यारी-प्यारी, नरम-मु लायम रोटी
मिल जाती, काश!
उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)
‘भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका है, जैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितान्त पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्य हो जाती है-
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता, एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)
और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार की समर्थक होती चली जाती हैं-
इन सभी को देखता वक़्त, ठठाकर हँसता है
बदलता नहीं कानून
किसी के सपनों की ताबीर के लिए
कोई संशोधन नहीं
बस सज़ा मिलती है
इनाम का कोई प्रावधान नहीं
कुछ नहीं कर सकते तुम
या तो जंग करो या पलायन
सभी मेरे अधीन, बस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)
और
फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी ज़िन्दगी का
वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं
और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है।
फैंटेसी की कोई नीति नहीं, कोई दायरा नहीं, यह भावनाओं का आखेट है, जो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-
एक कैनवास कोरा-सा
जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग
पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे
रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)
और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैं, फिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-
मन चाहता
भूले-भटके
मेरे लिए तोहफ़ा लिए
काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)
जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि
इसकी हिमायती हो जाती है और मगज़ के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ
विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा
है रूठा हुआ।
इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझने, उसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने-समझाने में है, जो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पॉइंट है और पाठकों के लिए ज़रूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गम्भीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-
नीयत और नियति समझ से परे है
एक झटके में सब बदल देती है
जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)
जेन्नी
शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को
ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को
किस तरह कहा जा सकता है-
‘क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर
अपने वजूद में शामिलकर
जाने कितना इतराया करती थी
कितने सपनों को गुनती रहती थी
अब यह सब बीते जीवन का क़िस्सा लगता है।
हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)
जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता है, यहाँ सयानापन कतई नहीं है, अति
सूधौ सनेह को मारग है' घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी
प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरज़ोर कोशिश
करती, अनुभूतियों के सफ़र में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, ज़िन्दादिली की सूचक है। ''अपनी पीर छुपाकर जीना, मीठा कहकर आँसू पीना'' पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें, जिन्हें
जेन्नी शबनम ने सपनों में बचाए रखा है। शायद अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की
‘सबसे ख़तरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम
सपनों को ज़िन्दा रखती है और उम्मीद करती है-
शायद मिल जाए वापस
जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)
काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-
प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक
बदन के घेरों में
या मन के फेरों में?
सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है
या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)
‘अलगनी’ उस वातावरण के बारे में है, जो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं।
सन्नाटे के ख़त (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैं, भाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है ही, इसका
सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार-बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में
जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन ख़तों को पढ़कर
अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन ख़तों की आवाज़ साहित्यिक
जगत् में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।
-0-
सन्नाटे के ख़त- डा. जेन्नी शबनम, प्रथम संस्करण- 2024, मूल्य- 425 रु पये, पृष्ठ- 150
प्रकाशकः अयन प्रकाशक, जे-19/139, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059
-भीकम सिंह
दादरी, गौतमबुद्ध नगर
तिथि- 16.5.2025
-0-
- जेन्नी शबनम (25.5.2025)
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लम्हों का सफ़र, नवधा, झाँकती खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) और मरजीना (क्षणिका-संग्रह) को जोड़कर डॉ. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य-संग्रह (सन्नाटे के ख़त) आया है। व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के ख़तों से गुज़रते हुए अचरज से भर जाते हैं; क्योंकि इन ख़तों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फैंटेसी अनेक भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ। यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती है।
प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबन्ध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज़ है, जिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-
एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)
जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज़्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-
बेवक़्त खिंचा आता था मन
बेसबब खिल उठता था पल
हर वक़्त हवाओं में तैरते थे
एहसास जो मन में मचलते थे।
अब इन्तिजार है (पृष्ठ संख्या 29)
जो यह होने को एक निजी इन्तिज़ार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिज़ार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आए बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं। उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ घायल हैं; इसलिए ख़ुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती हैं उस तरफ़ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-
जाने कैसी हवा चल रही है
न ठण्डक देती है, न साँसें देती है
बदन को छूती है
तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है
अब हवा बदल गई है। (पृष्ठ संख्या 52)
अपने गाँव से जुड़ना, अपनी जड़ों से जुड़ना, अपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-
मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से।
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव (पृष्ठ संख्या 58)
अपना गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मज़दूर के लिए एक अदद रोटी-
सुबह से रात, रोज सबको परोसता
गोल-गोल, प्यारी-प्यारी, नरम-मु
मिल जाती, काश!
उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)
‘भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका है, जैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितान्त पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्य हो जाती है-
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता, एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)
और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार की समर्थक होती चली जाती हैं-
इन सभी को देखता वक़्त, ठठाकर हँसता है
बदलता नहीं कानून
किसी के सपनों की ताबीर के लिए
कोई संशोधन नहीं
बस सज़ा मिलती है
इनाम का कोई प्रावधान नहीं
कुछ नहीं कर सकते तुम
या तो जंग करो या पलायन
सभी मेरे अधीन, बस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)
और फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी ज़िन्दगी का वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है। फैंटेसी की कोई नीति नहीं, कोई दायरा नहीं, यह भावनाओं का आखेट है, जो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-
एक कैनवास कोरा-सा
जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग
पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे
रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)
और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैं, फिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-
मन चाहता
भूले-भटके
मेरे लिए तोहफ़ा लिए
काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)
जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि इसकी हिमायती हो जाती है और मगज़ के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा है रूठा हुआ।
इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझने, उसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने-समझाने में है, जो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पॉइंट है और पाठकों के लिए ज़रूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गम्भीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-
नीयत और नियति समझ से परे है
एक झटके में सब बदल देती है
जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)
जेन्नी शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को किस तरह कहा जा सकता है-
‘क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर
अपने वजूद में शामिलकर
जाने कितना इतराया करती थी
कितने सपनों को गुनती रहती थी
अब यह सब बीते जीवन का क़िस्सा लगता है।
हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)
जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता है, यहाँ सयानापन कतई नहीं है, अति सूधौ सनेह को मारग है' घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरज़ोर कोशिश करती, अनुभूतियों के सफ़र में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, ज़िन्दादिली की सूचक है। ''अपनी पीर छुपाकर जीना, मीठा कहकर आँसू पीना'' पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें, जिन्हें जेन्नी शबनम ने सपनों में बचाए रखा है। शायद अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की ‘सबसे ख़तरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम सपनों को ज़िन्दा रखती है और उम्मीद करती है-
शायद मिल जाए वापस
जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)
काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-
प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक
बदन के घेरों में
या मन के फेरों में?
सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है
या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)
‘अलगनी’ उस वातावरण के बारे में है, जो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं।
सन्नाटे के ख़त (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैं, भाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है ही, इसका सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार-बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन ख़तों को पढ़कर अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन ख़तों की आवाज़ साहित्यिक जगत् में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।
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सन्नाटे के ख़त- डा. जेन्नी शबनम, प्रथम संस्करण- 2024, मूल्य- 425 रु
प्रकाशकः अयन प्रकाशक, जे-19/139, राजापुरी,
-भीकम सिंह
दादरी, गौतमबुद्ध नगर
तिथि- 16.5.2025
-0-
- जेन्नी शबनम (25.5.2025)
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