Monday, February 3, 2025

121. 'सन्नाटे के ख़त' (काव्य-संग्रह) की काव्यात्मक समीक्षा -आर. सी. वर्मा 'साहिल'

जनवरी 72025 को मेरे छठे काव्य-संग्रह के विमोचन के अवसर पर आर. सी. वर्मा 'साहिल' जी उपस्थित हुए। साहिल जी हिन्दी और उर्दू के सम्मानीय कवि हैं। इन्होंने रामायण का उर्दू में तर्जुमा कर ऐतिहासिक कार्य किया है। मैंने साहिल जी से आग्रह किया कि मेरी इस पुस्तक पर अपनी प्रतिक्रया दें एवं काव्यात्मक समीक्षा करें। मात्रा तीन दिन में उन्होंने यह लिखकर मुझे भेज दिया। इतनी सुन्दर समीक्षा के लिए साहिल जी का हार्दिक धन्यवाद।

प्रस्तुत है उनकी काव्यात्मक समीक्षा:     

'सन्नाटे के ख़त' (काव्य-संग्रह) की काव्यात्मक समीक्षा 

हैं हाथों में मेरे 'सन्नाटे के ख़त', काव्य की पुस्तक
जहाँ सन्नाटे भी देते दिलों पर भारी इक दस्तक
यह डॉ.  जेन्नी शबनम के लिए है प्यारी कविताएँ 
मुझे लगतीं मगर सारी की सारी बहती सरिताएँ 
या लगता सारे पृष्ठों पर टँके हों क़ीमती गौहर
या इसमें उतरा है कश्मीर का गुलमर्गो-गुलमोहर
मैं करता जा रहा जैसे ही कविताओं का अवलोकन
प्रफुल्लित और हैराँ भी हुआ जाता है मेरा मन
अलंकारित अनूठी भाषा हर कविता में है दिखती
विद्वत्ता और प्रतिभा जेन्नी जी की है हमें मिलती
कहीं है ओज कविता में, कहीं है यास कविता में
कहीं संकट की बातें हैं, कहीं है आस कविता में
कहीं हैं फ़लसफ़े गहरे औ गहरी सोच कविता में
कहीं सख़्ती नज़र आती, कहीं है लोच कविता में
कि अभिव्यक्ति बहुत ही स्पष्ट व सुन्दर नज़र आती
किसी कविता में तो नज़रें ठहर जातीं, ठहर जातीं
यहाँ 'अनुबंध' में अनुबंध कितने ही नज़र आते
है 'भीड़' में भीड़ इतनी ख़ुद को भी हम न नज़र आते
'नाइन्साफी' ख़ुदा की भी नज़र आती है कविता में
'नहीं लिख पाई ख़ुद पे कविता' भी आती है कविता में
बुलाना 'देव' को जो चल दिए घर से विमुख होकर
बताना कष्ट भी उनको, गये जो घर के सुख खोकर
यह है माहौल कैसा 'अब हवा ख़ून-ख़ून कहती है'
न ठण्डक देती है, बस आग के दरिया-सी बहती है
या रब 'इक चूक मेरी' कर गई क्या-क्या सितम मुझ पर
था उनके हाथ में जो भी, गिरा वो बनके ग़म मुझ पर
सनम अब क्यों न हम भी 'लौट के चलते हैं गाँव अपने'
कि झूठे और टूटे हैं शहर के जो भी थे सपने
न 'जाने कैसे' छोटी जात के संग खा निवाला इक
कोई हो जाता छोटा पीके पानी का पियाला इक
मैं अपनी 'भूमिका' ही तो निभाती आ रही अब तक
किए संवाद जो कण्ठस्थ वो दोहरा रही अब तक
यह सच है 'कवच' अपना-अपना हम ख़ुद ही बनाते हैं
और उसमें आदतन फिर क़ैद ख़ुद हम हो ही जाते हैं
यों लगता है कि जैसे आए हैं हम दूर से चल कर
बिताने वक़्त ख़ुद के साथ आए 'वापस अपने घर'
कि मन ये चाहता है भूले-भटके लेके इक तोहफ़ा
मेरे घर भी तो कोई काश! आज 'इक सांता आ जाता'
इसी तरह सभी कविताओं के रंग हैं बहुत गहरे
फ़लसफ़े बहुत गहरे सोच गहरी ढंग बहुत गहरे
बहुत मजबूर करती कविताएँ कुछ सोचने को भी
समझने, सीखने को भी ये और कुछ बोलने को भी
दुआ है जेन्नी जी आइन्दा भी लिखती रहें ऐसे
बढ़ें आगे ही इस पथ पर, क़लम चलती रहे ऐसे

-आर. सी. वर्मा 'साहिल'
तिथि: 10.1.2025
फ़ोन: 9968414848
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-जेन्नी शबनम (3.2.2025)
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