''मैं अपने यक़ीन से अपने भाई को भी वापस ले आऊँगा।'' वास्तविक जीवन में हमेशा जीतने वाला, कई विवादों में उलझा हुआ, बार-बार प्रेम में पड़ने वाला, लड़कियों का क्रश, लड़कों के लिए मसल्स मैन, फ़िल्म निर्माताओं के लिए पैसा कमाने की मशीन 'सलमान खान' ट्यूबलाइट में जब यह डाॅयलाग बोलता है, तब यक़ीन उसके चेहरे पर दिखाई देता है। फ़िल्म फ्लॉप हुई है, मगर तेज़ी से बढ़ती उम्र के सलमान की यह फ़िल्म ग़ौर करने लायक़ है।
ट्यूबलाइट के रिलीज होने से पहले फ़िल्म प्रेमियों में हलचल थी।सलमान की लगभग सभी फ़िल्में हिट होती हैं, भले वे किसी भी भूमिका में हों। अमूमन उनका चरित्र संवेदनशील होता है और अगर मारधाड़ है, तो वह कहानी के अनुरूप आवश्यक होता है। उनकी सभी फ़िल्में दर्शकों के अनुकूल होती हैं और सपरिवार देखी जा सकती है। उनकी फ़िल्मों में न नंगापन होता है, न फूहड़पन। फ़िल्म में अगर आइटम सॉन्ग है, तो वह फूहड़ न लगकर मज़ेदार लगता है।
ट्यूबलाइट के रिलीज होने के दिन फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने से ख़ुद को रोक न सकी। सुबह साढ़े नौ बजे का शो था; मुमकिन है इस कारण भीड़ बहुत नहीं थी, हॉल में कुछ सीटें ख़ाली थीं। सलमान के स्क्रीन पर आते ही हमेशा की तरह युवा दर्शकों ने ताली बजाये और ख़ुश होकर शोर भी किया। फ़िल्म आलोचक को पढ़ने से पता चला कि इस फ़िल्म को दर्शकों का उतना प्यार नहीं मिला, जितना सलमान खान के नाम से मिलता है। मैं कारण नहीं समझ पाई, इस फ़िल्म के पसन्द न किए जाने के पीछे की वज़ह क्या है। फ़िल्म का चित्रांकन, कहानी, पटकथा, लोकेशन, साज-सज्जा सभी बहुत आकर्षक और कहानी के अनुरूप है। कहानी बहुत छोटी है; लेकिन बेहद प्रभावशाली है। मैं सलमान के सभी फ़िल्मों में सबसे ऊपर का स्थान इस फ़िल्म को दूँगी; सलमान की भावनात्मक अदाकारी और मासूमियत के कारण।
ट्यूबलाइट युद्ध ड्रामा फ़िल्म है जिसे कबीर खान ने लिखा और निर्देशित किया है। इसमें एक भोले-भाले बच्चे लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) की कहानी है, जो शारीरिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ है, लेकिन मंदबुद्धि है। कोई भी बात वह थोड़ी देर से समझता है और किसी भी चुनौती से घबरा जाता है, इसलिए सभी उसे ट्यूबलाइट कहते हैं। लक्ष्मण अपने भाई भरत (सुहेल खान) के साथ कुमाऊँ की एक शहरनुमा बस्ती जगतपुर में रहता है।वे अनाथ हैं अतः एक बुज़ुर्ग, जिन्हें वे बन्नी चाचा (ओम पुरी) कहते हैं, उनकी परवरिश करते हैं। कहानी में आज़ादी से पूर्व का भारत दिखाया गया है, जब गांधी जी लक्ष्मण के शहर आते हैं और लक्ष्मण उस समय स्कूल का विद्यार्थी है। गांधी जी द्वारा कही गई बात वह मन में बैठा लेता है कि ''यक़ीन रखने से सब कुछ होता है, ख़ुद पर यक़ीन हो तो चट्टान भी हिलाई जा सकती है और यह यक़ीन दिल में होता है।'' लक्ष्मण के यक़ीन को पहली बार बल तब मिलता है जब शहर में एक जादूगर (शाहरुख़ खान) आता है।जादू दिखाने के दौरान जादूगर लक्ष्मण से एक बोतल को दूर से हिलाने लिए कहता है। दर्शक इस बात पर ट्यूबलाइट कहकर लक्ष्मण का मज़ाक उड़ाते हैं। काफ़ी कोशिश के बाद बोतल हिल जाता है। यों यह जादूगर के हाथ की सफ़ाई है; लेकिन जादूगर कहता है कि उसने अपने यक़ीन की ताक़त से बोतल को हिलाया है। इसके बाद लक्ष्मण में आत्मविश्वास जागता है और कुछ भी कर सकने का यक़ीन उसमें प्रबल हो जाता है। उसकी आँखों में अपनी पहली सफलता पर विश्वास के आँसू आ जाते हैं और वह कहता है कि वह ट्यूबलाईट नहीं है।
वर्ष 1962 में भारत-चीन के युद्ध की पृष्ठभूमि पर फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ती है। भरत का चयन युद्ध में सैनिक के रूप में हो जाता है; परन्तु लक्ष्मण का नॉक-नी (knock knee) के कारण चयन नहीं हो पाता। लक्ष्मण का ख़ुद पर से यक़ीन न टूटे इसलिए भरत कहता है कि उसे जगतपुर का कप्तान बनाया गया है, जिसका काम है इलाक़े की हर ख़बर रखना और जानकारी देना। युद्ध छिड़ चुका है और भरत जंग में शामिल होने चला जाता है। एक चीनी बच्चा अपनी माँ के साथ जगतपुर में रहने के लिए आता है।लक्ष्मण सबको सचेत करने के लिए बताता है कि चीनी आ गए हैं। फिर उसे पता चलता है कि उस चीनी स्त्री के परदादा चीन से आकार भारत में बस गए थे, अतः वह भी सबकी तरह भारतीय है। पर बस्ती के लोग माँ-बेटे को परेशान करते हैं और लक्ष्मण उन्हें बचाता है; क्योंकि वह उस बच्चे से प्यार करने लगता है। गांधी जी की कही हुई बात पर उसे यक़ीन है कि ''अगर दिल में ज़रा भी नफ़रत रहेगी, तो तुम्हारे यक़ीन को खा जाएगी।''
युद्ध के दौरान भरत की मृत्यु की सूचना आती है; लेकिन लक्ष्मण को यक़ीन है कि युद्ध ख़त्म होगा और भाई लौटेगा। लक्ष्मण कहता है ''मैं अपने यक़ीन से अपने भाई को भी वापस ले आऊँगा।'' बन्नी चाचा से वह पूछता है कि और यक़ीन उसे कहाँ मिलेगा; क्योंकि भाई को लाने के लिए उसे बहुत यक़ीन चाहिए। बन्नी चाचा जानते हैं कि यक़ीन से कोई चमत्कार नहीं होता है। फिर भी मासूम लक्ष्मण का हौसला बढ़ाने के लिए कहते हैं ''गांधी जी के क़दमों पर चलो यक़ीन आएगा।'' गांधी जी के आदर्शों की फ़ेहरिस्त बनाकर बन्नी चाचा उसे देते हैं, ताकि उसका ख़ुद पर यक़ीन और बढ़ जाए।
इसी बीच एक संयोग होता है। लक्ष्मण पूरे यक़ीन से एक चट्टान को खिसकाने की कोशिश करता है। गांधी जी की बात को सच मानता है और उसे यक़ीन है कि वह चट्टान को खिसका देगा। उसके इस कोशिश के दौरान भूकम्प आ जाता है और ज़मीन-चट्टान सब काँपने लगते हैं। बस्ती वाले भी यक़ीन करने लगते हैं कि लक्ष्मण अपने यक़ीन से चट्टान को खिसका दिया है। किसी ग़लतफ़हमी के कारण भरत की मृत्यु की ग़लत सूचना आ गई थी।अब भरत वापस लौटता है। लक्ष्मण को पूर्ण विश्वास है कि उसके यक़ीन के कारण ही उसका भाई वापस लौटा है।
आज जो परिस्थितियाँ हैं उसके सन्दर्भ में यह फिल्म प्रासंगिक है। भरत-चीन युद्ध के दौरान जिस तरह से सभी चीनी को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता था, अब वही स्थिति पुनः बन गई है। कोई भी जो यहाँ जन्म लिया है वह भारतीय है, उस पर सन्देह नहीं करना चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म का हो; एक तरह से इस फ़िल्म का सन्देश यह भी है।
हमारा समाज किसी फ़िल्म में क्या देखना चाहता है; इस विषय पर बहुत गम्भीर सोच और बहस की ज़रूरत है। फ़िल्म का हीरो कभी हार नहीं माने, दस-दस गुंडों से अकेले भीड़ जाए, तो दर्शक सीटी बजाते हैं। अगर वही हीरो विवश या असहाय दिखता है, तो आज का दर्शक उसे अस्वीकार कर देता है। भले हीरो के उस किरदार में भावुकता और संवेदनाएँ भरी हुई हों अथवा उस फ़िल्म की कहानी की माँग हो। आज के दर्शक हीरोइज्म में यक़ीन करते हैं और शारीरिक रूप से दबंग हीरो को देखने की चाह रखते हैं। मुमकिन है बजरंगी भाई जान की तरह इस फ़िल्म में सलमान चीन की सरहद पार कर जाते या चीनियों से युद्ध करके भाई को छुड़ाकर ले आते, तो शायद यह भी हिट फ़िल्मों में शुमार हो जाती।
ट्यूबलाइट का फिल्मांकन बेजोड़ है, कलाकारों का अभिनय भी बहुत उम्दा है। सुहेल खान ने अपनी भूमिका बख़ूबी निभाई है। सलमान खान के चेहरे पर इतनी मासूमियत और सौम्यता है कि किसी का भी दिल जीत ले।भावुकता और भोलापन सलमान के अभिनय में कहीं से भी जबरन नहीं लगता, बल्कि सहज लगता है। सुहेल खान पहली बार इस फ़िल्म में मुझे अच्छे लगे हैं। सलमान और सुहेल असल ज़िन्दगी में भी भाई हैं, शायद इस कारण भाइयों के आपसी रिश्तों का दृश्य बहुत जानदार और भावुक बन गया है। शाहरुख खान ने अपनी छोटी-सी भूमिका में अच्छा प्रभाव छोड़ा है। ओमपुरी यों भी एक उम्दा अभिनेता हैं, चाहे जिस भी चरित्र में हों। चीनी माँ-बेटे का किरदार दोनों कलाकारों ने बहुत अच्छा निभाया है।
आजकल अच्छी और प्रेरक कहानियों पर फ़िल्में बन रही हैं और उसे दर्शकों से सराहना भी मिल रही है। साथ ही मारधाड़ की फ़िल्में भी ख़ूब नाम कमा रही हैं। इसलिए दर्शकों की नब्ज़ को पहचानना कई बार फ़िल्म निर्माता के लिए कठिन होता है। बहरहाल ट्यूबलाइट भले ही बॉक्स ऑफ़िस पर असफल कहलाए या सलमान के हिट फ़िल्मों में इसका नाम शामिल न हो, भले ही सफलता की दौड़ में सलमान खान एक बार हार गए हों, लेकिन सलमान के अभिनय के लिए निश्चित ही यह फ़िल्म याद रखी जाएगी। ट्यूबलाइट भले फ्लॉप हुई, पर सलमान सुपरहिट हैं।
- जेन्नी शबनम (17.7.2017)
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सटीक समीक्षा
ReplyDeleteVery good review, Jennie, simple and straight forward. I will watch the film now. Divya
ReplyDeleteकहानी तो अच्छी है, फ़िल्म भी अच्छी होगी । आपने फ़िल्म समीक्षा करके कुछ तो दर्शक बढ़ा ही दिये हैं :)
ReplyDeleteबढ़िया समीक्षा
ReplyDeleteबहन जेन्नी जी आपने फ़िल्म की समीक्षा बड़े अच्छे ढंग से की है। आपके चिन्तन से मैं बहुत प्रभावित हूँ। बहुत बधाई !
ReplyDeleteAdbhut Avlokan . Badhaaee Aur Shubh Kamna .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर फिल्म समीक्षा...
ReplyDeleteबहुत अच्छा वर्णन, फिल्म देखी नहीं लेकिन सब कुछ सामने से गुजर गया।
ReplyDeleteफिल्म की सुन्दर विवेचना की है आपने जेन्नी जी.
ReplyDeleteआभार.
बढ़िया प्रस्तुत जेन्नी जी , अब तो फिल्म देखनी होगी !
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